चलती साँसें, वैभव कुदरत का दे रक्खा है
- 1 April, 2022
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- 1 April, 2022
चलती साँसें, वैभव कुदरत का दे रक्खा है
चलती साँसें, वैभव कुदरत का दे रक्खा है
सोचो हमको ईश्वर ने कितना दे रक्खा है
वह शै जिससे लोग खरीदे-बेचे जाते हैं
नाम उसी को ही हमने पैसा दे रक्खा है
उससे सत्य-अहिंसा के दो सूत निकलते हैं
गाँधी के चित्रों में जो चरखा दे रक्खा है
कोई बुराई खोजे तो खुद शर्मिंदा भी हो
इस खातिर ही पलकों का पर्दा दे रक्खा है
झूठ कपट छल निंदा लालच बेईमानी द्वेष
हमने मन में किस-किस को कब्जा दे रक्खा है
अपने आप विकार नहीं भीतर आ बैठे हैं
हमने ही उनको उनका रस्ता दे रक्खा है
भून रही हैं चिंताएँ सब भीतर-बाहर से
और हमीं ने उनको तन जिंदा दे रक्खा है
ज्ञान उसी में बंद है लेकिन खुशियाँ गायब हैं
बच्चों के कंधों पर जो बस्ता दे रक्खा है
वर्ना आफत ही हो जाती पूरी दुनिया में
अच्छा है ईश्वर ने दिल छोटा दे रक्खा है
कैसे मंद पड़ेगी ज्योति कभी भी दुनिया में
नभ के माथे सूरज का दीया दे रक्खा है
सो जाय नहीं इनसान कहीं रातों में बिल्कुल
आँखों में नींदों के सँग सपना दे रक्खा है।
Image : Le Pont de L_Europe
Image Source : WikiArt
Artist : Gustave Caillebotte
Image in Public Domain