आजीवक मक्खलि गोसाल

आजीवक मक्खलि गोसाल

मक्खलि गोशाल छठी सदी ई.पू. (560-484 ई.पू.) के एक प्रमुख आजीवक दार्शनिक हैं, जो महावीर (599-429 ई.पू.) और भगवान बुद्ध (563-483 ई.पू) के समकालीन थे। इन्हें भारतीय नास्तिक परंपरा में सबसे लोकप्रिय आजीवक संप्रदाय का संस्थापक और नियतिवाद का प्रवर्तक दार्शनिक माना जाता रहा है। जैन और बौद्ध ग्रंथों में इनकी चर्चा ‘मक्खलिपुत्र गोशाल’, ‘गोशालक मक्खलिपुत्र आदि रूपों में होती रही है, जबकि ‘महाभारत’ के शांतिपर्व में इन्हीं को मंकि ऋषि कहा गया है। हालाँकि देखा जाए तो मक्खलि गोसाल के बारे में प्राथमिक या प्रामाणित स्रोत के रूप में न के बराबर सामग्री उपलबध है। मक्खलि गोसाल और आजीवक संप्रदाय से संबंधित जानकारी के लिए दर्शनशास्त्री इतिहासकार एक तरह से ‘भगवती सूत्र’, बौद्ध ग्रंथ दीर्घ निकाय के ‘सामन्नफल सुत्त’ और मौर्यकालीन बराबर पहाड़ की गुफाओं से प्राप्त शिलालेखों पर ही आश्रित हैं, जिनमें मक्खलि गोसाल और उनके आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों को महावीर और बुद्ध से कमतर बताते हुए उनका मजाक उड़ाया गया है। बावजूद इन सबके इस तथ्य पर इतिहासकारों में कोई विवाद नहीं है कि मक्खलि गोसाल के आजीवक संप्रदाय और दर्शन का प्रभाव व प्रचलन पहली सदी तक तो संपूर्ण भारत में व्यापक रूप से था ही, आज भी वह देश-दुनिया के भिन्न-भिन्न भागों में दबे-कुचले-वंचित समुदाय के कोटि-कोटि जनसमुदाय का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख प्रासंगिक होगा कि इतिहासकारों में डी.आर. भंडारकर ने ‘आजीविकाज’ (1912), के.बी. पाठक ने ‘ए सेक्ट ऑफ बुद्धिस्ट भिक्षुज’ (1912), जे. कारपेंटर ने ‘आजीवक’ (1913), बेनी माधव बरूआ ने ‘दि आजीवविकाज : ए शॉट हिस्ट्री ऑफ देयर रिलिजन एंड फिलॉसफी’ (1920) तथा ‘ए हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलॉसफी’ (1921), ए.एल. बाशम ने ‘हिस्ट्री एंड डॉक्टराइन ऑफ आजीविकाज’ (1951) और हरिपद चक्रवर्ती ने ‘एस्केरिसिज्म ए एनसिएंट इन ब्राम्हणीकल, बुद्धिस्ट, जैन एंड आजीविकाज सोसायटीज’ (1973) जैन और बौद्ध ग्रंथों के सहारे आजीवकों और मक्सलि गोसाल के इतिहास का पुनर्निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कदाचित ए.एफ. रूडोल्फ हॉर्न पहले विद्वान हैं, जिसने 1898 ई. में पहली बार मक्खलि गोसाल और आजीवकों के बारे में पूरी दुनिया को परिचित कराया।

भारतीय दर्शन में दो तरह की पद्धतियाँ हैं, जो एक-दूसरे के समानांतर सदैव चलती रही हैं। इनमें पहली रूढ़िवादी पद्धति है तो दूसरे को अपरंपरागत नास्तिक पद्धति कहा गया। रूढ़िवादी पद्धति में सांख्य, न्याय, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा (वेदांत) आदि है, तो अरूढ़िवादी नास्तिक मतों में बौद्ध, जैन, लोकायत आदि प्रमुख हैं। इनमें पहली पद्धति ने खुद को वेद से जोड़ते हुए वेदों की सत्ता को स्वीकार किया और आस्तिक मत कहलाया, तो दूसरी पद्धति ने वेद की सत्ता को नकार कर नास्तिक मत की पहचान पाई, यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि इन परस्पर विरोधी मतों में यदि किसी को समुचित स्थान नहीं मिला तो वह था आजीवकों का मत। भारत में आजीवकों के उद्भव के किस तरह के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक कारण रहे हैं, उसे भी आजीवक मत में समझने का प्रयास किया गया तथा भारतीय समाज में नियतिवाद के महत्त्व को भी रेखांकित करने का प्रयास किया गया। ‘सामंजयफल सुत्त’ के संदर्भ से बुद्ध के समकालीन छह नास्तिक दार्शनिकों की जानकारी मिलती है, जिनके नाम पूरन कस्यप, मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबली, पकुंध कंचायन, संजय बेलित्थपुत्र और निगंध नाथपुत्र हैं। इनमें से तीन ज्ञानियों पूरन, मक्खलि और पकुंध को आजीवक संप्रदाय से माना जाता है। आजीवक शब्द आजीव से बना, जिसका अर्थ जीविका का साधन होता है। इस प्रकार आजीवक का तत्त्वगत अर्थ हुआ जीविका के लिए श्रम करने वाला समुदाय। इसी समुदाय को ब्राह्मणवाद ने शूद्र कहकर उसे लांछित जीवन जीने को अभिशप्त किया।

आजीवकों का संबंध निर्वस्त्र रहने वाले उन संन्यासियों से जोड़ा जाता है जो वैदिक परंपरा के खिलाफ एक श्रमण आंदोलन था। एक तरफ जहाँ रूढ़िवादी मत ब्राह्मण परंपरा की उपज थे, तो दूसरी तरफ अरूढ़िवादी नास्तिक मत श्रमण परंपरा की देन थे। कहते हैं, आजीवक दर्शन का सारतत्व भाग्य था, जिसे सामान्यतः नियतिवाद कहा जाता रहा है! आजीवकों का निश्चयवाद परमाणुवाद के साथ आया, जो कि गंगाघाटी में सभ्यताओं के विकास में जोड़कर देखा गया, जबकि उस समय राजनीतिक सत्ता का तेजी से केंद्रीकरण भी हो रहा था। हालाँकि निश्चयात्मक सिद्धांत केवल आजीवकों का ही नहीं, बल्कि अन्य मतों में भी इस सिद्धांत का वर्णन मिलता है। मसलन वैशेषिक न्याय दर्शन अनुभव को ही एक मात्र ज्ञान का स्रोत मानता है। परमाणुओं को ही सभी पदार्थों का मूल मानता है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका, दर्शन और इतिहास के सिद्धांतों ने आजीवक दर्शन को ‘नियतिवाद’ कहा है। आजीवक संप्रदाय के अनुसार संसार-चक्र नियत है। वह अपने क्रम में ही पूरा होता है और मुक्तिलाभ करता है। आजीवक पुरुषार्थ और पराक्रम को नहीं मानते थे। उनका मानना रहा कि मनुष्य की सभी अवस्थाएँ नियति द्वारा संचालित होती हैं। देखा जाए तो आजीवक संप्रदाय की नियति का संबंध भाग्यवाद से जुड़ता है। आजीवकों के दर्शन का उल्लेख ‘समन्नफल सूत्त’ में मिलता है। इतिहास बताता है कि सम्राट आजातशत्रु जब अपने संशय को लेकर गौतम बुद्ध से मिलते हैं और छह भौतिकवादी दार्शनिकों के मतों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं तो अजातशत्रु भगवान बुद्ध से कहते हैं–‘भंते, अगले दिन मैं मक्खलि गोसाल के यहाँ गया और कुशलक्षेम आदि पूछने के बाद उनसे पूछा–‘महाराज, जिस प्रकार दूसरे शिल्पों का लाभ व्यक्ति अपने इसी जन्म में प्राप्त करता है, क्या श्रामण्य-जीवन का लाभ भी मनुष्य इसी जीवन में प्राप्त कर सकता है?’ मक्खलि गोसाल ने जवाब में कहा–‘घटनाएँ स्वतः घटती हैं। उनका न तो कोई कारण होता है, न ही पूर्व निर्धारित कोई शर्त। उनके क्लेश और शुद्धि का कोई हेतु नहीं है। प्रत्यय भी नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के सत्त्व क्लेश और शुद्धि प्राप्त करते हैं। न तो कोई बल है, न ही वीर्य, न ही पराक्रम। सभी भूतजगत, प्राप्तिमात्र आदि परवश और नियति के अधीन हैं। निर्बल, निर्वीय और संयोग के फेर से सब छह जातियों में उत्पन्न हो सुख-दुःख का भोग करते हैं। संसार में सुख और दुःख बराबर हैं। घटना-बढ़ना, उठना-गिरना, उत्कर्ष-अपकर्म जैसा कुछ नहीं होता। जैसे सूत की गेंद फेंकने पर उछलकर गिरती है और फिर शांत हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मों से गुजरते हुए अपने दुःख का अंत करते रहते हैं।’

5वीं-6ठी शताब्दी ई.पू. के काल को देखें, तो उत्तर भारत में कई बड़े-बड़े राज्यों का उद्भव हो रहा था, जिसमें कोसल और मगध सबसे बड़े राज्य थे। उस समय तीन दार्शनिक मतों की धूम थी–जैन, बौद्ध और आजीवक पूरे उत्तर भारत को प्रभावित कर रहे थे। प्रसिद्ध दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की माने तो मगध और कोसल जैसे बड़े साम्राज्य छोटे-छोटे जनजातीय गणराज्यों के लिए खतरे थे। इस मत को समझने के लिए एक नजर उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों को ऐतिहासिक रूप से रेखांकित करना आवश्यक है। बाशम (1951:8) बताते हैं कि आखिर आजीवकों का मूलभूत सिद्धांत नियतिवाद पर ही क्यों आ जाता है। उस समय प्राकृतिक आपदा यथा बाढ़, सूखा, अकाल और महामारी की मार समय-समय पर इतने व्यापक रूप में पड़ी कि मनुष्य के बचने के तमाम प्रयत्न नाकाम रहे। आजीवक संप्रदाय का मूल वाक्य था–‘मानवीय प्रयत्न प्रभावहीन है।’ (नत्थि पुरिस्कारे)। अकारथ है, यह उक्ति इतने व्यापक स्तर पर प्रसारित हो गया कि गंगा के समतल भू-भागों के लोगों के जुबान पर हर मुसीबत के वक्त तिरने लगा। आजीवकों का मानना है कि सभी जीव ‘नियति, संगति और भाव से विकसित’ होते हैं। सांख्य दर्शन भी यह कथन स्वीकार करता है कि उन्नति और अवसर प्राकृतिक नियमों से आबद्ध हैं। बाशम ‘समंजयफल सुत्त’ के पद नियति-संगति-भाव-परिणति को संदेहास्पद और अस्पष्ट मानते हैं। आजीवक सबसे ऊपर नियति को रखते हैं, जो हर किसी चीज को नियंत्रित करता है।

मानना होगा कि आजीवकों ने अपने तात्त्विक सिद्धांतों में नियति को सबसे ऊपर स्थान दिया, जबकि संगति और भाव को गौण स्थान। यहाँ पर नियति को सामाजिक तथ्य माना जा सकता है। क्योंकि आजीवकों ने नियति को एक वाह्य कारक के रूप में समाज के सभी मनुष्य पर सामान्य रूप से बाध्यकारी माना। इस तरह के सिद्धांत ब्राह्मणवादी सिद्धांतों के खिलाफ थे, क्योंकि वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों की परिस्थिति अलग-अलग थी। इनमें निचले पायदान पर स्थित शूद्रों की स्थिति सर्वाधिक विनाशकारी थी। ऐसे में आजीवक जैसे दर्शन का उत्पन्न होना स्वाभाविक था, जिसने नियति के आगे सभी मनुष्यों को बराबर माना। अब चाहे वह किसी भी वर्ण का हो। शायद इन्हीं कारणों से ‘भगवतीसूत्र’ में मक्खलि गोसाल को अवर्णवादी कहा गया है। यह शब्द वहाँ दो बार आया है। पहली बार वहाँ मक्खलि गोसाल के मुख से कहलवाया गया है–‘अहण्णं गोसाले चेव मंखलिपुत्रे समणधायए समणमारए समणयडिणीय आयरिय-उज्झायाणं अयसकारए अकित्रिकारए…’ अर्थात मैं ही मक्खलिपुत्र गोसाल हूँ, मैं ही श्रमणघातक, श्रमण-मारक, श्रमण-ब्रह्मस्त प्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्यायों का अयश करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूँ।’ इस उक्ति से सवाल उठता है कि आखिर मक्खलि गोसाल को अवर्णवादी क्यों बताया जा रहा है? इसका जवाब यही हो सकता है कि आचार्य एवं उपाध्याय अपने आप को वर्णवादी घोषित कर धर्मनियंता होने का अहंकार प्रदर्शित कर रहे थे। यह आचार्यों और उपाध्यायों का घमंड था, जो उनको वर्ण के रूप में बोलता था। मक्खलि गोसाल ने उनके इसी घमंड पर जोरदार प्रहार किया था।

समासतः कहा जा सकता है कि जैन और बौद्ध संप्रदायों की तरह ही आजीवक संप्रदाय भी वैदिक परंपरा और ब्राह्मण कर्मकांड को अस्वीकार करते हुए अस्तित्व में आया। आजीवक संप्रदाय ने उस दार्शनिक खालीपन को दूर किया, जो लोकायतों, जैनियों और बौद्धों ने छोड़ दिया था। जैन और बौद्ध–दोनों संप्रदायों ने आजीवकों को अपने प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा। मक्खलि गोसाल और वर्द्धमान महावीर की प्रतिद्वंद्विता का उल्लेख कई सारे जैन स्रोतों से पता भी चलता है। मक्खलि गोसाल को गौतम बुद्ध ने मोध पुरिसों अर्थात मूर्ख पुरुष तक कहा। बाशम ने तो यहाँ तक लिखा है कि आजीवकों का प्रभाव इतने सारे जन समुदाय में फैल गया था कि बौद्ध धर्म ने अपना सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी जैनियों को नहीं, बल्कि आजीवकों को माना। बावजूद इन सबके आजीवक संप्रदाय के योगदान को भारतीय दर्शन में कमतर नहीं किया जा सकता है। उनका केवल महत्त्वपूर्ण योगदान यही भर नहीं है कि उन्होंने नियतिवाद को सार्वभौमिक, सिद्धांत के रूप में स्थापित किया, बल्कि उन्होंने जन सामान्य और राज्यों की अनियंत्रित शक्ति की इच्छा, उनकी सीमा और प्रकृति की महत्ता को भी समझने की भरपूर चेष्टा की। आज भी जबकि कई तरह की बाढ़, सुखाड़, महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं से देश-दुनिया संत्रस्त है, ऐसे में आजीवक संप्रदाय का नियतिवाद मनुष्य की सीमाओं को रेखांकित करते हुए भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। मक्खलि गोसाल के जीवन, जीवन-दर्शन और जगत व्यापार एवं ईश्वरीय सत्ता के प्रति उनके विचारों को जान-समझकर तत्संबंधी प्रकाश के आलोक में आजीवक संप्रदाय और नियतिवादी दर्शन का मंथन करना हमारा अपेक्षित अभिप्रेत है। मक्खलि गोसाल और उनकी विचारधाराएँ तत्कालीन भारत के ऐसे केंद्र बिंदु थे, जो नाना प्रकार की विरूपताओं के प्रतिरोधों के मध्य भी अपने आजीवक संप्रदाय को सुदृढ़ करने में सफल रहे। मक्खलि गोसाल के जीवन-दर्शन को समझने का आशय उस काल की राज्य-व्यवस्था, धर्म-द्वंद्व, नाना संप्रदायों के बीच सामाजिक कोलाहल आदि को जानना है। तब मक्खलि गोसाल और उनके आजीवक संप्रदाय के तीन प्रखर विरोधी थे–ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म एवं जैन संप्रदाय। बौद्ध और जैन संप्रदाय भी ब्राह्मणवाद के विरोधी थे। ब्राह्मणवाद मतलब आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म एवं कर्मकांड का घालमेल। ब्राह्मणवाद के विरोध में रहने के कारण बौद्ध एवं जैन संप्रदाय को आजीवक संप्रदाय का मित्र होना चाहिए था, क्योंकि वह भी ब्राह्मणवाद विरोधी संप्रदाय था, लेकिन ऐसा था नहीं। मक्खलि गोसाल दासपुत्र था। उसने शोषण की तमाम यंत्राणाओं को झेला था।

संतकवि, मक्खलि गोसाल की रचनाओं में तद्युगीन यंत्रणाओं की नाना छवियाँ देखने को मिलती हैं। ‘किंतु गोसाल मात्र एक भाट या चरण या कवि नहीं था। वह एक भविष्यद्रष्टा और दार्शनिक भी था। वह विश्व के संबंध में कोई दृष्टिकोण बनाना चाहता था अर्थात वह उस संसार को समझना चाहता था, जिसमें वह रह रहा था । यही परिस्थितियाँ थी जो गोसाल के लिए घातक बंधन बन रही थीं और यही अनुभव बुद्ध ने भी किया।’ समान परिस्थितियों में रहने के बावजूद मक्खलि और बुद्ध के बीच वैचारिक धरातल पर एका न रह पाया। मक्खलि ‘अपने युग के सबसे बड़े ऐतिहासिक परिवर्तन अर्थात जनजातीय व्यवस्था के पतन और राजसत्ता द्वारा प्रदत्त नए मूल्यों के अंश को समझना चाहते थे और वे इस कार्य में सफल भी हो गए। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो संसार का संचालन कोई बहुत बड़ी, प्रचंड, अथाह और अज्ञात शक्ति कर रही है, जिसे हम नहीं जानते। यही शक्ति थी भाग्य। यही उनका नियति दर्शन था।’ मक्खलि गोसाल का विचार था कि ‘स्वतंत्र इच्छा शक्ति की बात करना साधारण अज्ञानी लोगों की भूल है। दुर्बल, निठल्ले और भीरु व्यक्ति की भाँति, सबल शक्तिशाली और साहसी व्यक्ति भी उसी एक सिद्धांत के पूर्ण नियंत्रण में हैं जो समस्त संसार का संचालन करता है।’

अपने क्रांतिदर्शी विचारों के कारण चाहे मक्खलि ने अनेक शत्रु बनाए, परंतु उनके दिखाए वैचारिक मार्ग पर चलने वालों की संख्या भी अपार थी। मनुष्य मात्र को उन्होंने तमाम प्रकार के बंधनों से मुक्तकाम किया। मुक्तकामी चेतना का ऐसा प्रवाह उनके आजीवक संप्रदाय से निःसृत हुआ, जो अब तक नाना प्रकार के बंधनों में जकड़े मनुष्य को मुक्ति का मार्ग समझा रहा है। डॉ. धर्मवीर के शब्दों में कहें तो आजीवक धर्म के अनुयायी आम आदमियों में से थे। वे कारीगर थे, व्यापारी थे और इसी तरह के अन्य लोग थे। उनकी संख्या भी बौद्धों से ज्यादा थी। कारण यही था कि आजीवकों द्वारा समाज सुधार पर अत्यधिक बल दिया जाता था। बौद्ध लोग मक्खलि गोसाल की आलोचना किया करते थे। समय-समय पर बौद्धों और आजीवकों के बीच खुली मुठभेड़ भी हुआ करती थी। गोसाल, महावीर और बुद्ध, ये तीनों धर्मपुरुष ब्राह्मणों का विरोध कर रहे थे। एक तरह से ब्राह्मण इन तीनों से लड़ रहा था। इसी वजह से कई लोगों को लगता है कि गोसाल, महावीर और बुद्ध एक धारा के थे। लेकिन यह अर्द्धसत्य है। चूँकि ये तीनों धर्मपुरुष ब्राह्मणों के विरोध में थे, इसीलिए केवल इसी सीमा तक तीनों एक थे, इस सीमा से आगे नहीं। ब्राह्मणों ने जैनियों, बौद्धों और आजीवकों पर विशेष कर लगाए थे। द्रविड़ियन इन्साइक्लोपीडिया के अनुसार ब्राह्मणों ने ये विधान किया हुआ था कि जो कोई भी बौद्धों-आजीवकों को भोजन खिलाएगा, उस पर 100 पणों का जुर्माना लगाना चाहिए। ये सारे विभेद थे। इसके अलावे भी नाना प्रकार की पाबंदियाँ थीं, लेकिन फिर भी आजीवक संप्रदाय ने अपना फैलाव किया और अनेक राजाओं को अपने साथ लाने में सफल रहा। आजीवक श्रम प्रधान संप्रदाय था, जिसने पूरे देश में कौशल आधारित कारीगरी संस्कृति का फैलाव किया। श्रम के प्रबंधन से समाज में शांति-सद्भाव रखना उनका कौशल था। इस कौशल के अभाव ने आज समाज में भारी अराजकता फैला रखी है। इस अराजकता से मुक्ति के द्वारा सामाजिक शांति-सद्भाव के लिए मक्खलि गोसाल के दर्शन को समझना जरूरी है।

भारतीय समाज आज नाना प्रकार के विचारों, आग्रहों आदि में विभाजित है, जिनमें परस्पर विरोधों एवं विरूपताओं की टकराहट भी चल रही है। खंड-खंड दलित विचारों में परस्पर टकराहट है, तो ब्राह्मणवादी वर्चस्व की मार भी है। आवारा पूँजीवाद की बर्बरता ने तो पूरी देश-दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। सामान्य जन में त्राही मची हुई है। भारतीय जीवन से नैतिकता एवं सहिष्णुता का तेजी से ह्रास होता जा रहा है। राजनीतिक और आर्थिक अराजकता ने सामाजिक संरचना को छिन्न-भिन्न कर रखा है। सभी जीवन में एक आदर्श की खोज में लगे हैं, जो शांति, सद्भाव एवं सौहार्द की स्थापना कर सके। एक प्रकार की धर्मनिरपेक्ष सामाजिक न्याय की अपेक्षा की जा रही है, जो तमाम प्रकार की अराजकता को नियंत्रित कर सके। मक्खलि गोसाल के जीवन-दर्शन और आजीवक-दर्शन में एक रोशनी दिखती है। समकालीन जीवन के संत्रासों से मुक्ति के लिए समाज बार-बार अतीत की गुफाओं में किसी रोशनी की तलाश में भटकता ही रहा है। इस वैज्ञानिक युग में भी आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म, कर्मकांड, वर्णवाद आदि मान्यताओं के संजाल में भटकते-उलझते समाज को उनसे मुक्त होकर एक प्रकार के वैज्ञानिक प्रगतिशील जीवनमूल्यों की तलाश है, जो आजीवक दर्शन के मूल्यों से पूरी हो सकती है।


शिवनारायण द्वारा भी