जिसे चाहता हूँ भाषा में

जिसे चाहता हूँ भाषा में

रोना चाहता हूँ कभी-कभी
एक ऐसी भाषा में
जिसमें न बाधा हो व्याकरण की
और न हिज्जों की ही।
हों जिसमें मन चाहे विराम भी
जानना चाहता हूँ,
हँसकर
कहाँ मिलेगी ऐसी भाषा?

मैं हूँ और तुम भी
मेघ हैं और समंदर भी
पहाड़ है और समतल भी…
होगी तो जरूर
कहीं न कहीं ऐसी भाषा भी
जिसमें रोना चाहता हूँ
मनुष्य की तरह
मनचाही देर तक।

हर ओर से रुलाते प्रसंगों में उलझा
क्या इतना भी नहीं चाह सकता
लोकतंत्र में
कि एक बार, बस एक बार
मौत से पहले की
आखिरी इच्छा की तरह
रो लूँ एक ऐसी भाषा में
जिसका सृजेता मैं खुद हूँ
जिसका शाख भी मैं ही हूँ!


Image :Figure in a rowing boat
Image Source : WikiArt
Artist :Emmanuel Zairis
Image in Public Domain

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