नेपथ्य
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- 1 February, 2016
नेपथ्य
शेषनारायण का मन सुबह से ही घर पर अच्छा नहीं लग रहा था। शाम होते ही उसने सोचा बाहर घूम आए। लोगों से मेल मुलाकात होगी तो अच्छा लगेगा। घर से निकलकर बाजार जाने वाली सड़क की तरफ पैदल चलने लगे। कुछ दूर चलने के बाद और आगे चलने का मन नहीं कर रहा था। घर की तरफ लौटने लगे। थोड़ी दूर चौक के पास पहुँचकर उसके पाँव बाई ओर सड़क की तरफ एकाएक मुड़ गया। यह सड़क सीधे रंगमंदिर की तरफ जाती है। शेषनारायण उसी सड़क पर चलने लगे।
सुबह शेषनारायण ने अखबार में खबर पढ़ी थी, कि शहर के सबसे पुराने रंगमंदिर को तोड़कर शॉपिंग कांप्लेक्स बनाया जाएगा। यह खबर पढ़कर उसका मन बेचैन हो उठा। वर्षों पुराना शहर के मध्य स्थित यह रंगमंदिर न जाने कितनी यादों को समेटे हुए है, जिसे भूलाना आसान नहीं। वैसे भी रंगमंदिर से शेषनारायण का अनेक वर्षों का संबंध है, वह एकाएक इसे नष्ट होते नहीं देख सकता।
रंगमंदिर के पास पहुँचकर उसके पाँव जमीं पर गड़ गए। वह रंगमंदिर के हाल को देखकर हतप्रभ रह गया। शाम ढलने लगी। चारों तरफ अँधेरा पसरने लगा था। आस-पास की बत्तियाँ बुझी हुई थीं। बिजली के खंभे लगे थे लेकिन बल्व नहीं थे। चारों तरफ रेत गिट्टी के ढेरों के बीच रंगमंदिर का जीर्ण-शीर्ण भवन पूरी तरह से ढक गया था। बाहर से सिर्फ उसकी छतें दिखाई दे रही थी। शेषनारायण की नजर रंगमंदिर से सटे हुए पुराने खपरैल वाले मकान पर पड़ी, जहाँ एक कम रोशनी का बल्व जल रहा था। एकाएक शेषनारायण को रंगमंदिर के पुराने चौकीदार फूलझर सिंह की याद आ गई। वर्षों से वह इस रंगमंदिर की देखभाल करता रहा। पता नहीं इन दिनों वह कहाँ है। इस खपरैल वाले मकान में रह भी रहा है कि नहीं। मकान में बल्व जलते देख शेषनारायण, पास जाकर आवाज लगाई–‘कोई है क्या…।’ एक अधेड़ उम्र का लंबा साँवला आदमी गले में बनियान डालते हुए बाहर निकल आया। वह एकाएक शेषनारायण को देखकर आश्चर्य चकित होकर पूछा–‘त्रिपाठी जी आप…।’
शेषनारायण उसकी तरफ देखकर आश्चर्यचकित होकर रह गए–‘अरे फूलझर सिंह तुम कैसे हो भाई…।’
–‘मैं ठीक हूँ त्रिपाठी जी! आप कुशल तो है ना…।’
लूँगी की गाँठ बाँधते हुए वह बोला। शेषनारायण ने आत्मीय स्वर में कहा–‘मैं ठीक हूँ। क्या तुम अभी तक इसी मकान में रह रहे हो…।’
–‘जी त्रिपाठी जी…’
शेषनारायण कुछ क्षण के लिए फूलझरसिंह की तरफ गौर से देखा फिर पूछा–‘क्या तुम्हें रंगमंदिर के बारे में अखबार में छपी खबर के बारे में पता है? वह अवाक होकर रह गया–’ कौन-सी खबर, कैसी खबर मुझे कुछ पता नहीं। वैसे भी अखबार से तो मैं कोसों दूर रहता हूँ…।’
शेषनारायण कुछ अनमना से हुए। फिर अपना ध्यान बटोरकर कहा–‘यही कि इस रंगमंदिर को तोड़कर यहाँ नया शॉपिंग मॉल बनाया जा रहा है…।’
फूलझर सिंह को इस बात की जानकारी थी तभी उसने कहा–‘इसलिए तो साब यहाँ मलबे का ढेर लगाया जा रहा है। गिट्टी रेत गिराये जा रहे हैं।’
शेषनारायण भावुक होकर रंगमंदिर की तरफ देखते हुए कहा–‘तो तुम्हे इस बात की खबर है रंगमंदिर को तोड़कर शॉपिंग कांप्लेक्स बनाया जा रहा है। आजकल बाजार का जमाना है। हर चीज बेची और खरीदी जा रही है। लोगों की रुचि बदल रही है। तड़क-भड़क और तेज रफ्तार की जिंदगी में रंगमंच की संस्कृति पीछे छूटती जा रही है। वैसे में हम कहाँ तक रंगमंच को बचा पायेंगे…।’
–‘आप सही कह रहे है त्रिपाठी जी, आखिर हम कब तक इस रंगमंदिर को भूत महल बने रहते देखेंगे…।’
–‘तुम कहाँ जाओगे यह रंगमंदिर टूटने के बाद, कैसे अपना दो वक्त की रोटी कमा खाओगे…कुछ सोचा है उसके बाद।’ शेषनारायण ने पूछ लिया।
फूलझर सिंह कुछ समय चुप रहा फिर कहा–‘हाँ! अब समय आ गया है कोई दूसरी नौकरी ढूँढ़ने का। पहले तो यही सोचता था कि इस रंगमंदिर की देखरेख करते हुए जीवन बीत जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है। भगवान ने मेरी अर्जी पर मुहर लगाने से मना कर दिया। अब स्वयं भगवान इस बुढ़ापे में मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं। इस बूढ़ापे में मुझे नौकरी कौन देगा…।’ वैसे अग्रवाल जी ने मेरी उम्र पर रहम कर यह जरूर कहा है कि मुझे कहीं नौकरी ढूँढ़ने की जरूरत नहीं। कांप्लेक्स बनने के बाद कोई काम दिला देंगे जिससे मेरी रोजी-रोटी चल सके, बस त्रिपाठी जी इसी उम्मीद से जी रहा हूँ…।’ शेषनारायण ने फूलझर सिंह की बातों पर अपनी सहमति जतायी और पूछा–‘तुम गाँव लौट क्यों नहीं जाते…।’
फूलझर सिंह के पास इस प्रश्न का जवाब तो था लेकिन यह तपाक से कहने की बजाय भावुक मुद्रा में उदास स्वर में कहा–‘अब गाँव जाकर करेंगे भी क्या..? वर्षों पहले गाँव के सारे रिश्ते नाते छोड़ शहर आ गए। न जमीन है, न घर है और न ही अपनी कोई रिश्तेदारी। अब तो गाँव में मजदूरी भी नहीं मिलती। सारे लोग गाँव छोड़कर शहर की ओर काम की तलाश में पलायन कर रहे हैं। समय के साथ-साथ गाँव का माहौल भी बहुत बदल गया है। अब पहले जैसे गाँव नहीं रहा है। लूट-हत्या, तोड़फोड़, आगजनी, बलात्कार सभी शहरी अपराध गाँव में हो रहे है। फिर गाँव लौट जाने की बातें क्यों करें…।’
–‘तुम ठीक कह रहे हो अब गाँव का माहौल पहले जैसा नहीं रहा।’ शेषनारायण ने समझने की मुद्रा में कहा फूलझर सिंह कुछ देर चुप रहा फिर कहने लगे–‘पिछले कई सालों से यह रंगमंच बंद पड़ा है। चारों तरफ घना अँधेरा, झाड़ियाँ दीवारों को लाँघने लगा है, बेहिसाब जाले-मकड़े ने दरवाजे खिड़कियों को ढक रखा है। पहले आपलोग नाटक खेलने आते थे। फिर नये पीढ़ी के लोग आने लगे। वे लोग बहुत सालों तक नाटक खेलते रहे फिर धीरे-धीरे गुम हो गए। उसके बाद कई सालों तक, गाने बजाने वालों का कार्यक्रम होता रहा। फिर पिछले कई सालों से एकदम बंद पड़ा है। कभी-कभी कमेटी के लोग बाहर से रंगमंदिर को देखकर चले जाते हैं। एक दिन अग्रवाल जी आए उनके साथ दो चार चमचमाती गाड़ियों में कीमती कपड़े पहने लोग भी आए। फिर रंगमंदिर को बाहर और अंदर से देखने लगे। तभी मैं समझ गया था कि यह भवन अब बिकने वाला है। उसके कई महीने के बाद एक दिन जब मैं तनख्वाह लेने के लिए अग्रवाल साहब के घर गया। तो उन्होंने मुझसे कहा कि बहुत जल्द रंगमंदिर बिकने वाली है। मैंने कहा सॉब मेरा क्या होगा। उसने मुझसे कहा कि–‘हम तुम्हें जिंदगी भर तो नहीं पाल सकते…।’ मैं समझ गया कि इस रंगमंदिर से मेरी रोजी-रोटी बस कुछ महीने भर की है। बहुत विनती करने पर वे राजी हुए और मुझे कांप्लेक्स तैयार होने के बाद कोई काम देने का भरोसा दिलाया। मैं घर लौट आया, बिस्तर पर लेटकर खूब रोया। रात भर नींद नहीं आई…।’
–‘और तुम्हारी पत्नी…तुम्हारी पत्नी कहीं दिखाई नहीं दे रही है, कहीं बाहर गई है क्या…?’
–‘नहीं छह साल पहले उनका देहांत हो गया है…।’
–‘क्या वह बीमार थी…?’
–‘नहीं! एक दिन रात में अचानक सीने में दर्द उठा। मैं समझा कोई मामूली तकलीफ होगी। सुबह होने से पहले वह हमें छोड़कर चली गई…।’
–‘दिल का दौरा पड़ा था…।’
–‘लोग वैसे ही कह रहे थे…।’
–‘क्या तुम इस मकान में अकेले रहते हो…।’
–‘जी! पत्नी के देहांत के बाद अब समय कटना भी मुश्किल हो गया। इस मकान से उसकी यादें जुड़ी हैं, इसलिए छोड़कर कहीं दूसरी जगह जाने का मन नहीं करता। एक बेटी है इसी शहर में रहती है। दामाद म्यूनिसिपल्टी में चपरासी है, बुलाती है मुझे घर पर रहने की जिद करती है। मेरा मन नहीं करता।’
–‘तुम ठीक कह रहे हो। मैं तुम्हारे जज्बातों को अच्छी तरह समझ सकता हूँ। शहर में मैं भी पत्नी के साथ रहता हूँ। दोनों बेटे अलग-अलग रहते हैं इसी शहर में मिलने चले आते हैं। अब सत्तर साल का हो गया हूँ। जीवनभर बच्चों को शिक्षक बनकर स्कूल में पढ़ाया। बच्चों को शिक्षा और संस्कार सिखाया। लेकिन बुढ़ापे में मुझे बहू और बेटे का सुख नहीं मिला। इस बात का मुझे अफसोस नहीं है और बेटे से कोई शिकायत भी नहीं। खैर छोड़ो मेरी बातों को वैसे फूलझरसिंह तुम आज भी उतने ही भोले और सीधे लगते हो जैसे पहले थे…।’
फूलझर सिंह शेषनारायण से उम्र में छोटा है। शेषनारायण कहने लगे–‘तुम्हें याद है उन दिनों की बात, जब तुम नये-नये शहर आये हुए थे। उन दिनों तुम इस शहर को ठीक से देखा भी नहीं था कि भटकते हुए इस रंगमंदिर के पास आ खड़े हुए थे और एकटक रंगमंदिर की दीवार पर लगे पोस्टर को देख रहे थे। तभी हमलोग की नजर तुम पर पड़ी। ऊँचा कद, गठीला बदन, साँवला रंग। तुम्हें देखकर रामरतन जी तपाक से बोले–‘ओ देखो उस नौजवान लड़के को देखो। बड़े काम का लगता है क्यों न रंगमंदिर की चौकीदारी के लिए रख लें…।’ कमेटी के सभी लोग रामरतन की बातों का समर्थन कर तुम्हें पास बुलाया और तुमसे पूछताछ की। फिर तुम्हें यह नौकरी मिल गई…।’
शेषनारायण को बीच में ही रोककर फूलझर सिंह बड़े ही उत्सुकता से कहने लगे–‘और मैंने बिना सोचे-समझे आपलोग से हाँ कह दिया। क्योंकि मुझे उस वक्त नौकरी की जरूरत थी। गाँव से नया-नया आया था। ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था।
–‘फिर क्या कमेटी के लोगों ने तुम्हारे हाथों में रंगमंदिर की चाबी सौंप दी और इस मकान में रहने की इजाजत दे दी। तुम्हारे आने से पहले एक दो लोग और आये थे। लेकिन आदमी विश्वसनीय नहीं होने के कारण कमिटी वालों ने उन्हें काम पर नहीं रखा।
–‘नौकरी के दो साल बाद मैं गाँव जाकर शादी कर आया। उसके डेढ़ साल बाद पूजा बेटी पैदा हुई। हमारी इकलौती बेटी…।’ फूलझर सिंह बोले।
–‘तुम्हें याद है फूलझर सिंह तुम्हारी बेटी उन दिनों कितने साल की रही होगी नौ-दस साल की। हमारे नाटक की रिहर्सल के समय सामने आकर बैठ जाती थी और टुकुर-टुकुर देखती रहती थी। एक दिन मैंने उसे पकड़कर सीधे मंच पर खड़ा किया था। वह कितने जोर से रो पड़ी थी…तुम्हें याद है वह सब बातें…।’
–‘जी! मुझे सब याद है…।’ फूलझर सिंह हँसने लगे। बहुत दिनों के बाद उसे हँसने का मौका मिला। वरना इस वीरान जगह पर उससे मिलने, बातें करने कोई नहीं आता। इस वीरान रंगमंदिर में रहते-रहते उसकी जिंदगी भी वीरान हो गई थी। जब पत्नी थी तब रोज शाम को बाजार की तरफ घूमने जाया करते थे। पत्नी के देहांत के बाद उसे अकेला घूमना अच्छा नहीं लगता। मकान के सामने खाली जगह पर टमाटर, मीर्ची, और भाजी उगा ली थी। इसी से उसका गुजारा हो जाता था और समय भी कट जाता था। आज अचानक शेषनारायण के आने से उसे पुराने दिनों की बातें यादकर हँसने का मौका मिला। वह बहुत खुश होने लगा। उसने अपनी बच्ची के बारे में शेषनारायण से कहा–‘मेरी बेटी फूलवा आज आई थी मेरे पास, उसके पाँच बच्चे हैं…।’
यह सुनकर शेषनारायण हँस पड़े। थोड़ी देर बाद फूलझर सिंह बड़े ही उत्साह से बोले–‘चाबी लेकर आऊँ। जब आप यहाँ तक आ ही गए हैं तो रंगमंदिर के भीतर भी चलकर देख लें, आपको अच्छा लगेगा…।’
–‘सच कह रहे हो। कितने वर्षों के बाद जब इधर आ ही गया हूँ तब रंगमंदिर के भीतर भी देख आऊँ और अपनी पुरानी यादों को फिर से ताजा कर लूँ…।’
फूलझर सिंह चाबी ले आया। दरवाजा खोल दिया, अंदर की बत्तियाँ जला दी। शेषनारायण वर्षों बाद रंगमंदिर में पाँव रखकर, रोमांचित हो उठा। सारी कुर्सियाँ खाली पड़ी थी, उस पर धूल की परतें जमी हुई थी जिसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने वर्षों से इन कुर्सियों पर किसी का हाथ नहीं लगा है।
शेषनारायण बहुत देर तक उन कुर्सियों को देखता रहा। हमेशा यह कुर्सियाँ नाटक खेले जाने के समय खचाखच भरी रहती थी। एक भी कुर्सी खाली नहीं रहती और अगर रहती तो दरवाजे पर खड़े लोगों से बैठने के लिए कहा जाता था। इन्हीं कुर्सियों पर बैठे दर्शक, कभी किसी के अभिनय से खुश होकर तालियाँ बजाते थे तो कभी जोरों से हँस पड़ते थे, तो कभी किसी के अभिनय से इतना ज्यादा भाव विभोर हो जाते थे कि सारा हॉल निस्तब्ध हो जाता था। आज ये कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं धूल और दीमक से अपना अस्तित्व खोने लगी है। फूलझर सिंह के साथ शेषनारायण मंच पर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। दीवार से सटे हुए विशाल पर्दे को छूकर शेषनारायण भाव-विभोर होकर कहने लगे
–‘कितनी धूल जम गई है इन कपड़ों पर। तुम्हें मालूम है फूलझर सिंह यह बहुत महँगा कपड़ा है, सिल्क का है। कितनी मुश्किल से हमलोग ने पैसे इकट्ठे कर खरीदे थे। जिस दिन पहली बार इस पर्दे को दिनकर जी ने खींचा था उस दिन वे कितने घबराये हुए से थे। पर्दे की रस्सी पकड़े उसके हाथ काँपने लगे थे। लोग समझते है कि यह बहुत आसान काम है। लेकिन ऐसा नहीं है यह काम भी एक कला है। सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं, जिनको इस काम की जानकारी है। दिनकर जी हमेशा इस काम को बड़े ही धैर्य और एकाग्रता के साथ निभाया करते थे। हम सब उनकी कितनी इज्जत करते थे। लेकिन उनके अपने बच्चों ने कभी उनकी इज्जत नहीं की। उनके बच्चों ने उनके साथ…अत्याचार किया। बहू-बेटे ने मिलकर उन पर अत्याचार किया। पत्नी की मौत का गम तो उन्हें था ही उस पर बहू-बेटों के अमानवीय व्यवहार से तंग आकर एक दिन उसने पटरी पर कूदकर आत्महत्या कर ली। कितना रोया था उस दिन मैं। कुछ लोगों ने गिरिजाशंकर से कहा भी था कि पंकज जी, शौकत अली जी, मदन जी जैसे महान रंगकर्मियों की फोटो दीवार पर टंगी है, उसी तरह दिनकर जी का फोटो, फ्रेम में बंधवाकर रंगमंदिर के इस हॉल में टाँगने को। जानते हो उन्होंने क्या कहा, कि कमेटी के पास पैसे नहीं है। उस दिन मैंने उन्हें जमकर गाली दी थी। सारी जिंदगी जिन्होंने समर्पण और सेवा भाव से रंगमंच की सेवा की आज हम उनके त्याग और कर्म को यूँ ही भूला देंगे…।’
शेषनारायण की आवाज में आक्रोश के भाव थे। फूलझर सिंह समझने की कोशिश करने लगे। शेषनारायण बोल रहे थे।
–‘आज अचानक न जाने क्या सोचकर मैं अपने को इधर आने से रोक नहीं सका। वर्षों पुराने इस रंगमंदिर की याद तो हमेशा आती है। सोचा आज उसे देख आऊँ। लेकिन अफसोस दीवारों पर न जाने कितने सालों से रंग नहीं चढ़ा है। चारों तरफ झाड़ियाँ और गंदगी है। सभी सामान नष्ट हो रहे हैं। भूलने की कोशिश करो तब भी इस रंगमंदिर को इतनी आसानी से भूलाया नहीं जाता। संवादों की एक पूरी दुनिया समेटे शहर के बीच खड़ा है, यह रंगमंदिर। आज हमें मुँह चिढ़ा रहा है…।’
शेषनारायण कुछ पल यूँ ही मौन खड़े रहे और फूलझर सिंह की आँखों में इन सवालों के जवाब ढूँढ़ने का प्रयास करने लगे। फूलझर सिंह किसी नाटक के असहाय पात्र की तरह चुप खड़ा था।
चलते-चलते अचानक शेषनारायण के पाँव ग्रीनरूम के सामने ठिठक गए। कमरे में अँधेरा था। उन्होंने बत्ती जलाई। दीवार पर लगे बड़े-बड़े दर्पणों को देखने लगे। पास जाकर उस पर जमीं धूल की परत को उँगलियों से साफ करने लगे। वहीं आँखें, जिस पर काजल का रंग चढ़ा करता था, कभी-कभी चश्में की नकली फ्रेम और कभी आँखों से आँसू निकालने के ग्लिसरीन का लेप लगाया जाता था। शेष नारायण आज अपनी दो आँखों को गौर से देखने लगे। उन आँखों के नीचे कालापन और चेहरे पर झुर्रियाँ साफ दिखने लगी है। सिर पर बाल कम हो गए है। जो बचे हैं वे सभी सफेद हो गए हैं। कभी इस सिर पर सफेद बालों की विग लगते थे, कभी काले लंबे बाल तो कभी टोपी, कभी पगड़ी तो कभी चमकता ताज पहने होते थे। इसी दर्पण के सामने कभी वह स्वयं को भिखारी के भेष में, कभी बूढ़े बाप के रोल में तो कभी हीरो के सुंदर पोशाक में दिखते थे। आज इन दर्पणों को देखकर शेषनारायण को ऐसा लगा जैसे इन दर्पणों में कोई जान ही नहो। बेजान से यह दर्पण सिर्फ समय के इतिहास के लिए गवाह बनकर रह गए है। बड़े मुश्किल से शेषनारायण ग्रीनरूम से निकलकर मंच पर खड़े हुए। तभी फूलझर सिंह ने जाने क्या सोचकर मंच की सारी बत्तियाँ एक साथ जला दी। एकाएक मंच पर रोशनी फैल गई। शेषनारायण फूलझर सिंह के इस हरकत को देखकर आश्चर्य चकित रह गए–‘इतनी रोशनी…।’
–‘इतनी रोशनी…।’
शेषनारायण मंच के मध्य में खड़े होकर चकरी की तरह धूम गए। फिर फूलझर सिंह की तरफ देखकर बोले–‘क्या फूलझर सिंह मैं इस उम्र में भी अभिनय कर सकता हूँ…।’
–‘क्यों नहीं त्रिपाठी जी! नाटक खेलने की कोई उम्र नहीं होती। बस कलाकार के भीतर जज्बा और जोश होनी चाहिए। जो आप में है। आपने तो अनेक नाटक खेले हैं। क्या इस वक्त आपको किसी नाटक का संवाद याद आ रहा है। यदि याद आ रहा है तो उसे सुना दीजिए। आपको भी अच्छा लगेगा और मुझे भी…।’
फूलझर सिंह की बातें सुनकर शेषनारायण के चेहरे पर उत्साह भर आया। वह कुछ पल यूँ ही शांत खड़े रहे फिर किसी नाटक का संवाद याद कर बोलने लगे–‘सौ करोड़ लोगों का यह देश है। दिल्ली या देश के अन्य भागों में हमले हो रहे हैं, वे लोग कौन है,जो इसके खिलाफ गुस्सा जाहिर कर रहे हैं। अखबार खोलकर देखो जिनमें संपादकीय पर संपादकीय लिखे जा रहे है कि एक नाथूराम गोडसे थे, जिसने महात्मा गाँधी की हत्या की। इसका यह मतलब नहीं कि सभी मराठियों के लिए भारत में कोई स्थान नहीं…आपके दुश्मन जरूर है जो सांप्रदायिक सोच रखते है…परंतु स्वस्थ जनतांत्रिक सोच वाले लोग भी कम नहीं है…उनको पहचानों, अपनी राजनीति को आधुनिक राह पर चलाओ…।’
शेषनारायण की साँसें फूल रही थी। माथे पर पसीना निकल आया था। उन्होंने अपनी नजर चारों तरफ घुमाई। कुछ पल के लिए उसे ऐसा लगने लगा कि अँधेरे में बैठे सारे दर्शक अपनी कुर्सियाँ छोड़कर बधाई देने के लिए मंच पर आ रहे हैं। दिनकर जी धीरे-धीरे पर्दा गिरा रहे हैं, श्यामसुंदर अपना हारमोनियम छोड़कर उनकी तरफ चले आ रहे है। डायाभाई ड्रेसमेन और खरेजी मेकअपमैन सिगरेट का कश लेते हुए ग्रीनरूम से सीधे निकलकर उनके पास चले आ रहे हैं। पशुपति, गजानन, रतनलाल, सुभाष यादव सभी साथी कलाकार उनसे गले मिल रहे हैं। पशुपति, गजानन, रतनलाल, सुभाष यादव सभी साथी कलाकार उनसे गले मिल रहे हैं। सीने के अंदर एक अजीब सी उथल-पुथल मच रही थी। तभी एकाएक फूलझर सिंह बोल पड़े–‘बहुत बढ़िया संवाद। मन खुशी से भर गया…।’ वर्षों बाद शेषनारायण ने संवाद बोलते हुए स्वयं को नाटक के भीतर खो दिया। जब वह उससे बाहर निकले तो देखा सारी कुर्सियाँ खाली पड़ी है। न कोई दर्शक, न कोई मेकअपमैन, ड्रेसमैन, म्यूजिसीयन और न ही कोई साथी कलाकार। सच तो यह था कि मंच पर वह अकेला था और उसके सामने फूलझर सिंह खड़ा था। एकाएक शेषनारायण की नजर अपनी कलाई घड़ी की तरफ पड़ी। वह चौक पड़े–‘अरे फूलझर सिंह, बहुत रात हो गई है। अब चलना होगा…।’
यह कहकर वह मंच की सीढ़ी से नीचे उतरने लगे। फूलझर सिंह सारी बत्तियाँ बुझाकर दरवाजों पर ताला जड़ दिए। फिर दोनों बाहर निकल आये।
बाहर अँधेरा था। रेत, गिट्टी, ईंटों का ढेर लगा था। बड़े-बड़े गड्ढे भी खोदे गए थे। अचानक शेषनारायण का पाँव अँधेरे में फिसल गया और वे सीधे गड्ढे में गिर पड़े। एक चीख हवा में उछली, फूलझर सिंह को ऐसा लगा कि शेषनारायण कहीं गड्ढे में फिसलकर गिर तो नहीं गए। वह जोर से पुकारने लगा-त्रिपाठी जी…त्रिपाठी जी…।’ कहीं से कोई जवाब न आने से वह परेशान होने लगा। टार्च की रोशनी से वह इधर-उधर देखने लगा। अचानक उसे एक गड्ढा दिखा। पास गया तो देखा वह गड्ढा जमीन से दस-पंद्रह फीट नीचे तक गहरा है जहाँ शेषनारायण फँसे हुए हैं। वह गड्ढे के पास जाकर आवाज लगाया–‘त्रिपाठी जी…।’ कोई जवाब नहीं आया। फूलझर सिंह का सारा शरीर काँपने लगा। गला सूखने लगा। अचानक इस अप्रत्याशित घटना से वह चकित रह गया। उसके पाँव जमीन पर गड़ गए। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि वह इस वक्त क्या करें। आस-पास कहीं कोई मकान भी नहीं है। वह चीखने-चिल्लाने लगा। फिर वह मेन सड़क पर खड़े होकर पूरी ताकत के साथ चिखने लगा।
थोड़े ही देर में गड्ढे के पास लोगों की भीड़ इकट्ठा होने लगा। कुछ लोगों ने गड्ढे के पास जाकर आवाज लगाई। कुछ लोग रस्सी और बास गड्ढे में डालने लगे जिससे कि उसे पकड़कर शेषनारायण बाहर आ सके। लेकिन सभी की कोशिश व्यर्थ होने लगी। कुछ लोगों ने पास के थाने में जाकर रिपोर्ट लिखवाई तो कुछ लोगों ने म्यूनिसपाल्टी वाले ने खबर दी। भीड़ बढ़ने लगी थी और फूलझर सिंह बेचैन होने लगा था। दो-ढाई घंटे के जद्दोजहद के बाद म्यूनिसपाल्टी वालों ने क्रेन से शेषनारायण को गड्ढे से बाहर निकालने में कामयाब हुए। डॉक्टर की टीम उसके स्वास्थ्य की जाँच करने लगे। उस वक्त शेषनारायण की साँसें चल रही थी। पुलिस वालों ने उससे पूछताछ की। शेषनारायण ज्यादा कुछ बोल नहीं पाये। बड़ी मुश्किल से उसने रुक-रुक कर धीमें स्वर में कहा कि उसका पाँव अचानक फिसल जाने से वह गड्ढे में गिर गया…।’ उसके माथे पर चोट के निशान थे। उसके कपड़े फटे हुए थे और कीचड़ से गंदे भी। वह बहुत देर तक मूर्छित अवस्था में जमीन पर लेटे रहे, फिर डॉक्टरों ने उसे अस्पताल पहुँचाया।
अस्पताल पहुँचने के कुछ ही समय के बाद शेषनारायण को मृत घोषित कर दिए। अनेक कोशिशों के बावजूद शेषनारायण को बचाया नहीं जा सका। परिवार के लोग पहुँच गए थे। डॉक्टर की रिपोर्ट में यह कहा गया कि शेषनारायण की मौत साँस की तकलीफ के कारण दम घुटने से हुई।
शेषनारायण किसी नाटक से नहीं, जीवन के रंगमंच से नेपथ्य में चले गए। जहाँ पर्दा बार-बार नहीं गिरता। तालियों की गड़गड़ाहट, मंच पर रोशनी नहीं होती, जहाँ दर्शक केवल मौन रहते हैं।
Image :Moonlight Night. Meditation
Image Source : WikiArt
Artist :Arkhip Kuindzhi
Image in Public Domain
Note : This is a Modified version of the Original Arwork