‘उर्वशी’—एक दृष्टि
- 1 April, 1964
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- 1 April, 1964
‘उर्वशी’—एक दृष्टि
कसाव तथा ढिलाव के बीच की स्थिति में अवस्थित वीणा के तारों से झंकृत रागिनी के शुभ्र कल्लोल में किसी को समन्वयवाद का संदेश मिलता है, तो कोई प्रकृति के विचित्र विधान पर मुग्ध होता है। भावना अपनी होती है और आधार पुराना। कथानक यदि प्राचीन है, तो कवि की महत्ता इसमें है कि उसे प्राचीन रहते हुए भी आधुनिक बना दे। गंगा वही है और वही रहेगी। भले ही उसके मार्ग बदल जाएँ, उसके कूल परिवर्त्तित हो जाएँ, पर तब भी वह गंगा ही कहलाएगी। प्राचीन कथानक को आधुनिक बनाना आसान है, पर उसके पुरातन रूप के साथ-साथ उसे आधुनिकता का ताना-बाना पहनाना आसान नहीं। इस दृष्टि से दिनकर प्रणीत ‘उर्वशी’ एक सफल काव्य माना जा सकता है। उसमें ‘साकेत’ की-सी असफलता नहीं है। वन-प्रांत में खुरपी लेकर वृक्षों के रूप सँवारने वाले राम तथा चरखा कातती हुई सीता कुछ फबती नहीं। उनसे गाँधी युग से प्रेरत नवीन स्फूर्ति से संचारित युवक और युवतियों की झाँकी तो अवश्य मिलती है, पर मर्यादापुरुषोत्तम और राजमहल में रहनेवाली सीता के रूप का भाव-संचार नहीं हो पाता। अर्थात् गंगा, गंगा नहीं लगतीं। पौराणिक आधार को लेकर चलने वाले साहित्य में आधार का विस्मरण एक महान भूल है। ‘उर्वशी’ इस भूल से सर्वथा मुक्त है।
उर्वशी तथा पुरुरवा की कथा ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, विष्णु पुराण, पद्मपुराण, मत्स्य पुराण, श्री मद्भागवत, हरिवंश पुराण तथा कथासरित्सागर में प्राप्त होती है। ऋग्वेद में तो केवल पुरुरवा और उर्वशी को लेकर दस-बारह मंत्र लिखे गए हैं, जिनमें से कथा का अंश थोड़ा बहुत निकाला जा सकता है, किंतु अन्य ग्रंथों में कथा कथारूप में मिलती है।
‘विक्रमोर्वशीय’ में कालिदास ने अपनी कल्पना को खुली छूट दी है। चौथे अंक में कालिदास ने ऐसा प्रसंग खड़ा कर दिया है कि उसमें गीतात्मक काव्य की प्रतिभा के विकास का अच्छा अवसर मिला है। राजा उर्वशी के विरह में विकल घूमता है। कालिदास की रचनाओं में प्रकृति मनुष्य के हर्ष और शोक में हिस्सा बटाती-सी चित्रित की गई है। ‘विक्रमोर्वशीय’ में भाषा का प्रांजल्य एवं छंदों का निखार अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। पर मूल में कथानक का प्रस्तुतीकरण अत्यंत अस्वाभाविक है। प्राचीन कथानक ज्यों-का-त्यों थोड़े संशोधन के साथ स्वीकार कर लिया गया है। उसमें कोई और विशेष क्रांति नहीं हुई है–और शायद क्रांति की आवश्यकता भी नहीं थी। पर आज की स्थिति दूसरी है। पुरातन जीवन के मानदंड आज बदल गए हैं। औशीनरी, पुरुरवा की पहली पत्नी थी। ‘विक्रमोर्वशीय’ में सती, साध्वी तथा पतिव्रता के रूप में चित्रित की गई है। उसे कहीं-कहीं ईर्ष्यालु के रूप में चित्रित किया गया, पर उसमें स्वाभाविकता के स्थान पर अस्वाभाविकता अधिक है। पति की खुशी के लिए वह उन्हें उर्वशी से मिलने तक की अनुमति दे देती है। पर आज का बुद्धिवादी युग यह अत्याचार सहन नहीं कर सकता। ‘उर्वशी’ की औशीनरी भी पतिव्रता है। अंत तक वह पति के कार्यों में कुछ दखल नहीं देती। यह तो हुआ पुरातन आधार। पर यदि कवि यहीं तक रुक गया तो ‘उर्वशी’ भी प्राचीन कथा का उपसंहार बन कर रह जाती। अपनी सखियों के साथ वार्तालाप करते समय वह उर्वशी पर आरोप करती है ‘पुरुषों को दे मोद, प्राण वे वधुओं का ले लेती हैं।’ वर्त्तमान युग प्रत्येक कर्म को मनोविज्ञान के चश्मे से देखता है। रानी भी राजा को कम, परपुरुषों के मनोविज्ञान पर अधिक छींटे कसती है। अंत में सोचते-विचारते वह इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि ‘यह प्रेम हृदय की बहुत बड़ी उलझन है। ‘जो अलभ्य, जो दूर, उसको अधिक चाहता मन है।’ प्राचीन कवियों में ऐसी समस्यात्मक एवं मनोविश्लेषणात्मक उक्तियाँ बहुत कम मिलेंगी क्योंकि उनका उद्देश्य मुख्यतः भावनाओं का चित्रण रहता था। पर आज का युग विश्लेषण का युग है और शायद इसीलिए आज की कविता प्राचीन काव्य की तुलना में कम सुकुमार और मधुर है। उर्वशी में भी इस प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं, पर संतुलित रूप में। औशीनरी झंडा उठा कर पुरुरवा के विरोध में नारी-सभा का प्रतिनिधित्व करती हुई यहाँ नहीं चित्रित की गई है क्योंकि कवि के जोश में नियंत्रण है।
‘उर्वशी’ की नायिका संघर्षशील समाज में अपने स्वत्व की रक्षा करती हुई पाई गई है। गर्भवती होते ही प्रियतम से छिपा कर महर्षि च्यवन के आश्रम में पुत्र को जन्म देती है। कुछ वर्षों बाद पति से छिपाकर महर्षि के पावन आश्रम में पलते हुए अपने पुत्र को ललकते नेत्रों से देखती है। फिर भी पुत्र और पिता का संयोग नहीं होता, क्योंकि इसका तात्पर्य होगा कि उर्वशी का पति से विरह। विवश, वेदना की मारी उर्वशी पुत्र को आश्रम में छोड़कर पुनः पति के पास चलने लगती है। सुकन्या के यह पूछने पर कि क्या वह प्रिय के आलिंगन में बँधने जा रही है, वह उत्तर देती है–
‘उस बंधन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा, प्राणों को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ।’ वात्सल्य के पवित्र रस से सिक्त हो उर्वशी का प्रेम अधिक परिपक्व हो गया है। प्रेम की सार्थकता वात्सल्य की परिणति में है। वात्सल्य में हृदय का विभाजन होता है और यही विभाजन प्रेम की अंतिम सफलता है। नारी पति के समान अपनी संतान को भी चाहती है। संसार के संपूर्ण वैभव को वह ठुकरा सकती है, पर इन दोनों से दूर रहना उसके लिए संभव नहीं है। इस विषम परिस्थिति के सृजन के कारण उर्वशी एवं पुरुरवा का विरह बच्चों के खेल-सा नहीं लगता। उनका विरह ‘विक्रमोर्वशीय’ की नायक-नायिका के विरह-चित्रण से कहीं अधिक गंभीर, उदात्त एवं मनोवैज्ञानिक है। भावुकता के चित्रण की सफलता उसकी गंभीरता में है। यदि नायक तथा नायिका की भावुकता उच्छृंखल हो जाती है तो उसमें विरह के स्थान पर कभी-कभी तो हास्य रस का बोध होने लगता है। यद्यपि कालिदास की भावुकता ऐसी सस्ती एवं बनावटी नहीं है, तब भी उसमें वह गंभीरता नहीं है जो उर्वशी में पाई जाती है। विरह में वह उबाल, वह तड़प नहीं है, जो उर्वशी में मिलती है। सभाभवन में ज्योतिषी, राजा तथा सभासदों के वार्तालाप से उर्वशी व्याकुल हो उठी। भावी विरह की संभावना शूल के समान हृदय को छेदे जा रही थी। गोली खाकर मरने वाले को उतनी वेदना नहीं होती, जितनी आजन्म कैदी को। शाप के पूर्ण होने वाली तिथि अचानक आ गई। मुनि-पत्नी पुरुरवा के पुत्र को ले राजभवन में उपस्थित हुई। पिता-पुत्र का मिलन हुआ। सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं। मिलन के पीछे छिपी रहती है विरह की तीव्र ज्वाला। पति-पत्नी का विरह हुआ। उर्वशी लुप्त हो गई। राजा व्याकुल हो उठे। पर मर्यादा का उन्हें ध्यान था। क्षात्रधर्म के अनुसार उत्तेजित हो, इंद्र पर आक्रमण कर अपनी प्रिया को खोजने का निश्चय किया। पर यहाँ भी विवेक साथ नहीं छोड़ता। अंततोगत्वा राजा ने आत्मा के संदेश को सुना तथा आयु को राज्य सौंप कर संन्यास ग्रहण कर लिया। पर हृदय प्रिया की मधुर याद की गुदगुदी से व्यथित था। गंभीर मंथन से छिछलापन चला जाता है। सूई के चुभ जाने पर, कोई इतना हाय-तोबा मचाए कि लगे कि उसका कोई अंग भंग हो गया है, तो वह चिल्लाना क्या शोभनीय होगा? पुरुरवा का विरह उनकी मर्यादा के अनुकूल है। अमृत का प्याला तो सभी पी सकते हैं, पर जहर का प्याला पी लेने के बाद भी शांतचित्त रहना कठिन है। पुरुरवा का विरह, हृदय की तड़प है, दिखावे की वस्तु नहीं। इनके आँसू दिल के आँसू हैं, किराए के नहीं। उनकी पीर अपने लिए है, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं।
‘विक्रमोर्वशीय’ की कथा, कथा मात्र लगती है। उसके नायक हमारे अपने से नहीं लगते और पूर्णतया लग भी नहीं सकते क्योंकि परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं। पर यदि कहा जाए कि ‘विक्रमोर्वशीय’ की कथा मानव जीवन के व्यावहारिक धरातल को स्पर्श नहीं करती तो यह अनुचित न होगी। मानव हमेशा से जागरूक रहा है, चाहे वह दिनकर के समय का हो और चाहे कालिदास के समय का। उर्वशी अप्सरा को देखकर ‘विक्रमोर्वशीय’ के नायक में प्रेम तो भले जगा, पर वह कौन है इसे जानने की उसे अधिक चिंता नहीं। उर्वशी की सखियाँ तथा स्वयं उर्वशी मृत्युलोक को जानने के प्रति अपनी कोई जिज्ञासा ही नहीं प्रकट करतीं। बस उन्हें प्रेम में उन्मत्त ही दिखाया गया है। दोनों ने एक दूसरे की परिस्थिति समझाने की कोई चेष्टा ही नहीं की। पर उर्वशी के नायक और नायिका दोनों ही, एक दूसरे के वास्तविक रूप को जानने के लिए उत्सुक हैं। राजा की उत्सुकता को शांत करने के लिए उर्वशी कहती है–
‘मैं नहीं सिंधु की सुता, मैं नहीं गगन की लता।’
और अंत में पूर्णतः स्पष्ट कर देती है–
‘मैं देश काल से परे चिरंतन नारी हूँ।’
उत्तर में राजा कहते हैं–
“न तो पुरुष–मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूल सत्ता के।”
“नारी के भीतर एक और नारी है तथा पुरुष के भीतर एक और पुरुष है। यह स्थिति तब प्राप्त होती है जब इंद्रियों का अतिक्रमण कर, हम अतींद्रिय धरातल का स्पर्श करने लगते हैं। यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है। स्वयं कवि के शब्दों में ‘श्रेष्ठ कविता फिजीकल को लाँघ कर मेटा फिजिकल हो जाती है।’ पुरुरवा एवं उर्वशी का प्रेम मात्र शारीरिक धरातल तक ही सीमित नहीं है। वह शरीर से जन्म लेकर मान और प्राण के गहन गुह्यलोकों में प्रवेश करता है, रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य तथा आत्मा के अंतरिक्ष में विचरण करता है। पुरुरवा देवत्व को प्राप्त करना चाहता है, इसलिए क्षणभंगुर संसार के नाना सुखों से वह व्याकुल है, बेचैन है। उर्वशी अप्सरा है, स्वर्ग लोक की निवासिनी। वह ‘निजीव स्वर्ग को छोड़ भूमि की ज्वाला में जीने आई थी।’ एक अन्य स्थान पर मानव की महत्ता प्रतिपादित करती हुई कहती है कि ‘यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल और ज्वलित भी है। वह एक साथ जल-अनल, मृति-महदंबर, क्षर-अक्षर भी है’ उसके अनुसार द्वैतता मन की कृति है, वास्तव में द्वैतता प्रकृति में नहीं है। मन अपने प्रपंचों से सांसारिक जगत को दुरूह तथा कठिन बना देता है। प्रकृति तथा ईश्वर में वास्तव में कोई भी द्वंद्व नहीं है। द्वंद्वों का आभास द्वैतमय मानस की रचना है। आधुनिक युग के महान दार्शनिक कांट ने भी तो यही कहा था। उनके अनुसार संसार के विभिन्न प्रपंच मानव मन की सृष्टि है। उनके अनुसार एक परम तत्त्व है जिसे उन्होंने ‘Ding Un Sich’ का नाम दिया। मन अपनी विभिन्न कोटियों (Categories) के द्वारा ही इसी मूल तत्त्व पर संसार के प्रपंचों का निर्माण करता है। भाव में आकर उर्वशी उफन पड़ती है–
‘मूढ़ मनुज! यह भी न जानता तू ही स्वयं प्रकृति है!’
आधुनिक युग की संपूर्ण प्रवृत्तियाँ, उर्वशी में मूर्तिमान हो उठी हैं। कवि युग का द्रष्टा भी होता है और स्रष्टा भी। द्वितीय प्रकार का कवि युग की परिस्थितियों का वर्णन कर उन्हीं में से एक नवीन आदर्श की सृष्टि करता है। उस युग की कमी को दूर करने का प्रयास करता है। युग स्रष्टा कवि इस दृष्टि से सुधारक भी होता है। पर पहले प्रकार का कवि युग की परिस्थितियों से अपने में मेल पाता है, विरोध नहीं। उसका निर्माण स्वयं युग के द्वारा ही होता है। मूलरूप में वह उस युग के सिद्धांतों को ज्यों-का-त्यों ग्रहण कर लेता है। ऐसा कवि युग का दास होता है। उस युग के संपूर्ण मानदंडों में हाँ में हाँ मिलाने में उसे आनंद आता है। उस युग के परिप्रेक्ष्य से भले ही हम उसे दास कह लें, पर पुरातन युग के परिप्रेक्ष्य से वह क्रांतिकारी कहलाएगा। पर युगद्रष्टा कवि द्वितीय श्रेणी का क्रांतिकारी है, प्रथम श्रेणी का क्रांतिकारी तो युगस्रष्टा कवि ही होता है। इस दृष्टि से दिनकर (विशेषतः ‘उर्वशी’ के दिनकर) युगद्रष्टा कवि की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। आधुनिक युग के विभिन्न उपादानों से उर्वशी के भावनात्मक पक्ष का निर्माण हुआ है।
दिनकर ने यदि युग से कुछ लिया है; तो कुछ उसे दिया भी है। लेखक के विचार में वर्तमान हिंदी काव्य अति बौद्धिक एवं मेटाफिजीकल होने के कारण नीरस होता जा रहा है। इस नीरस धारा के कवि ने उर्वशी में शृंगार रस के प्रधान तत्त्व को ले आधुनिक हिंदी कविता की सोई सरसता को जगा दिया है। बुद्धि और हृदय, तर्क और प्रज्ञा, सरसता और नीरसता, नियंत्रण एवं उच्छृंखलता का सुंदर समन्वय ‘उर्वशी’ में हुआ है। इसकी शृंगारिकता कालिदास की शृंगारिकता के समान केवल वासनात्मक नहीं है वरन् आध्यात्मिक भी है और यह आध्यात्मिकता स्वाभाविक है। उसमें दर्शन की गंभीरता है, धर्म की संकीर्णती नहीं।
आधुनिक युग की सर्वश्रेष्ठ काव्यकृतियों–साकेत, कामायनी, कुरुक्षेत्र एवं उर्वशी में से, सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान ‘उर्वशी’ का ही है। यद्यपि ‘कामायनी’ भी उक्त तत्त्वों का अच्छा समन्वय प्रस्तुत करती है, और कुछ दृष्टियों से ‘उर्वशी’ से अधिक महत्त्वपूर्ण भी कही जा सकती है तथापि ‘उर्वशी’ में इन गंभीर तत्त्वों के साथ-साथ उस स्वाभाविक हल्केपन को भी स्थान मिला है, जो मानव, मुख्यतः साधारण मानव की अपनी निधि है। हल्के और भारी, निम्न एवं उच्च, उच्छृंखल एवं नियंत्रित भावों का समन्वय ‘उर्वशी’ को निस्संदेह एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान कर देता है।