उस दिन की बात
- 1 February, 2016
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- 1 February, 2016
उस दिन की बात
आँखों देखी
उन चार लोगों की एकजुटता, साथ-संगति कुछ इस तरह की थी कि यह बात चर्चा का विषय हुआ करती थी उन दिनों। चालीस-पैंतालीस वर्ष पूर्व की वह तस्वीर…उसमें शामिल थे शिवराज सिंह, हुलास राय, बालरूप मिश्र और रामदयाल सिंह।
शिवराज सिंह कुछ भिन्न चरित्र-स्वभाव के थे। यह सच है कि उनके पूर्वज जमींदार थे, लेकिन जमींदारी के बावजूद उनके पूर्वजों में गजब की उदारता, सहयोग की भावना और लोकतांत्रिक मूल्य चर्चा का विषय हुआ करती थी। लेकिन इसके विपरीत थे शिवराज सिंह। जमींदारी खत्म होने के बावजूद अपने पूर्वजों के चरित्र के विरुद्ध उनकी मानसिकता पूरी तरह सामंती थी। घर-परिवार में धौंस, गाँव-इलाके में दबदबा, बेवजह की अकड़, उस ढलती हुई उम्र में भी। मजाल नहीं कि अन्य जाति का कोई व्यक्ति उनके सामने खाट तो खाट, चौकी पर बैठ जाए। बैठेगा तो नीचे जमीन पर। इनके स्वजातीय, जो रैयत थे, वे भी खाट पर बैठने की हिम्मत नहीं करेंगे, अगर बैठेंगे तो चौकी पर। तो ऐसे थे शिवराज सिंह। शिवराज सिंह कुछ हद तक सहज तब ही होते, जब अपनी टोली के साथ होते, लेकिन वैसे में भी कहीं न कहीं से उनके अंदर का गुरूर और विशिष्ट दिखने की हवस जरूर रहती। दस-ग्यारह बजे दिन से चार बजे तक उनकी बतकही चलती। चार खाट और चार लोग। ऐसे नहीं कि पाँचवा-छठा या आठवाँ, दसवाँ जमा नहीं होते थे वहाँ, होते थे, लेकिन बतकही का विषय आमतौर पर बदल जाता।
दूसरे सदस्य थे शिवदयाल सिंह, मजाकिया स्वभाव, फक्कड़ और सधे हुए निशानेबाज। अगर आज का समय होता और उनकी कला का प्रचार-प्रसार होता, तो राष्ट्रीय स्तर पर उनका नाम जाना जाता। वे थे लगभग साठ वर्ष के।
तीसरे सदस्य बालरूप मिश्र, शत्-प्रतिशत योगी स्वभाव के थे। आगे नाथ न पीछे पगहा। पत्नी न बाल-बच्चे। शादी हुई थी उनकी बचपन में। उन दिनों जब दुल्हन बच्ची और दुल्हा बच्चा हुआ करते थे। जब जवानी आई तो पत्नी का निधन न सिर्फ पत्नी का, बल्कि बारी-बारी से माता-पिता का भी। गाँव समाज ने इनकी दूसरी शादी के लिए इनसे बात की, लेकिन उन्होंने साफ नकार दिया, नहीं की शादी। चिर ब्रह्मचारी बालरूप मिश्र का सबसे प्रिय था एकतारा। उसी पर विभिन्न राग निकालते, गाते अकेले में, मंडली के लोगों के बीच और कभी-कभी अवसर आने पर समूह में भी। वैसे तो ढेर सारे प्रिय गीत थे उनके, लेकिन अक्सर वह गाते-बजाते आए कहाँ से घनश्याम…और साँवरिया के संग-संग में मोहन खेले होली हो…। जवानी में तो गाँव पर ही रहे, लेकिन पचपन पार के बाद शिवराज सिंह के आग्रह पर उन्हीं के दरवाजे पर रहते हैं। खाना-पीना, रहना, गाना-बजाना सब कुछ।
खैर! शिवराज सिंह दूसरों के सामने किसी न किसी बहाने ऐसा जाहिर करते कि दरबार में नवरत्न रखने की परंपरा का पालन कर रहे हैं वे।
हाँ, वे चौथे सदस्य हुलास राय। जवानी के पहलवान और 62 की उम्र पहुँचने पर भी पहलवान ही हैं। बुद्धि मोटी है, लेकिन दबी छिपी बातों को पता लगाने, उसे अपने हिसाब से गढ़ने, बढ़ा-चढ़ाकर चटखारे लेते हुए बखान करने में माहिर।
मंडली के चार स्थाई सदस्यों के अलावा एक पाँचवा सदस्य भी हैं रामसकल सिंह। उन्हें भी इस मंडली में शामिल समझा जा सकता है। वैसे ढेर सारी आपसी गोपनीय बातें इनके सामने नहीं की जाती। रामसकल सिंह दरबार में तब हाजिर होते, जब गाँजे की चिलम चढ़नी होती। आते ही उस अभियान में तत्परता से लग जाते। काफी बारीकी से गाँजे को छूरी से कतरते महीन से महीन बनाते, फिर गुल सुलगाते, साफी धोते और फिर उनलोगों के पास चिलम घुमाने के बाद ऐसा सुट्टा मारते कि देखने वालों की आँखें चिलम से निकल रही चिंगारियाँ देखकर फैल जाती। दो-तीन घंटे बाद गाँजे का दूसरा दौर और चाय की चुस्की के बाद ही वे कहीं फटकते।
मंडली के लोगों की बैठक स्थली शिवराज सिंह का दरवाजा था। और फिर शाम को जी.टी. रोड और स्थानीय बाजार तक जाना और फिर लौटना।
हाँ, तो उन पाँच बूढ़ों की बतकही का विषय होता दूसरे के छोटे छेद को बड़ा बनाना, हँसी उड़ाना बिना छेद के छेद लक्षित करने से भी ये नहीं चुकते। विषय भी एक से बढ़कर एक। फलाँ की पतोहू लड़ाकिन है, फलाँ की पतोहू बदचलन है, फलाँ की बेटी कर्कश है। फलाँ की पतोहू ने ऐसा किया, बेटे ने वैसा किया, सास ने यह किया, ससुर ने वैसा कहा।
अरे भाई! बड़े दुख की बात है, फलाँ के यहाँ रोटी-नमक पर गुजारा चल रहा है हुँह। इतनी ही? इससे भी बदतर स्थिति है फलाँ की। एक शाम चूल्हा नहीं जलता।
इस तरह के विषयों को महिमा मंडित करने में माहिर हैं रामसकल सिंह और हुलास राय। इसके बाद उसका छिछालेदर करते हैं, और भी विकृत बनाकर पेश करते हैं शिवराज सिंह।
इन तीनों के विपरीत शिवदयाल सिंह और बालरूप मिश्र अपनी तरफ से कोई भेद नहीं खोलते, किसी की छीछालेदर नहीं करते और न व्यंग्य करते हैं। सच पूछा जाय तो ढेर सारी बातें सुनते हुए भी, नहीं सुन पाते। अक्सर सोचने लगते–इस बात की चर्चा करने का क्या तुक? हाँ, कुछ अनहोनी लग रही बातों पर खेद प्रकट करते, उदास हो जाते और हँसने की बात पर मुस्करा देते। लेकिन हुलास राय और रामसकल सिंह तो रोज ही कुछ न कुछ नई खबर लाते, कहते भी अपने अंदाज में हुलास राय आज कह रहे थे–जानते हैं, कल जगतवा बहू ने अपने ससुर की भरपूर मरम्मत कर दी! दे सोटा, दे सोटा गिरा ही दिया उन्हें जमीन पर; पहले वह सास को पीटती थी और कल उसने सारे बाँध तोड़ दिए। मुँह छिपाकर रो रहे हैं सुरेश बाबू। पति-पत्नी दोनों गलबहियाँ लगाकर रो रहे हैं और वह शेरनी अपनी सहेलियों के साथ बैठकर ठहाका लगा रही है। बताइए भला, उस नामर्द, जगतवा को ऐसी मेहरारू को तो घाटी देकर मार देना चाहिए–वाह रे जगत बाबू!’
‘सब दिन लकदक पहनने वाला, अच्छा खाना खाने वाला, स्वाभिमान से जीने वाला सुरेश बाबू की ऐसी दुर्गति!’ राम सकल सिंह ने जोड़ा।
‘लकदक क्या पहनते थे जी? रोज अपने से कपड़ा फिचते थे। खाते थे सत्तु और होंठ में घी लगाकर लोगों को अहसास कराते थे कि मैंने घी खाई है। नकली डकार निकालेंगे और लोगों को सुनाकर कहेंगे–हलवे में बहुत ज्यादा मेवा और घी डाल दी पत्नी ने–बहुत डकार आ रहा है–सब कुछ दिखावा था, सुरेश का; अंदर से पूरी तरह खोखला। बहुत शान बघारते थे अब औकात का पता चला है।’ शिवराज सिंह ने अपनी तरफ से कहा।
रामसकल सिंह की घ्राण शक्ति कुत्तों से भी तेज। पता नहीं कहाँ-कहाँ सूँघते रहते और फिर एक राज खोलते। अभी हुलास राय की बात और फिर उस पर चर्चा के बीच ही रामसकल सिंह ने अपने अनोखे अंदाज में कहना शुरू किया–‘भाई, मेरा तो पेट फटा जा रहा है ढेर सारी बातें जमा हो गई हैं। लेकिन, कल वाली बात…बाप रे! मैं तो रात भर सो नहीं सका। कुलदीप बाबू जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति, जिसकी इज्जत है गाँव समाज में…ओह! वह प्रतिष्ठित आदमी अपनी पतोहू के विस्तर पर एक साथ पाए गए। उनकी पत्नी ने रंगे हाथों पकड़ लिया और दोनों को झाड़ू से पीटा। तब तक आ गया उनका बेटा जयराम। और उसने भी अपना गुस्सा उतारा। हे भगवान! जमाना कहाँ से कहाँ चला गया? इस तरह का पतन् छिः छिः’ रामसकल सिंह कहते-कहते मानो घृणा से सराबोर हो गए।
‘पतन! यह आज की बात नहीं। याद कीजिए पहले का दिन। अरे भाई, उनलोगों का खानदान ही ऐसा है। इस किस्म की और इससे भी घटिया बातें हुई हैं इस परिवार में। अरे, उनकी बात छोड़ो, बड़ी लंबी कहानी है, जिसे कहने में भी मुझे संकोच हो रहा है। आज की बात, उसी खानदान का रामबिहारी, अरे भाई विपिन बिहारी बाबू का बेटा! जी, वह अपने लड़कों को बाहर शहर में पढ़ा रहा है, यह तो अच्छी बात है। भाई, सामर्थ्य है तो पढ़ावे। लेकिन अपनी तीन बेटियों और दो भतीजियों को उसने भेज दिया है महानगर में पढ़ने को। हॉस्टल में रहेगी और पढ़ेगी। पढ़ेगी क्या खाक! पढ़ेगी नहीं, गुलछर्रे उड़ाएगी। उन लड़कियों का रूप-लक्षण, पहनावा क्या नहीं देखे हैं आपलोग? फिल्मों की अश्लील हिरोईनों से भी बदत्तर यह गाँव है भाई। लेकिन बड़े-छोटे का कोई लाज-लिहाज नहीं। मुझे तो घृणा होती थी उनलोग को देखकर। बाहर भेजकर तो राम बिहारी ने उन्हें छुट्टा छोड़ दिया। विपिन बिहारी भी मना नहीं कर सके। पतन यहाँ है, यहाँ…।’ अध्यक्षीय वक्तव्य की तरह शिवराज सिंह अभी भी कुछ-न-कुछ कह रहे थे।…
चुपके से आज भी मैं उनलोगों की बातें सुन रहा था। आज पहली बार नहीं, मैंने कई बार उनकी बातें सुनी हैं बे सिर पैर की बातें! उन दिनों मैं स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय का छात्र था। बचपन में उनकी बातें सुनता तो हँसी आती, युवावस्था और जवानी में सुनकर कभी खीज होती, गुस्सा होता फिर भी सोचता, ये बुजुर्ग हैं, कोई काम नहीं इनके जिम्मे, आपस में मिलकर गप्प-शप कर रहे हैं, समय व्यतीत कर रहे हैं, क्या हर्ज है? अकेले-अकेले रहेंगे तो दूसरा झमेला खड़ा करेंगे।
लेकिन आज! हद हो गई! उम्र की सीमा है, लिहाज है…वरना इच्छा हो रही है, उनका मुँह नोच लूँ।… ताज्जुब है! अभी भी शिवराज सिंह बोल रहे थे–‘अगर मेरे औलाद इस तरह की हरकत करते, मैं गोली मार देता।’
इतने में अप्रत्याशित रूप से दृश्य बदल गया। सब दिन मूक श्रोता रहने वाले, सुनकर केवल मुस्करा देने या उदास हो जाने वाले बालरूप मिश्र और शिवदयाल सिंह एकाएक भड़क गए, तमतमाए हुए दोनों ही खाट से उठ गए। चेहरा रौद्र, आँखें जलती हुई।
‘आप गलत बयानी कर रहे हैं शिवराज सिंह। इतने दकियानुसी ढंग से नहीं सोचना चाहिए। गाँव में किसी की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती है’ गुस्से से उबलते हुए शिवदयाल सिंह ने कहा।
आप ही ज्यादा काबिल हैं। रखिए अपनी भलमनसाहत अपने पास। मैं जो कह रहा हूँ, वह सच है’ शिवराज सिंह ने अकड़ते हुए कहा।
‘सरासर फालतू है। लड़कियों को पढ़ाना बुरा है क्या? आपने नहीं पढ़ाया, ढेर सारे लोगों ने नहीं पढ़ाया–यह सरासर पिछड़ी सोच है, सामंती सोच है। पिंजड़े में बंद न रहकर, जरा आँखें खोलकर देखिए–पिंजड़े के बाहर की दुनिया देखिए, क्या महिलाएँ किसी क्षेत्र में जाने की कमतर क्षमता रखती हैं…आप घोर अराजक हैं’ गुस्से से उफनते हुए बालरूप मिश्र ने कहा।
गर्म बहस देर तक चलती रही। आश्चर्यजनक ढंग से हुलास राय, रामसकल सकल सिंह की जुबान खामोश रही। गाँजे का चिलम आज दोबारा नहीं चढ़ा।
ठीक उसी समय शिवदयाल सिंह ने कहा–‘आज के बाद मैं यहाँ नहीं आऊँगा।’
‘आपके न आने से मैं भूखों मर जाऊँगा क्या? नहीं आइए, आपकी मर्जी। मैं बुलाने जाता हूँ क्या।’ शिवराज सिंह ने गरजते हुए कहा। और वे आगे बढ़ने लगे।
‘ठहरिए शिवदयाल बाबू, मैं भी चल रहा हूँ आपके साथ’ कहते हुए बालरूप मिश्र कमरे में तेजी से गए, अपना छोटा-सा पिटारा उठाया, एकतारा लिया और तमतमाए हुए शिवदयाल सिंह के साथ हो लिए।
‘मेरा भी यह आखिरी दिन है बाबू साहब। मैंने इस दुष्ट और पतित सोच के व्यक्ति को बहुत झेल लिया, पता नहीं कैसे? लेकिन अब नहीं।’ बालरूप मिश्र ने कहा।
‘जरा जबान सँभालकर बोलो पंडित।’
‘चुप। चुप रहो शिवराज। नहीं तो कुछ बुरा हो जाएगा।’ शिवदयाल सिंह ने गरजते हुए कहा और दोनों तेजी से आगे बढ़ने लगे।
‘बताइए भला…जबान सँभालकर…वह भी उसके सामने, जिसके जबान में लगाम नहीं…।’ बढ़ते-बढ़ते बालरूप मिश्र कह गए।
उस दिन के बाद आजीवन बालरूप मिश्र और शिवदयाल सिंह ने अपना पैर उस दरवाजे पर नहीं रखा। बाहर भी शिवराज सिंह से आमना सामना होने पर इनकी जबान नहीं खुली।
इस घटना के लगभग 45 वर्ष बीत गए हैं। उनमें से अब कोई जीवित नहीं है। मै भी बुजुर्ग हो गया हूँ। गाँव के लड़के-लड़कियाँ कॉलेज, विश्वविद्यालय की पढ़ाई कर रही हैं, तकनीकी शिक्षा ले रही हैं। शिवराज सिंह, रामसकल सिंह, हुलास राय के वंशज अपवाद नहीं हैं।
सोचता हूँ, आज वे जीवित रहते तो क्या करते, क्या सोचते?
पाठको! संपादक जी ने। बीते हुए दिनों की किसी घटना को लिखकर माँगा तो ये सारे पात्र फिर से मेरी आँखों में जीवंत हो उठे! मैंने आँखों देखी इस घटना को आपके सामने रखा और इसलिए रखा कि मुझे शिवराज सिंह की वैसी मानसिकता आज भी चुभती है और हुलास राय, राम सकल सिंह पर बार-बार गुस्सा आता है। नफरत के पात्र तो तीनों ही हैं। पर कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या वे वास्तव में नफरत के ही पात्र हैं! समाज में जो नाना प्रकार के रंग हैं, क्या उनमें कुछ रंग ये नहीं दिखा जाते! समाज में ऐसे अनगिन लोग आज भी होंगे जो मन में उनसे भी कुत्सित भाव रखते होंगे, पर जुबान से वे मीठे-मीठे होते हैं। समय आने पर उनका मन मुखर हो आए तो?
खैर, आँखों देखी यह घटना तो सच है ही। सच ओझल न हो जाए, इसलिए मैंने कल्पना का सहारा नहीं लिया है। वैसे काल्पनिक उड़ान की गुंजाइश तो सभी जगह होती है।
Image :Four Men on a Road with Pine Trees
Image Source : WikiArt
Artist :Vincent van Gogh
Image in Public Domain
Note : This is a Modified version of the Original Arwork