ऑनर किलिंग

ऑनर किलिंग

प्रथम श्रेणी में एम.ए. (इंग्लिश) और बी.एड. कर लेने के बाद, पिछले पाँच सालों से मैं तरह-तरह की प्रतियोगी परीक्षाएँ दे रहा था। लेकिन, नौकरी के नाम पर जब सब जगह मुझे असफलता मिली, तो मैं भी सरकार की आलोचनाएँ करने लगा। सरकार में अगाध आस्था रखने वाले मेरे मम्मी-पापा से लेकर चाचा-चाची तक ने मुझसे कहा–‘बेटा, उम्मीद का दामन मत छोड़ो और सरकार के विषय में ऐसी अनाप-शनाप बातें बोलना बंद करो!’

तभी एक दिन, मेरे सहपाठी और स्थानीय दोस्त अमित का फोन आया, ‘संकेत, बधाई हो, तुम्हारा संविदा पर व्याख्याता पद के लिए चयन हो गया है!’

अमित की झूठ बोलने की आदत से मैं खूब परिचित था, इसलिए संदेह करते हुए मैंने पूछा, ‘तुझे कहाँ से आकाशवाणी हो गई? अखबार में तो कोई समाचार नहीं है।’

अमित ने विश्वासपूर्वक पुष्टि की, ‘नेट पर देख ले। साँच को क्या आँच!’

मैं उससे उसके चयन के विषय में कुछ पूछ पाता, तब तक उसका कॉल ड्रॉप हो गया।

मैंने अपने कमरे में जाकर, डरते-डरते ‘नेट’ खोला, साइट पर गया, कम्प्यूटर स्क्रीन पर हायर सेकेंडरी स्कूलों में अलग-अलग विषयों के व्याख्याताओं के चयन की एक लिस्ट चमक तो रही थी। लगभग 56 लोगों की सूची में 43वें स्थान पर मेरा नाम था–संकेत गर्ग। मुझे उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, दतिया में पोस्ट किया गया था। चौवालीसवें स्थान पर अमित खन्ना का भी नाम था। अमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, घासमंडी, ग्वालियर में पदस्थापित हुआ था। मुझे थोड़ी ईर्ष्या हुई कि अमित को ग्वालियर जैसा शहर मिल गया।

मैंने एक बार फिर पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद, थोड़ी खुशी और संकोच के साथ पापा को जाकर बताया, ‘पापा, मेरा संविदा लेक्चरर के लिए चयन हो गया है, दतिया में 10 नवंबर तक ज्वाइन करना है।’

पापा लेटे थे तो उठ कर बैठ गए, बोले–‘मैं तुमसे कहता था न कि उम्मीद को कस कर पकड़े रहो। सरकार किसी के साथ अन्याय नहीं होने देगी!’

नौकरी का नाम सुन कर किचन से मम्मी निकल आईं, पापा के कमरे में घुसते हुए पूछने लगीं, ‘संकेत की नौकरी कहाँ लगी है?’

मैंने मम्मी के पैर छूते हुए कहा, ‘मम्मी, मैं संविदा स्कीम के तहत दतिया स्कूल में लेक्चरर चुन लिया गया हूँ। तीन दिन बाद मुझे वहाँ ज्वाइन करना है।’

मम्मी ने पूछ लिया, ‘मेरे बेटे को तन्ख्वाह कितनी मिलेगी?’

मैंने हँस कर कहा, ‘अठारह हजार फिक्स वेतन है।’

पापा थोड़ा खिन्न होते हुए बोले, ‘तुम्हारी शिक्षा और योग्यता के अनुसार वेतन तो कम है! फिर भी, उम्मीद का दामन मत छोड़ो। नौकरी करते हुए स्पर्धा परीक्षाएँ देते रहो।’

सीहोर कोई बड़ी जगह तो थी नहीं, शाम तक लगभग सभी परिचितों को मेरी नौकरी की खबर लग चुकी थी। शुभ समाचार का जिसको भी पता लगा, उसने घर आकर या फोन से बधाई द्वारा अपने सामाजिक संबंधों की पुष्टि की।

परिवार द्वारा पूरी तैयारी करने के बाद पहले मैं सीहोर से भोपाल आया। भोपाल से पंजाब मेल पकड़ कर दतिया स्टेशन पर उतरा, रात में धर्मशाला में डेरा जमाया। सुबह लगभग नौ बजे शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पहुँच कर प्रिंसिपल साहब से भेंट की। मेरे आगमन पर, प्रिंसिपल साहब ने खुशी जताई, बोले–‘आपके आने से हमारे विद्यार्थियों को एक ट्रेंड इंग्लिश टीचर मिल जाएगा।’

‘टीचर’ शब्द सुन कर मेरे युवा-मन को ठेस लगी–मैं तो व्याख्याता पद के लिए चुना गया हूँ! खैर, पिता जी द्वारा डिक्टेट कराई गई ज्वाइनिंग को मैंने प्राचार्य महोदय के सामने पेश कर दिया, प्रशंसा करते हुए प्राचार्य बोले, ‘आपकी हैंड राइटिंग भी बहुत सुंदर है!’

ज्वाइन होने के दो-तीन घंटे बाद, मैंने अपने सहकर्मियों से किराये का कमरा दिलवाने की पेशकश की। सभी ने सहयोग करने का आश्वासन भी दिया। एक सप्ताह तक मैं धर्मशाला में ही व्यवस्थित रहा।

रोज शाम को नियमित रूप से पापा-मम्मी से बात हो जाती थी। दोनों पूछते रहे–‘किराये का कमरा मिला?’ किराये का कमरा दिलाने में मेरी सचमुच सहायता की, मेरे सीनियर राम प्रसाद तिवारी जी ने। इतवार के दिन वे मुझे युवा राजनेता गिरीश तिवारी के पास ले गए, परिचय कराया, कहा–‘संकेत जी को बैचलर रूम किराये पर दिलवाइए, आपकी तो बहुत जान-पहचान है!’

गिरीश हँस कर बोले, ‘बैचलर को किराये से मकान देने में लोग डरते हैं। ऐसे परिवार तो और अधिक–जिनके घर में युवा लड़कियाँ हों। फिर भी, आप चिंता न करें, आप जिन सज्जन के साथ पधारे हैं, वे मेरे पूज्य गुरु हैं। गुरु के आदेश का पालन करने की मैं पूरी कोशिश करूँगा।’

दो-तीन दिन बाद, मेरे मोबाइल पर गिरीश जी का कॉल आया, ‘मोहल्ला हाथी खाने में मेरे एक परिचित के यहाँ बैचलर रूम खाली है। मकान मालिक ग्राउंड फ्लोर पर रहते हैं। मकान की छत पर एक सिंगल रूम को देख लें।’

स्कूल से छूटने के बाद, मैं राम प्रसाद जी के साथ गिरीश जी से मिला। तीनों, दो अलग-अलग गाड़ियों द्वारा हाथी खाने में संबद्ध मकान-मालिक तक पहुँचे। घंटी बजाई तो एक साठ-बासठ की उम्र के गंजे, लेकिन, स्वस्थ सज्जन बाहर निकले, देखते ही बोले, ‘अरे गिरीश जी, नमस्कार!’

हमलोग पहले बैठक में जाकर बैठे, एक-दूसरे से औपचारिक परिचय हुआ। सबसे पहले पानी, फिर चाय-नाश्ता, उसके बाद मतलब की बात। बात मेरे सीनियर राम प्रसाद जी ने आगे बढ़ाई, ‘किशन जी, शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में संकेत मेरे साथ हैं। सीहोर के अच्छे सनातनी परिवार से हैं। इनकी गारंटी मैं लेता हूँ।’

तभी कमरे में किशन जी की पत्नी ने प्रवेश किया, पचपन-छप्पन वर्ष की संभ्रांत…सुशिक्षित…सुंदर महिला। राम प्रसाद जी को देखते साथ ही बोल पड़ीं, ‘अरे भाई साहब, आप!’ फिर किशन जी से मुखातिब होते हुए बोलीं, ‘भाई साहब और मैं डबरा स्कूल में एक साथ थे।’

परिचय निकल आने के बाद, मुझे थोड़ी उम्मीद हो गई कि विगत 7-8 दिनों की भाँति यहाँ से निराश नहीं लौटना पड़ेगा।

सीढ़ियाँ चढ़कर हमलोग छत पर पहुँचे, छत के एक छोर पर दस बाई पंद्रह का इकलौता कमरा बना हुआ था–जिसके अंदर ही एक ओर किचन प्लेटफॉर्म लगा था तो दूसरी ओर अटैच्ड लैट्रिन-बाथरूम की व्यवस्था थी। कमरे में एक खिड़की सड़क की ओर खुलती थी तो दूसरी छत पर। कमरे में एक रोशनदान भी था। आंटी जी बोलीं, ‘वैसे हम किसी बैचलर को रूम रेंट पर नहीं देते, भाई साहब के कारण अब आपको दे देंगे।’

मैंने कृतज्ञता के साथ आंटी जी की ओर देखा, किराया पूछा तो किशन जी ने बताया, ‘आठ हजार।’

किराया सुन कर मेरा उत्साह ठंडा पड़ने लगा, मैंने राम प्रसाद जी के कान में कुछ कहा। राम प्रसाद जी हँस कर बोले, ‘वसुधा जी, संकेत के वेतन का लगभग फिफ्टी परसेंट तो किराये में ही निकल जाएगा!’

गिरीश ने बीच में पड़ते हुए कहा, ‘किशन जी, भरोसे के लोगों द्वारा प्रस्तावित किरायेदार को अपना आशीर्वाद दीजिए। छह हजार उचित रहेगा!’

थोड़ी ना-नुकुर के बाद, तय हुआ कि सब-मीटर द्वारा बताई गई यूनिट्स के अनुसार बिजली का बिल और छह हजार रुपये किराया संकेत को हर महीने की पाँच तारीख तक अदा करने होंगे।

मेरे हिसाब से छह हजार किराया भी ज्यादा था, फिर भी, ‘मरता, क्या न करता’ की शैली में स्वीकार करके कमरा फायनल किया।

गिरीश जी के घर आ कर मैंने उनके सहयोग के लिए धन्यवाद दिया। राम प्रसाद जी ने अपनी बाइक से मुझे धर्मशाला तक छोड़ा। इस उपकार के लिए, उनके तो मैंने पैर ही छू लिए।

रात को मोबाइल पर मम्मी-पापा को किराये का कमरा मिलने वाली बात बताई। छह हजार किराया सुन कर मम्मी बोलीं, ‘फिर तेरे पास बचेगा क्या?’

पापा ने मम्मी से मोबाइल छीन कर कहा, ‘हमें तुमसे एक पैसा नहीं चाहिए। शेष वेतन तुम पूरा खर्च कर सकते हो, संकेत!’

अगले दिन, साढ़े तीन बजे स्कूल से छुट्टी होने के बाद, मैं थ्री व्हीलर में अटैची रख कर ‘वसुधा-सदन’ पहुँच गया। पति-पत्नी के साथ लगभग सोलह-सत्रह साल के एक किशोर ने भी सदन में मेरा स्वागत किया।

छत पर बने, अपने कमरे में व्यवस्थित होने के बाद, नीचे उतर कर सबसे पहले मैंने आंटी जी को छह हजार रुपये अग्रिम मासिक किराया दिया। बैठक में बैठ कर, पति-पत्नी ने सीहोर में हमारे परिवार के विषय में लंबी पूछताछ की।

‘वसुधा-सदन’ के लगभग सामने ही मोहल्ला हाथी खाने की मेन सड़क पर नितिन जनरल स्टोर था–जहाँ जरूरत की सभी चीजें मिल जाती थीं। ‘वसुधा-सदन’ से लगभग बीस मिनट की दूरी पर मेरा स्कूल था–जहाँ तक मैं पाँव-पैदल चला जाता था। स्कूल से पाँच मिनट की दूरी पर दतिया का सबसे साफ-सुथरा भोजनालय था, जहाँ मेरा लंच और डिनर हो जाता था। चाय-नाश्ते का प्रबंध मैंने गैस और छोटे सिलिंडर द्वारा घर पर ही कर लिया था।

कुल मिला कर, दतिया में मेरे जीवन ने गति पकड़ ली, दीपावली की छुट्टियों में सीहोर से मैं अपनी बाइक भी उठा लाया, सुविधा का थोड़ा और सामान माँ ने मेरे साथ बाँध दिया।

रात में कभी-कभी आंटी जी का बेटा हितेश इंग्लिश के बहाने मेरे पास आ जाता था। हितेश बहुत बातूनी और हँसमुख लड़का था। उसी से पता चला–उसकी दीदी एम.बी.बी.एस. करने के बाद अब गाइनी में एम.एस. के पहले साल में मेडिकल कॉलेज, ग्वालियर में पढ़ रही है।

मैंने हितेश से पूछा, ‘तुम्हारी दीदी तुमसे कितनी बड़ी हैं?’

हितेश ने बताया, ‘दस साल।’

लगभग छह महीने तक हितेश की बहन पलाशिनी को मैंने नहीं देखा।

एक दिन सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था तो एक बहुत खूबसूरत लगभग पाँच फीट छह इंच लंबी आंटी जी की छवि वाली लड़की दिखाई दी। मैं समझ गया–पलाशिनी है, मैं उसकी ओर चला गया, नमस्ते की और पूछा, ‘पलाशिनी?’

बहुत आत्मविश्वास के साथ वह भी मुस्कुरा कर बोली, ‘जी हाँ, संकेत जी! आपके विषय में हितेश मुझे पहले ही पूरी जानकारी दे चुका है।’

मैंने पूछा, ‘घर आने के लिए समय नहीं मिलता?’

पलाशिनी ने कहा, ‘इस समय गाइनी में जितनी ओपीडी…ऑपरेशन्स कर लूँगी–जीवन भर काम आएँगे।… एम.बी.बी.एस. के समय तो मैं महीने में एक बार दतिया आती ही थी। पी.जी. में एडमिशन के बाद, स्पैल थोड़ा लंबा हो गया है।’ आंटी जी ने आवाज लगाई तो ‘सॉरी’ कह कर पलाशिनी चली गई, मैं भी बाइक से अपने विद्यालय की ओर प्रस्थान कर गया। लेकिन, शायद उसी क्षण पलाशिनी की नायिका वाली छवि कहीं मेरे मन में बैठ गई।

उस रात, मन ही मन मैंने अपनी उम्र का कैल्कुलेशन किया–‘तीस साल। पलाशिनी छब्बीस की। मेरी हाइट पाँच फीट दस इंच, पलाशिनी की पाँच-छह। मेरे नाक-नक्श और रंग भी उससे कोई कम नहीं।’ मन ने पूछा–‘तो कमी कहाँ है?’ कहीं से आवाज आई–‘वह गाइनी की स्पेशलिस्ट डॉक्टर, और बेटा, तुम अठारह हजार रुपल्ली कमाने वाले अदना-से टीचर। वह भूमिहार ब्राह्मण की बेटी और तुम वणिक पुत्र संकेत गर्ग!’ मेरे जिद्दी मन ने उत्तर दिया–‘प्यार में इस तरह की तुलनाएँ नहीं की जातीं!’ फिर कहीं से आवाज आई–‘यह तुम्हारा एकतरफा प्यार बोल रहा है। अभी उसने तुमसे एक बार बात भर की है।

एक दिन रात साढ़े आठ बजे हितेश मेरे पास आया तो मैंने पूछ लिया, ‘हितेश, आगे तुम्हारा क्या इरादा है?’

‘मैं भी पी.एमटी…सी.पी. एमटी फेस करूँगा। मुझे दीदी से भी बड़ा डॉक्टर बनना है।’ हितेश बोला।

मैंने कहा–‘वेल! अब तो तुम्हारी दीदी की पी.जी. भी पूरी होने वाली है…।’

हितेश ने बीच में बात काटते हुए कहा–‘अभी डेढ़ वर्ष शेष है!’

गाहे-बगाहे पलाशिनी जब भी ग्वालियर से दतिया आती, मैं उससे सायास बात करता, उसे इम्प्रेस करने की कोशिश करता। वह भी मुझसे खुले मन से बोलती-बतियाती, लेकिन हाव-भावों से उसने एक बार भी ऐसा संकेत नहीं दिया कि वह मेरी ओर आकर्षित है।

‘वसुधा-सदन’ में रहते हुए, धीरे-धीरे मुझे दो साल पूरे होने वाले थे। पलाशिनी की पी.जी. पूरी हो चुकी थी और वह किसी अग्रिम स्पेशलाइजेशन के लिए ग्वालियर में ही रह कर तैयारी कर रही थी।

समर वेकेशन के बाद, मैं दतिया आया तो एक दिन पलाशिनी दिखी। मैंने उसे जान-बूझ आवाज दी, पूछा–‘गाइनी में पी.जी. करने के बाद अब आप और क्या करने लगीं?’ बोली, ‘सुपर स्पाइलाइजेशन। अगर मैंने यह कर लिया तो सीधे ‘एम्स’ में ले ली जाऊँगी!’ पलाशिनी के स्वर में उल्लास था।

पलाशिनी ग्वालियर लौट गई।

तीन-चार महीने और बीत गए। एक दिन, ग्वालियर से मेरे पुराने दोस्त अमित का कॉल आया, ‘तू तो, यार, दतिया का ही हो कर रह गया। एक दिन ग्वालियर आ न! साथ-साथ फिल्म देखेंगे, खाएँगे-पीएँगे। मस्ती करेंगे।’

अमित के निमंत्रण पर मुझ में फिर उम्मीद जगी–‘ग्वालियर में पलाशिनी से लंबी मुलाकात की जा सकती है। अपनी विशेषताओं के विषय में भी बताया जा सकता है। उसके मन की टोह ली जा सकती है।’ लेकिन, मैं चाह कर भी स्कूल की व्यस्तताओं की वजह से अमित के पास ग्वालियर नहीं जा सका।

एक दिन, मैंने देखा–दोपहर में गिरीश जी ‘वसुधा-सदन’ में घुसे और बैठक की जगह अंदर के कमरे में चले गए। दो घंटे बाद जब मैं वाचनालय से लौटा तो भी गिरीश जी वसुधा और किशन के साथ परामर्श कर रहे थे।

एक सप्ताह बाद, रविवार के दिन फिर गिरीश जी अपने दो पदाधिकारी साथियों के साथ ‘वसुधा-सदन’ के अंदर के कमरे में मंत्रणा करते पाए गए।

घर का माहौल कुछ तनावपूर्ण था। मेरी आँखें हितेश को खोज रही थीं–जो पूरी तरह अदृश्य था। मैं उसी को विश्वास में लेकर गिरीश जी के निरंतर आवागमन के कारण की पड़ताल कर सकता था।

एक दिन सुबह सात बजे मैं शेविंग क्रीम लेने नितिन जनरल स्टोर पहुँचा। स्टोर खुल रहा था, दो नौकर झाड़ू लगाने के बाद सफाई में व्यस्त थे। नितिन बाहर खड़ा था, मुझसे बोला, ‘बाबू जी, आपने यह क्या करवा दिया?’

मैंने प्रश्नवाचक निगाहों से नितिन की ओर देखा, पूछा–‘क्या हो गया?’

नितिन बोला, ‘किशन की डॉक्टर छोकरी ने ईसाई डॉक्टर से शादी कर ली, आपको पता नहीं?’

मैं मानो आसमान से धरती पर गिरा, पूछ बैठा–‘किसने…पलाशिनी ने?’

नितिन बोला, ‘यस सर! आपके घर में कांड हो रहा है और आपको ही पता नहीं!’ तब मुझे ‘वसुधा-सदन’ में गिरीश जी की लंबी-लंबी मीटिंग्स का राज समझ आया। स्कूल में जब मैंने राम प्रसाद जी को थोड़ा खोदा तो उन्होंने एक पेंच और बताया–‘लड़के का बाप बी.एस.एफ. में कमान्डेंट है। डॉक्टर सिरिल मेथ्यू भी गाइनी का स्पेशलिस्ट डॉक्टर है, जिससे पलाशिनी ने कोर्ट मैरिज की है। ऐसे लोगों पर हाथ डालने से पहले गिरीश रणनीति बना रहे हैं।’

मुझे सिरिल और पलाशिनी की चिंता हुई। कहीं उन बेचारों के साथ ये लोग कोई आपराधिक षड्यंत्र न कर डालें।

ऐसे ही तीन महीने और बीत गए। तभी मम्मी का कॉल आया कि पापा का ब्लड शुगर बढ़ गया था, अस्पताल में एडमिट कराया है।

मैं फौरन पाँच दिन की छुट्टी लेकर सीहोर चला गया। पाँच दिन बाद, सीहोर से दतिया लौटा तो स्टेशन पर नितिन मिल गया। मुझे देखते ही बोला, ‘इन लोगों ने लौंडिया को मरवा दिया!’ मैंने डरते-डरते पूछा, ‘पलाशिनी को?’

‘वसुधा-सदन’ आया तो वहाँ किशन जी के मित्र और रिश्तेदारों की भीड़ लगी हुई थी। घर के अंदर रोना-गाना चल रहा था।

मैंने अपने कमरे में जा कर अटैची रखी, सफेद रंग का कुर्ता-पाजामा पहना और नीचे उतर आया। दो अलग-अलग लोग पलाशिनी की मौत के बारे में अलग-अलग कहानियाँ सुना रहे थे। मुझे शक हुआ।

तब तक अर्थी सज चुकी थी। वसुधा जी और अन्य महिलाओं के चीत्कारों के बीच यात्रा शमशान घाट की ओर चल पड़ी।

शमशान घाट पहुँच कर हितेश ने मुंडन करवाया और अपनी दीदी को मुखाग्नि दी। माहौल एकदम गमगीन हो गया। मैं भी अपने आँसू नहीं रोक पाया। पलाशिनी का ऐसा असामयिक अंत मैंने सोचा भी नहीं था।

शमशान घाट से लौट कर मैंने स्नान किया। सफर की थकान तो थी ही। मन उदास भी था। लेट गया तो नींद लग गई–सामने उतनी ही ताजा मुस्कान के साथ पलाशिनी खड़ी थी। मैंने उससे कहा–‘अगर मुझसे शादी कर लेती तो इस षड्यंत्र और असामयिक मौत से बच जाती तुम!’

‘वसुधा-सदन’ में दो तीन हफ्ते तक निरंतर शोक व्यक्त करने वाले आते रहे। मेरी भी अंकल-आंटी से बोल-चाल कम से कम होती गई।

एक महीना और बीत गया।

धीरे-धीरे ‘वसुधा-सदन’ का जीवन भी पटरी पर लौटने लगा। मैं सोचने लगा कि अब दतिया में कोई दूसरा मकान तलाश कर लूँ।

महीनों बाद, एक दिन अचानक ग्वालियर से फिर अमित का फोन आया–‘आज संडे है। आज तो आ जा। मस्ती करेंगे।’

उस दिन मैंने ज्यादा सोचा-विचारा नहीं, बस पकड़ कर ग्वालियर की ओर चल पड़ा। ग्वालियर में बरसों बाद अमित से मिला तो शिकायतों के पुलिंदे खुल गए। अमित ने मेरी खातिरें शुरू की तो फिल्म का तीन बजे वाला शो मिस हो गया। उसके बाद हम मौज-मस्ती के लिए कटोरा-ताल चल पड़े। इतवार के दिन वहाँ काफी भीड़ थी। कटोरा ताल से उठे तो बाइक से माँडरे वाली माता के दर्शन करने का प्लान बन गया।

जी.आर. मेडिकल कॉलेज के सामने से गुजरे तो मैंने अमित से कहा, ‘यार, एक चक्कर मेडिकल कॉलेज के अंदर लगा कर चलते हैं।’ अमित ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा जरूर, फिर बाइक कॉलेज के अंदर मोड़ दी।

कॉलेज परिसर में बाइक दस मीटर ही पहुँची होगी, मैंने अमित से कहा, ‘रुक-रुक!’ पहले तो मैंने अपनी आँखें मलीं, फिर देखा, लगा–‘पलाशिनी अपने किसी साथी के साथ तेज-तेज कदमों से कॉलेज से बाहर जा रही है।’

मैं दौड़ कर पलाशिनी की ओर गया, आवाज दी, बोला–‘पलाशिनी, मैं संकेत गर्ग।’ पलाशिनी मुझे देख कर रुक गई, चहक कर बोली, ‘अरे संकेत जी, आप यहाँ कैसे?’ फिर अपने साथी से परिचय कराती हुई बोली, ‘माई हसबेंड…डॉ. सिरिल मैथ्यू।’

सिरिल ने हाथ मिलाया और हैल्लो कहा।

मैं पलाशिनी को जीवित देख कर एकदम भौंचक था, पूछ बैठा–‘पलाशिनी, तुम जिंदा हो? दतिया में तो मैं तुम्हारे दाह-संसार में शामिल हो चुका हूँ।’

पलाशिनी एकदम शांत रही, बोली–‘मुझे पता है। उनकी तरफ से तो, संकेत मैं मर चुकी हूँ।’ मैंने डॉ. सिरिल की ओर देखा, सिरिल मुझे लगभग समझाते हुए बोले, ‘एक नए किस्म की ऑनर किलिंग!’

मैं पलक झपकते समझ गया कि गिरीश जी से मंत्रणा करके किशन जी ने किसी लावारिस लाश को पलाशिनी बतला कर उसका दाह-संस्कार कर दिया होगा, क्योंकि डॉ. सिरिल की पारिवारिक स्थिति इतनी सशक्त थी कि वे उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते थे। लेकिन, ऐसी प्रतीकात्मक ऑनर किलिंग से उन्हें जाने कैसा क्या संतोष मिला होगा।

ड्राइवर कार लेकर आ गया था। पति-पत्नी दोनों मुझे और अमित को ‘विश’ करते हुए कार में बैठ कर कॉलेज कैंपस से बाहर निकल गए।


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Artist : Paul Cezanne
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Note : This is a Modified version of the Original Arwork