सोलो ट्रैवलर

सोलो ट्रैवलर

स्त्री के लिए विवाह जीवन यापन का सबसे अच्छा जरिया है। शादीशुदा जीवन में एक स्त्री बिना इच्छा के जितनी बार सेक्स करती है, वो संख्या सेक्स वर्कर द्वारा किए गए सेक्स से कहीं ज्यादा होता है।

–ब्रटेंड रसेल (मैरिज एंड मोरल्स)

उस शाम तन्वी मेट्रो स्टेशन पर खड़ी देर तक झुँझलाती रही। सारी मेट्रो ठसाठस भरी हुई आ रही थी। कितना इंतजार करती। तीन मेट्रो छोड़ने के बाद अब और छोड़ने का साहस नहीं बचा था। चौथी मेट्रो जैसे ही आई दन्न से घुसी। इसमें भी खड़े होने की जगह नहीं थी। किसी तरह बोगी नंबर चार में घुसी थी कि महिलाओं की बोगी में जगह मिले न मिले, कॉमन बोगी में महिला सीट लोग खाली कर ही देते हैं। सीट मिल ही जाती है। इसी कारण वह अक्सर इसी बोगी में घुसती है।

मेट्रो राजीव चौक से ही ठूँसी हुई आ रही थी। बमुश्किल उसने अपने खड़े होने की जगह बनाई थी और बायीं तरफ खुलने वाले दरवाजे से टिक कर खड़ी हो गई थी। धक्का-मुक्की में देखा भी नहीं कि उसके आसपास कौन खड़ा है। अपने कान में इयर फोन लगा कर गाना सुनने में मस्त हो जाना चाहती थी, साथ ही बगल वाली महिला सीट पर नजर गड़ाए रखना चाहती थी। उस पर पहले से एक स्वस्थ, बुजुर्ग महिला बैठी, जो शायद असहज महसूस कर रही थी। तन्वी की नजर उसी सीट पर थी और कान में फिल्मी गाने बज रहे थे।

तभी कोई एकदम पास आकर हैलो बोला। चिर-परिचित आवाज और उसकी साँसें। मंडी हाउस में भीड़ और घुसी। वो पुरुष उसके और करीब आ गया था। एकदम चेहरे के सामने उसका चेहरा था। हाथ से बोगी के अंदर की रेलिंग पकड़ लिया, जैसे ही तन्वी ने चिढ़ कर उसे देखा तो हैरान रह गई।

जयेश, तुम! यहाँ…मेट्रो में…?

तुम भी तो मेट्रो में…बस से मेट्रो तक हम पहुँचे…

अगली बार हेलीकॉप्टर में मिलेंगे…

दोनों हँसने लगे थे। जयेश ने महसूस किया, तन्वी ने अपनी हँसी दस सालों बाद भी बचा कर रखी है। वैसी ही निर्बंध हँसी।

दोनों एक-दूसरे को यहाँ देखकर हैरान थे। आकस्मिकता के सुख में उभ-चूभ कर रहे थे। भीड़ ने उन्हें बेहद करीब कर दिया था, लगभग चिपकने जैसी हालत थी। साँसें टकरा रही थीं। जयेश उसके कानों में फुसफुसा रहा था–‘हम साल 2000 में बिछड़े थे। ये 2019 है। इस बीच तुम्हारा कोई पता नहीं। कहाँ गुम हो गई थी तन्वी?’

‘यही सवाल मेरा भी है जयेश।’

‘मत पूछो…बाद में बात करेंगे। तुम कहाँ उतरोगी?’

‘वैशाली।’

‘ओह, वाउ…मैं कौशांबी। चलो, वैशाली तक साथ चलता हूँ। दस सालों की बातें धरी हुई हैं मन में, सब कर डालते हैं आज।’

तन्वी ने गौर से देखा जयेश को। समय ने उसे कितना बदल दिया है। चेहरे पर पहले-सी रौनक नहीं है। संघर्ष की घनी छाया वहाँ चिपकी हुई थी। उसे याद आने लगी, पिछली बातें, जिन्हें अपने जेहन से झटक कर जीना सीख गई थी। इन दस सालों में बहुत कुछ बदल गया। जीवन बस से मेट्रो तक पहुँच गया था। मगर महानगर की भीड़ में एक अदद चेहरा आज तक बनी हुई है। कभी दिल्ली की बसों में सफर किया करती थी। उसकी अनेक स्मृतियाँ हैं, सब उसे इस वक्त घेरने लगी थीं…जयेश उससे लगातार कुछ फुसफुसा कर कह रहा था। वह स्मृति के गह्वर में जा चुकी थी।

×     ×     ×

रोज की तरह उस दिन भी बस में बहुत भीड़ थी। तन्वी और नारायणी किसी तरह से मंडी हाउस से नोएडा वाली चार्टर बस में घुसी और अपने गंतव्य पर उतर कर चैन की साँस ली।

दोनों के ही बैग में तमाम किताबें थीं, जिसके बोझ से दोनों के ही कंधे दुःख रहे थे। दफ्तर की छँटनी में कई महत्वपूर्ण किताबें उनके हाथ लग गई थीं जिन्हें वे खुशी-खुशी अपने कंधे पर ढोने को तैयार थीं। कंधा दर्द करे तो करे, किताबें नहीं छूटें, दोनों को किताबों से प्रेम था। अपने कमरे में मनीप्लांट के साथ पौधों और टेराकोटा को सजाने के रुमानी ख्याल ने उन्हें किताबों को ढोकर ले जाने पर विवश कर दिया था। एक दफ्तर, एक-सा पद और काम। दैनिक अखबार के फीचर विभाग में काम करने वाली ये दो लड़कियाँ दो भिन्न विचारों, ख्यालों की थीं। इनकी दोस्ती मशहूर थी। एक कस्बाई लड़की नारायणी जो अपने स्वभाव से बाहर नहीं आ पाई थी, दूसरी पूरी नागरी लड़की तन्वी जिसके विचार विस्फोटक थे।

मेट्रो के गेट पर कार्ड लगाते हुए तन्वी ने एकदम से नारायणी के कंधे पर हाथ मारा–‘सुन, एक बात कहना चाहती हूँ!’

नारायणी का मन तन्वी की बहस सुनने का नहीं था। एक तो हैरी उसका इंतजार कर रहा होगा और दूसरा जब से जयेश से उसका ब्रेकअप हुआ था, तब से उसका मूड खराब ही था। वो तो हैरी ने सँभाल लिया था। नहीं तो वह दिल्ली से जा ही रही थी। इतने टूटे हुए दिल को लेकर इस शहर में रहने का उसका मन कतई नहीं था।

‘तुम्हारे पूर्व प्रेमी ने मुझे कल प्रेम निवेदन किया!’

नारायणी रिक्शे पर बैठते बैठते रुक गई। उसे झटका लगा था।

‘किसने, जयेश ने?’

‘ऑफकोर्स यार, हैरी तो तेरा वर्तमान है, भूतपूर्व तो जयेश ही हुआ न!’

तन्वी ने रिक्शे पर उसका बैग रखते हुए उसे हाथ बढ़ाया।

‘तो तुमने स्वीकार नहीं किया?’

‘मैंने उसकी बातों का स्क्रीन शॉट लेकर रखा है! अब यार देख, मैं तो इन सब लव-शव के लिए बनी नहीं हुई हूँ, मैं तो किसी और ही दुनिया का हिस्सा हूँ! मैं क्या करूँगी इस लव-शव में फँस कर! मुझे तो एकल जिंदगी चाहिए, परिवार का सपना नहीं देखती हूँ, फ्री वर्ल्ड चाहिए। ये लड़के बॉयफ्रेंड बनते ही काबू पाने की कोशिश करते हैं। पति बनते ही उन्हें पूरा अधिकार मिल जाता है, वे हमारे बारे में सब कुछ तय करने लगते हैं। वो जो प्रेम में समानता थोड़ी-बहुत दिखाई देती है न, वो शादी के बाद पति, पत्नी में पहाड़ और खाई का संबंध पनप जाता है। पुरुष अपने श्रेष्ठता बोध में पहाड़ बन जाता है, पत्नी को खाई की तरह खोद देता है। ताकि वह कभी उसके मुकाबले में खड़ी न हो सके।’

नारायणी मुँह बाए उसे देखती रही। क्या हो गया इस लड़की को। किसी अनुभवी वैवाहिक स्त्री की तरह बयान जारी कर रही थी।

‘सबसे पहले ये न करो, वो न करो, मेरे बारे में ही सोचो–टाईप की बातें करते हैं! यहाँ मत जाओ, वहाँ मत जाओ, उससे दोस्ती मत करो, कहीं जाने के लिए पूछो, किसी को घर बुलाना हो तो पूछो। मैं नहीं फँस सकती इस झमेले में, सॉरी टू से दोस्त, मैं किसी पुरुष के लिए सिर्फ सेक्स स्लेव नहीं बन सकती!’

‘तुमने किस आधार पर ये फैसला लिया? क्यों? इतनी बड़ी बात…तुम्हें पता है, तुम क्या कह रही हो…’ नारायणी से रहा नहीं गया, उसने पूछ ही लिया।

‘मैंने पापा-मम्मी को हमेशा लड़ते देखा है। हालाँकि मम्मी हमेशा कोशिश करतीं कि बंद कमरे में लड़ें, मगर पापा का गुस्सा इतना भयंकर है कि कभी भी, कहीं भी लड़ सकते हैं, भड़क सकते हैं, मम्मी को बेइज्जत कर सकते हैं।…

मुझसे अब ये सब सहन नहीं होता। मैंने इसीलिए अकेले रहने का रास्ता चुना। दोनों को लड़ने के लिए छोड़ दिया है। भाई भी बाहर चला गया है। लड़ते रहो दोनों।’

‘ये तो तुमने ठीक नहीं किया तन्वी। जब तुम्हारी जरूरत है, तुम उन्हें अकेला छोड़ आई हो।’

‘मैंने मम्मी को बोल दिया है, वे जब चाहें मैं उनके साथ अलग रहने को तैयार हूँ। मैं कलह के उस माहौल में पढ़ाई पर एकाग्र नहीं कर सकती थी।’

‘मम्मी फैसला क्यों नहीं लेती?’ नारायणी ने हैरानी होते हुए पूछा।

‘कहाँ जाएँगी…हर तरह से पापा पर निर्भर। पापा ने नौकरी करने न दी। उन्हें ऐसी पत्नी चाहिए थी जो सदा उनके नियंत्रण में रहे। मम्मी धीरे-धीरे बागी होती चली गईं। दोनों एक-दूसरे को सह नहीं पाते हैं। मेरे लिए ये पूरा दृश्य असहनीय हो चला है। दोनों में से कोई एक पल के लिए भी नहीं सोचता कि मेरे मन पर इसका कितना गलत असर पड़ रहा होगा।’

‘झगड़े की वजह क्या होती है…तुम समझाने की कोशिश नहीं करती…?’

‘नारायणी…मम्मी तो सुन भी लेती हैं। पापा तो मम्मी के मसले पर कोई बात करने को तैयार नहीं होते। डाँट देते हैं–‘अपने से मतलब रखो, बीच में मत पड़ो। पंचायती मत करो…’ कुछ भी सुना देते हैं। मैंने हार कर दूरी बना ली। वीकेंड पर भी उनके पास जाने का मन नहीं करता। जाने किस हाल में समय काटते होंगे, एक घर में…?’

तन्वी अपनी रौ में बोलती जा रही थी–‘मेरी माँ जब झगड़ती हैं तो उनकी आँखें बड़ी-बड़ी हो जाती हैं, तब पापा कहते हैं–आँखें बड़ी-बड़ी करके मुझे डराने की कोशिश मत करो। मैं तुम्हारे धौंस में आने वाला नहीं हूँ। उन पतियों में से नहीं जो बीवियों से डरते हैं…

मम्मी बड़ा दिलचस्प जवाब देती हैं–मेरी जिन आँखों पर तुम तोहमत लगाते हो, दुनिया इसी आँख को जजीरा कहती है… समझे।’

‘मुझे ये सुन कर हँसी भी आती है। और रोना भी। दोनों एक-दूसरे की बात सुनना बंद कर चुके हैं। ठीक से एक-दूसरे को निहारते भी न होंगे। निहारते तो दोनों का प्रेम फिर से जिंदा हो सकता था। मेरा यकीन गहरा हो चला है कि प्रेम, विवाह की बलिवेदी है। तौब्बा…’

तन्वी के होंठों पर दर्द भरी हँसी चमकी, फिर लोप हो गई।

‘मेरी मम्मी…बहुत जीनियस, बहुत अच्छी वक्ता हैं, गायिका हैं, सब खत्म। मेरी वजह से वे इस रिश्ते में नष्ट हो गईं। भाई को छोड़ कर चली जातीं। वे मुझे छोड़ कर नहीं जाना चाहती थीं, उन्हें भय था कि उनकी जगह कोई दूसरी स्त्री जरूर आएगी, जिसकी चाहत पापा गाहे-बगाहे जताते रहते थे। मम्मी डटी रहीं, न हिलीं। मुझे वे लेकर भी नहीं जा सकती थीं न छोड़ कर। उनका संसार हमीं लोग तक सीमित था। इसका पापा ने खूब फायदा उठाया। हर लड़ाई में ताना मारते–‘चली क्यों नहीं जाती कहीं, क्यों पड़ी हो यहाँ, अगर मैं इतना आततायी हूँ तो…?’

‘नारायणी…बहुत-सी स्त्रियों के पास विकल्प नहीं होते, खास कर अधेड़ावस्था में। कहाँ जाएँगी वे घर से निकल कर। उनके पास कुछ नहीं बचता है, खाली हाथ, न उम्र न कोई संपत्ति। न मायका न रिश्तेदार। यही समय होता है जब बच्चे उसकी पूँजी होते हैं।’

तन्वी कहीं दूर देखती हुई सारी बातें कहती जा रही थी। नारायणी की आँखें गीली होने लगी थीं। तन्वी बताती रही, मानो सारा दर्द उड़ेल देगी–‘मम्मी ने धीरे-धीरे ये बातें सुनना बंद कर दिया। हाल में गई तो वे चुप-चुप सी लगीं। जैसे अपने भीतर रहने लगी हों। पापा और चिड़चिड़े, रफ हो गए हैं। मम्मी की चुप्पी से भी वे भड़कते हैं।’

‘इतनी बातें कभी तूने बताया नहीं तन्वी?’ नारायणी ने अपना आत्मीय हाथ उसकी नम हथेलियों पर रख दिया।

‘कभी जरूरत नहीं पड़ी…क्या बताती…?’ तन्वी ने उसकी हथेलियों को स्नेह से थाम लिया था। तन्वी को लगा, सही जगह वो अपना दर्द उड़ेल सकी, दर्द सुनने की पात्रता भी सबमें नहीं होती।

एक दोहा हमेशा याद रहता था उसे–सुनि इठलैंहे लोग सब, बाटि न लैंहे कोय। बस यही एक पंक्ति उसके जेहन में दर्ज रह गई थी। इसीलिए वो कभी खुलती न थी। न ही अपने चेहरे पर दर्द के निशान लेकर घूमती थी। दर्द को दबा कर जीने का आनंद लेती थी। और लोग तो हमेशा किसी को बाहर से ही आँकते हैं। नारायणी जिस भावुकता से उसे सुन रही थी, उसके भीतर सुकून उतर रहा था। माहौल में उदासी तारी हो गई थी।

तन्वी की उदास आवाज मानो मीलों दूर से आ रही थी। नारायणी भीतर तक भींग उठी थी। एक हँसोड़ लड़की अपने भीतर कितना दर्द समेटे चहकती रहती है। किसी को भनक तक नहीं लगने देती। जिसे संबंधों से डर लगने लगा है। जो प्रेम और विवाह के नाम पर ही भड़क जाती है।

‘सो नारायणी…मुझे कोई नहीं चाहिए जीवन में…कोई पुरुष नहीं। किसी का दखल नहीं। अपने दम पर सब कुछ अर्जित करेंगे…पापा-मम्मी को रियलाइज कराना है एक दिन। वे कितने गलत थे। उन्होंने कैसे एक लड़की को असहज जिंदगी दे दी, जिसका भरोसा ही उठ गया संबंधों से।

बहुत बातें हैं…कितना बताऊँ…छोड़ न। लंबी दास्तां है। तू मस्त रह। एक छोड़, दूसरा पकड़…’ तन्वी ने अपने चेहरे से विषाद की छाया हटाई और नारायणी का हाथ दबा कर हँसने लगी थी।

‘हाँ यार, वैसे तुम ठीक कह रही हो, मगर हर कोई तुझ जैसा नहीं होता। मुझे तो चाहिए। चल तेरी कॉलोनी आ गई…।’

‘जाते-जाते मेरी एक बात सुन…मेरे घर में ऐसा माहौल होता तो भी मैं उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। सबके अनुभव अलग होते हैं, हरेक इनसान का स्वभाव अलग होता है…।’

हैरी और नारायणी क्लास में चले गए। इधर तन्वी उस मैसेज के बारे में सोचती रही। क्या करे क्या न करे, क्या वह एक बार जयेश से बात करे। वैसे जयेश हमेशा से उसे एक दोस्त के रूप में अच्छा लगता है। वह हमेशा ही जयेश से बात करती रही है, जब जब वह नारायणी के साथ होती थी। जयेश उसे अजीब-सी निगाहों से देखता था। उसने तुरंत ही फोन पर मैसेज देखा–‘हाय तन्वी, नीड टू टॉक टू यू। आई रियली लाइक यू।’

हालाँकि उसने नारायणी से उसकी चुगली कर दी थी, मगर अब उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसे लग रहा था कि उसने गलत किया है। उसके मन में बेचैनी होने लगी। वह उस हॉल की तरफ बढ़ी जहाँ पर जयेश बैठा करता था। अपने होस्टल के रूम से बाहर निकल कर।

जयेश वहीं पर एक कुर्सी पर बैठा था, इस हॉल में कुछ न कुछ कार्यक्रम हमेशा चलते रहते थे और आज भी किसी कार्यक्रम के लिए ही तैयारी हो रही थी, एक तरफ पोस्टर लग रहे थे और दूसरी तरफ लड़के भाषण की तैयारी कर रहे थे।

‘हेलो जयेश!’ तन्वी ने जयेश के पास जाकर उसे चिंहुका दिया।

‘अरे तन्वी तुम!’ जयेश चौंका!

तन्वी भी उसकी शक्ल देखकर हैरान रह गई। वह बहुत ही थका हुआ लग रहा था! ऐसा लग रहा था जैसे बहुत रोया हो या उसे बहुत परेशानी हो! क्या हुआ होगा?

‘ये तुम्हें क्या हुआ है?’ तन्वी की आवाज में चिंता झलक रही थी।

‘कुछ नहीं! चलो कुछ खाने चलते हैं!’ जयेश ने उसका हाथ पकड़ कर वहाँ से चलते हुए कहा। तन्वी ने इनकार कर दिया।

‘मगर मैंने तो नहीं खाया है न कुल दो दिन से, जब से तुम्हें मैसेज किया है। डर लग रहा था कि पता नहीं तुम समझ पाओ या नहीं मेरी बात! तुम्हें मैसेज भेजने के बाद अजीब कन्फ्यूज था।’

‘कन्फ्यूज क्यों? क्या तुम किसी और को भेजना चाहते थे मैसेज?’ तन्वी ने उसकी आँखों में झाँक कर देखा।

‘नहीं! आई वाज श्योर कि मैसेज तुम्हीं को भेज रहा हूँ!’

‘तो फिर!’

‘ओफो, सही सुना है, टॉम बॉय किस्म की लड़कियाँ बातें बहुत करती हैं।’

बातें करते हुए वे दोनों कैंटीन पहुँच गए। कैंटीन में तन्वी के लिए कॉफी और अपने लिए कॉफी और सैंडविच लेकर वह बहुत ही जल्दी आ गया।

‘हाँ, तो तुमने मुझे मैसेज क्यों किया?’ तन्वी अब अपने असली सवाल पर आ गई।

‘क्यों, मुझे नहीं करना चाहिए था?’

‘तुम मेरी दोस्त के एक्स हो!’

‘बट, प्रेजेंट तो नहीं! भूतपूर्व और वर्तमान में अंतर होता है!’

‘सही, मगर मैं तो भरोसा ही नहीं करती लव-शव में!’

‘अगर नहीं करती होतीं, तो यहाँ बैठकर मेरे साथ कॉफी नहीं पी रही होतीं!’ जयेश ने हार न मानते हुए कहा। तन्वी ने उसे एक गहरी नजर से देखा और वह धीरे-धीरे कॉफी का घूँट भरती रही।

दोपहर में तन्वी और नारायणी फिर एक साथ थीं।

‘आई हर्ड दैट यू टुक कॉफी विद जयेश, तन्वी?’ नारायणी ने एकदम से उससे पूछा।

‘हाँ, ली थी, क्यों नहीं लेनी चाहिए थी?’

‘नहीं, ऐसा नहीं है, पर तुम्हीं ने कहा था कि तुम्हें लव-शव में यकीन नहीं!’

‘यार, एक कप कॉफी में कहाँ से लव-शव आ गया!’ तन्वी झुँझला गई थी।

‘नहीं यार, ऐसा नहीं है, मगर सँभल कर, तुम्हें प्यार के रास्ते पर चलना नहीं आता!’

‘तुझे तो आता है न, फिर क्यों तेरे इतने ब्रेकअप होते हैं!’ तन्वी ने नारायणी से पूछ ही लिया।

‘तुझसे भली तो मैं हूँ, कम से कम खुल कर तो कहती हूँ, तू तो आज इससे ब्रेकअप कल उससे!’ तन्वी अब थोड़ी तीखी हो गई।

‘अरे, तू तो ग्रीन चिली की तरह हो गई है!’ नारायणी ने तन्वी से पीछा छुड़ाते हुए कहा। उस दिन तन्वी दिनभर जयेश के उतरे हुए चेहरे के बारे में सोचती रही। जयेश का चेहरा उसे अपनी तरफ खींच रहा था। उसे भीतर-भीतर कुछ हो रहा था। उसे नींद नहीं आई।

अगले दिन वह जब कॉलेज गई तो वह जानबूझ कर जयेश वाली क्लास में गई ही नहीं।

‘तुम मुझसे बच रही हो क्या डियर?’

जयेश ने लाइब्रेरी में उसे खोज ही लिया।

‘नहीं तो!’

‘तो फिर आज क्लास में क्यों नहीं आई!’

‘मेरा मन!’

‘नहीं, कुछ तो गड़बड़ है! कल तक तो वह तुम्हारी फेवरेट क्लास हुआ करती थी, और आज तुमने वही मिस कर दी! कुछ तो हो रहा है, कहीं लव-शव तो नहीं हो रहा है तुम्हें!’

तन्वी ने उसे देखा। रेड और ब्लैक में आज जयेश बहुत ही प्यारा लग रहा था। उसने तन्वी का हाथ पकड़ लिया–‘देखो, ये हाथ पकड़ लो, सच कहता हूँ, आई एम नोट अ डेमोन। बहुत ही सीधा हूँ, नहीं तो अपनी दोस्त से पूछ लेना, कहीं उसके साथ कुछ गलत या जबरदस्ती किया हो!’

उसने आँख मारी।

आखिरी लाइन पर तन्वी चौंक गई।

वह जयेश के हाथ से अपना हाथ नहीं छुड़ा पा रही थी। शायद पहली बार किसी लड़के ने उसे ऐसे छुआ था। उसे पसीना आने लगा था, मगर जयेश ने अपने पैर से उसका पैर भी दबा रखा था। तन्वी की साँस जैसी घुटने लगी थी। उसे गुस्सा आया, उसने जयेश का हाथ छिटकते हुए कहा–‘मुझे नहीं करना है, किसी से भी प्यार! एंड प्लीज लीव मी अलोन!’

‘ओके, ओके! जाता हूँ, मगर बताता चलता हूँ कि मैंने तुम्हारी आँखों में कुछ देखा है।’ तन्वी गुस्से में लाइब्रेरी से बाहर निकल कर विश्वविद्यालय परिसर में आ गई।

‘नहीं-नहीं, उसे प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ना है!’ पूरे क्लास में तन्वी सबसे समझदार मानी जाती थी जिसने आज तक किसी के साथ फालतू बात नहीं की, अफेयर नहीं हुआ जिस लड़की का और जो हमेशा ही अपने टीचर्स की प्रिय रही है। हर प्रतियोगिता में भाग लेती है, वह खुलकर मस्ती करती है। सब मान कर चलते थे कि तन्वी को कभी किसी से प्यार हो ही नहीं सकता। वो तो सबसे अलग थी। पूरे क्लास में उसके ही बारे में बातें हो रही थीं।

‘क्या हुआ तन्वी?’ ये रोहित था, ‘सुना है, तुम्हें भी किसी ने प्रपोज किया है! पर प्लीज उसके साथ वह मत करना जो तुमने हमलोग के साथ किया था, यू नो, मैटर शुड बी सॉर्टेड आउट बिटवीन टू पीपल, नॉट अमंग द क्लास!’ रोहित को अपना समय याद आ गया, जब उसने तन्वी को प्रपोज किया था और उसने सर से शिकायत कर दी थी, कितनी कंट्रोवर्सी हुई थी।

रोहित को उसने गुस्से से देखा और अपना बैग उठाकर चली आई।

उसे जयेश पर गुस्सा आ रहा था, ‘आखिर उसे ऐसा करने की क्या जरूरत थी, प्रपोज तो किया ही और साथ ही उसने पूरे क्लास में ढिंढोरा भी पीट दिया। आखिर उसने ऐसा क्यों किया? नहीं, क्या पता किसी और ने किया हो? मगर किसने?…शायद नारायणी ने!’ उसने नारायणी को ही तो बताया था।

बस में उसने नारायणी से बात नहीं की, हालाँकि नारायणी ने उससे कई बार बात करने की कोशिश की, पर वह शांत ही रही। अगले दिन नारायणी के कई मैसेज उसके बॉक्स में थे, मगर उसने किसी भी मैसेज का जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप कॉलेज चली आई और दोपहर में भी।

तीन दिनों तक उसने नारायणी से बात नहीं की, मगर क्लास में उसके बारे में बातें चलती रही। चौथे दिन वह दनदनाती हुई जयेश के रूम में पहुँच गई। जयेश का रूममेट क्लास में जा चुका था और वह जाने की तैयारी में था। वह उसे देखकर खुश हो गया।

‘मैं जानता था कि तुम आओगी!’

‘व्हाई, व्हाई, यू डिड दिस?’ तन्वी उसे हल्का थप्पड़ मारते हुए चीखी।

‘प्यार की शुरुआत थप्पड़ से ही होती है डियर!’ जयेश ने अपने रूम का दरवाजा बंद किया और उसके हाथों को पकड़ लिया।

‘तुम जानती हो कि तुम भी नार्मल लड़की हो जिसे प्यार चाहिए, जिसके बाल भले ही टॉमबॉय जैसे हों, जिसकी बातें भले ही ये कहती हुई हों कि नहीं मुझे प्यार नहीं चाहिए, सच कहता हूँ, तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार चाहिए!’

‘तुम मेरे विचार नहीं बदल सकते। आसान नहीं मेरे लिए अपने ही विचारों के विरुद्ध जाना। मेरे सामने कोई सुखद उदाहरण नहीं है, मैं हार नहीं मानूँगी।’

‘हम कोई खेल नहीं खेल रहे, तन्वी। तुम समय लो, सोचो, जब तुम्हें ठीक लगे, तब हामी भरना। मैं जबरदस्ती नहीं कर रहा हूँ, मगर जाते-जाते इतना तो स्वीकार कर लो कि तुम मुझे पसंद करती हो, बस करीब आने से डरती हो। मैं चाहता हूँ तुम वो डर मुझसे बाँटो…शायद मैं तुम्हें कुछ समझा पाऊँ।’

‘तुम जानते हो, आज तक मैंने किसी भी लड़के को अपने आस-पास नहीं आने दिया। आई यूज्ड टू हेट बॉयज, एंड आई हैव अ वैरी सॉलिड रीजन! मैं चाहती थी, मैं पूरी जिंदगी ऐसी ही रहूँ, लड़कों से नफरत करने वाली, उन्हें गालियाँ देने वाली…।’

तन्वी छिटक कर दूर जा खड़ी हुई।

×     ×     ×

कड़कड़डूमा स्टेशन पर महिला सीट खाली हो गई थी, जयेश ने तन्वी को खींचा, उस सीट पर ला बिठाया। खुद उसके सामने खड़ा हो गया।

जयेश देख रहा था कि वह लगातार कुछ-कुछ बोले जा रहा था, तन्वी अपनी सोच में गुम थी। शायद उसे नहीं सुन रही थी। सीट पर बैठते ही तन्वी स्मृतियों से बाहर आई।

दस साल बाद मिला है, पुराने अंदाज में बातें कर रहा है। जरा भी नहीं बदला है। वही रोमांटिक बातें। वही दिलकश अंदाज। वक्त का असर चेहरे पर, शरीर पर दिख रहा है। पहले से परिपक्व लग रहा था। लड़के से पुरुष में तब्दील हो गया था। जाने इन दस सालों में कहाँ रहा, कैसा जीवन जिया। अभी तक अकेला है या…

सोच की कड़ी बीच में ही टूट गई। जयेश फुसफुसाया…

बगल की सीट से कोई उठा तो धम्म से जयेश आ बैठा। एक स्टेशन बाकी था, जहाँ दोनों उतरते। जयेश ने अपना स्टेशन छोड़ दिया था।

‘तुम अभी तक जादू जगाती हो…मैं महसूस कर पा रहा हूँ, इतने पास से सालों बाद, उस जादू को महसूस कर रहा हूँ…!’

‘जादू तो तुम पैदा करते थे, लड़कियों के बीच, सब दीवानी हो जाती थी तुम्हारी…!’

‘तुम्हारी बिल्लौरी काजल रंजित आँखें कामाख्या देवी की याद दिलाती हैं।’

‘तुम्हारी हिंदी तो बहुत अच्छी हो गई है।’

‘बिल्कुल मैडम…इन दिनों बड़े प्रकाशन विभाग में काम जो करता हूँ। तुम्हें बाँधने की कोशिश कर ही रहा था कि तुम निकल भागी। ऐसी भागी कि नामोनिशान तक छोड़ कर न गई। कहाँ रही इस बीच? वैशाली में कहीं बैठ कर बातें करेंगे। तुम्हारे घर भी चल सकते हैं, अगर तुम्हें या घरवालों को बुरा न लगे…?’

‘मेरे घर में मैं और मम्मी हैं, चलो, वे तुमसे मिल कर खुश होंगी। बहुत सोशल हैं वे…।’

‘और पापा…।’

‘वे हमारे साथ नहीं हैं।’

‘ओह…’ जयेश अफसोस से भर उठा।

‘दुखी मत होओ…अच्छा हुआ। मजेदार प्रसंग है। चलो, इत्मीनान से सुनाती हूँ। सुनने लायक है। सुन कर बताना कि मुझे पुरुषों पर भरोसा क्यों करना चाहिए था।’ तन्वी हँस रही थी। चेहरे पर दर्द के निशान तक नहीं। शायद ऊबर चुकी थी और इस जीवन की अभ्यस्त भी हो गई थी।

जयेश को उत्सुकता हो रही थी उसके पापा का किस्से सुनने की। तन्वी ने सीधा उससे पूछ दिया–‘अपना जीवन बताओ, शादी कर ली। बच्चे तो होंगे ही…।’

वैशाली स्टेशन उतर कर दोनों साथ-साथ चलते हुए सेक्टर चार के मार्केट में बने एक रेस्तराँ में बैठ गए थे। तन्वी पहले मन भर बात करके उसे घर ले जाना चाहती थी। मम्मी के सामने इस अध्याय का खुलासा करने का मन न हुआ उसका। ‘पापा अकेले हैं आजकल, तुम अपना बताओ।’

‘मैं…मैं भी अकेला हूँ, अपने फ्लैट में अकेले रहता हूँ। तुम्हें तलाशता रहा, बहुत। नारायणी ने तुम्हारा पता नहीं दिया। फिर मुझे कोई पसंद नहीं आई। नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ा। घर की जिम्मेदारी अचानक सिर पर आ गई। उधर तुम गायब हुई, इधर पापा गुजर गए। दो छोटी बहनें, मम्मी की देखभाल के लिए पाँच साल तक अपने कस्बे में रहा। सब सेटल करके फिर दिल्ली लौटा, तब से यहीं हूँ। शादी के लिए मम्मी ने बहुत लड़की देखी, एक मुझे पसंद भी आई, उसे लेकर मैं गंभीर होने लगा था कि उसने एक दिन अपने प्रेमी के बारे में बताया। मैंने उनके घरवालों के विरुद्ध, दोनों का मिलन करा दिया। आज वे दोनों मेरे गहरे मित्र हैं। इसके बाद मैंने शादी, प्रेम सबके बारे में सोचना ही मुल्तवी कर दिया।

‘अच्छा, ये बताओ, तुमने शादी क्यों नहीं की…? नारायणी ने मुझे कुछ-कुछ बताया था। तुम्हारे पापा बेहद गुस्सैल थे न।’

‘इसी वजह से वे आज भी अकेले हैं। चले गए दूसरी औरत के पास, जिसके लिए वे मम्मी को जीवन भर यातना देते रहे। लेकिन वहाँ जाकर ठगे गए। कुछ दिन वो औरत साथ रही, वो शादीशुदा निकली। वो भी अपने पति से प्रताड़ित थी, पापा में अपना आसरा ढूँढ़ रही थी। उसे कुछ दिन में ही पता चल गया कि ये आदमी भी अलग नहीं है, जैसा सोच कर वो आई थी। चुपचाप इनकी जिंदगी से निकल गई। वापस लौट गई अपने पति के पास, ये कहते हुए कि वही क्या बुरा था।’

‘बेचारे पापा, मम्मी को सब पता चल चुका था। मम्मी मेरे पास रहने आ गईं। वे लौटी नहीं। न पापा ने बुलाया, न मम्मी गईं। भाई ने बहुत कोशिश की, दोनों को मिलाने की। मम्मी अपने स्टैंड पर कायम रहीं। तुम्हें पता है, मम्मी इन दिनों संगीत स्कूल चलाती हैं। कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहती हैं। उन्हें गम मनाने की भी फुरसत नहीं…।’ तन्वी जोर-जोर से हँस रही थी।

‘और तुम…?’ जयेश ने अनुराग से भर कर पूछा।

‘मैं वनफूल हूँ, जिसे बंधन की चाह नहीं…अपने वन के एकांत में खिलती हूँ, महकती हूँ…घूमती हूँ…मैं सोलो ट्रैवलर हूँ। एक इंग्लिश ट्रैवल मैगजीन के लिए फ्रीलांस करती हूँ, दुनिया भर में घूमती रहती हूँ।’

‘अब मोह पालने की इच्छा नहीं। मैं बाहर जाऊँ और घर पर कोई मेरे नाम को रोता रहे…ना बाबा…।’

‘अगर कोई तुम्हारे साथ ट्रैवेल पर निकलना चाहे तो साथ ले चल सकती हो?’

‘हाँ, हाँ क्यों नहीं…खर्चा अपना-अपना, दोस्ती पक्की।’ तन्वी ने उसे छेड़ा।

‘और कोई साथ बसना चाहे तो…’ जयेश गंभीर हो उठा था।

‘जिसने उजड़ा हुआ घर देखा हो वो बसेरे के बारे में सोच कर काँप उठता है। बसेरे की कीमत मैं नहीं चुका सकती और उजाड़ के लिए हिम्मत नहीं। और मैं तो बहुत दूर निकल आई हूँ…मुझे सोचने के लिए थोड़ा समय चाहिए…।’ तन्वी के चेहरे पर उदासी की परछाइयाँ पसर गई थीं।

बाहर शाम ढल रही थी। दोनों को घर लौटने की कोई जल्दी नहीं थी। जयेश समझ गया कि दस साल पहले भी ये बंधन के डर से दूर हो गई थी। शायद अपने आपसे जूझ रही थी। हारने के बजाय जयेश से खुद को दूर करना बेहतर लगा था उसे। नहीं…फिर से उस पर दबाव बना कर खुद से दूर नहीं करेगा। प्रेम का अंजाम हमेशा हासिल ही क्यों हो। तन्वी के जीवन के जख्मी अनुभवों ने उसे संबंधों के प्रति संशय से भर दिया है। फिर से विश्वास जमाने में वक्त तो लगता है। कुछ लोग आजीवन नहीं उबर पाते हैं। वह तन्वी को समझ पा रहा था। उसे बेहद अफसोस हुआ कि पहले समझ गया होता, उस पर दबाव न बनाता तो शायद उनके बीच प्रेम पनप गया होता। समय और अच्छा व्यवहार जख्म भर देता है। अब उस पर दबाव बनाने की बजाय उसके साथ हो लेना बेहतर। कुछ रिश्ते समय तय करते हैं, कुछ इनसान।

जयेश को उस पर और प्रेम उमड़ आया। उसने हौले से उसका हाथ थाम लिया।

‘दोस्ती पक्की। लव-शव नहीं। ठीक है।’

दोनों को लगा, दस साल बाद इतने जोर से ऐसा ठहाका लगाया है, जिसमें सारे विषाद झर जाते हैं।


Image : Lady in blue
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Artist : Chaim Soutine
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