कैकेयी
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- 1 April, 1950
कैकेयी
माइकल मधुसूदन ने ‘मेघनादवध’ काव्य की रचना करके कहा था–‘मेघनादे जयडालि : लक्ष्मणेर मुखे कालि!’ ‘प्रभातजी ने अपने ‘कैकेयी’ काव्य में कैकेयी का चित्रण उसी प्रकार एक विलक्षण ढंग से किया है। यहाँ कैकेयी का नैश चिंतन देखिए–
रजनी की छाया दीपोज्वल
जग-मग करता था राज-महल
कैकेयी का सुख शयन-कक्ष
लज्जित सुर-पुर जिसके समक्ष
बन अपनी ही नीरव उपमा
शोभा को देता था सुषमा
सज्जित, सुरभित सित शय्या पर
लेटी थी रानी, शिथिल अधर
दृग खुले, पुतलियाँ अविचल-सी
नव-नव विमुद्र नीलोत्पल-सी
संगीत नहीं–था शून्य व्याप्त
मानों उत्सव चुप–हो समाप्त
गुंजित-सा निर्मम वर्तमान
आतप के जलते नम-समान
वह वर्तमान जिसका प्रतिक्षण
अभिशाप बन गया था भीषण
लेटी थी रानी, नींद कहाँ
मन दौड़ रहा था यहाँ वहाँ
विक्षिप्ता-सी वह लगती थी
चिनगारी एक सुलगती थी
बस, यही प्रश्न था–राह किधर
बहता है काल प्रवाह किधर
है कहाँ छिपा मानव-प्रकाश
कल्याण-कुसुम का विमल हास
क्यों आँसू चुपके बहते हैं
क्यों भाव मौन यों रहते हैं
करुणा को क्यों अंगार मिला
उत्पीड़न का उपहार मिला
क्यों मिला ध्वंस, निष्ठुर ज्वाला
मानवता को विष का प्याला
जीवन-मंगल की परिभाषा
या कोई तिरस्कृता आशा
क्यों मौन गगन, क्यों मौन दिशा
नक्षत्र मौन क्यों मौन निशा
रे, क्यों गति-हीन प्रभंजन हैं
क्यों बंद हाय! युग-गर्जन है
युग-धर्म सो रहा आज कहाँ
गौरव-रक्षा के साज कहाँ
मस्तिष्क न देता था उत्तर
रानी की नौका बीच भँवर
लहरों पर लहरें आती थीं
भीषण रव कर टकराती थीं
लहरों पर लहरें आती थीं
घन-माला-सी लहराती थीं
कुछ क्षण यह क्रम, फिर परिवर्तन
दल-के-दल उतरे निद्रा-घन
काले-काले पर फैलाए
रानी की पलकों पर छाए
वह भोलाभाला-सा मुखड़ा
जिस पर चिंता का चाँद जड़ा
था नीरव या कुछ बोल रहा
तम-पट भविष्य का खोल रहा
हिलते थे पल्लव अधर कभी
बन गीत-प्रतिध्वनी, लहर कभी
अलि-अलकें या सर्पिणीशक्ति
चुप घेर क्रांति-आनन सभक्ति!
उर खौल-खौलकर शांत हुआ
पर काल-चक्र कब क्लांत हुआ
कर भाराक्रांत अचल चल को
भू-मंडल और ख-मंडल को
चलता ही रहता वह निर्भय
हो हार किसी की या कि विजय
क्या पूर्ण प्रलय या नित्य प्रलय
वह चलता ही रहता निर्भय
Image Source: WikiArt
Artist: Raja Ravi Varma
Image in Public Domain