हमें यह कहना है!
- 1 April, 1950
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 April, 1950
हमें यह कहना है!
लीजिए, यह ‘नई धारा’। मैं इसके संबंध में क्या कहूँ? अपने तीस वर्षों के पत्रकार-जीवन की परिणति के रूप में इसे हिंदी-संसार के समक्ष पेश करना चाहता हूँ। किंतु, पहले अंक में ही कई स्थाई शीर्षक छूट गए; कई उपयोगी लेख छूट गए। समय और स्थान की खींचातानी। इसके बावजूद यह जो कुछ है, आप लोगों की सेवा में है। ‘नई धारा’ को साहित्य और संस्कृति की नवीनतम प्रवृतियों की प्रतिनिधि-पत्रिका बनाने की आकांक्षा है। ‘नई धारा’ के लिए यह सौभाग्य की बात है कि हिंदी के सुप्रसिद्ध कलाकार श्रीमान राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह जी ने इसे अपनी साधन-संपन्नता की उर्वर भूमि से होकर प्रवाहित होने का सुअवसर दिया है। इसलिए, अर्थचिंता से यह मुक्त है और मैं भी इस बार बचा हुआ हूँ। संपादक जीवन के उस अभिशाप से जब वह एक ही साथ ‘पीर, बवर्ची, भिस्ती, खर’ बन जाता है। किंतु कारूँ का खजाना भी किसी पत्र-पत्रिका को जीवित नहीं रख सकता, जब तक गुणग्राही जगत उसे दिल खोल कर नहीं अपनावे! क्या आशा करूँ, अब राष्ट्रभाषा हिंदी के हितैषियों और सेवकों में गुणग्राहिता की कमी नहीं रह गई है?
X X XX
अब, जबकि देश आजाद हो चुका है, यह स्वाभाविक है कि हमारा ध्यान राजनीति की ओर से हट कर धीरे-धीरे संस्कृति की ओर आकृष्ट हो। हमारे जीवन में अभी आर्थिक अड़चनें हैं–अपने देश, अपने समाज, समाज के व्यक्ति-व्यक्ति को धन-धान्य से पूरा किए बिना हम सम्यक रूपेण संस्कृति की ओर ध्यान दे नहीं सकते–यह भी सही है कि अभी एक दूरी और तय करनी है। किंतु, जीवन एकांगी नहीं है और वर्तमान के गर्भ में ही तो भविष्य छिपा रहता है, पलता है। अत: गेहूँ की दुनिया में फँसे होने पर भी हमें गुलाब की दुनिया को भूल जाना है–शायद भूल भी नहीं सकते! फिर बागवान का ध्यान फल पर हो; किंतु मंजरी देखकर ही कोयल कूक उठती है। क्या समाज में कलाकार की स्थिति कोयल की नहीं है? यही कारण है कि हमारे समूचे देश में, देश के कोने-कोने में इस समय संस्कृति–साहित्य और कला–के लिए एक अजीब उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा है! हमारे राजनीतिक पुरुष गेहूँ की समस्या में ही उलझे हुए हैं; वहाँ हमने गुलाब के गीत के गुंजार से अंतरिक्ष को भरना प्रारंभ कर दिया है! कह लीजिए, तुम स्वप्नदर्शी हो, हवाई महल के रहने वाले हो–आप कभी-कभी हमें कायर, बुजदिल, पलायनवादी, रजतपसंद आदि शुभ नामों से भी संबोधित कर लेते हैं! किंतु इसका जवाब हम इसके अतिरिक्त और क्या दे सकते हैं कि आप अपने स्वभाव से लाचार हैं, तो हम अपनी तबीयत से भी कम मजबूर नहीं हैं। हम गाते चलेंगे; आप गालियाँ देते रहिए। देखना है, कौन हारता है?
X X XX
हाँ, मैं स्पष्ट कह दूँ, ‘नई धारा’ द्वारा मैं गुलाब का गीत गाना चाहता हूँ! हमें वादों और विवादों से कुछ लेना-देना नहीं है! जीवन का उनसे संबंध है, गहरा संबंध है, मानता हूँ, जानता हूँ, देखता हूँ, उनसे दिलचस्पी भी है। किंतु, क्या एक स्थान ऐसा नहीं हो सकता, जहाँ वाद-विवाद भूल कर हम मिलें, मिलाएँ; रस में भींगे, भिगाएँ? कलाकार भी धरती का प्राणी है–धरती के सुख-दुख उसे भी प्रभावित करते हैं। किंतु, जिस तरह फुहारा सूर्य की किरणों का एक खास अंदाज से विक्षेप पाकर इंद्रधनुष बन जाता है; वही हालत इन सुख-दुखों की कलाकार-हृदय पर होती है! जो सिर्फ बिंदु-बिंदु हैं, वे ही सतरंगी बन जाते हैं वहाँ! भगवान के नाम पर उस सतरंगी पर कोई दूसरा रंग चढ़ाने की दया न कीजिए! जरा गहरे देखिए, आँखों के पर्दे हटा कर देखिए–वहाँ वह सब कुछ है, जो धरती दे सकती है। उसे अपने ही रूप में, रंग में निखरने दीजिए। आइए, जब कभी इन वादों और विवादों से आपको थकावट मालूम हो, अवसाद का अनुभव हो, तो इस गुलाब की दुनिया में–रस की सतरंगी दुनिया में आ जाइए! मेरा विश्वास है, हम आपको रंग और गंध ही नहीं देंगे, जीवन और ज्योति भी देंगे!
X X XX
गुलाब की दुनिया! यह क्या–कहीं मुर्झाहट; कहीं सकुचाहट! कोई कली संकोच में खिल नहीं रही–कोई फूल असमय मुर्झा रहा है। ‘नई धारा’ ऐसे फूलों पर से धूल झाड़ेगी; उनकी जड़ में जीवन डालेगी, उनके रेशे-रेशे में नये रस का संचार करेगी। और, कलियों को सहलाएगी, गुदगुदाएगी, उन्हें खेलने को, विकसित होने को उकसाएगी! वह चाहेगी कि दिगदिगंत रंग और सुगंध से परिपूरित हो उठे! और, हाँ, जो बबूल के ठूँठे पेड़ इस पाक जमीन पर आ जमे हैं, उन्हें जड़-मूल से उखाड़ कर ही दम लेगी। बहुत हुआ; बहुत! आपके काँटों के क़ह्र से यह दुनिया तबाह हो चली है! काश, आप जान पाते, आपके नुकीले बर्छों ने कितनी कोयलों के कलेजे छेदे हैं, आपकी इन खूसट जड़ों ने कितनों के जीवनाधार रस को चूसा है? सावधान, बबूलों! खुशियाँ मनाओ कलियों, फूलों!
X X XX
हिंदी राष्ट्रभाषा हो चुकी। किंतु छाती पर हाथ रख कर कहिए, क्या हमारा साहित्य इस पद के अनुरूप सभी अंगों से पूर्ण है? संतों की वाणी को ही बानगी में पेश करके हम कब तक संतोष करते रहेंगे? हमारी भूमि में कविता के पौधे आपसे आप पैदा होते हैं; खूब बढ़ते हैं! किंतु यहाँ भी क्या जंगली घास का दृश्य नहीं है? और कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि का क्या हाल है? टेकनिक के खयाल से तो हम बहुत ही पिछड़े हुए हैं। बस लकीर पीटते जा रहे हैं। मालूम होता है, हमारे साहित्य-स्रष्टाओं में दम नहीं कि वे विद्रोही की तरह खम ठोक कर खड़े हो सकें! समाज को विद्रोही चाहिए, उससे अधिक विद्रोही चाहिए साहित्य को, कला को। ‘नई धारा’ ऐसे विद्रोहियों की वाणी कहकर जिस दिन बदनाम की जाएगी; हमारी चरम सफलता का दिन तब होगा! वह दिन निकट आवे–यही आशीर्वाद दीजिए।
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Ustad Mansur
Image in Public Domain