रेणु की कहानियों में द्वंद्व

रेणु की कहानियों में द्वंद्व

जन्मशती स्मरण

रेणु की कहानी ‘पार्टी का भूत’ 1945 में लिखी गई, जो उसी साल मासिक ‘विश्वामित्र’ के अक्टूबर 1945 अंक में प्रकाशित हुई। इसके एक साल बाद रेणु ने ‘बीमारों की दुनिया’ शीर्षक से एक कहानी लिखी जो मासिक ‘विश्वामित्र’ में ही दिसंबर 1946 में छपी। फिर जनवरी 1950 के ‘जनवाणी’ में उनका ‘नए सवेरे की आशा’ शीर्षक से एक कथा-रिपोर्ताज आया, जिसे उनकी ऊपर की दोनों कहानियों से जोड़कर देखा जा सकता है। सन् 1946 से 1950 के बीच रेणु की तीन चर्चित कहानियाँ और आईं–‘रसूल मिसतिरी’ (1946), ‘इतिहास, मजहब और आदमी’ (1947) तथा ‘खंडहर’ (1948) एवं तीन कथा-रिपोर्ताज भी आए–‘डायन कोशी’ (1948), ‘जै गंगा’ (1948) तथा ‘हड्डियों का पुल’ (1950)। इन कहानियों या कथा-रिपोर्ताजों में से अधिकांश में अकाल, भूख, महामारी या बाढ़ के लोमहर्षक दृश्य हैं पर कई कहानियों में 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन तथा आजादी के बाद की भी स्थितियाँ हैं। जब देश गुलाम और बीमार था तो उस समय राजनीतिक पार्टियों की भूमिका देश के लिए थी या अपने लिए, रेणु की कई कहानियाँ  इन प्रश्नों की ओर हमें ले जाती हैं। फिर देश जब आजाद हुआ तो आजादी की लड़ाई के सारे महत्त्वपूर्ण नारे देखते-देखते कैसे विलोपित हो गए और वे सारे लोग किस तरह सुविधाभोगी स्थितियों की गिरफ्त में आते चले गए तथा अपना वह अतीत भूल गए, जिसके सहारे उन्होंने देश को अँधेरे की गिरफ्त से मुक्त करवाने की लड़ाई लड़ी थी, ये कहानियाँ हमें इन उत्तर औपनिवेशिक स्थितियों की ओर भी ले जाती हैं।

‘बीमारों की दुनिया’ का वीरेन आजादी की लड़ाई में पुलिस और सत्ता के जुल्मों को झेलने के क्रम में ही क्षय रोग का शिकार हुआ है। उसने जेल में एक बंदी के रूप में बहुत सारे अत्याचार सहे हैं और स्वाभाविक है कि तभी वह इस स्थिति में पहुँचा है। यह वीरेन कौन है, जाहिर है कि खुद कथाकार जिसे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में एक बार घोड़े में बाँधकर घसीटा गया था। उसी घटना के कुछ दिनों बाद फेफड़ों में पानी आ जाने के कारण उसे जेल से पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहाँ वार्ड में पुलिस का पहरा होता था तथा पैरों में बेड़ियाँ। रेणु को जेल और अस्पताल की यात्रा कई बार करनी पड़ी थी। उसी दौरान उनकी मुलाकात लतिका जी से हुई थी जो वहाँ नर्सिंग की ट्रेनिंग ले रही थीं। बाद में लतिका जी का तबादला पटना सिटी के मंगल तालाब स्थित स्वास्थ्य केंद्र में हो गया जहाँ मुकदमों से मुक्त होने के बाद रेणु कुछ दिनों तक उनके साथ रहे थे। यह मंगल तालाब स्वास्थ्य केंद्र उनकी कहानी ‘अगिनखोर’ में भी है।

रेणु तपेदिक का शिकार होने के बाद ‘बीमारों की दुनिया’ में लिखते हैं–‘हिंदुस्तान में फेफड़े का रोग 99 प्रतिशत पर हाथ फेरने जा रहा है। जरूरत है उत्तम भोजन, कम मेहनत की। जरूरत है हजार-हजार डाक्टरों की।’ …यानी तपेदिक कुपोषण और प्रदूषित वायु की बीमारी है जिससे रेणु का इलाका कभी मुक्त नहीं था। 1946 के कुछ ही पहले 1944 में अकाल ने पूरे बंगाल, उड़ीसा और बिहार की कमर तोड़ दी थी। जब खाने का पूरा अन्न ही नहीं था तो उत्तम भोजन का सवाल कहाँ था! ऊपर से जलवायु से जुड़ी बीमारियाँ भी पैर पसारे खड़ी थीं। तब मलेरिया ने न जाने कितनी जानें पलक झपकते ले ली थीं। पेचिश और बदहाली के कारण हैजा भी अपने उफान पर था। इसीलिए लोगों के जीने-मरने का कोई हिसाब ही नहीं था। लोग मर रहे थे। उनका नाम मिट रहा था, जैसे बेड न. 4 के गुलाम मुहम्मद गिलानी देखते-खिलखिलाते रुखसत हो गए थे। बेड न. 5 भी खाली हो गया था। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था क्योंकि उसी बेड न. 4 या 5 को पाने के लिए कई बीमार कतारबद्ध थे। यहाँ मौत बहुत जानी-पहचानी हुई चीज थी। जहाँ बेड न. 1 पर पड़े रेणु अपने को समझा रहे थे कि कथाकारों के नायक प्रायः क्षय रोग से ही पीड़ित होते हैं, खून की कै करते हैं और यह एक रोमांटिक रोग है। और एक कॉमरेड से यह कहलवाते रहे थे कि ‘अरे कॉमरेड! लेनिन भी टी.वी. से ही मरे थे और गोर्की ने अच्छी किताबें सेनिटोरियम में ही लिखी थी कि यह रोग आसानी से पीछा छोड़नेवाला नहीं।’ इसीलिए वे कहानी के शुरू में ही कह देते हैं–‘वीरेन की जवानी में घुन लग गया। बिछौने पर पड़े-पड़े एक डेढ़ वर्ष हो गया। आराम होने के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। उसकी जवानी पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के एक वार्ड में बेड न. 1 पर शिथिल पड़ी है। जर्जर हो चुकी है।’

पर खुशी की बात यही थी कि चिलचिलाती हुई धूप में भी मजदूरों का एक विशाल जुलूस सड़क से गुजर रहा था। …नारे लग रहे थे–मजदूर राज्य कायम हो! इंकलाब जिंदाबाद! जयप्रकाश जिंदाबाद! वीरेन ने खिड़की से देखा था–बड़ा लंबा-चौड़ा जुलूस था। …वीरेन इसलिए भी खुश था कि अहमद उससे कह रहा था–‘मजदूर, किसान और विद्यार्थी फ्रंट पर जोरों से काम चल रहा है। 1942 के जुल्मी ऑफिसरों के जुल्मों की लिस्ट तैयार करनी है। हम उन जुल्मियों को खुली अदालत में लाकर छोड़ेंगे।’ …1942 की क्रांति…लाठी चार्ज…कठोर कारावास…जेल का भीषण लाठी चार्ज…बीमारी…अस्पताल। …वीरेन अपने साहित्यिक मित्र अजीत से कहता है–‘हमारी जिंदगी हिंदुस्तान की जिंदगी है। हिंदुस्तान से मेरा मतलब है कि असंख्य गरीब मजदूर, किसानों के हिंदुस्तान से।’ …यह कहते या सोचते ही वीरेन को लगता है कि एक नई ताकत न जाने कहाँ से उसके अंदर आ गई है जो उसे बार-बार झकझोर जा रही है और कह रही है कि इस ताकत के आगे रोग नहीं टिक सकेगा। …पर यह रोग सिर्फ शरीर का तो था नहीं, इसकी जड़ें बहुत गहरी थीं क्योंकि देश के आजाद होने के बाद जो नई सरकार से अपेक्षाएँ थीं, उनको पंख नहीं मिल पाए थे। पहली अपेक्षा तो अपने राज्य में 1946 में गठित श्रीकृष्ण सिंह की सरकार से थी और दूसरी 1947 में भारत में गठित नेहरू की सरकार से। …पर जो अपेक्षाएँ गुलाम भारत में थीं, वे आजाद भारत में भी ज्यों की त्यों बनी हुई थीं। …किसानों और मजदूरों का जो जुलूस आजादी के पूर्व अपनी माँगों के लिए सड़कों पर था, वही जुलूस आजादी के बाद भी वही नारे लगा रहा था।

 रेणु ने 1950 में ‘नए सवेरे की आशा’ नामक जो रिपोर्ताज लिखा, वह किसान मार्च पर अकेला रिपोर्ताज है। रेणु को आखिर यह रिपोर्ताज लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? इस आजादी के बाद सवेरा नहीं हुआ था या जो सवेरा हुआ था, वह छायाग्रस्त था? …किसानों को अपने मुख्यमंत्री के पास जत्थों में लाल झंडे के साथ क्यों मार्च करना पड़ा था? ये लाल झंडे तब किसका प्रतीक बनकर सड़कों पर लहराए थे? आजादी तो मिल गई थी। तो क्या आर्थिक आजादी के लिए, सामाजिक और वर्णगत विभेद मिटाने के लिए? …चुन्नीदास बेचैन क्यों हैं और क्यों यह कह रहे हैं कि ‘दुहाई गाँधी बाबा, जमीन पर जोतनेवालों का हक नहीं, गरीबों के पेट में अन्न नहीं, देह पर बस्तर नहीं, लोगों ने झूठमूठ हल्ला मचाया कि सुराज हो गया।’ …सच्ची आजादी के लिए चुन्नीदास चौदह बार फिर जेल जाने को तैयार हैं। परमानपुर में किसानों की सभा हो रही है। दाढ़ीवाले बाबा जी चुन्नीदास लोगों को शांत कर रहे हैं। वे 1930 से 1942 तक चौदह बार जेल की सजा भुगत आए हैं।

कबीरदास के गाँधीदास बननेवाले चुन्नीदास की सारी जमीन मालगुजारी नहीं देने के कारण नीलाम हो गई। चुन्नीदास की एक ही रट है…जमींदार न तो पानी बरसाता है, न खेत की पैदावार को बढ़ाता है, फिर कैसी मालगुजारी, कैसा खजाना? 1934 में ही चुन्नीदास ने यह नारा दिया था और यह भी कि जब तक सुराज न होगा, ‘जटा और दाढ़ी’ नहीं कटाएँगे।

 नई उम्मीदों की रोशनी जलानेवाला यह किसान मार्च! जरूरत है, करोड़ों-करोड़ शोषितों, पीड़ितों, मेहनकशों की भूखी अँतड़ियों, सूखी हड्डियों, खाली दिमाग और निराश दिल में हरकत पैदा करने की। वक्त की माँग और जरूरत को सही-सही समझनेवाली जमात…सोशलिस्ट पार्टी, प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ आँख नहीं मिला सकेंगी। सातों समंदर का पानी उलीचकर इसकी लपट को बुझाना असंभव होगा। आखिर रेणु के मन में किसान मार्च को लेकर ऐसी परिकल्पनाएँ क्यों हैं? इसीलिए कि उन्हें परिवर्तन चाहिए। और इसकी संभावना धूमिल दिखने पर वे लाल चीन के तरीकों की ओर लौटने की बात भी करने लगते हैं। वे कहते हैं–‘…कुओमिंतांग शासन के शोषण, अत्याचार, खुदगर्जी से तबाह होकर चीन के किसानों ने अपनी नई दुनिया बसाने के लिए सफर शुरू किया–लॉन्ग मार्च–इसी का नतीजा है कि आज चीन लाल हो उठा है।’ …जाहिर है कि रेणु तमाम मतभेदों के बावजूद 1950 तक लाल झंडे को परिवर्तन का एक प्रतीक मानते रहे थे…लाल चीन की तर्ज पर एक लाल हिंदुस्तान चाहते थे।

ज्ञानचंद को नींद नहीं आ रही है। कितने धोखे में था वह। कितनी दूर था वह, अपने वर्ग से, समाज से, जनता से। उसकी जिंदगी का रुख, जिंदगी को देखने का, समझने का, परखने का दृष्टिकोण ही अचानक बदल गया है। वह तेरह दिनों से विशाल जनसमूह के साथ है, हजारों गाँवों से वह गुजरा है, लाखों के चेहरे पर उसने पढ़ा है कि ‘जब नेहरू और पटेल अपने वादे को भूलकर पूँजीपतियों, जागीरदारों, जमींदारों के हाथ का खिलौना बन जा सकते हैं तो? नाउम्मीदी, निराशा, हार, अविश्वास। …आप अपनी हालत दिखाने, अपने दुख-दर्द की कहानी प्रधानमंत्री से सुनाने आए और वे भाग गए, छिप गए। जनता से दूर जनता के दुख-दर्द से प्रधानमंत्री (आजादी से पूर्व मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था) ने रेत में सिर गड़ा लिया। उसे अमेरिका में रह रहे अपने मित्र शशांक (यह शशांक ‘हड्डियों के पुल’ में भी है) की बातें याद आ रही हैं कि ‘नया दौर हमेशा एक तरह के जेहनी इंकलाब के साथ आता है। नए दौर में कद्रें बदल जाती हैं, नई कद्रों के बलबूते पर नए अदीब पुरानी शाहराह से मुँह मोड़ लेते हैं।’…इसीलिए वह शशांक को अपना भावनात्मक प्रेम प्रेषित करते हुए कहता है–‘शशांक, विश्वास करो, हिंदुस्तान की मिट्टी पर फासिज्म की नींव नहीं पड़ने दोगे।’ …और इसका प्रमाण 14 नवंबर…लाल आसमान, लाल फिजा, लाल साड़ियों में लज्जावती मिथिला कन्याओं की टोली जनसमूह को विदाई दे रही हैं। …जूठे पत्तलों पर जीनेवाला, भूखा, गुदड़ी से लाज ढँकनेवाला, नंगा, फुटपाथ पर और खुले आसमान के नीचे सोनेवाला, बेघर का हिंदोस्तान अपनी बात सुनाने पटना जा रहा है। …लाल झंडे में सजी हुई सैकड़ों कश्तियाँ गंगा की धारा में एक अजीब रंग घोल रही है। लाल झंडों का जंगल…टोपियाँ, लाल झंडे,…मानो शोले उठे हैं। …बस का बूढ़ा कंडक्टर कह रहा है–‘जिंदगी में इतना बड़ा जुलूस पटने में नहीं देखा।’

तो क्या रेणु बदले हुए हिंदुस्तान को इसी रूप में देख रहे थे! लगता तो यही है क्योंकि ज्ञान कहता है–‘यह किसान मार्च उस आंदोलन का प्रारंभ है जो नई जिंदगी का रास्ता प्रशस्त बनाएगा।’ …यह कहते हुए ज्ञान का ज्वर से सूखा चेहरा खिल जाता है…हिंदुस्तान लाल हो रहा है और यही नए सवेरे की आशा है।… जाहिर है कि 1949 में चीन कम्युनिस्ट देश बना और यह कहानी 1950 में लिखी गई। जबकि ‘पार्टी का भूत’ लिखते समय रेणु इस कम्युनिज्म को लेकर इतने आश्वस्त नहीं थे जितने वे ‘नए सवेरे की आशा’ में दिख रहे हैं। ‘पार्टी का भूत’ के शुरू में ही वे लिखते हैं–‘सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है। चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन में चैन नहीं, रात में नींद नहीं आती। आती भी है तो बुरे सपने देखकर जग पड़ता हूँ।’ आखिर ये बुरे सपने किसके हैं? पार्टी की भूमिका के ही हैं जिसको लेकर रेणु आश्वस्त नहीं हैं। उन्हें यही लगता रहता है कि ये राजनीतिक पार्टियाँ, चाहे वह काँग्रेस हो, सोशलिस्ट हो, फारवर्ड ब्लॉक हो या फिर कम्युनिस्ट पार्टी हो, क्या भारत के भविष्य को बदल सकेंगी? आजादी के बाद जब काँग्रेस की भूमिका नकारात्मक हो गई तो रेणु को यह नया सवेरा लाल क्रांति की पृष्ठभूमि में ही दिखा। आजादी के पूर्व इसकी आश्वस्ति नहीं थी तभी तो उन्हें बुरे सपने आ रहे थे। वे लिखते हैं–‘देखता हूँ कि मैं सड़क पर भागा जा रहा हूँ। शहर के आवारा लड़के मेरे पीछे दौड़ रहे हैं और चिल्ला रहे हैं–‘आप किस पार्टी के?’ वे ढेले फेंकते हैं, तालियाँ पीटकर हँसते हैं।’ यानी वे दिशाहीनता में जीना नहीं चाहते, उन्हें भविष्य की आश्वस्ति चाहिए। …कुछ वैसी आश्वस्ति जहाँ जीवन सबके लिए हो। रेणु अपने आसपास के तथाकथित वैचारिक मित्रों से भी परेशान हैं जो वामपंथ को गहने की तरह पहनकर चलते तो हैं पर जड़ों से काफी दूर हैं। तभी तो उनका मित्र विनोद उनसे यह कहने की हिमाकत कर बैठता है कि ‘अरे, यह क्या पढ़ रहे हो, ‘गोदान’? सिली! इट्स ए रिएक्शनरी बुक!’ …या फिर स्वप्न सुंदरी कॉमरेड मिस रोस्सा जो अपनी मोहक अदाओं के बीच कह बैठती हैं कि ‘कुछ चीजों के संबंध में मैं खास राय रखती हूँ। सिगरेट को ही लीजिए न। मैं तो बिना सिगरेट के धुएँ की सुगंध के पुरुषों के साथ की आशा भी नहीं कर सकती। सिगरेट पुरुषों के पीने की चीज है और उसकी सुगंध स्त्रियों के उपभोग की चीज है।’ …और ऐसे लोगों के कारण ही रेणु को तब यह कहना पड़ता है कि ‘कम्युनिस्टों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रह गई क्योंकि मिस रोस्सा ने एक अमेरिकन सैनिक से शादी करके अपने अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत को कार्य में परिणत कर दिया।’ …‘बीमारों की दुनिया’ में भी एक ऐसा ही कम्युनिस्ट है जो वीरेन के पास जब भी आता है, सामयिक राजनीति पर एक व्यंग्य लिए आता है। इसी तरह ‘पार्टी का भूत’ में भी एक कॉमरेड कह रहे हैं–‘आप किस पार्टी को बिलोंग करते हैं? सी.पी. (कम्युनिस्ट पार्टी)…? …तो फिर वी.आर. कॉमरेड्स।’ पर यह सब सुनना रेणु को पसंद नहीं। उन्हें तो बिना शोर-शराबे के काम करने वाले कार्यकर्ता चाहिए जैसे ‘बीमारों की दुनिया’ के मजदूर हैं या फिर ‘नए सवेरे की आशा’ के खेतिहर किसान जो सत्ता या शासन से अपने जीने का हक माँग रहे हैं। इसीलिए उनकी ऐसी कहानियों के अलग-अलग पाठ हैं।

दरअसल रेणु को राजनीतिक कार्यकर्ता के बहाने जड़ों के आदमी की तलाश थी। अलग-अलग कालखंडों की इन कहानियों में एक राजनीतिक विचारधारा पाने की उनकी बेचैनी का कारण यही है। इसीलिए ‘नए सवेरे की आशा’ का ज्ञानचंद हो या किसनू या दादा मोसाय की छोटी-सी बेटी बनानी या सीधा-सादा बादर मंडल या मोहन गुरुजी, ये उनके बहुत करीब हैं। …किसनू ज्ञानचंद को जमीनी कार्यकर्ता बनाने में लगा है। वह ज्ञान को चावल की प्रजातियों के बारे में समझा रहा है–‘देखिए ज्ञानू भइया, यह है नाजिर, यह है रागी, यह बासमती, यह कनकजीर…।’ बादर मंडल ज्ञान से कह रहा है–‘अरे फाहरम यहाँ कौन पढ़ता है! आप यह पूछिए कि कितने लोग जाने के लिए तैयार हैं।’ बादर मंडल का चैपाल ग्राम किसान पंचायत का दफ्तर है। हर सातवें रोज मोहन गुरुजी आकर जनता अखबार पढ़कर सुना जाते हैं। पंचायत के सरकुलरों की सूचना देते हैं। ज्ञानचंद पूछता है–‘पर्चे, पोस्टर मिल गए हैं न? बँटवाया नहीं’, …तो मुश्किल से चुप रहनेवाला देवीप्रसाद एक हकीकत बयान करता है–‘बाँटा कहाँ गया! स्कूल के लड़के सब उठाकर ले गए। कागज की महँगी है न। एक ओर सादा था, लड़के कॉपी बनाएँगे।’ …मोहन गुरुजी चादर से मुँह निकालकर कहते हैं–‘सब कंपलीट है। ओढ़ना, बिछौना, चूड़ा, गुड़, सत्तू।’

ज्ञानचंद जब गाँव लौटता है तो उसे धान की पकी बालियों के साथ कुछ स्मृतियाँ भी कचोटती हैं। उसे दादामोसाय की छोटी बेटी बनानी याद आती है जो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय अपने बड़े भाई केशव दा की बहादुरी की चर्चा बड़े गर्व से करती हुई कहती–‘जाने ज्ञान! बड़ दा इंगरेज मेरे छिलो…गुली कोरे ठांय! जानो? इंग्रेजी पोड़लेई इंगरेज के मारवार इच्छे कोरे।’ रेणु इस प्रसंग को अपने इस रिपोर्ताज में क्यों लाते हैं, शायद इसीलिए कि जब आजादी दिलाने का कोई अन्य रास्ता काम नहीं आ रहा हो तो यह क्रांतिकारी रास्ता भी एक विकल्प हो सकता है। भगत सिंह ने इसे बहरों को जगाने का एक मंत्र कहा था। अँग्रेज और अँग्रेजी दोनों ने इस देश का कितना नुकसान किया, यह सर्वविदित है। स्वाभाविक है कि इसका दंश रेणु के भीतर भी है। इसीलिए वे क्रांति का एक नया स्वरूप गढ़ना चाहते हैं। नेपाली क्रांति में उनका बी.पी. कोइराला के साथ होना या 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन तक जयप्रकाश नारायण के साथ रहना इसी का प्रतिफल है। इसीलिए रेणु की कहानियों या कथा-रिपोर्ताजों में काफी स्पेस भरा पड़ा है जिसकी कई-कई व्याख्या हैं, कई-कई पाठ हैं। और इन पाठों में ही उनका बहुआयामी व्यक्तित्व छिपा है। इनमें एक यह भी है कि 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के पूर्व रेणु ये कहने लगे थे कि ‘ऐसा भारतवर्ष हमने चाहा था क्या? ऐसा लगता है, कहीं पतवार खो गई है। …यह भी कोई प्रजातंत्र है? कलमबंद, जुबान बंद। पर आँखें खुलीं। इस अवस्था में आदमी अपने मानसिक उद्वेग को कैसे शांत करेगा? मेरे जैसा आदमी पागल नहीं होगा तो क्या होगा?’ …जाहिर है कि रेणु की यह चिंता उस नए सवेरे की आशा से ही जुड़ी हुई है जिसका स्वप्न ज्ञान देख रहा है।


Image: Circular Road Calcutta
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Artist: Thomas Prinsep
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अरविन्द कुमार द्वारा भी