निशानियाँ
- 1 June, 1950
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- 1 June, 1950
निशानियाँ
यह मिर्जापुर का जिला जेल!
जेल, जानवरों की श्रेणी में गिने जाने वाले, कसूर वाले कैदियों का दौलतखाना! भीतर रहने वालों की बात तो नहीं मालूम पर वे ही कैदी जब बाहर होते हैं तो मुस्कुराकर कानी ऊँगली इसके फाटक की ओर दिखा कर कहते हैं–ससुराल!
पर सभी ससुराल कहने में गुदगुदी का अनुभव नहीं करते। एक श्रेणी के कैदी और हैं जो कभी जिक्र छिड़ने पर कहेंगे–कृष्ण नगर! वे इसका संबंध महाभारत युग में कंस के जेलखाने से जोड़ते हैं।
ठीक भी है, वहाँ तक, उतनी ऊँचाई तक सोच सकते हैं। मेरा इशारा है पढ़े-लिखे बाबुओं की ओर, जो ‘सुराजी कैदी’ बनते थे।
आज अचानक एक घटना घट गई। किस तरह किसी का भाग्य लौटता है, इसकी बात है।
भला सोचिए किसी जेलखाने का क्या महत्त्व हो सकता है। पर नहीं, आज एक रहस्य खुला है और अचानक इस जिले के जेल का महत्त्व कई गुना बढ़ गया है।
जेल के फाटक के सामने ही बस का अड्डा है! आज जब बस रुकी तो गला तर करने को शरबत या लस्सी की तलाश में उतर पड़ा। उधर पान की छोटी-सी दूकान दिखी तो बढ़ गया। वहाँ दूकानदार के अलावा एक और व्यक्ति बैठा था। सुर्ती बना रहा था। गलमुच्छों से रोब बरस रहा था। देख कर मैंने सोचा, यह मिर्जापुर! यहाँ पहलवानी का शौक साधारणतया अधिक है। शायद यह भी कोई पहलवान है। मैंने दूकानदार से शरबत बनाने को कहा और सिगरेट जलाकर बुझी हुई माचिस की सींक फेंकी, तभी मेरी नजर जेल के फाटक पर पड़ी। सफाई हो रही थी। धारीदार जाँघिया-कुर्ता पहने कैदी बड़ी तत्परता से चूना कर रहे थे, ज़मीन बराबर हो रही थी। पानी का छिड़काव हो रहा था।
अचानक मैं पान वाले से पूछ बैठा–“कोई जलसा है?”
पान वाला उत्तर देता उसके पूर्व ही वह गलमुच्छों वाला पहलवान बोल उठा–“बाबू घूरे के भी दिन लौटते हैं।”
यह कहावत मैं पहले भी सैकड़ों बार सुन चुका था। पर आज इस पहलवान के कहने में कुछ अधिक और विशेष महत्त्व का भास हुआ। शायद इसके तह में कोई बात हो।
मैं उस पहलवान का मुँह ताकने लगा?
उसने शायद मुझसे कुछ सुनने की आशा रखी हो, परंतु जब मैं मौन ही रहा तो उसने कहा,
“बाबू साहब, बाल पक गए हैं इस जेलखाने की जमादारी करते हुए।”
तो समझा कि यह इस जेल के जमादार हैं। उसने आगे कहा–“सत्रह साल पहले एक दिन के लिए अँग्रेजी सरकार ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को यहाँ बंद किया था। उसी कोठरी की, जिसमें वे रहे थे, मरम्मत हुई है, पक्की कर दी गई है। कल यहाँ प्रांत के एक मंत्री आने वाले हैं, इसीलिए यह सजावट हो रही है। उन्हें जवाहरलाल की वह कोठरी भी दिखाई जाएगी। कौन जानता था कि उस समय का वह बाबू कैदी आज इतने बड़े सल्तनत का बादशाह हो जाएगा। हमने भी एक बार उन्हें डाँटा था।”
यह अंतिम वाक्य कहते हुए पहलवान जमादार के चेहरे पर एक लज्जापूर्ण मुस्कुराहट खेल गई। वह जैसे कहने में बुरा समझ रहा हो, पर कहने की विवशता रही।
मैंने तनिक झटक कर कहा–“तो इसमें क्या खास बात है। मेरे इलाहाबाद में तो जवाहर लाल जी ने अपनी जवानी, अपनी जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा गुजारा है। वहाँ की एक-एक गली उनसे परिचित है, तो क्या सब जगह इसी तरह पक्की इमारत बनाई जाए।”
“लेकिन हमारे जेलखाने के लिए वह एक दिन तो जन्म-जन्म की निशानी बन गई है बाबू!” जमादार ने कहा।
मैं विवश हो उस निशानी पर सोचने लगा। एक दिन, एक निशानी! यही मनोदशा रही तो क्या एक दिन यह जेलखाना भी बड़ा सरकारी दफ्तर बन जाए!
मैंने सिर झटक कर यह बात अपने दिमाग से फेंक निकालना चाहा। शरबत मैं पी चुका था। पैसे चुका दिए।
बस पर से मेरा सामान उतर चुका था। मैं उधर बढ़ा, तभी एक रिक्शावाला चीख उठा–“बाबू, ले चलूँ!”
उसकी चीख ने मेरा ध्यान झकझोर दिया। मैंने गौर से देखा, जाँघिया, गंजी पहने वह कलूटा-सा जवान, रिक्शे की सीट पर बैठा मेरी ओर सिफारिश की निगाह से देख रहा था–उसके पीछे कई रिक्शे वाले बिल से निकलकर चींटों की तरह बढ़े आ रहे थे। उसकी चीख का यही कारण था कि मुझे कोई रिक्शा वाला न बुला ले।
मैंने अपना सामान उसे बता दिया और उसने उसे रिक्शे पर लाद लिया। फिर मैं भी सवार हुआ और वह शहर की ओर चला।
सड़कें बड़ी खराब थीं। हर कदम पर रिक्शा इतनी तेजी से उछल जाता था और हमें जो धक्का लगता था उससे तबीयत दुरुस्त हो जाती थी।
तभी रिक्शा वाला बड़बड़ा उठा–“क्या इंतजाम है। हर साल बारह रुपया टैक्स देता हूँ। और सड़क भी पक्की नहीं होती।”
मैंने समझा कि यह आदमी दिलचस्प है। बात को बढ़ाने के लिए मैंने कहा–“तो क्या चाहते हो कि सब काम छोड़ कर सबसे पहले सड़क ही पक्की की कराई जाए!”
“यह मैं नहीं कहता परंतु जेल की कोठरियाँ पक्की कराने से ज्यादा जरूरी है सड़क पक्की कराना।”
बात ठीक थी, तर्क की गुंजाइश नहीं थी। मैंने कहा–“वह कोठरी निशानी है, एक दिन की, एक कैदी की जो बादशाह हो गया है।”
मेरी इस बात ने जैसे उनके हृदय के किसी घाव को कुरेद दिया, वह तनिक टीस के स्वर में बोला–“निशानियाँ! मेरे पास भी उससे बड़ी निशानी है। जब मैं पढ़ता था…।”
मैंने बीच में ही टोका–“तुम कितना पढ़े हो।”
“आठवीं क्लास में फेल हो गया था तब से छोड़ दिया।”
“क्यों ? छोड़ा क्यों?”
“छोड़ता न तो क्या करता। उसी साल माँ मर गई। खाने का ठिकाना ही नहीं था, पढ़ता तो क्या!”
“तो और कोई काम क्यों नहीं किया ? यह रिक्शा?”
“और क्या करता ? दफ्तरों में चपरासी की जगह मिलती थी। पच्चीस रुपए की। बाद में बरफ की दूकान रखी थी सो उधार इतना चढ़ गया कि क्या बताऊँ। अब रिक्शा में साढ़े तीन चार रुपया रोज बचा लेता हूँ। मजे से कटती है।”
“हाँ ठीक है, पर तुम्हारी निशानी?”
“हाँ एक निशानी है मेरे पास। जब मैं सातवीं क्लास में था तब एक बार पं. जवाहर लाल मेरे स्कूल में आए थे। तब दस्तखत लेने की चाल थी। अट्ठारह आने की एक दस्तखत वाली कॉपी लेकर हमने भी उनकी दस्तखत ली थी। वह अब तक है। उस कॉपी में और भी नेता लोगों के दस्तखत हैं। विलायत से तीन क्रिकेट के ‘चैंपियन प्लेयर’ आए थे, उनके भी हैं। जब मैं नौकरी खोजने निकला था तब नौकरी तो नहीं मिली लेकिन एक प्रोफेसर साहब उस कॉपी को खरीदना चाहते थे। सौ रुपया दे रहे थे। लेकिन मैंने नहीं दी, अगर उस हस्ताक्षर की कीमत है तो शायद जवाहर लाल और बड़े आदमी हो जायँ तो और कीमत बढ़ जाएगी दस्तखत की। सो इसीलिए नहीं दिया। सुना है गाँधी जी की मौत के बाद उनके दस्तखत हजार-हजार रुपए के बिके हैं। सो मैं भी एक दस्तखत बचा कर, सहेज कर रखे हूँ। और अगर न भी बिकी तो एक निशानी तो है हमारे स्कूल के दिनों की।”
मैं सोचने लगा–यह भी एक निशानी है। आज निशानियाँ बचा कर रखने का ही जमाना है।
तब तक मैं अपने मित्र के घर जिनके यहाँ जाना था, पहुँच गया। वे यों तो हमारे कॉलेज के साथी हैं। पहले क्या थे सो कहना या सोचना ही शर्म की बात है। बस यही समझिए कि कई महीनों हमींने अपने पैसे बचा कर उनकी फीस भरी थी अब वे यहाँ के मशहूर वकील हैं। कांग्रेसी हैं। दो बार जेल गए थे–अब एम. एल. ए. हैं।
उनका अब अपना एक आलीशान बँगला है। बाहर बगीचा है। फाटक पर ही रिक्शा रोक कर मैं भीतर दाखिल हुआ। बगीचे की क्यारियों से आती भीनी सुगंध ने उनके वैभव की सूचना दे दी।
थोड़ा आगे बढ़ा तब एक माली मिला। मैंने मित्र का नाम लेकर, नाम के साथ ‘बाबू’ शब्द जोड़ कर पूछा तो “आप बैठिए; मैं खबर करता हूँ” कह कर उसने बरामदे में पड़ी बेंत की कुर्सियों की ओर इशारा किया।
मैं पिछले साल भी आया था पर तब से अब में फर्क है। मैं बरामदे में बैठ गया और मेरे कानों में भीतर के कमरे से आते गृह-युद्ध के कुछ वाक्य पड़े और मैं सतर्क होकर सुनने लगा। मित्र की आवाज पहचान गया, जिसके साथ कितना रहा हूँ क्या उसे भी न पहचान पाता! हाँ यह दूसरी आवाज उसकी पत्नी की थी।
मित्र महोदय बिगड़ रहे थे–“क्या कभी मैंने सोचा था कि यह अच्छे दिन भी आ सकते हैं? अरे बरसों मैं एक शाम भूखा रहकर पढ़ा था। तब कभी यह न सोचा था कि वह दिन भी आएँगे जब अपना बंगला होगा यह बाग होगा। मोटर होगी, शोहरत होगी, इज्जत होगी। नौकर-चाकर होंगे। मैं तो कहता हूँ कि मेरे न रहने पर यही मेरी यह निशानियाँ देशभक्ति और मेरे त्याग की यह निशानियाँ–लोग देखेंगे और भारत की आजादी के साथ इसे भी याद करेंगे।”
मैं बैठा सुन रहा था। वे कहे जा रहे थे। तभी क्षीण आवाज में उनकी पत्नी ने कहा–“परंतु यह सब किसके बल पर, किसके लिए यह निशानियाँ?”
कड़क कर मेरे मित्र महोदय ने बताया–“वाह, काँग्रेस के साथ आजादी की लड़ाई में सदा आगे बढ़ कर लड़ता रहा। जेल की सूखी रोटी चबाई। तुमसे, घर से बरसों दूर रहा। और इन्हीं सब त्याग का यह फल है। लेकिन एक तुम हो कि जिसमें कोई परिवर्तन नहीं। जैसी दुखियारी पहले थी वैसी ही अब हो। न कभी कोई अच्छी साड़ी, न जेवर! आखिर तुम्हीं जब इसके प्रति उदासीन रहोगी तो क्या मुझे छाती पर लाद कर ले जाना है। घर के जो जेवर-गहने थे सब तो दुर्दिन में बिक गए पर जो कुछ अब अच्छे दिन आए हैं उसमें तो फिर बनवा लेना चाहिए। पिछली बार कहा तब भी तुमने न लिया, न बनवाया और मुझे ही सोने की घड़ी खरीदनी पड़ी। अब भी तुम नानुकुर करती हो। आखिर कल मंत्री आवेंगे, अपने मेहमान बनेंगे। भला बताओ, क्या इसी तरह उनके सामने जाओगी?”
तभी बहुत धीरवाणी में पत्नी ने कहा–“हाँ, यों ही कोई बुरा नहीं है। अपने-अपने सोचने का ढंग है। आपलोग तो हवा में किले बनाते हैं। हवा पीकर फूलते हैं। पर मैं नहीं। आपने इमारत बनाकर निशानी बनाई है पर मैं तो एक निशानी, जो बनानी थी वह युगों पहले बना चुकी हूँ।”
“वह क्या?”
“तुम जब पहली बार पकड़े गए थे, तब अपने सारे गहने बेचकर तुम्हारा जुरमाना भरा था। क्या याद नहीं? और एक बार जो गहने इस देह से उतर गए–वही मेरी निशानी है। फिर बनवा कर, पहन कर भला क्यों उस प्रिय स्मृति, मधुर निशानी को मिटाऊँ।”
इतना सुनते ही मेरे कान झन्ना उठे। फिर मुझे मित्र महोदय की आवाज़ न सुनाई पड़ी। मैंने आसपास नजर दौड़ाई, वह माली भी नहीं था। रिक्शे का सामान भी नहीं उतरा था। लौट कर रिक्शे पर बैठा और कहा “भाई स्टेशन वापस चलो!”
“क्यों, नहीं मिले बाबू जी?” रिक्शे वाले ने प्रश्न किया।
“नहीं।” कह कर रिक्शे वाले को चुप करने के अलावा भला और चारा ही क्या था।
रिक्शा बढ़ चला और मित्र-पत्नी के शब्दों में हवा पीकर फूलने वाले आज के आदमी की निशानियों को मैं सोचता रहा। जेल की निशानी, रिक्शे वाले की निशानी, मित्र की निशानी, मित्रपत्नी की निशानी–
ये भिन्न-भिन्न मानव!
भिन्न भिन्न निशानियाँ!!