थोड़ा और रुक जाते

थोड़ा और रुक जाते

भरी दुपहरी में कृत्रिम रोशनी से चकाचौंध भव्याकार मुंबई एअरपोर्ट पर लोगों की आवाजाही देखकर नीमा के कदम धीरे धीरे टिकट काउंटर तक बढ़े और जरूरी औपचारिकताएँ पूरी कर वह प्रतीक्षारत यात्रियों संग कुर्सी पर पीछे सिर टेककर सोचने लगी। कितने साल निकल गए जीवन के, यूँ ही यात्रा करते हुए। नौकरी में यहाँ वहाँ के तबादले झेलते हुए उसने विगत जीवन के बारे में सोचा, फिर एक उचटती नजर से फ्लाइट आने जाने संबंधी सूचनाएँ देखने लगीं। फ्लाइट पूरे 45 मिनट देरी से चलेगी। मुंबई से बैंग्लोर की दूरी हवाई जहाज से नापते-नापते पूरे तीन साल बीत गए। अभी वह अपने खयालों में डूबी थी कि अचानक कानों में कोई सुपरिचित आवाज सुनाई पड़ी–‘हाँ, हाँ, ठीक है। एप्लीकेशन भिजवा देना, देख लेंगे।’

पहले खूब सुना है इस आवाज को। कौन हो सकता है? उसने सामने से आ रहे स्थूलकाय प्रौढ़ सज्जन को देखा जो किसी से बतियाते हुए चारों तरफ देख रहे थे। वह एकाग्रचित्त से उन्हें देखते हुए सोचने लगी। अरे, फिर से वही सुनी सुनाई आवाज कानों में पड़ी। वे फिर से फोन पर उलझे हुए नजर आए। नीमा को याद आया पुराना गाना ‘आवाज ही पहचान है, गर याद रहे।’ आँखें मूँदे वह ध्यानस्थम मुद्रा में दो मिनट खामोश रही। फिर से लाउंज में चारों तरफ देखा–वही सज्जन कॉफी शॉप पर कॉफी का आर्डर दे रहे हैं कि वह लपककर उनके पास जा पहुँची–‘एक कॉफी और बढ़ा लें।’ उसके गले से निकलती आवाज में इस बार चहक और उत्साह भर आया।

उन्होंने अचकचाकर नीमा की तरफ देखते हुए पहचानने की कोशिश की–‘हाँ, एक कॉफी और। क्या एक कॉफी भी नहीं पिला सकते आप?’ कहते हुए पूरी बेतकल्लुफी से उनके कंधे पर अपनी हथेली टिकाते हुए उन पर आँखें टिका दी। सालों पुराने उसे नाजुक स्पर्श को याद करते हुए उन्हें भी कुछ कुछ याद आने लगा–‘इतना अधिकार तो सिर्फ नीमा को ही था। पलटकर ध्यान से देखने लगे–‘अरे नीमा, तुम? अचानक, इस तरह? कहाँ हो? क्या कर रही हो?’ आवाज में खुशी के कई रंग आते गए।

‘शुक्र है, पहचाना तो। याद करो, कितने सालों बाद देख रहे हो हमें?’

‘पूरे 22 साल तो हो ही गए। नीमा, कैसी हो?’ अब उस आवाज में स्नेह और सम्मान घुलने लगा–‘अक्सर तुम्हारे बारे में सोचता रहता कि कहाँ होगी तुम। किस हाल में क्या कर रही होगी? तुम्हारे बारे में कहीं से कोई बताने वाला भी तो नहीं मिला, आज तक। हमेशा तलाशता रहा तुम्हें, मगर नाकाम।’

‘हूँ, मैंने भी नेट पर आपका नाम टाइप करके कई बार खोजबीन की मगर कोई सुराग नहीं मिला। ये जिंदगी तो सर्र-सर्र अपनी यात्रा तय करती रही। नई इमारतें बनती रहतीं, पुरानी इमारतें क्रमशः खंडहरों में तबदील होती जातीं, फिर से नए आकार-प्रकार की इमारतों की नई-नई डिजाइनें, नए रंग रूप और आधुनिकता की नई परिभाषा तलाशते आज के युवाजन।’ उसने एक साथ ढेर सारी बातें उड़ेल दी जैसे।

‘ऐ, तुम अब भी दार्शनिकों जैसी बातें करती हो, जैसा पहले करती थी। नीमा, कुछ भी तो नहीं बदला।’

‘ऐसा पूरा सच नहीं है। शरीर भारी हो गया है। बाल हल्के और समूची देह प्रौढ़ा स्त्री में बदलती जा रही। आप भी तो बदले हैं कि इतनी देर लग गई आपको पहचानने में।’ वह ध्यान से देखते हुए बोली।

‘हाँ, ये तो एक शाश्वत सच है जिसे कोई नहीं बदल सकता। अभी कहाँ जा रही हो? बाकी लोग कहाँ कैसे?’ नरेन्दर ने मुस्कराते हुए नीमा की तरफ सवालिया नजरों से देखा।

‘बैंग्लोर के एक स्कूल में कंप्यूटर टीचर हूँ। पति दूसरे शहर में तैनात, बेटा है मेरे पास।’ उसने सोचते हुए जवाब दिया।

‘गुड, दैट्स ग्रेट।’ कॉफी का आखिरी सिप लेते हुए वे फ्लाइट की उद्घोषणा सुनने लगे। कुछ मिनट बाद दोनों प्लेन के अंदर अलग-अलग सीटों पर बैठते कि हमेशा की तरह नीमा ने बगल में बैठे सज्जन से कहा–‘प्लीज, आप मेरी विंडो सीट पर शिफ्ट हो जाइए।’ कहते हुए जल्दी-जल्दी बोलने लगी–‘क्या नरेन्दर, चुपचाप मुँह सिए बैठ गए अपनी सीट पर। इधर आइए।’ हमेशा की तरह फरमान जारी कर दिया उसने।

अचकचाए नरेन्दर चुपचाप नीमा की सीट पर आकर बैठ गए। बादलों संग उड़ान भरता जहाज पूरी ताकत से बादलों को भेदता हुआ सतह से हजारों मीटर ऊँचाई की तरफ तेजी से भागता जा रहा था कि मौसम खराब होने की सूचना सुनाई दी। प्लेन हिचकोले खाते नीचे की तरफ मुड़ा कि नीमा ने नरेन्दर की हथेली थाम ली–‘बहुत डर लगता है, आज भी।’

‘हाँ, जब तुम मोटरसाइकिल पर पीछे बैठती थी, तब भी तो मुझे इसी तरह पकड़ लेती थी। शुरू से ही डर बैठा है तुम्हारे अंदर। मुझे पता है।’ नरेन्दर ने सामान्य ढंग से जवाब दिया।

प्लेन बादलों के बीच दोनों को अनजान ऊँचाई पर ले जा रहा था जहाँ चलते हुए दोनों विगत में चले गए। कुछ मिनटों बाद लगा जैसे बादलों के विशाल मैदान में दोनों अकेले ही खेलते हुए दौड़ रहे हैं कि बादलों की अथाह अटूट शृंखला कभी खत्म ही नहीं हो रही। ऐसा लगा जैसे वे बादलों की गोद में दुबककर बैठे नन्हे बच्चे हों जो अपनी हथेलियों में बर्फ के चूरे से भरा ठंडा जूस लिए एक-दूसरे पर बर्फ फेंकते हुए खेल रहे हों। अनायास नरेन्दर के मुख से निकला–‘नीमा, बचपन के बर्फ वाले खेल की याद आ रही है, जब हम दोनों रंग-बिरंगे गिलासों में पिसी हुई बर्फ को एक-दूसरे के गले में फेंकते थे और तुम तेजी से भागती थी।’

‘हाँ, तुम कभी विरोध नहीं करते थे बल्कि हँसते रहते हमेशा। मेरी माई के लिए ‘सबसे अच्छा छोरा’ बने रहने की जिद जो थी आपकी।’ वह कभी आप तो कभी तुम पर उतर आती।

‘उसके बाद की कहानी याद है जब मैंने तुमसे कहा था–‘नरिन्दर, शादी के लिए कोई कायदे का लड़का समझ में नहीं आ रहा। ऐसा करो, तुम्हीं ढूँढ़ दो। तुम इतने बुद्दू कि सचमुच अपने कई दोस्तों संग मेरी शादी की बात शुरू कर दी थी। जबकि मैं तो इंतजार ही करती रही कि कभी तो मुँह खोलोगे मगर तुमने तो अपने मुँह में ताला लगा रखा था।’ कहने के बाद वह एक मिनट के लिए रुकी, फिर बोली ‘और जब मैंने खुद कहा भी ‘तो तुम्हीं से कर लेते हैं शादी’ सुनकर तुम बुरी तरह चौंके–‘नीमा, मेरी शादी तो हो चुकी है, साल भर पहले’।’

‘अरे, इतनी जल्दी कर ली और बताया तक नहीं।’

‘गाँव गया तो बाबूजी ने अचानक तय कर दी। फरमान मिला कि नौकरी लग गई तो फिर शादी में आनकानी ठीक नहीं। लड़की हमने देख रखी है, देखने में खरी गोरी है और क्या चाहिए? तब इससे ज्यादा कोई कहाँ बोल पाता था अपने पिता से?’ उसने जैसे सफाई देनी चाही।

‘नरिन्दर, और क्या चल रहा जिंदगी में? तुम्हें तो हरदम कुछ नया पढ़ने या अनूठा काम करते रहने की धुन सवार रहती थी। ऐसा कुछ किया क्या?’

‘नीमा, हम जो चाहते हैं या जैसे जीने की प्लानिंग करते हैं, वह इस या उस वजह से कर नहीं पाते या करने का साहस नहीं जुटा पाते। बाकी लोगों की तरह धन, मकान वगैरा जुटाने के जतन करता रहा। कुछ डिग्रियाँ बटोरी। देश विदेश की यात्राएँ करता रहा। नौकरी में टॉप पोजीशन पर हूँ पर फिर भी संतुष्टि कहीं नहीं।’ एक लंबी साँस लेते हुए नरेन्दर बोलते रहे, एक एक शब्द जैसे नपे-तुले तरीके से तौलकर बोले जा रहे हों।

‘अपनी सुनाओ। तुम्हारा कत्थक नृत्य आगे बढ़ पाया? तुम तो स्टेज परफार्मर बनने के सपने देखा करती थी। जरूर बनी होगी। तुम्हारी आँखों में नृत्यांग्ना बनने के अक्स उमड़ते-घुमड़ते देखा है हमने।’

‘न, कुछ खास नहीं कर पाई। तब कत्थक की डिग्री जरूर ले ली थी। मुहल्ले के बच्चों को सिखाने के लिए डांस ट्रेनिंग सेंटर भी खोला मगर ज्यादा चल नहीं पाया। मकान मालिक को धम-धम की आवाजें पसंद नहीं आती थी, सो बंद करना पड़ा। अपना घर लेने में कई साल लग गए। पति का टूरिंग जॉब है सो घर बनाने से लेकर सजाने-सँवारने का पूरा जिम्मा मेरे ऊपर। नौकरी करके घर चलाती कि हॉबी को जीती? बेटे को पढ़ाने में समय निकल जाता। अपने स्कूल में हॉबी क्लासेज तक सिमटकर रह गया मेरा कत्थक जुनून।’ एक लंबी साँस लेकर नीमा ने नरेन्दर की तरफ सजल आँखों से देखा।

तब तक जहाज नीचे की तरफ आने लगा था। ‘जमीन पर पैर टेककर ऊपर की तरफ उड़ान भरने का रोमांचक सफर कितनी ही मजेदार क्यों न हो मगर आसमान के सुदूर सफर से नीचे उतरना ही पड़ता है, सबको, देर सवेर। शिखर पर आदमी अक्स अकेले ही पहुँच पाता है।’ जमीन को छूते प्लेन से सामान उतारने लगे नरेन्दर। वह अभी तक सोच के भँवर में थी।

‘ऐ नीमा, कहाँ जाना है, चलो, तुम्हें छोड़ देता हूँ।’ सोच में डूबी नीमा को याद आया–‘अरे, हाँ, तो यहाँ आप मीटिंग में आए हैं। लिसन, समय का रोना नहीं सुनना मुझे। ये सब नहीं चलेगा यहाँ।’  उसी सालों पुराने अधिकार भाव से बोलने लगी वह।

‘अच्छा बोलो, क्या चाहती हो?’ नरिन्दर ने नरमी से पूछा तो वह गुस्से में फट पड़ी–‘सीधे-सीधे घर चलो। रातभर बतियाएँगे और सुबह सीधे मीटिंग में पहुँचा देंगे। न, तो सुनना ही नहीं है, अब बोलो?’

‘नीमा, रात के साढ़े नौ बज चुके हैं। बहुत देर हो चुकी है। सुबह मिलते हैं 11 बजे के आसपास। तुम्हारा बेटा घर पर है, उसे शायद अच्छा न लगे। अभी चलकर आराम करते हैं। हमारे पास काफी समय है’, आहिस्ते से समझाने पर वह मान गई। ‘ऐसा करते हैं कि कल गाड़ी लेकर ठीक 12 बजे आपके दफ्तर आ जाएँगे। फिर थोड़ा शहर घुमाते हैं। ठीक है न?’ वह जैसे फटाफट किसी नतीजे पर आना चाहती थी।

रातभर दोनों अतीत के गलियारों में चक्कर काटते रहे। स्कूल के दिनों के बाद वे फिर एक-दूसरे से मिल नहीं पाए। एक बार मिले थे, नौकरी के सिलसिले में, कई सालों बाद। जिंदगी के इन 50 सालों का हिसाब-किताब लेना मुमकिन है क्या? घर के दसियों झंझट, झमेले, बहन-भाइयों की शादियाँ, आर्थिक तंगी से जूझते भाई की नौकरी के लिए यहाँ-वहाँ के दसियों चक्कर काटना और सबको खुश करने की खातिर झोंकता रहा अपने जीवन के ये 22 साल। आज पीछे मुड़कर देखने पर ऐसा लगता जैसे कहाँ, कैसे हथेली पर रखी राई की तरह सरकते गए वे सुनहरे सपने? कहाँ खो गया वो जोशीला नौजवान जिसने आमजन उत्थान समिति के बैनर तले दर्जनों कामगारों के हितों की रक्षा के लिए महीनों आंदोलन चलाया। महीनों अखबार में लेख लिखता रहा। उस समय श्रममंत्री ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा था–‘नरेन्दर, कुछ साल गुजर जाएँ, फिर हम तुम्हें  अपने साथ ले लेंगे। अपनी पार्टी में बड़ा ओहदा देंगे तुम्हें। सब ईमानदारी से सँभालना होगा। हमें तुम्हारे जैसे मेहनती, जुझारू और ईमानदार लड़के चाहिए। गजब के कामयाब लीडर बनोगे तुम, एक दिन, हाँ, देख लेना। आना कभी मिलने।’

कुछ महीनों बाद वे मंत्री बन गए थे। एक बार जब वह अपने किसी काम से मिलने पहुँचा तो उन्होंने बड़े टालने वाले लहजे में कहा–‘ठीक है नरिन्दर। नौकरी तो बढ़िया पा गए तुम। इसी में डटे रहो। जरूरत होने पर जरूर याद करेंगे तुम्हें। अपना नंबर देते जाओ।’ कहकर घंटी बजा दी उन्होंने, यानी मिलने का समय खत्म। ऐसे दर्जनों लोगों से उसका तेजी से मोहभंग होता गया। एक से बढ़कर एक धूर्त, पाखंडी और स्वार्थी नेताओं को देख-परख चुका है वह जो उसकी ही जाति के कद्दावर नेता हैं, मगर नींबू की तरह उसका इस्तेमाल करके फिर बेरहमी से नाली में फेंकने से गुरेज नहीं करते, सबके सब मतलबी।

ट्रिंग…ट्रिंग फोन की लगातार आती आवाजों से उसकी तंद्रा टूटी। लेटे लेटे अधमुँदी आँखों से फोन उठा लिया–‘गुड मॉर्निंग नीमा।’

‘बस, पहुँच रही हूँ, दो घंटे बाद। तैयार रहना नरिन्दर। सालों मिस किया है तुम्हें, हाँ, कोई बहाना नहीं सुनना हमें…’ बोलते हुए आवाज भर्राने लगी।

‘क्या हुआ, तुम रो रही हो?’

‘अच्छा, ये सब छोड़ो। बस, फटाफट तैयार हो जाओ। पहुँच जाऊँगी जल्दी ही। अब उठो भी।’

‘ठीक है नीमा…’ उसने जल्दी से अपनी बात खत्म की। मीटिंग क्या थी, बस दो चार लोगों से मिलना भर था। बैंग्लोर में कंपनी का नया प्रोजेक्ट शुरू करना था जिसके लिए अपने ड्राफ्ट को अंतिम रूप देने संस ग्रुप ऑफ गायकवाड़ संग जुड़कर नई परियोजना पर अंतिम मुहर लगानी थी। नरेन्दर जल्दी से तैयार होकर मीटिंग स्थल होटल पार्क पहुँच गया।

ठीक समय पर नीमा ने पहुँचते ही फोन किया–‘मैं बाहर गाड़ी में इंतजार कर रही हूँ।’

‘नीमा, बस थोड़ी देर और, …थोड़ा-सा और रुक जातीं?’ वही सालों पुराना संकोच भरा आग्रह।

‘नरेन्दर यही बात तो मैं तुम्हें सालों से समझाना चाहती थी, जब तुम किसी काम को टालने के लिए हमेशा कहते थे–‘थोड़ा-सा और रुक जाएँ?’ याद करो, सालों पुरानी यही लाइन तकियाकलाम बनती गई।’ वह अतीत को वर्तमान के सिरे को जोड़कर भावुक होने लगी–‘आखिर कब बदलेंगे आप?’

‘हूँ…’

‘याद है? जब तुम्हारी शादी हो गई थी तो हमें पता नहीं चल पाया जबकि मैं तुमसे शादी की बावत चर्चा करने लगी। तब तुमने छूटते ही कहा था–पर मेरी शादी तो हो गई। तब मैंने तुमसे यही कहा था न कि थोड़ा और नहीं रुक सकते थे? तब तुमने पलटकर कहा था–यही बात पहले बता नहीं सकती थी? तब मैं इंतजार कर लेता। नरिन्दर, तुम्हें पहल करके बोलना तब भी नहीं आता था और आज भी वही हाल है। आज उम्र का अंतर जरूर आ गया मगर आप जरा भी नहीं बदले। लिसन, अब और नहीं चलेगा ये बस। कब तक फ्री हो रहे। ज्यादा नहीं रुकूँगी, जल्दी आएँ।’ उसने अपने पुराने अधिकार भाव को पूरी ताकत से इस्तेमाल करना चाहा।

‘आता हूँ प्लीज वेट।’

‘जल्दी आओ। आज हमने बहुत सारी प्लानिंग की है, 22 सालों से छूटी बातें करनी है जी भर के।’

‘ओके, दस मिनट में आ रहा हूँ।’ नरिन्दर ने जल्दी से बात खत्म की।

जल्दी से काम खत्म कर के नरेन्दर तेज तेज कदमों से लिफ्ट का सहारा लिए बगैर सीढ़ियों से उतरने लगे। उतरते वक्त ऐसा लगा जैसे उनके पैरों में पहिये लग गए हों और वह 22 साल का कोटा शहर का नौजवान नरेन्दर में बदलता जा रहा है जिसे समोसा देने के लिए नीमा स्कूल के बाहर खड़ी उसका इंतजार कर रही हो–‘जल्दी आओ नरिन्दर। समोसा ठंडा हो रहा है। देखो तो, गिलास की मोटी बर्फ भी पिघलने लगी है, जल्दी आओ।’ उसी नीमा की मनुहार करती आवाज उसे सालों बाद फिर से सुनाई पड़ी।

समय किसी का इंतजार नहीं करता। 22 साल बाद भी दोनों 22 साल के लड़के लड़की की तरह शहर भ्रमण के लिए निकल पड़े थे। आतुरता से प्रतीक्षा करती उन आँखों में जीवन के प्रति वही पुराना जोश, वही उल्लास और वही स्फूर्ति रग-रग में दौड़ने लगी। गाड़ी के साथ-साथ उनके मन भी तेज गति से ऐसे दौड़ रहे थे जैसे अनथके दो यात्री अभी-अभी यात्रा पूरी करके लौटे हों और फिर से किसी अनजान रोमांचक यात्रा पर निकल पड़े हों, जहाँ सब कुछ नया नया सा लगने लगा था, नया होकर भी पुनर्नवा।


Image : The Married Couple Study for Reapers
Image Source : WikiArt
Artist : Henri Martin
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