आचार्य नरेन्द्र देव और चोंच-संप्रदाय
- 1 August, 2020
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 August, 2020
आचार्य नरेन्द्र देव और चोंच-संप्रदाय
आचार्य नरेन्द्र देव जी एक निहायत संजीदा इनसान थे, और भारत के समाजवादी आंदोलन के एक प्रखर चिंतक और नेता के रूप में विख्यात थे! उनका जन्म अक्टूबर 31, 1889 को सीतापुर में हुआ था। वस्तुतः उनके राशि नाम ‘अविनाशीलाल’ का प्रभाव हमें स्पष्ट उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में दिखाई देता है! नरेन्द्र देव नाम तो बाद में रखा गया था। उनका राजनीतिक जीवन तो ‘बंग-भंग आंदोलन’ के दौरान ही शुरू हो गया था, उस समय वे इलाहबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे और मक्डोनल छात्रावास (जो बाद में हिंदू छात्रावास के नाम से प्रसिद्ध हुआ) में रहते थे, बाबू शिव प्रसाद जी गुप्त के साथ और अपने छात्रावास से स्टूल ले जा के इलाहाबाद शहर भर में आम-सभाओं के आयोजन में सक्रिय योगदान देते थे! 1921 में गाँधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान वे वकालत को तिलांजलि दे राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। इसी वर्ष (1921) जब राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की शुरुआत हुई, तब उन्होंने काशी विद्यापीठ की स्थापना और सुदृढ़ीकरण में बहुत योगदान दिया, और अपने सफल वकालत का परित्याग करके, इसमें अध्यापन का कार्य प्रारंभ किया। वे इतिहास विभाग के अध्यापक व आचार्य रहे तथा स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी सिपाही! उन्होंने काशी विद्यापीठ, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा लखनऊ विश्विद्यालय के कुलपति के पदों को भी गौरवान्वित किया था! आचार्य नरेन्द्र देव इतिहास, राजनीतिशास्त्र एवं समाजशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे तथा एक कुशल एवं प्रभावशाली वक्ता भी!
वे भारत में समाजवादी आंदोलन के प्रवर्तक एवं प्रणेता थे, 1934 में उनकी ही अध्यक्षता में ‘काँग्रेस समाजवादी पार्टी’ की स्थापना हुई थी, जिसके सचिव जयप्रकाश नारायण जी थे। वे 1948 तक काँग्रेस कार्यसमिति के सदस्य रहे। वे सिद्धांतों पर कितने अटल थे, ये इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि जब विचारों के मतभेद के चलते काँग्रेस से पृथक हुए उस समय वे काँग्रेस के टिकट पर जीत कर, विधानसभा के सदस्य थे। जैसे ही काँग्रेस से अलग हुए, उन्होंने विधानसभा की अपनी सदस्यता से भी त्याग-पत्र दे दिया था! उनका देहावसान फरवरी 19, 1956 में हुआ! वह बौद्ध धर्म के प्रकांड विद्वान थे, और यही वो कारण था, जो उन्हें एक अन्य समकालीन विद्वान और सुविख्यात यायावर, पंडित राहुल सांकृत्यायन से अटूट रूप से संबद्ध करता है! राहुल जी ने न केवल अपनी आत्मकथा, ‘मेरी जीवन-यात्रा’ में उनकी अनेक स्थलों पर चर्चा की है, अपितु, एक ऐसी दिलचस्प जानकारी दी है, जो अन्यत्र नहीं मिलती!
राहुल जी ने नरेन्द्र देव जी के परिचय के संदर्भ में भी बड़ी नाटकीयता से हमें बताया है। वे अपनी आत्मकथा, ‘राहुल वांग्मय’ खंड में ‘आचार्य नरेन्द्र देव’ शीर्षक के अंतर्गत उनके और उनके पिता जी का हवाला दिया है। वे लिखते हैं कि ‘आचार्य नरेन्द्र देव जी से घनिष्ठता मेरी 1929 में हुई, पर उनके घर का परिचय उससे पंद्रह वर्ष पहले प्रथम विश्व-युद्ध के प्रथम वर्ष (1914) में हुआ था।’ वस्तुतः, इसी वर्ष जब राहुल जी अयोध्या में पशु बलि-प्रथा के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे, तब नर-बलि के समर्थकों और बाहुबलियों ने उनलोग पर लठैतों से हमला करा दिया था, और पुलिस से मिलकर, इन लोगों पर शांतिभंग करने के साथ-साथ, मार-पीट करने का आरोप भी लगाया था। अमन या शांति भंग करने के आरोप में वे सब बंद हुए और बाकायदा उनके ऊपर मुकदमा कायम हुआ था।
यह मुकदमा नरेन्द्र देव जी के पिता जी, जो अयोध्यावासी वकील थे, ने ही लड़ा था! अतः, इस कारण से, राहुल जी का उनके घर आना जाना हुआ था। इसी दौरान उनकी भेंट नरेन्द्र देव जी के बड़े भाई, महेन्द्र देव जी से हुई। राहुल जी उन्ही को कई वर्षों तक नरेन्द्र देव जी समझते रहे थे। वे स्वयं लिखते हैं–‘वस्तुतः, साक्षात्कार उनके (नरेन्द्र देव जी) बड़े भाई से हुआ था, पर मुझे ख्याल था कि, वही नरेन्द्र देव जी हैं। ये गलती पीछे मालूम हुई।’ (पृष्ठ 692)
1949 के दिसंबर 27 को राहुल जी हिंदी साहित्य सम्मलेन में सम्मिलित होने के लिए हैदराबाद गए हुए थे। वहाँ कैसे उनसे ‘हिंदी नगर’ में आचार्य नरेन्द्र जी से भेंट हुई थी। अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ के चतुर्थ भाग में (पृष्ठ 417) वे उसका विवरण देते हैं। वे लिखते हैं–‘नरेन्द्र जी से वर्षों मेरा घनिष्ठ संबंध रहा और महीनों उनके परिवार के व्यक्ति के तौर पर भी काशी विद्यापीठ में रहता था।’ इसी प्रकार, वे एक अन्य स्थान पर भी अपने और नरेन्द्र जी के पारस्परिक संबंध के विषय में विस्तार से लिखते हैं–जब वे 1929 में, सवा वर्ष के प्रवास के उपरांत, श्रीलंका से भारत लौटे, तब उनकी इच्छा बौद्ध धर्म की और बारीकियों को जानने हेतु, तिब्बत जाने की बलवती हुई! भारत से तिब्बत जाने की व्यवस्था की थी, ताकि, बौद्ध धर्म का और गहन तथा विस्तृत अध्ययन करें! वे लिखते हैं कि इसी अवधि में, अर्थात, श्रीलंका से लौटने तथा तिब्बत जाने से पूर्व की अवधि में, उनके संबंध नरेन्द्र देव जी से प्रगाढ़ हुए। वे लिखते हैं–‘नरेन्द्र देव जी ने मेरे ग्रंथों के प्रकाशन में सहायता की।’ इन दोनों के मध्य संबंध कितने प्रगाढ़ हो गए थे, वो इस बात से विदित है कि 1931 में राहुल जी जब तिब्बत से लौट आए थे, तब वे बनारस प्रवास के दौरान नरेन्द्र देव जी के ही साथ, उनके निवास में रहे थे। उनके अपने शब्दों में–‘महीनों मैं उनका अतिथि होकर काशी विद्यापीठ में रहा…’
वे बताते हैं कि, उन्होंने आचार्य नरेन्द्र देव जी के साथ मिलकर, कार्ल मार्क्स की ‘कम्युनिस्ट मनिफेस्टो’ का हिंदी अनुवाद ‘कम्युनिस्ट घोषणा’ नाम से किया था! राहुल जी के मतानुसार उनके और नरेन्द्र देव जी के मध्य एक सेतु और था और वह था दोनों का बौद्ध धर्म-दर्शन एवं बौद्ध-अध्ययन के प्रति अत्यधिक लगाव और समर्पण! वे नरेन्द्र देव जी के विषय में लिखते हैं–‘वह भी बौद्ध दर्शन और संस्कृति के गंभीर विद्वान थे।’ वे स्वीकार करते हैं कि ‘…हम समानधर्मा थे। (हालाँकि, ‘कम्युनिस्ट घोषणा’ के अनुवाद के बाद) हमारा साहित्यिक सहयोग उसके बाद नहीं रहा, किंतु हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ एक-दूसरे को हर्षित जरूर करती थीं। नरेन्द्र देव जी मानव के तौर पर बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व रखते थे. बड़े जिंदादिल थे।’ इसी प्रकार, वे नरेन्द्र देव जी के व्यक्तित्व का चित्रण करते हैं–‘आचार्य जी सुलेखक और सुवक्ता ही नहीं, बल्कि बातचीत में सुंदर और मधुर-भाषी थे।’ (राहुल वांग्मय खंड दो–जीवनी और संस्मरण, पृष्ठ 692)
उपर्युक्त विवरण से वे यह संकेत देते हैं, कि वे पूरे परिवेश को स्पष्ट कर देना चाहते हैं, जिससे पाठक वर्ग को ये साफ समझ में आ सके कि वे जो कुछ लिख रहे हैं, ईमानदारी से लिख रहे हैं। एक ओर, उनमें और आचार्य जी में मतभेद भी थे, और दूसरी ओर, जो अपनत्व और आत्मीयता थी, वो कहीं गहरी थी। और, इन मतभेदों का उन संबंधों पर कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ सकता था! दूसरी बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि, वे राजनीतिक मतभेदों को उतना महत्त्व नहीं देते थे, उनके लिए अध्ययन का महत्त्व बहुत अधिक था। और, वे अध्ययनकर्ता और विद्वान की बहुत कद्र करते थे और इसी नाते वे आचार्य जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहे हैं। और इस शृंखला में, वे उनके व्यंग्य वाले पक्ष को भी उद्घाटित करते हैं, ताकि, परिपूर्णता में उनका मूल्यांकन हो सके!
राहुल जी फिर सबसे मजेदार किस्सा बयान करते हैं, जिसके विषय में हमें कहीं और इतना सजीव विवरण नहीं मिलता। वस्तुतः, यह किस्सा उन्हें उनके छपरा-वासी एक मित्र, बाबू जानकीशरण शाही वकील बाबू ने सुनाया था। ये वकील साहब और आचार्य नरेन्द्र देव जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक ही समय में साथ पढ़ा करते थे! ‘जब वह (आचार्य नरेन्द्र देव) इलाहबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे, उस समय की बात है। देश में बहुत से धर्म को देखते-देखते उनसे वह ऊब से गए थे। उनकी जन्मभूमि फैजाबाद के पास ही अयोध्या है, जहाँ सखी मत का जबरदस्त प्रचार था। पुरुष समझते थे कि ‘स्त्री रूप’ के बिना भगवान उनको स्वीकार नहीं करेंगे। इन मुछंदर स्त्रियों को राम जी के निवास में क्या काम था? और फिर राम जी तो एक पत्नी-व्रत थे। राधास्वामी और आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी आदि पचासों धर्म चला रहे थे। उन्हें सूझी कि इन पंथों के ‘कैरीकेचेर’ के तौर पर हमें एक पंथ खड़ा करना चाहिए। वह और उनके मित्रों ने मिलकर ‘चोंच पंथ’ कायम किया। जब वे लोग आपस में मिलते, तो दाहिने हाथ को चोंच की तरह बनाकर अभिवादन करते। बाहरी जिज्ञासुओं को बहुत गंभीरता से समझाते, सच्चा और मूल धर्म ‘चोंच-पंथ’ ही है। इसके लिए वह विष्णु-वाहन गरुड़ जी, त्रेता के भक्त जटायु और संपाती की बातें बतला कर कायल करते। कितने ही दिनों तक ‘चोंच-पंथ’ विद्याथियों के लिए मनोरंजन का साधन रहा…’
कहाँ समाजवाद के प्रवर्तक और कहाँ मनोरंजन का एक साधन! किंतु गंभीरता से अगर देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है, कि वे बहु-संप्रदायवाद पर एक गंभीर कटाक्ष था! और, इसका प्रभाव उस समय के छात्रों पर अवश्य पड़ा होगा। वास्तव में, उस युग की एक माँग थी, कि भारत की विषमताओं को समाप्त करके, एक सूत्र में ही बाँध सकें, और यह छोटा सा प्रयास भी उसी दिशा में एक अनूठा किंतु, महत्त्वपूर्ण कदम! आचार्य नरेन्द्र देव जी एवं उनके मित्रगण ये बात समझ रहे थे, कि एक तरफ पुनर्जागरण ने देश में एकता के सूत्र में सबको बँधने की आवश्यकता का एहसास कराया था, तो दूसरी ओर, धर्म-सुधार आंदोलन के नाम पर अनेक नए संप्रदाय और मठ स्थापित होने लगे थे। उदाहरण के लिए ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, थियोसोफिकल सोसाइटी आदि-आदि। उनके विचारानुसार जब आवश्यकता एकता की थी और राष्ट्रीय अखंडता की थी, तब ये अपने-आप में एक विरोधाभास के रूप में प्रकट हो रहा था, जिससे अनेकता को बल मिल सकता था। हमें याद रखना चाहिए, कि अभी देश आजाद नहीं हुआ था, अतः आवश्यकता एकता के सूत्र को मजबूत करने की थी न कि उसे इस प्रकार से कमजोर करने की थी।
आचार्य जी एवं उनके साथियों को राष्ट्रीय एकता को क्षीण करने वाले ये विभिन्न संप्रदाय मंजूर नहीं थे, अतः उन्होंने अपने सहपाठियों के साथ मिलकर एक ऐसे आंदोलन की शुरुआत करने का प्रयास किया, ताकि एक सशक्त व्यंग्य के माध्यम से, अंततः इस एकता की वास्तविकता से जनमानस जागरूक हो सके और भारत की एकता अक्षुण्ण बनी रहे, जो स्वतंत्रता आंदोलन की पहली और अपरिहार्य माँग थी! इलाहाबाद तब पश्चिमोत्तर प्रांत अथवा, आगरा एवं अवध के संयुक्त प्रांत की न केवल राजधानी ही थी, अपितु, यहाँ स्थापित विश्वविद्यालय, प्रांतभर की शिक्षण संस्थाओं पर नियंत्रण करता था–संभवतः वे सोचते थे, कि यहाँ के विश्विद्यालय परिसर में स्थापित मत अंततः, अन्य महाविद्यालयों, हाई स्कूलों और इंटरमीडिएट कॉलेजों तक प्रचारित व प्रसारित हो जाएगा! यदि इस विकास के काल में, छात्रों के मस्तिष्क में ये बातें घर कर गईं, तब उनका उद्देश्य सफल हो जाएगा! बहुत सोच-विचार करके, इस नए मत के द्वारा वे अपनी बात दूर तक पहुँचाना चाहते थे, जी एक दूरदृष्टि वाली परिकल्पना प्रतीत होती है! किंतु, ये भी सत्य है, कि महापंडित राहुल जी के अतिरिक्त किसी अन्य स्रोत से हमें ये सूचना अथवा जानकारी नहीं प्राप्त होती। अतः, ये सजग व्यक्ति के प्रत्येक प्रयास को दूसरा उतना ही सजग और चैतन्य व्यक्ति ही समझ सकता था और उसका उल्लेख करना अपना दायित्व और आवश्यक समझते थे!
Image Source : Nayi Dhara Archives