मीडिया सिर्फ राजनीतिक दलों का पैरोकार नहीं
- 1 October, 2016
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- 1 October, 2016
मीडिया सिर्फ राजनीतिक दलों का पैरोकार नहीं
वरिष्ठ लेखक-पत्रकार विश्वनाथ सचदेव से बातचीत
आप स्वयं को किस रूप में देखना पसंद करेंगे–एक प्रतिबद्ध पत्रकार या संवेदनशील कवि?
पत्रकारिता और कवि-कार्य में मुझे एक बुनियादी समानता नजर आती है–संवेदनशीलता दोनों की पहली शर्त है। मेरा मानना है कि संवेदनशीलता से कविता उपजती है और पत्रकारिता के ईमानदार निर्वहन और निखार के लिए भी पत्रकार का संवेदनशील होना आवश्यक है। सौ झोंपड़ियों का जलना एक घटना, एक आँकड़ा मात्र है, पर यदि कोई पत्रकार सौ झोपड़ियों के जलने को सौ परिवारों के उजाड़ने के अर्थ में समझता है तो उसकी पत्रकारिता को मानवीय संबल मिल जाता है। एक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य मिलता है जो समाचार को महत्त्वपूर्ण भी बनाता है, और अर्थवान भी। मैं संवेदनशील पत्रकारिता का पक्षधर हूँ और मेरे भीतर का कवि मुझे इस संवेदनशीलता से जोड़ता है। स्पष्ट है, मैं प्रतिबद्ध पत्रकार भी बना रहना चाहता हूँ और संवेदनशील कवि भी। इस दोहरी भूमिका में मुझे एक पूर्णता का अहसास होता है।
आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
पाँचवीं या छठी कक्षा में ही तुकबंदी करना शुरू कर दिया था। हमारे हिंदी के अध्यापक ने एक दिन कविता पढ़ाते-पढ़ाते पूछ लिया था, कक्षा में कौन कविता लिख सकता है? हर चीज में आगे दिखने की उम्र होती है वह–मैंने फट हाथ खड़ा कर दिया। और दूसरे दिन कक्षा में जल्दी पहुँचकर ‘कविता’ लिखने बैठ गया। ‘बंदर मामा, बड़ा सयाना…’ जैसी कोई तुकबंदी की थी मैंने। अच्छी तो क्या होती तुकबंदी, पर उस सुयोग्य अध्यापक ने मेरी पीठ थपथपा कर मुझे लिखने की राह पर खड़ा कर दिया। मैंने अपने आप को कवि समझ लिया…और अपनी घटिया तुकबंदी को अच्छी कविता! और लेखनी चल पड़ी। यही शुरुआत थी मेरे लेखन की। जिस स्कूल में मैं पढ़ता था, वह इंटर कॉलेज बन गया। ग्यारहवीं कक्षा में दो मेधावी छात्र आए थे बाहर से। उन्होंने आठ-दस पन्नों की हस्तलिखित पत्रिका निकाली। उसे प्रधानाध्यापक की प्रशस्ति के साथ स्कूल की लाइब्रेरी में रखा गया था। मुझे लगा, मैं भी ऐसा कर सकता हूँ। मैं तब छठी कक्षा में था। अपने एक मित्र (देवराम नाम था उसका) को साथ लेकर मैंने ड्राइंग की बड़ी कॉपी में बत्तीस पृष्ठ की पत्रिका निकाली। देवराम की ड्राइंग बहुत अच्छी थी। हम दोनों ने मिलकर ग्यारहवीं के उन मेधावी छात्रों को टक्कर दी थी। तुकबंदी करवाने वाले मेरे उस अध्यापक का हाथ हमारी पीठ पर था। मैंने उस हस्तलिखित पत्रिका के लिए कविता भी लिखी, कहानी भी लिखी, लेख भी लिखा। अपने सहपाठियों से भी लिखवाया। शायद यही शुरुआत थी मेरे लेखन और पत्रकारिता की। गुरुजनों के प्रोत्साहन ने कुछ गलतफहमी भी पैदा कर दी होगी मुझमें। अति उत्साह में मैंने एक तथाकथित ‘राजनैतिक लेख’ लिखा। तब मैं दसवीं में पढ़ता था। वह लेख मैंने एक स्थानीय साप्ताहिक के संपादक को दिखाया। शायद मेरे उत्साह और हिम्मत को बनाए रखने के लिए उन्होंने मेरा वह लेख छाप दिया! अब तो मैं ‘सर्टिफाइड’ लेखक बन गया! यह 1957 की बात है और मेरे पहले प्रकाशित लेख का शीर्षक था–चुनाव के बाद काँग्रेस किधर?
पत्रकारिता के अलावा साहित्य की दुनिया में आपकी कौन-कौन सी रचनाएँ हैं? फुर्सत मिलते ही हिंदी के किस रचनाकार को पढ़ने का मन होता है?
कॉलेज की पढ़ाई मैंने बीकानेर में की थी। यहीं साहित्य से मेरे रिश्तों की शुरुआत हुई थी। मैं सौभाग्यशाली था कि मुझे बीकानेर के वरिष्ठ रचनाकारों का सहयोग अनायास ही मिल गया। डॉ. छगन मेहता, श्री शंभुदयाल सक्सेना, हरीश भदानी, राजानंद, प्रेम बहादुर सक्सेना, यावेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के आशीर्वाद और सान्निध्य में लिखने का उत्साह भी जगा और पढ़ने की चाह भी पनपी। वैसे पढ़ने का शौक स्कूल के दिनों में ही लग गया था। तब मैंने प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों से लेकर महादेवी की ‘यामा’ तक को पढ़ डाला था। समझ तो क्या खाक आई होगी तब, पर पढ़ने का शौक जरूर पैदा हो गया था। मुझे याद है, मैंने नेहरू जी की ‘मेरी कहानी’ भी तभी पढ़ी थी (देखी थी, कहना ज्यादा सही लगेगा)! बीकानेर में मिले वातावरण ने मुझे साहित्य और पत्रकारिता से रिश्ते बनाने का अवसर दिया और सुविधा भी। यहीं हमने हरीश भदानी, पूनम दैया, सीता भटनागर आदि के साथ मिलकर ‘वातायन’ पत्रिका निकाली थी। मुझे पत्रिका का संपादक बनाकर हरीश भदानी ने मुझमें आत्मविश्वास तो भरा ही, शायद कुछ गलतफहमी भी करा दी थी। बहरहाल, ‘वातायन’ के प्रकाशन के साथ ही पढ़ने का चस्का भी बढ़ गया। मैं सब तरह की किताबें पढ़ता था–साहित्य, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र सब कुछ। बहुत कुछ जानने-समझने की जोश वाली उम्र थी वह। जहाँ तक ‘फुर्सत मिलते ही’ हिंदी के रचनाकार को पढ़ने का सवाल है, मैं फुर्सत मिलने पर नहीं, फुर्सत निकालकर पढ़ा करता था। इसी शौक के चलते मैंने एम.ए. अँग्रेजी साहित्य में किया। यह सोचकर कि इस बहाने अँग्रेजी साहित्य भी पढ़ लूँगा। योजना बनाकर, सिलसिलेवार पढ़ाई मैं कभी नहीं कर पाया।
अपने बचपन के दिनों के बारे में कुछ बताइए। प्राथमिक शिक्षा कहाँ से पाई? स्कूल और कॉलेज के अनुभव कैसे रहे?
स्कूल के दिनों में मेरे अध्यापकों ने प्रेमचंद पढ़ने की सलाह दी थी। वह राजस्थान के सिरोही की बात है। वहाँ तब एक शानदार पब्लिक लाइब्रेरी थी। लाइब्रेरियन मुझे अपने अध्यापकों जैसे विद्वान लगते थे। काफी कुछ पढ़ाया उन्होंने–वे कहते थे, समझ में नहीं आए, तब भी पढ़ो। उनकी यह सीख बाद में भी नहीं भूला। मेरा मानना है कि किताब पढ़ेंगे तो कुछ न कुछ तो मिलेगा ही। यह ‘कुछ न कुछ’ बहुत जरूरी हैं कुछ रचने के लिए। पढ़ने के इस शौक को मुंबई आकर पंख लगे थे। स्वर्गीय गणेश मंत्री के साथ ने भी बहुत कुछ पढ़ाया। हम दोनों पहली तारीख को वेतन मिलते ही किताबों की दुकान पर जाते थे। एक-एक किताब खरीदते थे–और दोनों पढ़ते थे।
‘धर्मयुग’ के लिए आप लंबे समय तक लिखते रहे हैं। इस दौरान किस तरह का अनुभव संसार मिला आपको? सबसे खास याद आप क्या साझा करना चाहेंगे?
‘धर्मयुग’ से मेरा रिश्ता 1967 में बना था। प्रशिक्षु पत्रकार की तरह जुड़ा था मैं ‘धर्मयुग’ से। संपादक, डॉ. धर्मवीर भारती ने तब बहुत कुछ लिखाया था मुझसे। ‘साँप और नेवले की लड़ाई’ के आँखों देखे हाल से लेकर जयप्रकाश नारायण की विचारधारा की कहानी तक का विस्तार है ‘धर्मयुग’ के मेरे लेखन में। भारती जी से मैंने पत्रकारिता भी सीखी और यह भी जाना कि लेखन विषय से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। भारती जी ने ‘धर्मयुग’ को एक ‘वाइड स्पेक्ट्रम’ पत्रिका बनाया था–जिसमें सबके लिए कुछ न कुछ होता था। धर्मयुग में मैं साहित्य पर भी लिखता था, राजनीति पर भी। एक व्यापक अनुभव-संसार था इस लेखन का। जब गणेश मंत्री ‘धर्मयुग’ के संपादक बने तो उन्होंने मुझसे एक नियमित कॉलम लिखवाना शुरू किया था–‘खबरों के आगे-पीछे’। यह लिखना मुझे बहुत अच्छा लगता था। अच्छा इसलिए भी लगता था कि मंत्री जी ने मुझे कुछ भी लिखने की आजादी दे रखी थी–बंधन सिर्फ स्थान का था। यानी लेख का आकार निश्चित था, प्रकार नहीं। मैं कुछ भी लिख सकता था–और मंत्री जी ने कभी कुछ काटा नहीं। हो सकता है वे दोस्ती निभा रहे हों, पर इस अवसर और स्वतंत्रता ने मुझे बहुत कुछ दिया। फिर जब मुझे धर्मयुग के संपादन का अवसर मिला तो मैंने इस स्तंभ को बंद नहीं किया था, सिर्फ उसकी जगह बदल दी थी। अब वह आखिरी पन्ने पर छपता था। ‘धर्मयुग’ तो अब बंद हो गया, पर वह कॉलम अभी भी चल रहा है। देश के कई अखबारों में हर सप्ताह ‘खबरों के आगे-पीछे’ छपता है और मुझे खुशी है कि मेरे संपादकों ने आलेख में से कुछ न काटने की स्वर्गीय गणेश मंत्री की परंपरा बनाए रखी है।
आपकी किताब ‘सवालों के घेरे’ मुझे बहुत अच्छी लगी। आपको क्या उम्मीद है ‘सवालों के घेरे में’ घिरे सवालों के जवाब कब तक मिल पाएँगे?
‘सवालों के घेरे’ नामक पुस्तक में संकलित अधिकांश लेख ‘खबरों के आगे-पीछे’ के रूप में ही लिखे गए थे। इससे पहले भी मेरे लेखों के दो संकलनों ‘तटस्थता के विरुद्ध’ और ‘आधी सदी का फासला’ में समय-समय पर लिखे गए लेख ही हैं। और अक्सर सवाल ही होते हैं जो लेखक को लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। जवाब चाहता है लेखक, पर कतई जरूरी नहीं कि उसके लेखन के पीछे जवाब देने की मानसिकता हो। समय के सवालों को समझने की कोशिश करता हूँ, ताकि क्या करना है का अहसास मुझमें जग सके।
आप यह मानते हैं कि हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या गरीबी, शोषण, भ्रष्टाचार और राजनीति का घृणित अवसरवाद है। विचारधारा और नीतियों में आप कौन से मौलिक परिवर्तन देखना चाहते हैं जो इन समस्याओं को हल कर सकें?
यह सही है कि गरीबी, शोषण, भ्रष्टाचार, विषमता और राजनीति का अवसरवाद हमारे देश की बुनियादी समस्याएँ हैं और व्यवस्था का दायित्व बनता है कि वह इन समस्याओं के समाधान की राह प्रशस्त करे। सवाल उठता है राह प्रशस्त कैसे होगी? इसके लिए जरूरी है इन समस्याओं को पूरे संदर्भों में समझा जाए, उन सवालों से जूझा जाए तो समाधान की राह रोके खड़े हैं। क्यों गरीबी अभिशाप बनी हुई है, क्यों भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है, क्यों सामाजिक विषमता कम होने का नाम नहीं ले रही और क्यों अवसरवाद की राजनीति से उबर नहीं पा रहे हम? समाधान का तकाजा है कि पहले ये सवाल मन में उठें, मन में इनके जवाबों को खोजने का संकल्प जगे। विचारधारा और नीतियों के परिवर्तन से कहीं जरूरी है यथास्थिति के स्वीकार की मानसिकता में बदलाव। गलत को गलत समझना होगा, कहना होगा। यहीं से शुरू होती है गलत के सही होने की प्रक्रिया। हमारी समस्या तो यह है कि हम गलत को गलत मान ही नहीं रहे! किसी कलबुर्गी अथवा दाभोलकर की हत्या हमें सामान्य बात लगती है! उनके हत्यारों के न पकड़े जाने से हमें कोई परेशानी नहीं होती। किसी मुरुगन द्वारा अपने लेखक के मर जाने की घोषणा से हमें तनिक भी पीड़ा नहीं होती। किसी अखलाक का मारा जाना हमें एक सामान्य सांप्रदायिक घटना मात्र क्यों लगती है? और दलितों के खिलाफ चलाये जा रहे शर्मनाक अभियान पर देश का प्रधानमंत्री पूरे पंद्रह दिन तक की चुप्पी कैसे साधे रह सकता है? ये सारी बातें जनतंत्र के विवेकशील नागरिक की चिंता का विषय होनी चाहिए–पर चिंता की बात यह है कि ऐसा नहीं हो रहा। सवाल विचारधारा और नीतियों में किसी मौलिक परिवर्तन का नहीं, व्यक्ति और समाज के सोच में परिवर्तन का है। एक देश के रूप में, और एक विवेकशील समाज के सामूहिक सोच में एक उद्वेलन की आवश्यकता है।
बौद्धिकवर्ग के नैतिक सरोकारों पर आपके क्या विचार हैं?
जहाँ तक नैतिक सरोकारों का सवाल है, इसे व्यापक संदर्भों में देखना होगा। किसी वर्ग-विशेष की नैतिकता से बात नहीं बनती, बात बनती है एक समन्वित समाज के रूप में नैतिक मूल्यों की समझ और उसके स्वीकार से। फिर भी, बौद्धिक वर्ग चूँकि एक विशिष्ट वर्ग होता है, अपने को शेष समाज से कुछ श्रेष्ठ समझता है, इसलिए उसका दायित्व भी विशेष हो जाता है। इस दायित्व का एक मतलब है समाज को, सही को समझने और सही कहने के लिए तैयार करने में सहायक बनना। पर इसके लिए पहले उसे स्वयं सही को समझना होगा, अपने भीतर यह साहस पैदा करना होगा कि सही और सच को निर्भयतापूर्वक और ईमानदारी के साथ कह सके। बौद्धिकता का मुखौटा लगाकर स्वयं को विशिष्ट समझना और फिर इस विशिष्टता का एक नकली जीवन जीना आसान काम है, लेकिन इसे एक दायित्व की तरह स्वीकारना और इसके माध्यम से समाज को सही निर्णय लेने में मददगार बनना अपने आप में किसी तपस्या से कम नहीं है। मुझे दुःख है कि हमारा बौद्धिक वर्ग कसौटी की इस राह पर फिसल-फिसल जाता है।
आपने पत्रकारिता का लंबा सफर तय किया है। उसे रोज बदलते हुए देखा है। आपको क्या लगता है कि पत्रकारिता ने बीते वर्षों में क्या खोया और क्या हासिल किया है?
पत्रकार भी एक तरह से इसी बौद्धिक वर्ग का हिस्सा है। पत्रकारिता को अपने समय का टटका इतिहास बताया गया है। मेरा मानना है कि यह इतिहास-लेखन एक पवित्र कार्य है और इसके साथ आज को सँवारने और आने वाले कल को बेहतर बनाने का दायित्व-बोध भी जुड़ा है। लगभग आधी सदी पहले, जब मेरी पीढ़ी ने पत्रकारिता प्रारंभ की थी, उसके पास संदर्भ और प्रेरणा के रूप में पत्रकारिता का एक शानदार इतिहास था। स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान, और उसे प्राप्त करने के बाद के कुछ वर्षों में हमने पत्रकारिता के मिशन वाले स्वरूप को देखा है। पत्रकार काँटों भरी राह पर चलकर राह दिखाते थे तब। महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक से लेकर माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसों तक की एक लंबी परंपरा है पत्रकारिता को एक दायित्व की तरह स्वीकारने वालों की। हमने इस परंपरा के बाद की कहानी भी देखी है। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता का इतिहास पत्रकारिता के व्यवसाय में बदलने की कहानी है। व्यवसाय में भी ईमानदारी के लिए पर्याप्त जगह है, पर पिछले पचास साल का पत्रकारिता का इतिहास एक घटिया व्यावसायिकता के उदाहरण ही प्रस्तुत करता है। इसके अपवाद भी रहे हैं, पर अपवाद तो अपवाद होते हैं। पराड़कर जी ने एक बार स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी थी भविष्य की पत्रकारिता के बारे में। हमने इस भविष्यवाणी को घटित होते देखा है। उन्होंने कहा था, ‘पत्र सर्वांग सुंदर होंगे…उनमें गंभीर गवेषण की झलक भी होगी…ग्राहकों की संख्या लाखों में होगी। यह सब कुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे।’ इस प्राणहीनता का सीधा अर्थ यह है कि सच कहने और सच समझाने का जो पुनीत दायित्व पत्रकारिता पर है, उसका पालन करने की आवश्यकता भी पत्रकारिता की दुनिया नहीं समझेगी। दुर्भाग्य से आज पत्रकारिता कुल मिलाकर एक व्यवसाय मात्र बन कर रह गई है। इस प्रक्रिया में लिखे हुए शब्द की मर्यादा और विश्वसनीयता, दोनों का लगातार क्षय हुआ है, और दुर्भाग्य से, यह प्रक्रिया थम नहीं रही।
एक पत्रकार का सत्यान्वेषण और उसकी नैतिकता और प्रतिबद्धता को आप कैसे पारिभाषित करेंगे?
गाँधी जी ने चार पत्रों का संपादन किया था और उनका दावा था कि उन्होंने अपने किसी पत्र में कभी झूठ नहीं लिखा। आज के कितने संपादक यह दावा कर सकते हैं? सवाल सिर्फ सच और झूठ का नहीं है, सवाल कुछ कहने और न कहने के साथ जुड़ी नैतिकता का भी है। विशिष्ट पेशा है पत्रकारिता और विशिष्टता ही कुछ दायित्वों से जोड़ती है इसे। अल्बेयर कामू ने लेखन के संदर्भ में अपनी दो प्रतिबद्धताएँ गिनाई थी। पत्रकारिता के साथ भी यही प्रतिबद्धताएँ जुड़ी हैं–एक तो, जो जानते हैं उसके बारे में झूठ बोलने से इनकार और दूसरा हर प्रकार के दमन का प्रतिकार। इसके साथ ही जुड़ी है यह नैतिक जिम्मेदारी कि जो कुछ लिखा जाए वह समस्या के समाधान में मददगार सिद्ध हो, न कि समस्या को उलझाने में। परंपरा है लिखे शब्द में विश्वास करने की। पत्रकारिता की समूची ताकत इसी विश्वसनीयता में निहित है। और हमारी आज की पत्रकारिता विश्वसनीयता के इसी संकट की शिकार हो रही है। इस संकट से जूझने का संकल्प ही पत्रकार की नैतिकता और प्रतिबद्धता को पारिभाषित करता है।
क्या आज मीडिया सिर्फ राजनैतिक दलों की पैरोकार बनकर रह गया है?
मैं यह नहीं मानता कि आज मीडिया सिर्फ राजनीतिक दलों का पैरोकार बनकर रह गया है। पत्रकार और पत्रकारिता से जुड़े संस्थानों से यह अपेक्षा करना गलत होगा कि अपने राजनीतिक विचारों को एक ओर रखकर अपना काम करेंगे। और यदि कोई पत्रकार किसी राजनीतिक दल की विचारधारा को मानता है तो उस विचार की पैरोकारी नहीं मानी जानी चाहिए। पर यहाँ भी पेशे की विशिष्टता का तकाजा है कि तथ्यों को रखने और उनके अर्थ समझाने में पत्रकार ईमानदारी बरते। लेकिन, यह सही है कि ‘पेड न्यूज’ की संस्कृति ने पत्रकारिता को ऊँचे आसन से उतारकर बहुत नीचे पहुँचा दिया है। पत्रकारिता को सिर्फ व्यवसाय समझने बनाने वालों ने पत्रकार की गरिमा और महत्ता को बहुत गहरी चोट पहुँचाई है।
आपने सभी राजनैतिक दलों और राजनेताओं को खूब लताड़ा है आपकी नजर में ये विलेन ही हैं। कोई ऐसा राजनेता जिसे आप पसंद करते हों और क्यों?
मेरे लेखन में यदि किसी को यह लगता है कि मैंने सभी राजनैतिक दलों और नेताओं को लताड़ा है तो मुझे यह मानना चाहिए कि मैं उस तटस्थता का निर्वहन कर पा रहा हूँ, जिसकी अपेक्षा ईमानदार पत्रकारिता से की जाती है। पर मैं विरोध के लिए विरोध के पक्ष में नहीं हूँ और न ही मैं यह मानता हूँ कि सारे राजनीतिक दल और सारे नेता खराब हैं। सच तो यह है कि राजनीतिक की अच्छाई का आकलन जन-हित के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से ही किया जाना चाहिए। यहीं इस बात को भी स्वीकारना होगा कि कुल मिलाकर हमारी राजनीति एक घटिया छवि ही प्रस्तुत कर रही है, और सत्ता की सारी राजनीति विचारों तथा प्रतिबद्धता के प्रति कहीं भी ईमानदार नहीं लग रही। ऐसे में राजनीतिक और राजनेताओं की आलोचना ही हो सकती है–और होनी भी चाहिए। हाँ, जहाँ कोई राजनीतिक दल, कोई राजनेता जन-हित के प्रति ईमानदारी प्रदर्शित करता है, वहाँ उसकी प्रशंसा भी होनी चाहिए। सारे राजनेता विलेन नहीं हैं, पर सारी राजनीति आज अवश्य सत्ता की अंधी दौड़ में शामिल लग रही है। ऐसे मैं महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सरदार पटेल, बाबा साहेब आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताओं की याद आनी स्वाभाविक है। ये सारे नाम आदर्श नेतृत्व के उदाहरण हैं। इनकी हर बात से सहमत होना कतई जरूरी नहीं है, लेकिन यह स्वीकारना जरूरी है कि ऐसे नेताओं ने विचार की ईमानदारी का उदाहरण प्रस्तुत किया था और इनकी राजनीति मात्र सत्ता के लिए नहीं थी। किए होंगे इन्होंने भी कुछ समझौते, पर आज का नेतृत्व जिस तरह की राजनीतिक में लिप्त है उससे नेतृत्व के प्रति एक शर्म का भाव ही पनपता है। बौना हो गया है हमारा नेतृत्व। कौन है आज ऐसा नेता जिसके सामने श्रद्धा से सिर झुक जाता हो? जिसका आचार-विचार अनुकरणीय हो? देश के एक तिहाई से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि, जिसमें सांसद और विधायक शामिल हैं, आपराधिक मामलों के आरोपी हैं। किस तरह की प्रेरणा ले सकता है इनसे गणतंत्र का नागरिक?
आपका विचार है कि क्रांति की जरूरत हमेशा बनी रहती है। आज के समय में देश को किस तरह की क्रांति चाहिए और कैसे संभव है?
क्रांति यथास्थिति के विरोध का नाम है, आने वाले कल को बेहतर बनाने की एक उत्कट भावना से उपजता है बदलाव का भाव। जब हम कहते हैं कि क्रांति की जरूरत हमेशा बनी रहती है तो इसका आशय मात्र इतना है कि तटस्थता की स्थिति कुल मिलाकर बदलाव के पक्ष में खड़ा न होने का एक बहाना बनकर रह गई है। आज देश में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, और बहुत कुछ ऐसा नहीं हो रहा जो किसी भी जिम्मेदार विवेकशील नागरिक से एक सक्रिय हस्तक्षेप की अपेक्षा करता है। आजादी के सत्तर साल बाद भी समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता को आदर्शों के अनुरूप एक समाज बनाने की दिशा में हम कुछ ऐसा नहीं कर पाये जिससे यह दिखता हो कि इसके प्रति ईमानदार हैं। यह तो हम कहते हैं कि ईश्वर ने सबको समान बनाया है, पर समानता की अपनी परिभाषाएँ गढ़ ली हैं हमने। हम समान हैं, पर जाति के बंधनों से मुक्त नहीं हैं, सामाजिक विषमता के न जाने कितने घेरों से घिरे हैं हम। अब तक हम जाति व्यवस्था के श्राप को झेल रहे हैं। हमने तथाकथित छोटी जाति के व्यक्ति को सरपंच बनने का अधिकार तो दिया है, पर आज भी ऐसा कोई सरपंच जब किसी कथित ऊँची जाति वाले अफसर के पास जाता है तो जिस कुर्सी पर उसे बिठाया जाता है, उसके जाने के बाद वह कुर्सी धोयी जाती है! इस मानसिकता को क्या नाम देंगे हम? यह सही है कि ऐसे उदाहरण बहुत नहीं है, पर ऐसा एक भी उदाहरण कलंक का टीका है। कब तक मुक्त नहीं होंगे इस कलंक से? कब तक कोई वेमुला आत्महत्या के लिए बाध्य होता रहेगा? कब तक कोई अखलाक भीड़ के हाथों मारा जाता रहेगा? कब तक किसी दलित को गाय की खाल उतारने के अपराध में सरेआम पीटा जाएगा और फिर उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डालना जरूरी समझा जाता रहेगा? कब तक किसी मुरुगन को इसलिए अपने भीतर के लेखक को मारना पड़ेगा कि किसी समाज की भावनाएँ उसके लेखन से आहत होती हैं? ये और ऐसी ढेर सारी चीजें बदलनी हैं। इसके लिए ईमानदार कोशिश ही उस क्रांति को परिभाषित करती है जो किसी भी समाज के बदलाव को सही दिशा देती है।
मेरे लिए क्रांति का मतलब गोलियाँ चलना या चलाना नहीं है। मैं यह भी नहीं मानता कि क्रांति एक झटके से आती है। क्रांति बदलाव की वह प्रक्रिया है जो कुछ बेहतर करने की भावना से जनमती है। इस भावना को लगातार तीव्रतर होते जाना और लक्ष्य पाने की अभिलाषा का एक प्यास की संतुष्टि में बदलना क्रांति को सार्थक बनाता है। अँग्रेजी में एक कहावत है, टुयर रइज़ आलवेज़ स्पेस एट दि टॉप यानी बेहतरी की गुंजाइश हमेशा होती है। मेरे लिए पत्रकारिता और लेखन दोनों किसी न किसी बेहतरी के माध्यम हैं। आज हमारे समाज में बेहतरी की अनंत आवश्यकताएँ और संभावनाएँ हैं। सत्तर साल हो गए आजादी पाये हुए हमें, पर आजादी का सच्चा और पूरा लाभ हर नागरिक को मिले, यह शर्त अभी पूरी नहीं हुई। आजादी के पूरे लाभ का मतलब है व्यक्ति के मनुष्य बनने की प्रक्रिया का तीव्र होना–और इस प्रक्रिया की शुरुआत वैयक्तिक स्तर पर होती है, व्यक्ति के भीतर से होती है।
आपने अपनी किताब में एक जगह लिखा है–‘जीवन के हर पल में अच्छाई और बुराई के बीच लड़ाई जारी रहती है और लड़ाई का ऐसा हर पल अच्छाई ही जीते इसके लिए आदमी को लगातार जागरूक रहना होता है। जब-जब उसकी झपकी लगती है, तब-तब मनुष्यता हारती है।’ आपको क्या लगता है आदमी को झपकी लग रही है या व सो चुका है?
अच्छे से और अच्छा बनने की यह प्रक्रिया अच्छाई और बुराई के बीच लड़ाई का ही स्वरूप है। इस लड़ाई में अच्छाई ही जीते इसकी शर्त लगातार जागरूकता है। पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस के दिन जब हम स्वतंत्र हुए थे तो गिरिजाकुमार माथुर ने एक कविता लिखी थी–आज विजय की रात पहरूए जागरूक रहना जनतंत्र में यह जागरूकता किसी एक रात की आवश्यकता नहीं होती, हर रात के बाद सबेरा लाने के लिए लगातार जागरूक रहना होता है। जब-जब इस जागरूकता में कोताही आती है, व्यक्ति के मनुष्य बनने के लिए हो रही क्रांति की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है। यही मनुष्यता की हार का क्षण होता है। जागरूकता में कोताही ही वह झपकी है जो पहरुए की भूमिका को कलंकित करती है। आदमी सोया तो नहीं है, पर झपकियाँ जरूर ले रहा है। आधे सोने और आधे जागने की इस स्थिति से उबरना होगा–लगातार जागरूक रहना होगा, ताकि मनुष्यता की लड़ाई लगातार जारी रह सके।
अगर कोई कोशिश करे और आप पर कोई राजनैतिक ठप्पा लगाना चाहे तो आप खुद को कहाँ रखेंगे?
राजनीतिक जनतांत्रिक प्रक्रिया का जरूरी और महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। राजनीतिक दलों के माध्यम से जनतांत्रिक प्रक्रिया आकार ग्रहण करती है। इसलिए दलगत राजनीति से भी पीछा छुड़ाना आसान नहीं है। और क्यों छुड़ाया जाए पीछा? यह सही है कि मेरी पत्रकारिता पर न तो दलगत राजनीति कभी हावी हुई है और न ही मैंने इस राजनीति के आधार पर उचित-अनुचित का निर्णय किया है। हाँ, सत्ता की राजनीति मुझे रास नहीं आती। मूल्यों-सिद्धांतों के आधार पर राजनीतिक दलों का बनना तो समझ में आता है, जरूरी भी है यह, पर सिर्फ सत्ता के लिए राजनीतिक दलों का बनना और सत्ता के लिए सिद्धांतों-मूल्यों की बलि दे देना मुझे स्वीकार्य नहीं है। इसलिए मैंने स्वयं को किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं बाँधा। एक पत्रकार के रूप में मैंने हमेशा जागरूक और विवेकशील विपक्ष की ही भूमिका अपनायी है। जहाँ तक विचारों का सवाल है, मैं स्वयं को वंचित के पक्ष में पाता हूँ, समता की लड़ाई का हिस्सा बनना चाहता हूँ मैं।
भारत में कम्युनिज्म क्यों सफल नहीं है?
एक सिद्धांत के रूप में कम्युनिज्म में ऐसी कोई खोट नहीं है कि उसे सिरे से नकारा जा सके। मार्क्स ने समता और न्याय को ही अपने सोच का आधार बनाया था। मैं नहीं समझता इस आधार पर किसी को कोई आपत्ति होनी चाहिए। लेकिन इस सच्चाई को भी स्वीकारना होगा कि इस तरह का कोई भी सिद्धांत दुनिया भर में एक ही पैमाने के तराजू पर तौलकर लागू नहीं किया जा सकता। स्थान विशेष और काल-विशेष की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुरूप उसे ढालना ही होगा। गाँधी जी इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते थे, इसलिए उनका सोच भारतीय मानस को सहज रूप में प्रभावित करता था। भारत के कम्युनिज्म की कथित विफलता लंबे-चौड़े विश्लेषक की अपेक्षा रखती हैं, उसे कुछ वाक्यों या कुछ पैराग्राफी में नहीं समझा-समझाया जा सकता।
लोगों के लिए राजनीति में आने का मतलब सिर्फ सेवा भाव हो सके, त्याग हो सके, इसके लिए कोई विचार या फॉर्मूला है आपके पास?
यह जरूरी है कि राजनीति सत्ता के लिए नहीं, सेवा के लिए हो। आज हमारी राजनीति में जितनी भी बुराइयाँ दिख रही हैं, उनके मूल में सत्ता-लोलुपता ही है। सत्ता के साथ जुड़े अधिकारों-सुखों का लालच राजनीति से जुड़े लोगों को नितांत स्वार्थी बना देता है। पिछले साठ-सत्तर सालों में हमने इस प्रवृत्ति के पनपने को खूब देखा है, और इसके दुष्परिणामों को झेला है–अब भी झेल रहे हैं। यह स्थिति कैसे बदले यह एक बड़ा सवाल है, और आसान नहीं है इसका जवाब। सवाल राजनीतिक संस्कृति को बदलने के साथ-साथ पूरे समाज की मानसिकता बदलने का है। विचार विशेष अथवा कोई तैयार फार्मूला नहीं होता इस काम का। सोच बदलना एक बुनियादी परिवर्तन है। एक जमाने में गाँधी ने यह काम किया था। आज हमारे पास कोई गाँधी नहीं है और रोज-रोज आते भी नहीं गाँधी। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इस दिशा में कोशिश ही न हो। यह कोशिश हर स्तर पर होनी जरूरी है। दुर्भाग्य से वातावरण बहुत खराब है। भोगवादी माहौल में त्याग के महत्त्व को समझने-समझाने की कोशिशें लगातार होती रहनी चाहिए। हाँ, यह भी समझना होगा कि बदलाव आते-आते आता है। कभी-कभी इतना धीमे कि बदलाव की प्रतीक्षा करने वाला थक जाता है। इसलिए, नहीं भी दिखे बदलाव तब भी कोशिश जारी रहनी चाहिए। कुँवर बेचैन की पंक्तियाँ याद आ रही हैं–‘दीवारों पर दस्तक देते रहिएगा, दीवारों में दरवाजे बन जाएँगे।’
वर्तमान भारतीय राजनीति के भविष्य से आपको क्या उम्मीद है?
जैसे खँडहर इमारतों की बुलंदी बयाँ करते हैं, वैसे ही घना अँधेरा ही उजाले के आने का संकेत देता है। मैं आशावादी हूँ और यह भी मानता हूँ कि ‘उम्मीदों के सहारे पर हमेशा साँस पलती है।’ सवाल भारतीय राजनीति के भविष्य का नहीं, भारत के भविष्य का है–यानी मेरे और तुम्हारे भविष्य का। भविष्य को बेहतर बनाएँगे हम…हम होंगे कामयाब।
आनेवाली पीढ़ी विशेषकर मीडिया और साहित्य से जुड़े लोगों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
रहा सवाल साहित्य और मीडिया से जुड़ी आनेवाली पीढ़ी को संदेश देने का, तो मैं सचमुच अपने आप को इस काबिल नहीं मानता। जो ईमानदारी से साहित्य और मीडिया से जुड़े हैं, या जुड़ेंगे, उन्हें किसी संदेश की आवश्यकता भी नहीं है। ईमानदारी और विवेकशीलता इस क्षेत्र से जुड़े हर व्यक्ति से अपेक्षित है। ये दोनों उसके साथ की मशाल होती हैं, जो स्वयं उसे, और दूसरों को भी, प्रकाश देती हैं।
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Artist : Hans Andersen Brendekilde
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