अनुरंजन प्रसाद सिंह का रचनाकर्म

अनुरंजन प्रसाद सिंह का रचनाकर्म

अनुरंजन प्रसाद सिंह साहित्य की दुनिया में जिस महत्त्व के अधिकारी हैं, वह महत्त्व उन्हें हम बिहारवासियों ने कभी नहीं दिया। हम बिहारवासी महान हैं और इसलिए हमने न केवल अनुरंजन प्रसाद सिंह के साथ, बल्कि बिहार में जो अन्य साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिभाएँ थीं, उनके साथ भी ऐसा कुछ करने से नहीं चूके। हम बिहारवासी पतन के गर्त में जाने के लिए आकुल ही रहे। हमने कुछ नासमझ और ईर्ष्या-जलन रखनेवाले प्रतिभाहीन तत्त्वों की मदद से अपनी उन साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रतिभाओं की मूर्तियाँ खंडित की, जिन पर हम गौरव कर सकते थे। अनुरंजन प्रसाद सिंह एक ऐसी ही प्रतिभा हैं, जिनके साथ साहित्य की दुनिया में न्याय नहीं हो पाया और जिनकी कृतियों को लेकर धुँध फैलाने की नाकामयाब कोशिश हुई, जबकि उन कृतियों में रोशनी थी। मुझे याद है कि एक स्थानीय समाचार पत्र में एक तथाकथित ‘साहित्यिक गिरोह’ ने उनका जिस तरह विरोध किया था, वह ‘गिरोह’ बौद्धिकता और चिंतन के धरातल पर उनके सामने टिकने की हिम्मत नहीं कर सकता था। अनुरंजन प्रसाद सिंह पर तब उस ‘गिरोह’ ने एक स्थानीय संपादक की सहायता से छद्म वार किया था। एक साहित्यिक संगठन के मंत्री भी इस षड्यंत्र में शामिल थे, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अनुरंजन प्रसाद सिंह की उदारता का कई बार फायदा उठाया था। अनुरंजन प्रसाद सिंह ने कविता, कहानी, नाटक एवं काव्यानुवाद के अतिरिक्त पुरातत्व, इतिहास एवं मिथकों को अपने युग के नए संदर्भ में विश्लेषित किया। धर्मवीर भारती ने लिखा है…‘कुछ जातियों में, खास तौर से उनमें जो आंतरिक रूप से अत्यधिक कल्पनाप्रवण रही हैं और सांस्कृतिक स्तर पर वैभव-संपन्न, बहुधा एक अद्भुत क्षमता दीखती है–मिथकों और प्रतीकों के निर्माण की और फिर उन मिथकों और प्रतीकों के सहारे अपनी उस आंतरिक संकल्प शक्ति को जगाने की जो इस गहन संकट के समय उनके खंडित होते हुए व्यक्तित्व को, उनकी पिसती हुई, क्षय होती हुई मानसिकता को नई ताकत देती है और वे पुनः इस संकट से जूझती हैं और मनुष्यता के तत्त्व को फिर से स्थापित करती हैं। परंपरा, समाज-व्यवस्था, राजसत्ता, धर्म, नियम, आचार, नैतिकता सबकी कठोरता वर्जनाओं को निर्ममता से जाँच कर स्वीकार या अस्वीकार की एकमात्र कसौटी होती है, संकट के समक्ष अपने मनुष्यत्व की रक्षा और उसकी प्रतिष्ठा करता हुआ मनुष्य और वे साहस से उद्घोष करती हैं : ‘सवार उपरे मानुषेर सत्य तुम्हार उपरे नाईं।’ (पश्यंती, धर्मवीर भारती)। अनुरंजन प्रसाद सिंह में पुरातत्त्व, इतिहास एवं मिथकों को विश्लेषित करते समय इस मनुष्यत्व की रक्षा करने का संकल्प है।

उनकी रचनाओं में मानव-विरोधी भ्रष्ट व्यवस्थाओं का विरोध है और उनका विश्वास मनुष्यता की थाती पर है। ‘ट्रम्पकार्ड’ जैसी उनकी कहानियों में स्त्री-पुरुष के संबंधों के यथार्थ पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ हैं, जो ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के इस दृष्टिकोण को पुनर्रचित करती हैं…‘पाखंडी! तेरे सब शास्त्र पाखंड सिखलाते हैं, तुझे धोखा देते हैं, जो तेरे भीतर सत्य है, उसे दबाने को कहते हैं, जो तेरे भीतर मोहन है, उसे भूलने को कहते हैं; तू जिसे पूजता है उसे छोड़ने को कहते हैं।’ और इसलिए मूल मंत्र है : ‘डर मत! कुछ भी डर से मत स्वीकार! अपने मनुष्यत्व को, अपनी देह को, अपने मन को गर्हित या त्याज्य मानकर मत आरंभ कर! तूने देह धारण की; यह दे-धारण ही तेरे पाप का प्रमाण है, अतः इसे दंड मानकर स्वीकार करना–यह चिंतन मानव-विरोधी है।’

‘एका’, ‘पाषाण पंक्तियाँ’, ‘मेरे पास एक गाँव था’ उनके कविता-संकलनों के नाम हैं। ‘कविताएँ पास्तरनाक की’, उनके द्वारा की गई रूसी कविताओं का अनुवाद है। एक और काव्यानुवाद उनका प्रकाशनाधीन है, जिसका शीर्षक है ‘अक्षांश देशांतर’। ‘ट्रम्पकार्ड’ उनका कहानी संग्रह है। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा अनुवाद के लिए राजकीय पुरस्कार और सम्मान उन्हें प्राप्त हो चुका है। ‘अपरिचित-भविष्य’ नाटक के लिए उन्हें ‘मोहन राकेश सम्मान’ के प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

मेरे सामने अभी उनकी नवीनतम कृति है ‘अतीत के झरोखे से’। खंडहरों, भग्नावशेषों, ढहे मंदिरों और किलों के बीच घूमते हुए सत्यान्वेषण की ललक उनमें है। उनके शब्दों में…‘खंडहरों, भग्नावशेषों, ढहे मंदिरों और किलों के बीच घूमने के प्रति मेरा आकर्षण शायद अतीत का हिस्सा हो जो जीन्स के माध्यम से स्थानांतरित होकर मुझमें विद्यमान है। …मैं सपनों में एक खास किस्म का भवन और महल बार-बार देखता हूँ और एक ही तरह के दृश्यों, रास्तों और गलियों से गुजरता रहा हूँ। पता नहीं, इसके क्या कारण हो सकते हैं? वैसे तो अब तक विज्ञान की बिना पर सपनों को अंतिम रूप से व्याख्यायित नहीं किया जा सका है। तब सांसारिक आवागमन और बार-बार जनमने और मरने को समझने के लिए एवं जीवन की तिलस्मी गुत्थियों को सुलझाने के लिए अपने को अध्यात्म से जोड़कर देखने के सिवा आदमी के पास और क्या चारा रह जाता है? लेकिन अब तक मैं अध्यात्म को जीवन का पलायन मानता रहा हूँ। और विज्ञान को जिज्ञासा के शमन का जरिया।’ (अतीत के झरोखे से, पृ. 8)। यह आवश्यक नहीं है कि लेखक के इस कथन से सहमत हुआ जाय कि अध्यात्म जीवन का पलायन है, दूसरा दृष्टिकोण भी है, जिसकी चर्चा धर्मवीर भारती ने की है…‘जैसे हमारी चेतना का कोई अंश ऐसा जरूर है जो धरती के कठोर यथार्थ से हमें ऊपर की ओर उठा रहा है, वहाँ, जहाँ काल से शुभ्र श्वेत हिम जमा हुआ है। इन्हीं शिखरों को शंकराचार्य ने देखा था, इन्हीं में कालिदास भटके थे, इन्हीं में विवेकानंद ने आत्म-साक्षात्कार किया था। क्या यह केवल भ्रम था?’ (कूर्माचल में कुछ दिन, ठेले पर हिमालय, भारती ग्रंथावली-4, पृष्ठ 23)।

अनुरंजन प्रसाद सिंह के लेखन से कुछ संदर्भों में हमारा मतभेद हो सकता है, किंतु, इतनी बात तय है कि उनके लेखन और उनके चिंतन-प्रवाह में उनके व्यक्तित्व की समूची आंतरिकता रससिक्त होकर प्रकट हुई है। इतिहास और संस्कृति की छानबीन करते हुए ‘अतीत के झरोखे से’ शीर्षक से लिखी उनकी पुस्तक में संकलित आलेख न केवल अतीत के अवदानों से हमारा परिचय करवाते हैं, बल्कि आदमी के गौरवपूर्ण अतीत तथा उसकी संघर्ष-संपन्न-चेतना-छवि के साथ उसकी क्रूरता के अमानवीय पक्ष को भी दिखलाते हैं। मनुष्यता को कलंकित होने से बचाने में साहित्य का क्या दायित्व हो सकता है, उसका संकेत इनके लेखन में मिलता है। ‘स्वर्णगर्भा कब्र की खोज में’, ‘कुसुमादपि वज्रादपि’, ‘औरंगजेब की व्यथा-कथा’, ‘जयचंद खलनायक नहीं नायक था’, ‘रेगिस्तान में रोमांस’, ‘एक और बहादुरशाह जफर’, ऐसे आलेख हैं, जिनमें लेखक ने नई परिस्थितियों में इतिहास नायकों को मूल्यांकित कर उनके कलंक को धोने का प्रयास किया है।

इन आलेखों की निष्कर्षात्मक टिप्पणियाँ इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वे चिपकायी हुई नहीं हैं, बल्कि ऐतिहासिक संदर्भों की यात्रा से, रचनात्मक स्तर पर संघटित हुई हैं। यही कारण है कि इन टिप्पणियों में शक्ति है। ‘कुसुमादपि वज्रादपि’ में बेगम हजरत महल की वह दास्तान है, जो हिंदू-मुस्लिम एकता की कड़ी को जोड़कर यह बताती है कि बेगम हजरत महल धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के शीर्ष पर अब भी प्रकाश-स्तंभ की तरह जल रही है।

अनुरंजन प्रसाद सिंह ने लिखा है कि जब बेगम हजरत महल ने नेपाल के जंगलों में शरण ली और वहाँ के तत्कालीन नरेश को यह मालूम हुआ तो उसने आदर के साथ सिर्फ आश्रय ही नहीं दिया, बल्कि पाँच सौ रुपये माहवार की परवरिश की, पेशकश भी की। लेखक का यह कहना सही है कि नेपाल के हिंदू राजा की तरफ से हिंदुस्तान की एक मुसलमान स्त्री-स्वतंत्रता सेनानी को इतना सम्मान और स्नेह देने की उदारता भारत-नेपाल के अन्योन्याश्रित संबंध का एक जामिन दस्तावेज है। ‘जरा याद करो कुर्बानी’ में भारत में पहला गैलेंट्री अवार्ड पानेवाले बिग्रेडियर राजिन्दर सिंह की दास्तान है। ‘गुलामी की याद दिलाते दाग’ में लेखक ने लिखा है कि अंडमान निकोबार महाद्वीप के चार महत्त्वपूर्ण बंदरगाह के नाम हैं ‘पोर्ट ब्लेयर, पोर्ट कार्नवालिस, पोर्ट मेडोज, पोर्ट पाउन्टा ये क्रमश: लेफ्टिनेंट ब्लेयर, लार्ड कार्नवालिस, जनरल मैडोज, सार्जेंट मेजर एफ.एस. माउंट के नाम के दस्तावेज हैं। लेखक का सुझाव है कि इन सभी नामों को संभवतः बदलकर असमारोहित देशभक्तों, आजादी के दीवानों, बड़े राजनेताओं, इतिहास-पुरुष हो गए समाज सुधारकों और साहित्यकारों के नाम समर्पित किया जाय।

संकलन में इतिहास से संबंधित आलेख अधिक महत्त्वपूर्ण बने हैं। इस आलेख में लेखक की स्थापना यह है कि कवि चंदवरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासो’ के अपने नाट्यगान में जो पृथ्वीराज की माँ का नाम सुंदरी देवी बताया है और उसे अनंगपाल की पुत्री कहा है, वह गलत है। जयचंद की माँ का नाम चंद्रलेखा है। लेखक का यह भी कहना है कि चंदवरदाई ने ‘राजसूय यज्ञ’ और ‘स्वयंवर’ की कल्पना की और स्वयंवर में जयचंद की पुत्री ‘संयुक्ता’ का पृथ्वीराज द्वारा अपहरण करवाकर दोनों सेनाओं के बीच पृथ्वीराजरासो की कथा के लिए वैमनस्य की जमीन तैयार की और मनमाने ढंग से नायक और खलनायक का निर्माण किया। विद्यापति की पुस्तक ‘पुरुष परीक्षा’ और ‘रम्मा मंजरी’ में, जिसके नायक जयचंद हैं, ‘राजसूय यज्ञ’ और ‘स्वयंवर’ का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। हिंदू या मुस्लिम किसी भी समकालीन इतिहासकार ने यह स्वीकार नहीं किया है कि जयचंद ने शहाबुद्दीन गोरी के साथ पृथ्वीराज को पराजित करने के लिए कोई समझौता किया था। जयचंद कुतुबुद्दीन गोरी से लड़ते हुए मरा था।

‘एक और बहादुरशाह जफर’ में बहादुरशाह जफर के समान निर्वासित होकर जीवन व्यतीत करनेवाले बर्मा के राजा थिबॉव की कहानी है। रत्नगिरि शहर से कुछ दूर वर्षा की बौछारों से सीलन खाए उदास मकबरे सवाल रखते हैं कि लोग क्यों भूत से विरत हो अपनी खुदगर्जी से वर्तमान बद्ध होकर बेखबर अस्त-व्यस्त हो जाते हैं और लेखक का सवाल यह है कि इतिहास क्यों ऐसे बदनसीब राजाओं की दारूण गाथा दर्ज किए बिना सुबह की हवाखोरी के अंदाज में जैसे इत्मीनान से टहलते हुए भेजे जानेवाले बच्चों की दारूण कथा है, जिन बच्चों के शैशव का दोहन किया गया और प्रौढ़ होने पर जिन्हें भटकने के लिए छोड़ दिया गया। प्रौढ़ हो गए इन बच्चे में से बहुतों को अपने असली नाम तक का पता नहीं है। ब्रिटेन के इस दारूण दुष्कांड का भंडाफोड़, नौटिंघम की एक समाज कार्यकर्त्ती श्रीमती मार्गरेट हमफ्रीज ने सात वर्ष के अथक परिश्रम से किया था। इन लोगों के साथ जो यंत्रणाएँ घटित हुई थीं, उनकी कथा मार्गरेट हमफ्रीज ने अलग से एकत्र की थी।

‘सेक्स उद्दीपन के उपाय की खोज में’ व्यावहारिक जीवन से संबंधित निबंध आवश्यक हैं, किंतु इस संकलन से मेल नहीं खाने वाला शायद यह एक मात्र निबंध है। ‘मुगलकालीन होटल बनाम सराय’ अपने ढंग का अकेला निबंध है, जिसमें यह बताया गया है कि मुगलकाल में भी होटल थे, लेकिन उन्हें सराय कहा जाता था। खासकर पुरानी दिल्ली की इन सरायों की बड़ी-बड़ी इमारतें होती थीं और उनके आस-पास खुली जगह का फैलाव होता था ताकि सौदागरों, जानवरों और गाड़ी-घोड़ों के कारवाँ को टिकने, सुस्ताने और व्यावसायिक आदान-प्रदान की सुविधा हो। मुगल काल की नामी सराय का नाम था ‘राजकुमारी जहाँआरा सराय’। चाँदनी चौक के निकट जहाँआरा बाग के पास ही बादशाह ने, अपनी बेटी के भयंकर बीमारी से स्वास्थ्य लाभ करने के बाद, खुशी में ‘जहाँआरा सराय’ का निर्माण करवाया था। 1857 में गदर के दौरान जहाँआरा सराय भी ध्वस्त हो गई। सिपाही विद्रोह के समय ‘जहाँआरा सराय’ के उजड़ जाने के बाद भी अँग्रेजों को उस स्थल पर एक सराय की अहमियत महसूस हुई। अतः दिल्ली में तत्कालीन कमिश्नर हेमिल्टन ने एक सराय का निर्माण करवाया और उसका नाम अपने नाम पर ‘हेमिल्टन सराय’ रखा। हेमिल्टन के भारत से चले जाने के बाद मूर नाम के एक इंजीनियर ने हेमिल्टन सराय के शिखर पर एक मोर पक्षी का निर्माण करवाया और सराय का नाम बदलकर ‘मूर-सराय’ रखा। अब इस स्थल पर कोई सराय नहीं है, लेकिन उस जगह को लोग अभी मूर-सराय के नाम से पुकारते हैं। जहाँआरा सराय के क्षेत्र-स्थल पर बहुत सी बिल्डिंगें बन गई हैं और व्यवसाय केंद्र खुल गए हैं। लेकिन गौर से देखने पर ‘जहाँआरा सराय’ के कम्पाउंड वाल के भग्नावशेष कहीं-कहीं अभी शायद देखने को मिल जाएँ। दिल्ली की सबसे पुरानी सराय का नाम ‘अरब-सराय’ था। इस नाम का मुहल्ला अभी भी कायम है। इस अरब-सराय का निर्माण हुमायूँ की बीबी द्वारा लाए गए 300 अरबों के रख-रखाव के लिए किया गया था। एक और सराय थी फरीद खाँ की, जिसका नाम कारवाँ सराय था। फरीद खाँ शाहजहाँ के समय गुजरात का सूबेदार था। यह सराय लाल दरवाजा के नाम के मुहल्ले के पास था।

‘उनींदी आँखों में नाचता कोणार्क’ में, सूदेव की प्रतिमा की स्थापना किस रूप में और किस साज-सज्जा के साथ होगी, ‘अग्निपुराण’ के आधार पर इसकी चर्चा है। उल्लेख है कि सूर्य की मुख्य प्रतिमा एक पहिया वाले रथ पर आसीन मुद्रा में होगी। उनके दोनों हाथ में दो कमल के फूल होंगे। रथ को खींचते हुए सात घोड़े होंगे। उनकी दाहिनी तरफ उनका सेवक दंडी होगा जिसके हाथ में एक कलम और एक दवात होगी। बायीं तरफ उनका दूसरा सेवक पिंगल होगा, जिसके हाथ में एक लंबी यष्टि होगी। सूर्यदेव के पीछे उनकी दो पत्नियाँ संजना और छाया होगी। पुराण की बात तो बाद की बात है, तब तक तो सूर्यदेव की प्रतिमा की पूजा मंदिरों में प्रचलित और प्रतिष्ठित हो चुकी थी। लेखक का कहना है कि ऐसा विश्वास किया जाता है कि भारत में सबसे पहले सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-पाठ का सिलसिला ग्रीक, पर्शिया और शक कुल के विदेशियों द्वारा किया गया जो इस बात से प्रमाणित होता है कि ईसा से पूर्व दूसरी शताब्दी तक, सूर्यदेव और उनके सेवकों की प्रतिमाएँ लंबा कोट, पतलून और बुट वाले पोशाक में थीं। यह स्पष्ट रूप से विदेशी प्रभाव के तहत था। जब सूर्यदेव की अर्चना और वंदना पूर्ण रूप से फैलकर मान्य हो चुकी, तब इन मूर्तियों ने भारतीय परिधान धारण किया। चौथी शताब्दी में सूर्य मंदिर का निर्माण धड़ल्ले से होने लगा और उसके बहुत बाद तेरहवीं शताब्दी में कोणार्क के सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ। इसके बहुत पूर्व गुजरात के मोधेरा नामक स्थान पर सन् 1025 ई. में एक सूर्य मंदिर का निर्माण हुआ जिसमें स्तंभों पर आश्रित एक विलक्षण हॉल है। क्षयोन्मुख अवस्था में भी यह मंदिर एक अलौकिक दृश्य उपस्थित करता है। राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सूर्यदेव की पूजा प्रचलित हो चुकी थी, इसलिए बहुत सारे सूर्य मंदिर इन राज्यों में बिखरे पड़े हैं। इस आलेख में उड़ीसा में रहनेवाली औरतों के आभूषण-प्रेम और वहाँ की कानून-व्यवस्था की भी चर्चा है। कोणार्क मंदिर के समुद्र तट के सन्निकट होने के कारण, सामुद्रिक जल-प्लावन से सूर्य मंदिर के रूप में वास्तुकला और संस्कृति का एक उत्कृष्ट नमूना ध्वंसावशेष को पहुँच गया। समुद्र के खारे जल का प्रभाव, मंदिरों की दीवारों और कारनिसों पर पत्थरों को काटकर उभारी हुई मूर्तियों पर स्पष्ट रूप से कोई भी देख सकता है।

मद्रास शहर में बिहार की तरफ का एक पान बेचने वाला लेखक को मिला। दाम प्रति बीड़े का उसने नब्बे पैसे लगाया, जबकि अपने यहाँ मुश्किल से एक बीड़े का दाम बीस पैसा होता है, लेकिन कत्था वाला पान दे रहा था, यही गनीमत की बात थी। मद्रास शहर में अपनी तरफ का यही एक पानवाला मिला। लेखक और उसके मित्र उसी पानवाले के यहाँ पान खाने लगे। ‘मंदिर के विवादास्पद शिल्प’ शीर्षक आलेख में उसके शिल्प पर बहस है। उत्कीर्ण शृंगारिक मूर्तियाँ बहस का विषय बनती हैं और इस संबंध में कई प्रकार के विचारों पर लेखक विचार करता है। ‘महासृष्टि में आदमी की औकात’ शीर्षक आलेख में मद्रास से लेकर महाबलीपुरम तक की चर्चा है। एक दार्शनिक संदर्भ भी है। लेखक सोचने लगा–‘मैं क्या हूँ? धरती की इस सृष्टि से लेकर अंतरिक्ष के महाशून्य और महाकाश के बीच मेरा क्या आनुपातिक अस्तित्व है? क्या मेरी शिनाख्त हो सकती है? एक काली बिंदी से अधिक शायद कुछ नहीं। मैंने तब खुद से पूछा–इस महासृष्टि में तुम्हारी औकात क्या है? तुम डरते क्यों नहीं? तुम समझते क्यों नहीं? तुम अपनी असीम लघुता में कौन होते हो आत्मा-परमात्मा, ईश्वर-अनीश्वर, संहार-सृजनहार, महानाश-प्रलय आदि की व्याख्या करने वाले। इन सब के प्रयोजन का पता लगाने वाले? इसलिए कि तुम्हें सोचने का सेल्स मिला हुआ है? नहीं, नहीं यह सब तुम्हारी लघुता की बौखलाहट है। तुममें जो ‘मैं’ है उसका अहं है यह।’ यह लेख एक दार्शनिक अंदाज में है, किंतु इसमें यात्रा-वृत्तांत के तत्त्व भी पूरी मात्रा में हैं।

इन आलेखों की खूबसूरती यह है कि इनमें से अधिकांश इतिहास की आधारभूमि पर होने के बावजूद, लेखक के मुक्त मन की मौज का जायजा देते हैं और ये आलेख गद्य और शिल्प-विधि को लेकर इस तरह गठित हैं कि इनमें कहीं भी कलात्मक परिष्कार का अभाव नहीं लगता। इन आलेखों में स्वच्छंदता, सरलता, आडंबरहीनता, घनिष्ठता और आत्मीयता के साथ लेखक के दृष्टिकोण का भी परिचय मिलता है। ‘महासृष्टि में आदमी की औकात’ जैसे आलेख को देखें तो पाएँगे कि दार्शनिक होने के बावजूद लेखक की स्वच्छंदता कहीं उच्छृंखलता नहीं बनती और वह आलेख में यात्रा-वृत्तांत के तत्त्वों को भी पूरी तरह सुरक्षित रखता है। ‘उनींदी आँखों में नाचता कोणार्क’, ‘मद्रास में बिहार का पानवाला’, ‘मंदिर के विवादास्पद शिल्प’ ऐसे आलेख हैं, जिनमें लेखक दूर-दूर तक यात्रा कर अपने विषय पर पुनः वापस लौटता है और उसकी रचनात्मकता की विशेषता यह लगेगी कि यह अनियमितता में भी एक नियम और अव्यवस्था में भी एक व्यवस्था को खोजने में सक्षम है। वह कहीं भी कलात्मक प्रयास करता नहीं दिखलाई पड़ता है, किंतु, विषय उपस्थापन अथवा अपनी बात को कहने का ढंग ही, एक ऐसी मौलिक पद्धति को हमारे सामने लाता है कि उसके लिए कला को छोड़कर कोई दूसरा शब्द हमारे पास नहीं है। मैं कहना चाहता हूँ कि उन्होंने अपने आलेखों को ऐसी कलाकृति बनाया है, जिसके नियम उस कलाकृति से ही निष्कर्षित या आविष्कृत हुए हैं। सहज, सरल, आडंबरहीन, किंतु, गंभीर व्यक्तित्व से संपन्न लेखक बिना किसी संकोच के अपने जीवन-अनुभव पाठकों को सुनाता है और उन्हें आत्मीयता के साथ उनमें भाग लेने के लिए आमंत्रित करता है। उसकी यह घनिष्ठता जितनी सच्ची और सघन होती है, पाठकों पर उसका असर उतना ही सीधा और तीव्र होता है। अपने अधिकांश आलेखों में, इतिहास को अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में अपनाने पर भी, लेखक अपने पांडित्य से पाठकों को अभिभूत नहीं करता, बल्कि वह और अधिक सरल और उदार रूप में प्रकट होता है।

मैंने आज से बीस पचीस वर्ष पहले महानगर कलकत्ता पर अनुरंजन प्रसाद सिंह की कविता पढ़ी थी, जिसका शीर्षक था ‘आत्महत्याओं के अवशेष’, उस कविता की कुछ पंक्तियाँ मैं उद्धृत कर रहा हूँ–

‘…उषा किरण-सी धुली
ख्वाब-सी हसीन
हौवा की बेटी की
अनावृत्त पृथुल जंघा
पृष्ठ और नितंब पर
उग आए हंटर के दाग जैसी
दीखती हैं महानगर की सड़कें।’

‘हावड़ा स्टेशन की रक्तवर्णी
निर्यान लाइट से
हुगली का झलमल पानी
खूनी रंग-सा दीखता है
साहिल से हटकर तैरती हैं पानी में
दुर्गा और सरस्वती की नंगी ठठरियाँ
जैसे आत्महत्याओं के अवशेष हों।’

उनके ऐसे काव्य-बिंबों में जो सफाई, विचार प्रगल्भता, अनुभवशीलता और प्रौढ़ता है, वैसा ही उनके आलेखों में भी है। ऐसा नहीं है कि उनके आलेख किसी विषय संबंधी विचारों के सारांश हैं, एक विशेष मनोदशा के अंतर्गत रचना के प्रक्रियात्मक स्तर पर चलकर वे आलेख संघटित हुए हैं और उसके अंतर्गत ही लेखक ने अपने विचार प्रकट किए हैं। परिणामतः ऐसे आलेखों का आकार साधारणतया अधिक लंबा नहीं हो सकता। ‘अतीत के झरोखे से’ में संकलित आलेख कथात्मक (आख्यानात्मक-नैरेटिव), वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) और चिंतनात्मक (रिफ्लेक्टिव) हैं। ये आलेख गद्य की शैलियों के निखार और उसके विकास की संभावनाओं को प्रस्तुत करते हैं। इन आलेखों को गद्य की कसौटी कह सकते हैं, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि इन आलेखों में लेखक एक ऐसे पथ का अनुसरण करता है, जो किसी का जाना-समझा नहीं है। उसने अपनी भाषा की शक्ति से यह प्रमाणित किया है कि वह अनजाना पथ उसके लिए सर्वथा परिचित और अपना है।


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अमर कुमार सिंह द्वारा भी