हँसुली हार
- 1 February, 2021
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- 1 February, 2021
हँसुली हार
अबकी बाबू की चिट्ठी नहीं, फोन था, प्रिंसिपल साहब के पास। रिसीवर रखकर प्रिंसिपल साहब ने चश्मा लगाया और वे सामने की मेज पर लगी रूटीन को देखने लगे। संजीवन चाय का प्याला रख धीरे से बोला–‘सर चाय।’
‘ढँक दो और सुनो, 12 नं. में चले जाओ। हिंदी वाले शिवजी बाबू क्लास ले रहे होंगे। कहना कि उनके पिता जी का फोन था, आकर बात कर लें।’
संजीवन यहाँ 18 वर्ष से नौकरी पर है। जब आया था, मूँछें भी नहीं थीं। उसका पिता रामजीवन भी यहीं चपरासी था। रामजीवन की मृत्यु के पश्चात संजीवन की अनुकंपा पर नौकरी हो गई थी। वफादारी और जी हुजूरी में वह अपने पिता से जरा भी कम नहीं, बल्कि सवा सेर। यही कारण है कि यहाँ आनेवाले हर प्रिंसिपल का वह चहेता बन जाता।
वह खबर देने 12 नं. की ओर दौड़ा, पर धुआँधार व्याख्यान–‘जानकी हाय उद्धार प्रिया का हो न सका, एक और मन रहा राम का, जो न थका…पत्नी-प्रेम की कविता है राम की शक्तिपूजा। इसके केंद्र में है सीता, इसके हर मोड़ पर उपस्थित, संकट की हर घड़ी में प्रत्यक्ष…’ मैं धारा प्रवाह बोल रहा था, बुत-से बैठे विद्यार्थी।…. पिन ड्रॉप साइलेंस। ऐसे में चपरासी कैसे हिम्मत करे क्लास डिस्टर्ब करने की। चुपचाप खड़ा रहा इंतजार में कि सर की नजर इधर पड़े तो बात कही जाए। अचानक मैंने देखा कि एक छात्रा दर्द से छटपटा रही थी, शायद किसी जहरीले कीड़े ने काट लिया था। ‘चूना चूना’ चिल्लाते हुए मैंने बाहर की ओर देखा तो दरवाजे पर खड़े चपरासी ने झेंपते हुए अपनी चुनौटी मेरी ओर बढ़ा दी। इसी बीच उसने प्रिंसिपल साहब का संदेश भी दिया।
मैं विचलित! बाबू का फोन! बीमार हो गए क्या?–दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। जब तक दिदिया थी, कोई चिंता नहीं थी, पर दिदिया के ससुराल चले जाने के बाद सूना घर बाबू को काटने दौड़ता होगा। कितनी बार कहा, पटना आ जाइये। बच्चों के साथ आपका मन लगेगा, लेकिन ना, साफ मना कर देते हैं बाबू। जिद है कि जहाँ तुम्हारी माई मरी, वहीं मरूँगा। अपने गाँव की माटी में विटामिन है, पानी में मिनरल है, हवा में शुद्ध ऑक्सीजन और न जाने क्या-क्या…निरूत्तर कर देते एंट्रेंस पास बाबू। माई की याद सँजोये यहीं जीना-मरना चाहते हैं वे। कभी-कभी फूटते हैं तो बड़ी-बड़ी आँखें लोर से डबडब…बस होंठ फड़कते हैं। लेकिन पिछली बार बोले थे–‘इन्हें मुअली। गंगा नेहाये जाइल चाहत रही, मोटरी-गेंठरी बान्ह के बइठल रही। हम ना कऽ देनी कि खबरदार जे आन के साथे जाए के सोचलू। ओही घरी जे खटिया पऽ गिरली तऽ लहासे उठल।’ बाबू फूट-फूटकर रोये थे–‘कए जने कहले कि बिआह कऽ लऽ, उमिरे का बा, बाकी उन्हकर जगह कइसे केहू ले सकत रहे, हम ना कइनी बिआह। उन्हकरे सपन्न के पूरा कइनीं। कहत रहली–आपन लइका के होस्टल में पढ़ाइब, साहेब बनाइब। बबुनियाँ राज रजी। इहाँ देहात में ना रहिहें सँ हमार बच्चा।… जिनिगी खपा दिहनी, कि कवनो चाह बाकी ना रहे उन्हकर…’ बाबू ने आँखों के कोर पर लटके लोर पोंछ लिए। हमें कल पटना लौटना है, सोचकर उन्होंने अपने को सँभाला और बोले–‘जा लोग। आपन-आपन काम देखऽ। जब्बर के कह देले बानीं, भोरहिं टमटम लाग जाई। आम, जामुन, बड़हर–सब तुड़वा लऽ। समधिन जी के तनी बड़हरो पहुँचा दीहऽ, बड़ी चटक अँचार बनावेली। दियारा पऽ ककड़ी, खीरा, तरबुज्जा भी ढेर फरल बा, ले ले जा। मछुअइनियाँ आई मछरी लेके, जतरा पऽ मछरी ठीक रहेले।’ माई के जाने के बाद मजाल कि बाबू ने माँस-मछली को हाथ भी लगाया हो, लेकिन बच्चों का इतना ख्याल! एक-एक चीज की ताकीद कि माँ की अनुपस्थिति में किसी चीज की कमी न महसूस हो।…
× × ×
‘अरे शिवजी बाबू, आपके पिता जी का फोन था, इसी नंबर से। लीजिए बात कर लीजिए’ प्रिंसिपल साहब ने फोन का चोंगा उनकी तरफ बढ़ाया, तो हड़बड़ाकर वे बोल पड़े–‘हैलो बाबू?’… ‘ना शिवजी बबुआ, हम मुखिया जी बोलतानी, लीहीं बतिया लीहीं।’
‘प्रणाम बाबू, ठीक बाड़ऽ नू?’
‘हाँ बबुआ, पूछतानी कि गरमी के छुट्टी कहिया से होई?’
‘अच्छा-अच्छा, जल्दी आवऽ लोग। आम-जामुन सब जोहऽ तारन सँऽ तोहरा लोग के बाट। बरी-तिलउरी सभ परवा दिहले बानी, अमावटो सूख चलल बा। पैखनो पक्का करा देले बानी, अब दुलहिन के दिक्कत ना होई।’
‘बाबू’…मेरा गला भर जाता है…‘सब लइका बेचैन बाड़न सँऽ, तोहरा भीरी जाए खातिर, जल्दिये आइब’ कह कर किसी तरह मैंने फोन रखा।
प्रिंसिपल चैंबर से निकलकर मैंने आँखें पोंछी, पर आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। डिपार्टमेंट की ओर पैर बढ़ रहे थे, लेकिन पढ़ाने की अब न ऊर्जा थी, न वह उत्साह। ध्यान का पंछी उड़-उड़कर गाँव की झपटती-लिपटती डालियों को और झकझोर डालता था। अपनी गढ़ी की लताएँ अंग मोड़-मोड़कर मुझे बुला रही थीं। गुरुचन नट और उसकी नटिनियाँ की संझुकी लड़ाई, जंगली गोसाई के निर्गुन, पहाड़ी बाबा के सामने चबूतरे पर लगीं 11वीं-12वीं शताब्दी की खंडित मूर्तियाँ, इमिलिया घाट से डुबकी मारकर सीधे मिरचइया घाट पर निकलने का विजय भरा आनंद, बियफे बाजार की उठती-गिरती आवाजें, लोगों की धकमपेल-ठेलमठेल के बीच पनखउकी चाची की लटक-झटक, नीम की झिर-झिर करती पत्तियों से झाँकता चाँद, जैबुनियाँ भउजी की ठिठोली, कुइयाँ का पानी, सोन की खानी, गौरा गाय की आँखें, मिठुआ की पाँखें–सब अपनी ओर खींच रहे थे–विचित्र आकर्षण! मन महुए की गंध से मह-मह! छुट्टियों में दो दिन शेष, पर ये दो दिन काटना जैसे हिमालय पार करना। क्या करूँ, मन एकदम बेचैन!
लो, आखिर छुट्टी की सूचना आ गई। स्कूटर के हवाईजहाज पर घर पहुँचा। बच्चे तैयार–पत्नी ने भी आज खूब छापेवाली चटक साड़ी पहनी थी। काजल और ओठलाली–सब! मीनाकारी वाले गहने, भई वाह, क्या कहने! आखिर बाबू की बहू हैं! आज उन पर बच्चों का प्यार भी उमड़ा जा रहा था, वे उन्हें छोड़ते ही नहीं थे। उन्होंने भी दो-ढाई घंटे की यात्रा के लिए निमकी-खजूर भरपूर बना लिए थे।… गाड़ी खुली–छुक…छुक…छुक…छुक। बच्चों ने तालियाँ बजायीं–‘कोइलवर आएगा, हमको बहियारा ले जाएगा। हम खाएँगे आम, खूब होगा घाम। सोन में नहाएँगे, मछली मार लाएँगे…इधर कविताई की होड़, उधर पत्नी की बरजती आँखें उन्हें चुप रहने का इशारा कर रही थीं। पर वे कहाँ माननेवाले थे। कोइलवर पुल क्या पार हुआ, वे बल्लियों उछलने लगे। गँवई गंध से मेरा उछाह भी दुना हुआ जाता था…ये धनडीहाँ गाँव है…मैंने बताया। ‘बचपन में मैं यहीं पढ़ने आता था। देखो-देखो, यही स्कूल है मेरा। कल्लू हलवाई एक पैसे में पूड़ी-हलवा खिलाता था, वो भी शुद्ध घी का। छो अँगुलिया था बेचारा। अरे, ये तो फरहंगपुर आ गया। देखो, देखो, इसी तिनपेड़वा पर भूतनी रहती थी। एक बार तो मुझे भी पकड़ रही थी, लेकिन मैंने जैसे ही हनुमानजी का नाम लिया, गायब हो गई।…’ इसी तरह बोलते-बतियाते बहियारा कब आ गया, पता भी न चला।
ताँगा जैसे घर पहुँचा, भीड़ देखकर सारी चुहल गायब…क्या हुआ? किसी अनहोनी की आशंका से पूरी देह में सनसनी। भीड़ को चीरकर अंदर पहुँचा तो देखा–बाबू लेटे हैं। आँखों में एक दिव्य ज्योति, होंठों पर एक अजब दैवी मुस्कान-आ गइलऽ बाबू लोग। तोहरे लोग के इंतजारी रहे। हाथ पकड़ लिया बाबू ने! कुछ देर तक एकटक निहारते रहे, फिर अपनी जेब से एक पुरानी चिट्ठी निकाली और काँपती उँगलियों से मेरे हाथ में देते हुए कहा–‘हई रख लऽ बबुआ, तोहरा माई के चिट्ठी हऽ हमरा के लिखले रही, जब हम आरा पढ़त रहीं। कवनो फोटो नइखे उन्हकर, एकरे के देख-देख के एतना दिन जिनगी जियनी।’ फिर उन्होंने सिरहाने से एक पोटली निकाली और बोले–‘दुलहिन, ई माई के हँसुली हार हऽ, जतन से धरिहऽ। हमार माई बबुआ के जनम के खुशी में उन्हका के बनवले रहे।’ बाबू के होंठ काँप रहे थे। मेरी ओर देखकर बोले–‘चलतानी बबुआ, तोहार माई कै दिन से बोलावतारी। देखऽ, ई लोग हमरा के बनारस ले जाए के कहता–बाकिर ना, मत ले जइहऽ। जब हम तोहार माई के गंगा नेहाए ना जाए देनी तऽ हम कइसे उहाँ जाइब? सोन नदी के किनार में जिनगी बीतल, से एहिजे सोन में समाइब। दुलहिन, लइकन पऽ धेयान दीहऽ। हे गंगा महारानी, एक अपराध छेमब मोर जानी…सीताराम, सीताराम…ताराम…ताऽऽराऽम।’
हमारे गर्म आँसुओं के सैलाब में भी उनका शरीर ठंडा पड़ता जा रहा था। मेरे हाथ में पोटली थी, जिसमें वंश की धरोहर हँसुली हार थी। कभी उस हार को देखता, तो कभी बाबू को! बाबू उस लोक की यात्रा पर निकल चुके थे, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।
Image : Saint Jerome reading a letter
Image Source : WikiArt
Artist : Georges de la Tour
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