नरनाहर निराला
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- 1 May, 1951
नरनाहर निराला
“जिस समय रवींद्र का घोड़ा बंगाल से छूटा तो उसकी रास थामने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन मैंने ही उस घोड़े को थाम लिया।…हमारा यह जो रंग है वह असल रंग नहीं। यह तो धूप में काला हो गया है।…इसका, बहुत लंबा हिसाब-किताब है।”
“निराला जी को यदि आपने न देखा हो तो इस तरह सोचिए कि जैसे सिकंदर की फौज का कोई सेनापति हो (यद्यपि वे हिंदी साहित्य में आज स्वयं सिकंदर का मर्तबा रखते हैं,) जिसका चित्र ऐतिहासिक पुस्तकों में आपने देखा होगा।”
उपरोक्त लाइनें डॉ. एजाज हुसैन ने अपने एक लेख में लिखी थी। परंतु हमारी पीढ़ी के लिए सचमुच निराला का व्यक्तित्व अजेय सिकंदर से रत्ती भर भी कम नहीं। असाधारण लंबा-चौड़ा कद, तना शरीर, भावना-मय बड़ी-बड़ी आँखें, चेहरे पर विजयी सैनिक का रोब। बातचीत के लहजे में तेजी, जोर और तीखापन, वाणी में चुंबक-सा खींच लेने की शक्ति। ओठों पर कभी कड़वाहट, कभी गंभीरता और कभी सलोनी मुस्कुराहट। नाक-नक्शा कुछ ऐसा आकर्षक कि पहले तो आँखें फिसलेंगी और जम गईं तो हटाए न हटेंगी। बहुत पतले होंठ जब हिल कर कुछ कहेंगे तो वाणी से अमृत की वर्षा की कल्पना सजीव हो उठेगी। लंबे-तगड़े शरीर पर बाजुओं का सबल और भारीपन देखकर इस नरसिंह के सम्मुख श्रद्धा से सिर झुक जाएगा। और उनकी पतली-पतली कलात्मक उँगलियाँ देखकर बरबस ही अजंता की चित्रकला वाली उँगलियाँ याद आएँगी। एक बार निराला जी ने खुद कहा था–जब वे रोटियाँ पका रहे थे, उँगलियों पर गीले आटे की एक पर्त थी–“अगर किवाड़े के पीछे से हाथ भर दिखाऊँ तो लोग समझेंगे मिसेज निराला हैं।”
और निराला जी का सादा रहन-सहन–उसकी चर्चा की जाए तो उनकी सादगी को लेकर पूरी पुस्तक की रचना करनी होगी, तब कहीं बात पूरी होगी। बस यों समझिए कि कबीर की लाइनें–“कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाटी हाथ जो घर फूँके आपनो चले हमारे हाथ।” याद हो आवेंगी।
सचमुच निराला का व्यक्तित्व उसी अल्हड़पन और मस्ती का प्रतीक है जिसकी कल्पना युगों पूर्व कबीर ने की थी।
हमारे लिए निराला सदा से ही प्रेरणा के सजीव मूर्तिमान रूप रहे हैं। हमीं क्यों? हमारी पीढ़ी का तो सौभाग्य ही निराला के रूप में सदा हमें अपनी छाँह देता रहा है। हमने जब इस संघर्षमय साहित्य क्षेत्र में पहला कदम रखा था, तभी हमें अपने सामने सिकंदर रूपी यह विजयी नरसिंह खड़ा मिला था, जिसके व्यक्तित्व में इतना जादू कि हम बिना कुछ सोचे-विचारे ही उसके पीछे चलने को विवश हो गए थे। और आज यह कहने में हमारा सीना फूल उठता है, बाहें कस जाती हैं कि हम निराला की फौज के सिपाही हैं।
निराला जी को सर्वप्रथम जब देखा, एक धुँधली-सी याद है। 1943 में इलाहाबाद की नुमाइश का जमाना। कवि-सम्मेलन होने जा रहा था। उसी समय निराला जी नुमाइश में घूम रहे थे। साथ थे कवि नेपाली और मेरे परममित्र गंगा प्रसाद पांडेय। भीड़-भाड़ में ज्यों ही मेरी नजर उन पर पड़ी कि मानो किसी अदृश्य शक्ति ने कहा–“यह निराला ही हैं।” जनसमुदाय के सब से ऊँचे, बड़े, निराला ऐसे लगे जैसे बैर, बबूल के जंगल में चलता-फिरता विशाल वट वृक्ष! थोड़ी दूर हट कर घंटों निराला का पीछा किया और उन्हें देखते न अघाया बल्कि प्रतिक्षण उनके प्रति ऐसा खिंचाव मेरे मन में जमता गया कि मैं आज भी उस असर की कल्पना नहीं कर पाता।
फिर उसके बाद किस प्रकार उनके निकट आया, किस प्रकार उनके स्नेह की शीतल छाया मिली और किस प्रकार आज तक साहित्य के मार्ग में उनके पद चिह्नों को अँधेरी रात की उजाली डगर मान कर चलता रहा हूँ, इसकी चर्चा में बहुत समय लग जाएगा। केवल एक घटना का जिक्र करूँगा।
1944 का साल। मेरी शादी के दिन थे। निराला जी का आशीर्वाद मिल ही चुका था। मैं समझे बैठा था जैसे निराला पर मेरा बहुत बड़ा अधिकार है। मैंने अपने एक संबंधी को निराला जी के पास भेजा निमंत्रण दे आने को। वे गए। दारागंज (प्रयाग) में एक मकान के ऊपरी हिस्से में वे रहते थे। उपरोक्त सज्जन ने ऊपर जाकर निराला जी को आमंत्रित किया। क्षण भर, बल्कि मिनट भर निराला जी मौन रहे फिर तनकर बोले–“सुन लिया, जाइए, कहीं नीचे आपकी कोई साइकिल न उठा ले जाए!”
इतना इशारा काफी था। वे सज्जन कुढ़ते, भुनते चले आए। निराला से ऐसे व्यवहार की उन्होंने कल्पना न की थी। आकर सारा क्रोध मुझ पर उतारा–“तुमने मुझे कहाँ भेज दिया था। उन्हें सुन कर न कोई खुशी हुई, न यह कहा कि आऊँगा! नीचे साइकिल की याद दिला दी।”
मैं भला उनसे क्या कहता पर लगा कि खुद न जाकर मैंने जो महान अपराध किया है उसके चलते क्या कभी निराला जी के सामने खड़े होने की शक्ति रह पाएगी।
परंतु उसी शाम मेरे महान आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब देखा कि इक्के से उतर कर श्री भगवती प्रसाद वाजपेयी के साथ एक बहुत बड़ा साफा बाँधे निराला जी आ धमके। अपनी गलती के कारण मैं उनसे बोल भी न पाया कि उन्होंने मेरा कंधा झिकझोर कर कहा–“तुम्हारी शादी में आ रहा था न इसी से साफा बाँध लिया। तुम दु:खी न होना, मैं बारात भी चलूँगा।”
मुझे लगा मैं हिमालय के सामने खड़ा हूँ। इतना महान, इतना विशाल हृदय! नाराज नहीं हुआ बल्कि मेरे प्रार्थना करने के पूर्व ही सब स्वीकार कर लिया। क्या निराला के कोमल हृदय को इतने से भी नहीं पहचानूँगा–मैं तो उनकी महानता पर, सरलता पर बिना मोल बिक गया।
इसके बाद तो बहुत लंबा अरसा बीत गया। सदा ही, जब निराला जी प्रयाग आते, दर्शन देते, स्नेह की वर्षा करते और सदा ही बादलों से भरी शाम में बिजली की चमक चमका कर पथ के अंधकार को छेदते रहे। पिछले वर्ष फिर स्थाई रूप से प्रयाग आ गए। मैं दर्शनों को पहुँचा–“सो यू हैव कम! कहो मजे में हो!”
मैं चुपचाप उन्हें देख रहा था। सिर की सुंदर केशराशि उतर चुकी थी। दाढ़ी बढ़ रही थी। कहीं से चोट खाकर आए थे–(जिसका राज आज भी नहीं खुल पाया)। सिर में गहरे घाव थे। मैंने उसकी ओर इशारा किया तो फौरन विशाल माथा झुकाकर दिखा दिया–दो-दो इंच के दो भयानक चोट के घाव। और शीघ्र ही टूटी उँगलियाँ दिखाई और कहा–“अब तो यह उँगलियाँ सीधी हो रही हैं वर्ना बिल्कुल भुरता हो गई थीं।” मेरी आत्मा कराह उठी। यह चोट! काश कि हम वह दर्द ले पाते। पर निराला है जो युगों की चोट और दर्द को सहता जा रहा है, उसकी चोट कौन सम्हाले।
मैंने बरबस पूछा–“चोट कैसे लगी।” तो केवल एक वाक्य कहा–“बस नाक ऊँची रही।”
उस चोट के बाद फिर निराला का वह स्वास्थ्य न लौटा। एक दिन, एक बरसाती सुबह, जब बादल छाए थे निराला जी पधारे। चाय पीकर आराम कुर्सी पर लेटे ही थे कि बादल फट पड़े और निराला जी ध्यान-मग्न गुनगुनाने लगे, फिर अचानक बोल उठे–“जिस समय रवींद्र का घोड़ा बंगाल से छूटा तो उसकी रास थामने की हिम्मत किसी में न थी। लेकिन मैंने ही उस घोड़े को थाम लिया।…हमारा यह जो रंग है वह असल रंग नहीं। यह तो धूप में काला हो गया है। असल रंग रवींद्रनाथ का था। इसका बहुत लंबा हिसाब-किताब है।”
किसकी हिम्मत कि निराला का हिसाब-किताब समझे। इस हिसाब को समझने के पूर्व नीलकंठ बनना होगा, युगों का जहर पचाना होगा। निराला का रंग सचमुच आज वह नहीं है जो उनका असल रंग है। सोना इतना तपाया गया है कि रंग ताँबा का हो गया है। जीवन भर जो व्यक्ति आँधी-तूफान और आग में ही पला हो, बढ़ा हो, जिया हो उसका आज का रंग हमारे लिए एक चुनौती है। निराला ने एक-एक कदम में एक-एक युग की प्रतिभा समेट ली है। निराला आज जहाँ खड़े हैं–वहाँ से दुनिया कोसों पीछे है। निराला केवल कवि नहीं युग-स्रष्टा हैं। हमारी पीढ़ी के लिए विद्रोह की प्रेरणा और स्वरूप भी हैं।
हिंदी के आकाश में निराला नाम के इस रवि का प्रथम प्रकाश उस समय फैला था जब हमारी संस्कृति ऐसे दलदल में फँसी थी जिसका उबार शायद संभव न होता यदि निराला की तीखी किरण ने सारे दलदल की नमी को एक बार में ही न सोख लिया होता। उस समय बड़े-बड़े नामधारी आचार्य भी अपनी टकसाली शैली द्वारा ही साहित्य के महंत बने एक उँगली पर सारा विश्व नचाने की कल्पना कर रहे थे। कि जब अचानक यह नरसिंह ललकार उठा तो उनके सिंहासन हिल उठे और उन्हें इस विद्रोही के आगमन की कोई पूर्व सूचना न थी–वे पहले तो समझ ही न पाए कि यह कौन-सा व्यक्तित्व है जो आज उनके सम्मुख इस प्रकार अट्टहास कर रहा है कि उनका तेज अंधकारमय हो गया है।
निराला ने प्रथम आवाज लगाई–“काव्य को चौखटे में मत कसो। काव्य की धारा में रोड़े न बिछाओ।” निराला की इसी आवाज ने सचमुच हिंदी साहित्य को नई दिशा में मोड़ दिया। ‘तुकांत’ कविता की लीक को छोड़ कर मुक्त-छंद का निराला ने प्रयोग किया। और आचार्यों का दल हाथ धोकर इस विद्रोही को समाप्त कर देने पर तुल गया। पर वह विद्रोही विद्रोही नहीं जो दब जाने को उठा हो। निराला की रचनाएँ आचार्यों ने न छापने का निश्चय किया। तब ‘मतवाला’ निकला। निराला साहित्य-समुद्र का मंथन करते और मतवाला उस गरल को पीता जाता। फिर बहुत थोड़े समय में ही महंतों के दिन लदते से दिखाई पड़े। निराला का कविरूप पूर्ण विकास पा चुका था। उनके पीछे नए रक्त वाले नए साहित्यकारों की एक बहुत बड़ी पंक्ति खड़ी हो चुकी थी। राष्ट्र में जिस तरह स्वतंत्रता की लहर दौड़ चुकी थी–उसी के फलस्वरूप प्रगतिवाद का आंदोलन पैदा हो गया। निराला ने यहीं तो रवींद्र का घोड़ा थामा–और सजग होकर नई चेतना का सबल नेतृत्व किया। तभी विश्वव्यापी युद्ध और बंगाल के अकाल ने हमारी मृतप्राय सांस्कृतिक चेतना को पुन: जागरण को विवश किया।
गद्य और पद्य दोनों ओर निराला की प्रखर प्रतिभा समान गति से अपना प्रकाश फैलाती रही। ‘कुल्ली भाट’ और ‘दो दाने’ जैसे गद्य-खंडों ने निराला के हृदय को चीर कर जन्म लिया। फलस्वरूप कुछ ऐसे नए लोग हिंदी में चमक उठे जिसकी कभी आशा भी न थी। निराला नित्यप्रति नए प्रयोगों द्वारा भारती का भंडार विशाल और वृहत बनाते गए और नई पीढ़ी अपने रक्त से उसे सींचती गई। निराला ने हिंदी कविता में उर्दू के गज़लों और बहरों को ढाला और एक नई शैली का निर्माण किया जिसमें ठेठ, ग्रामीण और मुहावरेदार भाषा उतरा उठी। भारती का भंडार नए-नए रत्नों से, हीरे-जवाहरातों से जगमगा उठा जिसकी चकाचौंध का प्रभाव दूसरी भाषाओं पर भी पड़ा। निराला के दो नवीनतम संग्रह ‘बेला’ और ‘नए पत्ते’ इसके प्रमाण हैं।
साफ शब्दों में निराला ने युग को बदल दिया–युगों से बहती हवा का रुख मोड़ दिया। परंतु सच मानिए इसके लिए निराला ने अपने को खत्म कर दिया। कहते हैं कि इस्पात भी गर्म होने पर अपना रूप बदल देता है पर निराला ऐसा इस्पात साबित हुआ जो जितना ही गर्म हुआ दृढ़तर होता गया। सारा जीवन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विद्रोहों में ऐसा खपा दिया कि आज निराला फकीर हो गया है। उसका अपना कुछ नहीं रहा। आजीवन वह युग को अपना रक्त देकर सींचता रहा। बड़ों-बड़ों को लक्ष्मी के सम्मुख टूटते देखा है पर निराला को सदा तनते देखा है। निराला के विद्रोह ने कहीं समझौता नहीं किया। संसार ने जो भी परीक्षा माँगी निराला ने हँसकर पार किया। और इसी का कारण है कि अपनी प्यारी बेटी सरोज की मृत्यु के क्षण तक भी निराला एक बूँद दवा उसके गले में न डाल सके। निराला को कोई भी शक्ति न झुका सकी वर्ना कब संसार ने निराला के लिए कौन-सी कीमत नहीं लगाई। पर निराला क्या यदि वह किसी कीमत पर झुकता।
निराला हमारे विद्रोह के प्रतीक बन गए, हमारे आदर्श बन गए। इसमें शक नहीं कि इस महाप्राण ने अपने रक्त से सींचकर हमारा पथ प्रशस्त कर दिया और आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए जो रास्ता साफ कर दिया है इसके लिए क्या कभी हम इस विद्रोही युग-पुरुष को भूल सकते हैं। सदा ही इस नरसिंह की दहाड़ हमारे दिलों को मजबूत बनाए रहेगी।
आजकल निराला ने वैराग्य ले लिया है। उस दिन साहित्यकार संसद के उत्सव में श्रीमती ‘वनफूल’ ने प्रथम बार निराला का दर्शन पाया तो अचानक कह उठीं–“कोवि निराला! विशालकाय, मस्त टाल, ग्रीक कट!” परंतु उस दिन निराला का शोक का दिन था। बहन होमवती के निधन की खबर उसी दिन (यद्यपि 16 दिन बाद) निराला जी को मिली थी। निराला की व्यथा जाग गई और वे पागल हो गए। गली का चक्कर लगा-लगा कर वे अपने अंतर की व्यथा, करुणा और क्रोध को दबाना चाहते थे–“होमवती नहीं रही। कितनी छोटी उम्र थी। पता नहीं दवा भी हो पाई या सरोज की तरह बिना दवा के ही मर गई। यह एक-एक कर सब चले जा रहे हैं। क्या होगा? होमवती बहुत अच्छा लिखती थी–अब नहीं रही।”
शायद अपने स्वजातीय की मृत्यु पर भी निराला इतना न रोते जितना उस दिन रोए। रह-रह कर वे बहुत करुण स्वर में गा उठते–“कासे कहू मैं दुखवा सजनी!”
सचमुच निराला की दु:ख-गाथा–व्यथा सुनने की किसी में शक्ति नहीं। निराला फिर भला किसे सुनाएँ। और न सुनाएँ तो कितना दु:ख ढोएँ?
यही तो हमारे युग को एक चुनौती है। निराला की व्यथा कोई समझ न पाया। किसी भी साहित्य के पंथी के लिए निराला के हृदय में जो स्थान है, जितनी चिंता है उसकी तुलना नहीं और किसी भी साहित्यिक मात्र के लिए अकेले निराला जितनी चिंता करते हैं उतनी एक संस्था नहीं कर सकती।
और यही कारण है कि आज निराला का अपना कोई घर नहीं, अपना कहलाने वाला कोई परिवार नहीं। प्रत्येक साहित्यिक निराला का कुटुंब है–प्रत्येक साहित्यिक का परिवार और घर निराला का घर व परिवार है।
और निराला ने भी कभी इसकी चिंता नहीं की। बस निराला की स्नेह छाया भर से हमारी पीढ़ी वह प्रेरणा ग्रहण कर रही है और करेगी जिससे साहित्य का भंडार भरेगा और निराला को इस पीढ़ी से जो आशा है वह पूर्ण रूप से फलीभूत होगी। शायद निराला के संतोष को यही काफी हो।
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Artist: Nicholas Roerich
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