नरक के बावजूद

नरक के बावजूद

मुझसे कहा गया है कि मैं उस नरक को उद्घाटित करूँ जहाँ से मेरी रचनाओं ने जन्म लिया है। ‘नरक’ शब्द आग्रह करने वाले का नहीं है लेकिन मेरे संदर्भ में यही वह शब्द है जिससे गुजरकर ही रचने की मेरी कोशिशें ठीक-ठीक समझी जा सकती हैं। एक ऐसे समय में, जब लोग ‘उजला-उजला’ ही प्रदर्शित करने की होड़ में मुब्तिला हों, नरक का उद्घाटन ईमानदार भले ही हो, पर वह अकेले पड़ जाने की खतरनाक शुरुआत भी है।

मैंने क्या जिया? एक ऐसे आदमी के लिए, जो घटनाओं और स्थितियों को न तो डायरी में दर्ज कर पाता हो और न ही अपनी स्मृति में सिलसिलेवार सँजोकर रख पाता हो, ठीक-ठीक यह ब्योरा दे पाना कठिन है कि उसने रचने और जीने के पिछले तमाम वर्षों में क्या-क्या जिया, क्या सोचा, क्या चाहा, कैसे रहा और कब, किस क्षण, किस तरह ‘रिएक्ट‘ किया। एक स्थूल-सा बिंब यह बनता है कि एक ठोस, अंधकारमय, यातनादायी, दुश्चिंताओं और दुविधाओं से भरा हुआ खौफनाक नरक मेरे साथ-साथ चला। मुझे लगता है कि रचने वालों की जन्मभूमि ऐसी ही हुआ करती है–बुरी, बदहाल, बदशक्ल, अक्षम, असुरक्षित और बेहद मजबूर।

मैं अपना जीवन कहाँ से शुरू कर सकता हूँ। मैं उत्तर प्रदेश के बीहड़ किस्म के शहर मेरठ में पैदा हुआ था। बीहड़ इस अर्थ में कि वहाँ संबंधों, संस्कृति, रहन-सहन और आपसी भाईचारे को लेकर चीजें बहुत उलझी हुई हैं। ठीक वहाँ के ट्रैफिक की तरह। हम मेरठ के लालकुर्ती नामक इलाके में रहा करते थे। बस मेरठ की इतनी ही याद है मुझे। मेरठ से चलते हैं ताजमहल के शहर आगरा। यहाँ डैडी को एक बेहद साफ-सुथरे सैन्य इलाके केबी लाइन में बहुत अच्छा क्वार्टर मिला हुआ था। तब परिवार की आर्थिक स्थिति उतनी बुरी नहीं थी। मैं और मेरा छोटा भाई वीरेंद्र सेंट्रल स्कूल में छठी और चौथी क्लास में पढ़ा करते थे। इस स्कूल में मैं तीन साल पढ़ा। मतलब वहाँ से मैं आठवीं कक्षा पास कर के निकला। जब मैं आठवीं में था तो मेरी दोस्ती दसवीं में पढ़ने वाली एक स्नेहिल लड़की से हुई थी। वह मुझे फिल्मों के गीत गा कर सुनाया करती थी। उस लड़की का नाम मुझे अब याद नहीं है। बस इतना पता है कि कॉलेज से बंक मार कर हम दोनों आगरा के कंपनी बाग में पहुँच जाते थे। किसी पेड़ के नीचे वह आराम से बैठ जाती थी और मैं उसकी गोद में सिर रख कर लेट जाता था। एक रोज इस दृश्य के बीचोंबीच मेरे पिता उपस्थित हो गए। नहीं जानता कि किसने उनसे शिकायत कर दी थी। उन्होंने आव देखा न ताव अपने पाँव का सैंडल निकाला और उस लड़की के सामने ही मेरी धुनाई शुरू कर दी। लड़की काफी सहम गई थी। तब तक मैं पिता के हाथ से छूट कर ताबड़ तोड़ घर की तरफ भाग निकला था। वह पिता के द्वारा हुई मेरी पहली पिटाई थी। लड़की से मेरा नाता खत्म हो गया मगर फिल्मी गानों से जुड़ गया।

अब प्रसिद्ध गानों को गाते रहने का अभ्यास मेरे जीवन में दाखिल हो गया था। शायद प्रेम पाने की चाह मेरे जीवन में उसी समय से आरंभ हुई होगी। केबी लाइन से कुछ दूर पैदल चल कर जाने पर उस इलाके का मार्केट आ जाता था जिसे नौलखा बाजार कहते हैं। वहाँ सड़क की दोनों तरफ किताबों की दो दुकानें थीं। एक दुकान का नाम था कालरा बुक डिपो और दूसरी का नाम था खनूजा बुक डिपो। आगरा के तीन वर्षों में मैंने इन दोनों दुकानों की सारी किताबों को पढ़ डाला था। तब दुकानों से किताबें किराये पर भी मिला करती थीं। वे सब किताबें जासूसी और सामाजिक थीं। तब यह नहीं पता था कि इन किताबों को सस्ता या फुटपाथिया साहित्य कहा जाता है। पर इतना जरूर है कि इब्ने सफी बीए, प्रेम वाजपेयी, रानू, गुलशन नंदा, कर्नल रंजीत आदि-आदि लेखकों के कारण ही अपने जीवन में पुस्तकों का बिरवा फूटा। इसके बाद डैडी का ट्रांसफर एक नॉन फैमिली स्टेशन जोशी मठ में हो गया। उत्तर प्रेदश के मुजफ्फरनगर शहर में डैडी के छोटे भाई, छोटे भाई की पत्नी, डैडी की माँ और डैडी के पापा तथा बहनें रहती थीं। स्वाभाविक था कि डैडी हमें मुजफ्फरनगर में शिफ्ट करते। तो इस तरह आठवीं से आगे पढ़ने के लिए काफी कमजोर आर्थिक स्थितियों के साथ हम मुजफ्फरनगर आ गए। तब तक परिवार में मुकेश और प्रकाश नामक भाई भी जुड़ गए थे। प्रकाश इन दिनों दिल्ली में है और मुकेश जोधपुर में। तब कहाँ सोचा था कि यह जो मुकेश नाम का भाई है यह भविष्य में मेरे लक्ष्मण में बदलने वाला है। आज भी मेरे हर संकट और खुशी में वह मेरे साथ खड़ा मिलता है।

जब मैं वयस्क नहीं था, शहर (मुजफ्फरनगर) की हर सुंदर लड़की से प्रेम करने को व्याकुल रहता था (यह अलग बात है कि शहर में सुंदर लड़कियाँ थी ही नहीं) और शहर के बारे में अपने से तिगुनी उम्र वाले एक परिचित दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक का यह शेर मैं हर वक्त गुनगुनाता रहता था–‘न सूरत, न सीरत, न इल्मो हुनर/अजब चूतिया शहर है मुजफ्फरनगर।’ ‘सारिका’ नामक पत्रिका को एक आतंक की तरह देखता-छूता था और अपने सबसे पुराने दोस्त राजकुमार गौतम के साथ लेखक बनने के ख्वाब देखा करता था, नरक ने उससे पहले ही मेरे जीवन में प्रवेश कर लिया था।

राजकुमार का जीवन बदहाल होने के बावजूद आकस्मिकताओं से भरा हुआ नहीं था, लेकिन मेरे यहाँ हर कदम पर हादसे साथ चलते थे, वह भी अनपेक्षित। इन अनपेक्षित और आकस्मिक हादसों ने मुझे दुविधाग्रस्त, आशंकाग्रस्त, भयभीत, अराजक, शंकालु, भावुक, संघर्षशील और भगोड़ा एक साथ बनाया। क्षण में जीने का एक सनकभरा व्यवहार भी–बिना क्षणवादी, अस्तित्ववादी साहित्य पढ़े इसीलिए मेरी जीवन-शैली में चुपचाप प्रविष्ट हुआ। डैडी पहाड़ पर थे–जोशीमठ में, हम मुजफ्फरनगर के एक ऐसे तंग और सीलन-भरे कमरे में, जिसके बाहर नाली में कीचड़ और मल-मूत्र बहता रहता था और हमें हर समय दुखी और पीड़ित रखता था। उस कमरे में हम सोते भी थे, रसोई भी बनाते थे, नहाते भी थे, कपड़े भी धोते थे और पढ़ते भी थे। मैं परिवार का सबसे बड़ा बेटा होने का अभिशाप लिए डैडी द्वारा भेजे पैसों से घर का खर्च भी चलाता था, अपनी पढ़ाई भी करता था, अपने छोटे भाइयों को अपनी पीठ पर लादकर बड़ा करते-करते मैदान में खेलते अपने हमउम्र साथियों को क्रिकेट भी खेलते देखा करता था और उनके तथा माँ के लिए खाना भी पकाया करता था। खाना यानी सबके लिए दो-दो पराँठे और एक-एक चाय, या खिचड़ी या गुड़ और चना। माँ स्थायी रूप से बीमार रहती थी, अपाहिज थी। जब मैं उसके गर्भ में था, वह छत से कूदकर आत्महत्या की कोशिश में अपना पाँव कूल्हे पर से तुड़ा बैठी थी। बाप ने बड़े प्रेम से आठ बच्चे पैदा किए। एक रहा नहीं और एक बाद में चलकर पागल हो गया और अभी तक अपने जीवन को अभिशाप की तरह जी रहा है। मुजफ्फरनगर में हमने शायद तीन या चार वर्ष दुःस्वप्न की तरह गुजारे–अपनी बुआ के संपन्न और अपने चाचा के अपेक्षाकृत सुखी जीवन के बरक्स, लेकिन अजनबियों की तरह। इसने रिश्तों के प्रति मेरे जीवन को संदेहों से भर दिया। किसी लड़की से प्रेम करने और उसके साथ अपने सुख-दु:ख (सुख तो थे ही नहीं) ‘शेयर’ करने का भाव भी किसी जुनून की तरह इन्हीं दिनों मेरे मन में कद्दावर हुआ। इन्हीं दिनों लेखक बनने की आकांक्षा भी पैदा हुई। इन्हीं दिनों क्रिकेट को लेकर एक गहरी नफरत ने मेरे मन में जन्म लिया। आज भी अगर क्रिकेट से मुझे एजर्ली है तो संभवतः इसी कारण कि जब मैं उसे खेलना चाहता था, नहीं खेल पाया। सतत अभाव और वंचना ने संपन्न जीवन के प्रति एक प्रतिकार से भरा उन्हीं दिनों और उन्हीं दिनों मन में यह भावना विकसित हुई कि लेखक बनकर मैं हर चूतिये से ऊपर उठ सकता हूँ। राजकुमार ने ‘अंतिम आशीर्वाद’ और मैंने ‘आराधना’ तथा ‘राखी का प्रतिदान’ जैसी फिल्मी, बचकानी और लिजलिजी भावुकता से भरी कहानियाँ उन्हीं दिनों लिखीं और खुद को लेखक होने के गर्व में गर्क किया। तब मैं पंद्रह-सोलह का और राजकुमार 19-20 का हुआ करता था। उन्हीं दिनों किसी काम से शामली (मुजफ्फरनगर का एक कस्बा) जाना हुआ और वहाँ मैं अपनी सगी बुआ की बेहद खूबसूरत लड़की को दिल दे बैठा। उसके होंठों, उसके चलने, उसके सोने और उसके होने पर मैंने बीसियों कविताएँ लिखीं। बाद में उसका विवाह हो गया और मैं अपना टूटा हुआ दिल लेकर शायरी पढ़ने में गर्क हो गया। तब अपनी बुआ की लड़की से प्रेम करते रहकर, मैं इस अहसास में भी डूबा रहता था कि अगर हम विवाह कर लें तो इस पारंपरिक और दकियानूसी समाज में क्रांति हो जाएगी।

अमृता प्रीतम के रोमानी संसार से छूटकर प्रेमचंद की तपती हुई जमीन पर कदम रखा इन्हीं दिनों। आज भी मैं मानता हूँ कि गुलशन नंदा और प्रेम वाजपेयी टाइप के उपन्यासों और सृजनात्मक साहित्य के बीच अमृता प्रीतम एक सीढ़ी का काम करती हैं। मुजफ्फरनगर से मैंने दसवीं और बारहवीं की कक्षाएँ पास कीं। फिर मैं देहरादून आ गया–कुछ अधिक यथार्थवादी दृष्टि और अध्ययन की अपेक्षाकृत अधिक संपन्न पूँजी के साथ। इस बार डैडी भी साथ थे। मुझसे तुरंत बाद वाला भाई वीरेंद्र यहीं पागल हुआ। यहाँ रहने के लिए तो देहरादून के प्रेमनगर इलाके में सरकारी क्वार्टर था, लेकिन डैडी के फक्कड़पने के कारण रहने और जीने की स्थितियाँ अभी भी विपन्न और दुर्घटनाओं-भरी थीं। शराब, गोश्त और जुआ डैडी को हमारे दादा से विरासत में मिला था। आज यह सोचकर गर्वित होता रहता हूँ कि जुआ तो दूर, ताश का एक भी खेल मैं नहीं जानता। यहाँ जिस रात थाली में मुर्गा होता था, उसके अगले दो रोज तक सिर्फ चने भी हो सकते थे। यहाँ फिल्म देखने के लिए जिस दिन पाँच-दस रुपये मिल सकते थे, उसके अगले कई दिनों तक घर से कॉलेज की दूरी के लिए बस का टिकट खरीदने की चवन्नी अपने एक पान वाले दोस्त ब्रह्मप्रकाश से माँगनी पड़ सकती थी। यहीं बाप और दादा में मल्लयुद्ध होते देखा, यहीं माँ को मार खाते देखा और यहीं पिता के विरुद्ध एक बेचैनी, एक प्रतिवाद, एक प्रतिकार और एक अवज्ञा को मन में आकार लेते भी पाया। पिता के विरुद्ध पहला प्रतिवाद मैंने यह किया कि चार मीनार की सिगरेट फूँकते हुए पूरे प्रेमनगर (देहरादून की एक बस्ती) के चक्कर काट आया ताकि शाम तक उनके पास यह खबर पहुँच जाए। खबर उन तक पहुँची लेकिन वे उसे पचा गए तो मैं एक रात, पहली बार, शराब पी आया और घर में आकर उल्टी कर दी। (वह पहली उल्टी थी। तब से आज तक जीवन में शराब कितनी ही पी ली हो, पर उल्टी कभी नहीं की।) इसका भी कोई असर नहीं हुआ, तो मैंने रातें अक्सर घर के बाहर बितानी शुरू कर दीं।

सबकी माँओं की तरह मेरी माँ भी मेरे और पिता के बीच सुरक्षा कवच की तरह तनी रहती थी। पिता के साथ मेरा रागात्मक रिश्ता कभी पनप ही नहीं पाया। वह एक गजब ‘विस्तारित जमाना’ था। गर्मियों के दिनों में सर्दियों वाले कंबल, लिहाफ, स्वेटर, कोट, मफलर, दस्ताने आदि रखने के लिए हमारे घर में एक छह बाई चार फुट का टीन का बड़ा ट्रंक था। वह ट्रंक घर के बाहर वाले बारामदे में रखा रहता था। माँ ने उस ट्रंक के ऊपर एक मोटी-सी दरी बिछा दी और उसके सिरहाने एक चादर तकिये के नीचे तह कर स्थायी रूप से रख दी। माँ का मकसद था कि जब किसी रोज मैं रात के दस बजे के बाद घर लौटूँ तो बाहर उस ट्रंक पर ही सो जाया करूँ ताकि पिता की नींद न टूटे और उनका गुस्सा मुझ पर नाजिल न हो। तब फोन वगैरह की सुविधाएँ नहीं थीं। यह ध्यान मुझे ही रखना था कि अगर मैं रात दस बजे के बाद घर आने वाला हूँ तो खाना खा कर आऊँ। खाना वैसे भी उन दिनों कोई समस्या नहीं थी। जब चाहे दो ब्रेड स्लाईस के बीच एक समोसे को दबा कर उसे खाना का विकल्प बना लिया जाता था। ये दो ब्रेड और एक समोसा उन दिनों चार आने में आ जाते थे। गैंगवार उन दिनों भी होती थी। ठेठ उसी अंदाज में जैसी गुलजार द्वारा निर्देशित पहली फिल्म ‘रे अपने’ दिखाई गई है। तब देहरादून में भरतू और बारू नाम के दो गुंडों का आतंक राज कायम था। कहते हैं कि इनमें से किसी एक से संबंध रखने वाले मनोहर नामक शख्स का राज प्रेमनगर में चलता था, जहाँ हम रहते थे।  कच्ची भट्ठी की शराब उसके भाई प्रेम की पकौड़ी की दुकान पर बिकती थी। कच्ची शराब एक स्टील के गोल ड्रम में भरी रहती थी। बारह आने देने पर उस ड्रम के नल को चला कर काँच का एक गिलास भर दिया जाता था। इसे एक साँस में पीकर निकल लेना होता था। दो गिलास पीने पर इतना नशा हो जाता था कि घर जाकर सो लिया जाए। चूँकि शराब और पकौड़ी की यह दुकान घर से पाँच मिनट की दूरी पर थी इसलिए क्रमशः यह अपने रात के अड्डे में तब्दील होने लगी। अब समस्या रोजाना की डेढ़ रुपये की शराब, आठ आने की पकौड़ी और आठ आने की छह चारमिनार सिगरेट यानी कुल ढाई रुपये कमाने की थी। रास्ता पकौड़ी की दुकान के मालिक प्रेम, जो धीरे-धीरे अपने दोस्त में बदल गया था, ने ही निकाला। वह बोला–‘भाई, आप तो जानते ही हैं कि प्रेम नगर में जो रामलीला होती है वह मनोहर भाई साहब करवाते हैं। आप इतना अच्छा गाते हो। रामलीला के इंटरवल में दो-चार गाने गा दिया करो। एक गाने का बीस रुपये दिलवा दूँगा।’ यह तो बहुत बड़ा ऑफर था। मैं तुरंत तैयार हो गया। रामलीला के नौ दिनों में गाने गा कर मैं सात आठ सौ रुपये कमाने लगा। कभी किसी दर्शक से मिली टिप को जोड़ें तो कमाई नौ सौ तक पहुँच जाती। तो इस तरह अपनी कच्ची दारू, पकौड़ी, सिगरेट और गायकी चल निकली।

देहरादून में मेरा परिचय सुखवीर विश्वकर्मा, विपिन बिहारी सुमन, सुरेश उनियाल, सुभाष पंत, अवधेश कुमार, नवीन नौटियाल, सतीश चाँद, वेदिका वेद आदि के साथ ही देशबंधु से भी हुआ। देशबंधु मेरे जीवन की घटना ही नहीं, कल्पनातीत अनुभव भी साबित हुआ। उन्हीं दिनों मैं देहरादून से निकलने वाले ‘क्कैनगार्ड’ अखबार में 75 रुपये प्रति माह पर प्रूफ रीडर बन गया। प्रूफरीडरी करते हुए ‘ज्ञानलोक लाइब्रेरी’ का सदस्य बना, जहाँ मैंने मुक्तिबोध, प्रेमचंद, निराला, शमशेर, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, राहुल सांकृत्यायन, कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि को विधिवत पढ़ा। यहाँ रहते हुए कथा साहित्य की ओर मैं ज्यादा आकृष्ट हुआ।

उन दिनों मैं देहरादून के मशहूर डी.ए.वी. कॉलेज में बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र भी था। मैं अक्सर क्लास में नहीं जाता था और ज्यादातर अध्यापकों को बेवकूफ मानता था। कॉलेज के ठीक बाहर ‘लवली‘ नाम का रेस्त्राँ था जहाँ कॉलेज के जहीन छात्र बैठकर बहसें किया करते थे। मैं भी उन बहसों में स्वाभाविक रूप से शामिल रहा करता था। कॉलेज के बगल में दायीं ओर जाती सड़क पर मेहरा बुक डिपो नाम की एक दुकान थी जहाँ बड़ी शानदार किताबें मौजूद रहा करती थीं। धीरे बहो दोन रे, अपराध और दंड, दस दिन, जब दुनिया हिल उठी, माँ, खड़िया का घेरा, अजनबी, प्लेग, विवर, डॉन क्विगजॉट आदि किताबें मैंने यहीं से खरीदी और पढ़ीं। उन दिनों मैं एक छोटे-मोटे कॉलेज नेता के रूप में भी उभरने लगा था। तभी यह विचार मन में आया कि कॉलेज में तमाम पार्टियों के छात्र संगठन मौजूद हैं लेकिन एसएफआई का कोई अता पता नहीं है। बस अपने को जैसे एक काम मिल गया। साथी वेदिका वेद, भगवती उनियाल और कुछ अन्य दोस्तों की एक टीम बनाई और पूरे कॉलेज की दीवारों पर छोटी-छोटी स्लिपें चिपका दी गईं–‘ज्वॉइन एसएफआई’। संगठन खड़ा करने की अनुमति पार्टी के स्थानीय नेताओं से ले ली गई थी। एक महीने के भीतर कॉलेज में एसएफआई के चार सौ सदस्य बन गए। जाहिर है कि एसएफआई का फाउंडर अध्यक्ष धीरेंद्र अस्थाना को ही बनना था।

उन दिनों मैं एक लघु उपन्यास ‘अनसुलझा समीकरण’ लिखने में भी जुटा हुआ था। उसके लिए मैंने डी.ए.वी. कॉलेज के बगल में जाती एक गली में एक छोटी सी गैलरीनुमा कोठरी किराये पर ले ली थी, जिसका किराया बीस रुपये महीना था। इस गैलरी से पढ़ाई, छात्र राजनीति और लेखन आराम से सध रहा था। 84 पेज की यह किताब वैनगार्ड प्रेस से छप भी गई और उद्घाटन देहरादून के कोर्ट के एक न्यायाधीश से करवाना फाइनल भी हो गया। मगर उद्घाटन से पहले 26 जून 1975 को देश में आपातकाल लग गया। जज के बेटे अनूप ने पुस्तक के आपत्तिजनक प्रसंगों पर लाल निशान लगा कर किताब पिता के सामने रख दी। पिता ने किताब का उद्घाटन नहीं किया। शायद प्रकाशक को हड़काया होगा क्योंकि कवि जी (सुखवीर विश्वकर्मा) ने रातोंरात इस उपन्यास की तमाम छपी हुई प्रतियाँ जलवा दीं। बाद में इस लघु उपन्यास को संपादित कर मैंने लंबी कहानी ‘युद्धरत’ के नाम से अपने पहले कहानी संग्रह ‘लोग हाशिए पर’ शामिल किया। जज का वह लड़का अनूप श्रीवास्तव सन् 1996 में मुंबई के इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में कमिश्नर बन कर आया। हम वरली के ‘ला’ रेस्त्राँ में मिले और शराब पीते तथा चिकन टिक्का खाते हुए कॉलेज के दिनों में डूबते-उतराते रहे। उसने बताया कि मेरे उपन्यास ‘अनसुलझा समीकरण’ पर उसने जो लाल निशान लगाए थे वह कॉपी आज भी उसके पास है। उसका कहना था कि अगर मेरे उपन्यास का उद्घाटन उसके पिता कर देते तो उनकी नौकरी भी जा सकती थी। आपातकाल लगा था। सरकारी रवैया आक्रामक और तानाशाही भरा था। ऐसे में उसे लगा कि पिता को ऐसे उपन्यास के उद्घाटन से दूर ही रहना चाहिए जिसमें जन आंदोलन की बातों को उठाया गया हो। देर रात हम विदा हुए। फिर हम साल छह महीने में एक बार तब तक मिलते रहे जब तक वह मुंबई में रहा। बहरहाल, आपातकाल लगा तो दिन खाली खाली बर्तन जैसे हो गए। काँग्रेस विरोधी तमाम प्रमुख विपक्षी पार्टियों और उनके छात्र संगठनों के प्रमुख नेता जेलों में डाले जा चुके थे। पूरा देश सन्नाटे के हवाले था। यह सन्नाटा 26 महीने जारी रहा। 26 महीने बाद आपातकाल हटा और देश में आम चुनाव हुए। इन आम चुनावो में काँग्रेस हार गई। इस बीच मैं कानपुर, कोटा और कलकत्ता में दिन बिता आया। लौट कर बी.ए. के तृतीय वर्ष में प्रवेश लिया। इस बीच पत्रों के माध्यम से मेरा परिचय ललिता से हो चुका था। 13 जून 1978 को हमने मंदिर में शादी कर ली, जिसकी खबर देहरादून के सभी अखबारों में इस प्रकार छपी–‘एसएफआई अध्यक्ष की शादी।’ शादी से पहले मई 1978 में मैं बाकायदा ग्रेजुएट बन कर कॉलेज से निकल चुका था।

मुजफ्फरनगर में मेरा आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक आधार राजकुमार गौतम था, तो देहरादून में यह दायित्व सँभाला देशबंधु ने। देशबंधु एक असंभव, जटिल लेकिन मूलतः भावुकता की हद तक संवेदनशील व्यक्ति था। उससे दोस्ती बढ़ी तो मैं सर्वांग उसका हो लिया। मेरे खुद के स्वप्नों, संघर्षों, यातनाओं, कोमलताओं, बेचैनी, भावुकता, कमजोरी और अंतर्विरोधी चरित्र को देहरादून में सिर्फ उसी ने महसूस और स्वीकार किया। वह न होता तो आज मैं वैसा न होता, जैसा हूँ। वह खतरनाक सीमाओं तक बीहड़ और चुप्पा था, लेकिन अपने एक ही वाक्य या भंगिमा से अपनी बेचैनी या नाराजगी या खुशी प्रकट कर देने में समर्थ था। वह बहुत कम लोगों को पसंद कर पाता था, बहुत श्रेष्ठ पढ़ता था और बहुत विकट रचता था। मुक्तिबोध उसका प्रियतम लेखक था और जीवन के काले, नारकीय और सड़ाँध-भरे पक्ष को जानने-समझने के लिए वह उस जीवन में सारी सीमाएँ तोड़ता हुआ घुसता था–मुझे भी साथ लिये। उसके साथ बिताये क्षणों का उद्घाटन-रेखांकन यहाँ गैरजरूरी नहीं, अनिवार्य है, क्योंकि देशबंधु को गैरहाजिर करने से वह प्रक्रिया गायब हो जाएगी जिसको जानकर और जिससे गुजरकर ही मेरे चरित्र और लेखन को समझा जा सकता है।

मेरी सबसे चर्चित और सबसे पहली कहानी ‘लोग हाशिए पर’ का ‘कोरिलेटिव’ देशबंधु ही है। मेरी विवादास्पद कहानी ‘जन्मभूमि’ उसके चरित्र के माध्यम से ही मेरी अपनी जटिलताओं को मूर्त कर सकी है। केवल तैंतीस वर्ष की उम्र में ही शराबमय हो जाने वाले मेरे तन-मन के पीछे देशबंधु की ही उपस्थिति जिम्मेदार है। केवल तेरह वर्ष के लेखन में ही जीवन को दसों उँगलियों से पकड़ पाने की बेचैनी और छटपटाहट के पीछे देशबंधु ही कौंध रहा है। वह देशबंधु ही है जिसने यह समझ, धैर्य और संवेदना संभव करायी कि नरक में ही कहीं छुपे हैं वे लोग, जिनसे स्वर्ग की रचना संभव होगी, कि मुक्ति का रास्ता भले ही अकेले न मिलता हो लेकिन रचना के शिखरों पर, दूसरों से अलग रहने का जोखिम उठाते हुए ही चढ़ा जा सकता है, कि बार-बार छले जाने के बावजूद, मानवीय और संवेदनशील बने रहना रचनाकार होने की प्राथमिक शर्त है, कि दोस्ती समीकरण का नहीं, जज्बे और पवित्र समर्पण का नाम है। उसने उम्र के 35वें वर्ष में विवाह किया और विवाह के अगले रोज उसकी लाश देहरादून के डाकपत्थर की नहर में पायी गई। वह जीवित रहता तो दूसरा मुक्तिबोध नहीं, पहला देशबंधु बनता। उसके साथ मैं रोजाना देहरादून के विभिन्न शराबघरों में रात के बारह-बारह बजे तक शराब पीता था, दो-दो बजे तक सड़कों पर घूमता-फिरता था और सैकड़ों शराबियों, गुंडों, बदमाशों, गरीबों, क्रांतिकारियों, दुकानदारों और सिनेमाहॉल के गेटकीपरों के मनोलोक, स्वप्नलोक और जीवन-स्थितियों में तैरता-उतराता और उनसे टकराता-जूझता था। वह न होता तो जीवन की तलछट अनजानी-अनपहचानी रह जाती। तिब्बतियों की बस्ती में उपलब्ध छंग, देहरादून के गाँवों में बनने वाली कच्ची शराब, ठेकों पर मिलने वाला ठर्रा, चायघरों में बिकने वाली हरी और नशीली चाय और बारों में मिलने वाले रम और व्हिस्की के स्मॉल और लार्ज पैग, उसी की बदौलत जीवन के अनुभवों में शरीक हुए। उत्तर प्रदेश और हिमाचल की सीमारेखा पर खड़े होकर रात के दस बजे हिमाचल की ‘हरी’ शराब नीट्यी लेने का जोखिम और रोमांच महसूस किया उसी के साथ।

बहरहाल! देहरादून में डॉ. आर.के. वर्मा के साप्ताहिक अखबार 1970 में 50 रुपये माहवार पर सहायक संपादकी (जिसमें मेहमानों के आने पर सड़क पार की चाय की दुकान से चाय लाना भी शामिल था) करने से लेकर ‘क्कैनगार्ड’ साप्ताहिक में 75 रुपये महीने पर प्रूफ पढ़ने तक (जिसमें कभी-कभी मशीनमैन का सहायक बनकर छपा हुआ पेज मशीन के दो जबड़ों से बाहर निकालने का काम भी शामिल था) और घरेलू स्थितियों की असहनीयता से ऊबकर लखनऊ भाग जाने तथा वहाँ फुटपाथ पर रातें बिताने के बाद मित्र कौशल किशोर के कमरे में शरण लेने से लेकर वापस देहरादून लौटकर छात्र राजनीति में सक्रिय होने तक का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसने मेरे रचनात्मक संसार में काफी कुछ जोड़ा। अप्रैल 1975 में मेरी पहली मेच्योर कहानी ‘लोग हाशिए पर’ देहरादून की ‘सिलसिला’ त्रैमासिक पत्रिका में छपी। इससे पहले तक मेरे अवयस्क और आरंभिक प्रयासों के रूप में कुछ कहानियाँ पंजाब केसरी, दैनिक मिलाप, वैनगार्ड और अन्य पत्रिकाओं में छप रही थीं (ये सभी कहानियाँ मैं रद्द कर चुका हूँ और ये मेरे किसी भी संग्रह में संकलित नहीं हैं)। ‘लोग हाशिए पर’ छपी तो देशभर के लेखकों-पाठकों के खतों से मेरा झोला भर गया। बलराम का खत भी उन्हीं दिनों मिला। तब नहीं जानता था कि चार अक्षरों वाला यह नाम एक दिन मेरे भावनात्मक जगत को पूरी तरह से छा लेगा। ‘लोग हाशिए पर’ छपते ही मुझे बतौर साहित्यकार स्वीकार कर लिया गया।

कहानी छपी तो देशभर के लेखकों-पाठकों के खतों का अंबार लग गया। इनमें नये, पुराने प्रतिष्ठित सभी तरह के लोग थे। मैं चकित और अभिभूत दोनों था। एक ही कहानी से मुझे बतौर रचनाकार स्वीकार कर लिया जाएगा ऐसा मैंने हर्गिज नहीं सोचा था। क्योंकि वह एक कठिन जमाना था। उन दिनों साहित्यकार बनना इतना आसान नहीं होता था। कुछ नया और अनूठा कर के दिखाना होता था और पढ़ाई भी खूब करनी पड़ती थी। उन दिनों होता यह था कि कुछ दिन मैं अपने नाम आए/आ रहे खत पढ़ता और फिर अपनी कहानी फिर से पढ़ता। कुछ दिनों के इस घटनाक्रम के बाद आखिर मैंने भी मान लिया कि मैंने एक कामयाब कहानी लिख डाली है। 19 साल की उम्र  में साहित्य के प्रांगण में यह उपलब्धि मायने रखती है। तब मैं बी.ए. के प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था–देहरादून के डी.ए.वी. कॉलेज में। एक ही कहानी के जरिये मेरी दुनिया बदल गई थी। उस एक कहानी ने डी.ए.वी. कॉलेज के एक साधारण छात्र को दिल्ली, कोलकाता, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, मुंबई, जोधपुर, जयपुर, लखनऊ, जबलपुर, भोपाल, जैसे शहरों के बड़े लेखकों से जोड़ दिया था। उन दिनों खत लिखने का भारी चलन था और हिंदी लेखक का भी खासा ‘ठाठ-बाट’ हुआ करता था। यह काफी उथल-पुथल भरे और राजनैतिक रूप से आंदोलनकारी दिन थे। पूरे देश में जेपी आंदोलन शीर्ष पर था। सन् 1975 के मई महीने में किसी ने नहीं सोचा था कि सन् 75 के जून महीने की 26 तारीख को देश में आपातकाल लगने वाला है, और वह लगा। उसकी एक अलग कहानी है। और उस पर भी अपनी एक कहानी है। मुझे लगता है कि पहली कहानी पहले प्यार की तरह कीमती, अनूठी और रोमांचकारी होती है। ‘लोग हाशिए पर’ मेरे लिए ऐसी ही है। इस कहानी के बाद तो साहित्य की पगडंडी पर मेरा सफर चल निकला जो थमता-लड़खड़ाता आज भी जारी है।

साहित्य का सर्वाधिक सकारात्मक पहलू यही है कि यहाँ लेखक कभी रिटायर नहीं होता। लेखक कभी भूतपूर्व नहीं कहलाता। हाँ, अभूतपूर्व जरूर कहलाता है। 1977 में ‘सारिका’ में मेरी एक कहानी छपी थी–‘आयाम’, जिसे पढ़कर हलद्वानी से किसी ललिता बिष्ट ने एक भावुक-सा खत मुझे लिखा। प्रेम का इतने दिनों से बाधित सोता जैसे भल-भल कर फूट उठा। दोनों तरफ से पत्र लंबे होते चले गए और अंततः 13 जून 1978 की एक सुबह मैंने पाया कि ललिता मुझे सोते से जगा रही है और सूचित कर रही है कि वह अपने पिता के घर को छोड़ आई है और अब कभी वापस नहीं जाएगी। हमने उसी दिन विवाह किया और अगले रोज पिता से सुना कि अगर जरा भी शराफत बाकी है, तो 24 घंटे के भीतर घर छोड़ दो। यानी संघर्ष फिर सामने था। पहले से कहीं अधिक मारक और हाहाकार-भरा। ललिता ने कहा, प्याज-रोटी भी खिलायेगा तो जीवन गुजार लूँगी, उसे सुन मैं लगभग रो ही पड़ा। करीब पंद्रह दिन हमने राजपुर रोड स्थित भीमसेन त्यागी के मकान में गुजारे। वह सुदर्शन चोपड़ा के देहांत पर सपरिवार दिल्ली चले गए थे। काफी समय बाद लौटे, तो साथ में संदेश भी लाये कि फौरन दिल्ली जाकर राजकमल प्रकाशन ज्वाइन कर लूँ। और इस तरह मैं दिल्ली आ गया–राजकमल की साढ़े तीन सौ रुपये महीने की नौकरी पर। ललिता कुछ दिन माँ के साथ रही फिर अपनी माँ के पास चली गई। नवंबर 1979 में मैं उसे भी दिल्ली ले आया। दिल्ली में शुरू के काफी समय तक सुरेश उनियाल की छत, संरक्षण और भावनात्मक सुरक्षा मिली जिसने लड़ने और जीने के हौसले को जिलाये रखा।

लेकिन दिल्ली में लड़ने, जीने, बचे रहने, बनने और सँवरने का अध्याय अगर किसी ने लिखा है तो केवल ललिता ने। आज जो यह थोड़ी-बहुत रचनात्मक उपलब्धियाँ दिख रही हैं, इनके पीछे की संघर्षशीलता, यातना, हताशा  और अँधेरे को उसने बूँद-बूँद पिया है और कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि इस अनवरत लड़ाई और अभाव को झेलने का उसे कोई पछतावा या अफसोस है। कई बार तो यह भी हुआ कि अगर मैं टूटने लगा, तो उसने आगे बढ़कर मेरे रेशे-रेशे को अपनी हथेलियों में सहेज लिया। जिसे सही मायने में नरक कहते हैं, उसी के बीच निर्विकार और निःशब्द चलती रही। आज यह स्वीकार करने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि धूल, धूप, वर्षा, अभाव, यातना, वंचना, अपमान, प्रलोभन और हताशा के बीचोंबीच खड़े रहकर भी मैं अपनी अस्मिता, इयत्ता, स्वाभिमान और लेखकीय तकाजों को जीवित रख सका तो सिर्फ इसलिए कि ललिता जैसी आजाद ख्याल, स्वाभिमानी, स्त्री के अधिकारों के प्रति सतत चौकस, लेकिन सहृदय, सहिष्णु और सहनशील ललिता बतौर हमसफर मुझे मिली हुई थी। उसने मुझे उठाया, सँवारा और युद्ध के लिए सन्नद्ध किया। स्त्री सुलभ चाहतों के पूरा न होने पर कभी-कभार वह भिन्नायी जरूर, लेकिन इस सहज दु:ख को उसने कभी भी मेरे रास्ते में दीवार की तरह खड़ा नहीं किया। यह एक तल्ख स्वीकार है कि अगर 1977 के अंतिम समय में मेरा-उसका परिचय न हुआ होता और 13 जून 1978 के रोज वह सहसा मेरे सामने आकर खड़ी न हो गई होती, तो मैं अब तक या तो देहरादून के किसी शराब के ठेके पर मर-मरा चुका होता या आत्महत्या कर चुका होता। ललिता की उपस्थिति ने मेरे भीतर जीने के जज्बे को तो पैदा किया ही, मेरे कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी बने रहने की प्रक्रिया में ‘कैटेलिस्ट’ की भूमिका भी अदा की। ‘हर पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का अस्तित्व निःशब्द बजता है’ इस वाक्य को अपने संदर्भ में ललिता के लिए निःसंकोच रेखांकित किया जा सकता है। दिल्ली आकर यह जो मैं बिना भविष्य की परवाह किए नौकरियों से इस्तीफा देता रहा और नौकरी की संहारक और प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने लेखक को बचाये रख सका, उसका आधा-अधूरा नहीं, पूरा श्रेय ललिता को जाता है। उसने मेरे सुखों को नहीं, दुखों को शेयर किया और वह भी मुझसे मिली वंचनाओं और अवमाननाओं के बावजूद।

दिल्ली में मेरे फौरन बाद राजकुमार भी आ गया था और उसके कुछ ही समय बाद बलराम भी। राजकुमार का दर्जा और अहमियत मेरे जीवन में निष्ठा और अपेक्षारहित मित्रता के संदर्भ में बहुत ऊँचाई पर कोहेनूर की तरह चमकते रत्न जैसी है–आज तक। और संयोग इतना सुखद रहा कि हम तीनों ही राजधानी आ बसे–कमोबेश एक जैसी स्थितियों से जूझते और उनसे पार पाते हुए। दिल्ली में हमारा काफी समय दक्षिण दिल्ली की कॉलोनी नेताजी नगर और उसके ऐन सामने बसी सरोजनी नगर में बीता। इस समय में हम तकरीबन रोज शाम आपस में मिलते, बतियाते और एक-दूसरे के सुख-दु:ख को गहन आत्मीयता के स्तर पर लेते-देते। इस साथ ने हमारी मित्रता को तो एक स्थायी रागात्मक आधार दिया ही, हमें राजधानी के साहित्यिक छल-छद्म, द्वेष, प्रतिस्पर्धा और गलाकाट संस्कृति में फँसने से भी बचाये रखा। इस साथ का एक अत्यंत सकारात्मक पहलू यह है कि इसने हमारे रचानत्मक कोषों को लगातार सक्रिय और सिंचित रखा और सृजनात्मक शब्द की महत्ता और सर्वोच्चता के प्रति हमें सतत आस्थावान रखा। इस दौर में हम तीनों ही कहानी, समीक्षा, साक्षात्कार और पत्रकारिता सभी स्तरों पर अनवरत सक्रिय रहे। मुजफ्फरनगर ने अगर रचना के प्रति एक कशिश-भरा स्वप्न मन में पैदा किया, तो देहरादून के जटिल, अंतर्विरोधी, असंभव और निर्मम समय और अनुभव ने रचनाकार होने की स्थितियों, अनिवार्यताओं, दबावों और यथार्थ को संभव किया। और दिल्ली ने दिया एक उन्मुक्त, असीम और खुला हुआ आकाश। दिल्ली आने से जुड़ा एक वाकया यहाँ रेखांकित करना जरूरी है। भीमसेन त्यागी द्वारा राजकमल में नौकरी दिलाये जाने से पूर्व मैं सुरेश उनियाल से कई बार यह आग्रह कर चुका था कि वह किसी भी तरह मुझे भी दिल्ली बुला ले। लेकिन जब अचानक शादी हो गई और देहरादून निराश करने लगा तो मैंने सुरेश से काफी संजीदगी से यह आग्रह फिर दुहराया। सुरेश ने कहा, ‘दिल्ली में क्या तू समझता है कि जाते ही नौकरी मिल जाएगी!’ उसने आगे कहा कि ‘दिल्ली में आने के लिए नौकरी का नियुक्ति-पत्र न भी हो तो कम-से-कम कोई बुलावा तो हो।’ आगे इस विषय में मैंने उससे कोई बात नहीं की। और इसके कुछ ही रोज बाद मैं उसके दफ्तर में बैठा उसे बता रहा था कि मैंने राजकमल ज्वाइन कर लिया है। इस घटना का उल्लेख इसलिए कि दिल्ली आने से पहले ही दिल्ली का आतंक मेरे मन में हालाँकि जड़ें जमा चुका था लेकिन चेतना में कहीं भीमसेन त्यागी का वह वाक्य भी अक्सर कौंधता रहता था जो उन्होंने मुझसे दिल्ली के लिए प्रस्थान करते वक्त कहा था। उन्होंने कहा था, ‘दिल्ली बहुत निर्मम शहर है, वहाँ जीना और रहना बहुत यातनाजनक और असाध्य है, लेकिन सिर्फ उनके लिए जिनमें जिजीविषा न हो। अगर लड़ने का माद्दा है तो यही दिल्ली आपको इस गहराई से अपना भी लेती है कि फिर आप वहाँ के होकर रह जाते हैं।’ और यही कारण है कि प्रतिकूल से प्रतिकूल मौकों पर भी मैंने यह कभी नहीं सोचा कि यहाँ से भाग लिया जाए। मैं यह सोचकर दिल्ली में उतरा था कि यहाँ नहीं, तो कहीं नहीं। और जब पहले मैं अकेला और बाद में ललिता को लेकर दिल्ली आया, तो हमारे पास गृहस्थी के नाम पर एक चम्मच भी नहीं थी और हमारे तन पर सिर्फ एक-एक जोड़ा कपड़ा ही था।

साढ़े तीन सौ रुपये महीने से शुरू होकर सवा आठ सौ रुपये महीने तक पहुँची मेरी राजकमल की नौकरी के सवा तीन साल संघर्ष, यातना, कठोरतम परिश्रम और लेखकीय प्रतिकूलताओं के ठोस अँधेरे का एक ऐसा सफर है जो आज कल्पनातीत लगता है। राजकमल की नौकरी के अनुभवों को आधार बनाकर जब मैंने अपना लघु उपन्यास ‘आदमीखोर’ लिखा और उसका धारावाहिक प्रकाशन ‘रविवार’ साप्ताहिक में शुरू हुआ, तो राजकमल की मैनेजिंग डायरेक्टर श्रीमती शीला संधु (जो मुझे बेटा कहकर संबोधित करती थीं) के सभी संवेगात्मक तंतु जैसे यकबयक सूख गए। यह बहुत स्वाभाविक भी था और इसे लेकर मेरे मन में कोई शिकवा भी नहीं है। लेकिन मेरी एक दिक्कत और कमजोरी शुरू से रही है कि और चाहे कुछ हो, लेकिन अगर मेरी संवेदनात्मक दुनिया पर जरा भी प्रहार होता है, तो मैं समूचा का समूचा सिर्फ हृदय में बदल जाता हूँ और विवेक उस ‘क्षण विशेष’ मेरे यहाँ तत्काल अनुपस्थित हो जाता है। शीला जी ने तब एक ऐसा वाक्य कहा, जो उन्होंने न कहा होता तो शायद मैं आज भी अपने कई मित्रों की तरह राजकमल में ही नौकरी कर रहा होता और खुद को आज की अपेक्षा ज्यादा असंभव और अभावग्रस्त जीवन-स्थितियों में घसीट रहा होता। आवेश में शीला जी के मुँह से निकल पड़ा, ‘अगर तुम कहीं और होते तो ‘किक आउट’ कर दिए जाते।’ सन्न रह गया। जिस स्त्री ने मेरा दिल्ली में रहना संभव किया, जिसने किराये का मकान न मिलने तक अपना ‘गेस्ट हाउस मेरे लिए खोल दिया था और जो ललिता को ‘बहू’ कहकर संबोधित करती थी, उसके इस रूप ने मेरे मन की कोमलतम दुनिया को सहसा ही एक भाँय-भाँय करते रेगिस्तान में बदल दिया। यह मेरी निष्ठा, प्रतिबद्धता और संवेदना का संपूर्ण अस्वीकार ही नहीं, मेरी श्रद्धा का तिरस्कार भी था। मैं तत्काल उनके केबिन से वापस लौटा, अपना इस्तीफा लिखा और उनके पास पहुँचवा दिया। यहाँ यह श्रेय उन्हें जरूर देना होगा कि इस्तीफे के बाद उन्होंने अपने शब्दों की भयावहता को ‘रियलाइज’ भी किया और मुझे साग्रह और साधिकार रोकने की भी कोशिश की, लेकिन तब तक विवेक मुझे छोड़कर जा चुका था और मेरी भावनाओं की दुनिया तहस-नहस हो चुकी थी। मैंने राजकमल छोड़ दिया। यह 31 मार्च 1981 का दिन था और मैं दिल्ली में बेरोजगार था। तब हम दक्षिण दिल्ली के राजनगर इलाके में आठ बाई आठ फुट के एक तंग कमरे में रहते थे। हम यानी मैं, ललिता, मेरा बेटा आशू और ललिता के गर्भ में उपस्थित दूसरा बेटा। मैं दिनभर यों ही भटकता रहा और शाम को सीमापुरी के ठेके पर चला गया। वहाँ मैं रात के ग्यारह बजे तक शराब पीता रहा और इतना भावुक होने के लिए खुद को लगातार कोसता रहा। रात को बारह-साढ़े बारह बजे मैं घर में घुसा–टूटा, थका, क्षत-विक्षत और शराब के नशे से आक्रांत। वह रात मेरे जीवन की बहुत गलीज, नारकीय और भीतर तक हिला देने वाली रात थी। मैंने ललिता को बताया कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। पहली बार वह डर गई। असुरक्षा, अभाव और भटकाव का जो दर्द उसके सीने में उठा, उसने सहसा ही उसे एक आम भारतीय स्त्री में बदल दिया और वह मेरी उस भावुकता, जिसे वह प्यार करती थी, को कोसने लगी। बात बढ़ती गई और एक-दूसरे के प्रति विरोध, अविश्वास और अवज्ञा का भाव भी उग्र होता गया। नतीजा संहार में निकला। आज भी मैं इस अपराधबोध से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाया हूँ कि उस रात मैं ललिता पर हाथ उठा बैठा था।

(लेखक की प्रकाशनाधीन आत्मकथा पूछती है सैयदा इस जिंदगी का क्या कियाका अंश)


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Artist : Egon Schiele
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