अजनबी
- 1 December, 2020
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- 1 December, 2020
अजनबी
बहुत दिनों बाद आज वह घर से बाहर निकला था। लगभग चार महीने बाद। वह अपने साठवें में प्रवेश कर चुका है। रिटायरमेंट के मुहाने पर है वह। काफी छुट्टियाँ उसके खाते में जमा हैं। मार्च के अंतिम सप्ताह से वह घर पर है। एक दिन भी वह बाहर नहीं गया। घर से काम करने की सुविधा ऑफिस ने दे दी है। ‘वर्क फ्रॉम होम’ से वह उकता गया। इतने दिन वह घर पर कभी नहीं रुका…ऑफिस और ऑफिस के काम से दूर। पर…पर नए समय ने घर पर कैद कर दिया। टीवी, अखबार रोज बढ़ते आँकड़ें, रोज नए बीमारों के आँकड़ें, मौतों के आँकड़ें अस्पतालों के खस्ताहाल, नेताओं के बयान, टी.वी. पर बहसें, डॉक्टरों का समर्पण, व्यवस्था सँभालने में पुलिस की फजीहत, …एक दहशत…जीवन पर लगे ग्रहण को देखते हुए वह बहुत चिड़चिड़ा हो गया। चारों ओर दुनिया भर में एक ही विषय कोरोना…कोरोना…कब जाएगा किसी को नहीं मालूम…सारे ज्योतिषी, पत्रकार, डॉक्टर, बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक–कोई भविष्य नहीं बता पा रहा था। जो कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे, उनके लिए यह कोरोना अंधों का हाथी बन कर रह गया था। पर यह हाथी किसी को दिखाई नहीं देता। सूक्ष्मातिसूक्ष्म से अदृश्य सूक्ष्म।
पहले उसने सुना-पढ़ा था कि चीन में कहीं बड़ी मात्रा में महामारी आई है–कोरोना। उसने नजरअंदाज किया इस चिंता को–अपना क्या संबंध? फिर यह महामारी केरल में आई यह भी उसने सुना। पर इससे अपने को क्या…वैसे वह कर भी क्या सकता था? सिवा जिज्ञासा के उसके पास कुछ भी नहीं था। टीवी पर देखकर, अखबारों में पढ़कर वह अपने काम पर चल पड़ता। पर यह क्या! अब तो यह महामारी उसके राज्य, उसके शहर में आ गई। यह बात जंगल में आग की तरह चारों ओर फैलने लगी। वह चिंतित हुआ। जब से उसने सुना कि जितनी मौतें हुई हैं, उनमें साठ वर्ष से अधिक उम्रवालों की संख्या अधिक है, वह अपने बच्चों के बारे में सोचने लगा। यह जानकर भी वह सिहर गया कि दूसरी कोई गंभीर बीमारी के लोगों को कोरोना आसानी से पकड़ लेता है। उसकी दहशत दुगुनी हो गई। उसे शुगर और बीपी दोनों हैं। लॉकडाउन, क्वारंटीन, आइसोलेशन, वैक्सीन जैसे शब्दों ने समाज की भाषा में नए रूप में प्रवेश किया। वह चुपचाप इन शब्दों को समझ रहा था, जो उसके शहर के लोगों की जुबान पर थे। रोज टीवी और अखबार में देख-पढ़कर वह हैरान था कि यह अजीब दुश्मन है, जो दिखाई नहीं देता, पर जानलेवा हमला कर रहा है। पता नहीं क्या हो। उसने चार महीनों का राशन और दवाइयों का स्टॉक कर लिया। पत्नी और बच्चों को समझा दिया…आनेवाला समय बहुत भयंकर है।
पर अब पत्नी और बेटा-बेटी को लग रहा है कि उसकी स्थिति भयंकर है। वह पहले की तरह सबसे बात नहीं करता। बात-बात पर नाराज़ हो जाता है। ‘वर्क फ्रॉम होम’ है, फिर भी बीमारी की छुट्टी ले लेता है। वैसे ध्यान तो ऑफिस के काम में ही लगा रहता है। वह एक इंश्योरेंस कंपनी में ऑफिसर है। किसी-न-किसी से, आमतौर पर ऑफिस के सहकर्मी से ऑफिस के बारे में या किसी मामले के बारे में बात करता है। कभी नाराज़ होता है, कभी गुस्सा करता है। बेटा-बेटी एक-दूसरे को ताकते रह जाते हैं, जब वह किसी से किसी बारे में बहस करता है। राजनीति या सरकार पर बात करते-करते वह उत्तेजित हो जाता है। बच्चे समझ नहीं पाते कि ये परिवर्तन उसमें इतनी तेजी से क्यों हो रहे हैं! फिर अचानक किसी दिन बेटी की शादी की चिंता को लेकर उलझ जाता है।
‘ये कोरोना के जाने के बाद सब ठीक हो जाएगा, आप कुछ ज्यादा ही सोचते हैं…।’ पत्नी दिलासा देती है।
‘इस समय लोग शादियाँ तय कर रहे हैं।’ वह तर्क करता है।
‘हमने तो बात कहीं चलाई नहीं…जब होगा तब देखेंगे।’ पत्नी विषय को ठंडा करने की कोशिश करती है और आगे कहती है, ‘आजकल तो अपने लोगों को बुला भी नहीं सकते।’
‘तो क्या हुआ, कोर्ट मैरिज कर लेंगे।’ वह सोचता है कि उसने कोई बड़ा समाधान ढूँढ़ लिया। फिर आगे जोड़ता है, ‘पचास लोग तो शामिल हो ही सकते हैं। अच्छा है खर्चा कम होगा…।’
‘पर कोई रिश्ता है क्या? आप नाहक बात को दौड़ा रहे हैं।’ पत्नी के स्वर में तल्खी है। बेटी अपने कमरे में लैपटॉप पर काम कर रही थी। वह ड्राइंगरूम में आती है। दोनों के कुछ स्वर उसके कानों पर पड़े थे, वह कुछ क्षण दोनों को गौर से देखती है।
‘आपलोग मेरी चिंता न करें। मुझे अच्छा जॉब है। अच्छा पैकेज है।’ बेटी ने दोनों से कहा। माँ तो शांत रही, पर वह बोल पड़ा, ‘हम नहीं करेंगे चिंता तो कौन करेगा? तुमने कुछ सोच रखा हो तो बताओ।’
‘मैंने कुछ नहीं सोच रखा है। मैं नौकरी में अगले प्रमोशन की कोशिश कर रही हूँ। आजकल सॉफ्टवेयर में बहुत स्पर्धा है।’
उसने बेटी की ओर गहरी नजर से देखा, फिर पत्नी की ओर। पत्नी उसी को निहार रही थी। वह पति की सोच को परख रही थी।
वह सोच रहा था इस बात पर कि ‘मैंने कुछ नहीं सोचा है।’ अर्थात इस बारे में बेटी भी कुछ सोच रही है। कहीं ऐसी-वैसी बात तो नहीं है। मोबाइल पर काफी समय बिताती है। पर पूछे कैसे, हिम्मत नहीं हुई। विषय बदलते हुए बेटी ने ही पूछा, ‘आज आप काम पर नहीं बैठे? आपका लैपटॉप खुला तो है, पर आप माँ से बहस कर रहे हैं। आज आपका ऑफिस नहीं है क्या?’
‘नहीं बेटा, मैं छुट्टी पर हूँ। अब रिटायरमेंट नजदीक है। सोचता हूँ, ढेर सारी ‘सिक लिव’ बकाया है, थोड़ी-थोड़ी लेता रहूँ।’ वह कुछ संतुलित होकर बोलने की कोशिश करने लगा। माँ वहाँ से उठकर चली गई। अब घर का सारा काम उसे ही करना पड़ता है। हाँलाकि बेटी कुछ हाथ बँटाती है। पर ज्यादा समय नहीं दे पाती, क्योंकि वह घर से ही काम कर रही है। कभी भी कोई कॉल आता है और वह निरंतर लैपटॉप पर लगी रहती है। कभी-कभी नेटवर्क की समस्या से उसे झुँझलाहट होती है। पर उसकी माँ को उसने कभी झुँझलाते नहीं देखा। जबकि अभी कोई कामवालियाँ नहीं आ रही हैं। बर्तन साफ करना, खाना बनाना, साफ-सफाई सब उसे ही करना पड़ता है। बेटी मदद करना चाहती है, पर वह कहती है, ‘तुम अपना सारा ध्यान अपने काम पर ही दो…कोई चूक नहीं होनी चाहिए।’
बेटी के अपने कमरे में जाते ही वह टीवी खोलकर बैठ गया। वही समाचार…कोरोना की संख्या, संख्या और संख्या। वह चैनल बदल देता है। सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत की गुत्थी और गुत्थ…वह थोड़ी देर रुकता है। एक ओर सीबीआई जाँच कर रही है और दूसरी ओर टीवी पर पाँच-छह लोग गुत्थी का छोर ढूँढ़ते हुए एक-दूसरे पर टूटे पड़ रहे हैं…थोड़ी देर अपनी जिज्ञासा वह थाम लेता है…पर घूमा-फिरा कर वही बात…अभिनेता की मृत्यु न हुई, एक रहस्यमय फिल्म बनकर रह गई…वह ऊब जाता है। एक दूसरे चैनल पर पहुँचकर वह देखता क्या है…बाढ़…बाढ़…और बाढ़। गाँवों-घरों में, शहरों-सड़कों में पानी घुस आया है। कारें, ट्रक पानी में बह रहे हैं, लोग फँसे हुए हैं। जन-जीवन अस्तव्यस्त। तंग आकर वह टीवी बंद कर देता है। चुपचाप बैठा रहता है शून्य में आँखें गड़ाए।
पत्नी चाय के तीन मग लेकर आती है। हाँलाकि सुबह की चाय हो चुकी थी। अभी तो दिन के साढ़े ग्यारह बजे थे, पर पत्नी ने सोचा कि विषय कुछ उलझनभरा निकल आया था। चाय से वातावरण ठीक हो जाएगा। सभी अलग-अलग जगह पर बैठे थे। बेटी अपने कमरे में, वह ड्राइंगरूम में और बेटा अलग। एक बड़ी सी बालकनी को कवर कर एक कमरा बना दिया गया था। बेटा यहीं पढ़ाई करता है और यहीं सोता है। बेटा सी.ए. कर रहा है। आखिरी साल में है, पर कोरोना के कारण परीक्षा नहीं हो रही है। प्रीलिम्स उसने पहले प्रयास में ही पार कर लिया था।
माँ ने सबको चाय दी। ड्राइंगरूम में आकर देखा कि पति ने चाय का मग नहीं उठाया है अभी तक कहीं खोए हुए हैं। मुस्काते हुए उसने कहा, ‘चाय ठंडी हो जाएगी।’ वह खोया ही रहा। पत्नी को भोजन की तैयारी भी करनी थी।
पिता की बेचैनी बेटा भी समझ रहा था और बेटी भी। पत्नी को तो समझना ही था। उन तीनों ने सलाह कर ली थी। रात को भोजन की टेबल पर बेटे ने वह बात सबके सामने पिता के सामने रख दी। ‘इस रविवार को डैडी, हम सब बाहर जाएँगे पर शहर से बाहर। काफी दिन हो गए हैं, हम घर से बाहर नहीं निकले हैं। पर एक शर्त है…।’ उसने पिता की ओर देखा।
उसने चौंककर बेटे को देखा, मानो पूछ रहा हो, ‘शर्त?’
पर बेटे ने ही स्पष्ट कर दिया, ‘सबको मास्क पहनना पड़ेगा, केवल शहर से बाहर निकलने के बाद ही गाड़ी से बाहर निकल सकते हैं। किसी से मिलना नहीं है। घर से ही खाने-पीने का सामान लेकर चलना है। चाय भी साथ में रखेंगे…बाहर से कुछ नहीं लेंगे। रात होने से पहले लौट आएँगे…।’
उसकी आँखें चमक उठीं। चार महीने से घर में कैद है। इतना समय वह घर पर कभी नहीं रुका। रिटायरमेंट से पहले ही रात-दिन घर में! कहीं आना-जाना नहीं। बेटा गूगल पर कोरोना की बारीक जानकारी हासिल करता रहता। किसी डॉक्टर की तरह सावधानी बरतने की सलाह देता रहता। सब उसकी सुनते, पिता भी। अमेजन और बिग बास्केट से सारी चीजें घर पर आती रहतीं। अनाज और दवाइयों का स्टॉक था ही। टीवी पर समाचार डराते। मृत्युदर और अस्पताल की कमी दहशत पैदा करते। बेरोजगार पैदल अपने गाँवों की ओर लौटते मजदूरों के कारवाँ देखकर अफसोस के अलावा कुछ न कर पाते। मन विचलित हो गया था उसका। बेटे-बेटी ने यह पढ़ लिया था। पिता की स्तब्धता, आतंकभरा चेहरा, घर में कैद रहने की विवशता और अन्यान्य अनिश्चतताओं के बीच बेटे-बेटी को लगा था कि पिता की सोच में कुछ परिवर्तन होगा।
पिता को भी प्रस्ताव ठीक लगा। कुछ और नए शब्द हवा में आ गए थे। मास्क…सैनिटाइजर…और अब अनलॉक। इस अनलॉक के दौर में लोग बड़ी मात्रा में सड़कों पर थे। उसे लग रहा था कि सड़कों पर भीड़ देखकर लगता है कि कहाँ है करोना? कहीं कोई आपदा नहीं है। उधर टीवी देखने पर लगता कि बस, घर से निकले और खत्म…कोई नहीं बचनेवाला…।
बेटा कार चला रहा था। वह जानबूझकर कोई-न-कोई विषय निकालकर अपने पिता से बात करता रहता। उनकी चुप्पी तोड़ने की उसकी कोशिश होती। बाप सामने की सीट पर बैठा। माँ-बेटी पीछे की सीट पर। अचानक अमरूदवालों की गाड़ियाँ-ठेलियाँ दिखीं। हमेशा की तरह लोग अमरूद खरीद रहे थे।
‘पापा, अमरूद लें?’ बेटी की आवाज थी। वह अमरूदवालों को देख रहा था। ‘एक शर्त पर…यहाँ कोई नहीं खाएगा…दो दिन बाद घर में खाएँगे। अमरूदों को दो दिन का क्वारंटाइन…केमिकल से साफ करके फिर खाएँगे…इसलिए आज कच्चे खरीदने होंगे…।’ बेटे ने अपनी शर्त रख दी।
वह चुपचाप बैठा रहा। कोई बात नहीं। बच्चों को मालूम था कि उसे अमरूद बहुत पसंद हैं।
दोनों भाई-बहन अमरूद ले आए और कार की डिक्की में रख दिए।
थोड़ी देर में कार ने शहर का छोर भी पार कर लिया। चारों ओर हरियाली…हल्की बारिश। यह सड़क गाँव–खेड़े की ओर जा रही थी। कुछ पहाड़ियाँ और सड़क के दोनों ओर खेत थे। चूँकि यह इलाका शहर से सटा था, इसलिए रविवार को लोग इस तरफ समय बिताने आते हैं। एक ओर बहुत बड़ा बाँध है। उसके किनारे बहुत भीड़ रहती थी। भेल-पुरी, भुट्टा, कोल्ड्रिंक और ढेर सारी खाने-पीने की चीजें यहाँ मिलती थीं। खूब चहल-पहल होती थी, पार्किंग को जगह नहीं मिलती। आज सब सुनसान! इक्का-दुक्का ठेले थे। भुट्टेवाले ग्राहक के इंतजार में! कारवालों को बड़ी उम्मीद से देखने पर कोई एकाध ही रुकता। इस स्थान को शहर की चौपाटी कहा जाता…पर आज सुनसान। पानी पर कोई नाव नहीं। वह सोचता, इन चार महीनों में जिंदगी कितनी बदल गई है। लगता है कोई महायुद्ध हुआ है इस इलाके में या किसी भूकंप ने सब तहस-नहस कर दिया है। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ है। सारे पेड़ अपनी जगह पर खड़े हैं। सड़कें यथावत हैं। बारिश से बाँध लबालब भरा है। शहर को पूरे साल पानी की किल्लत नहीं होगी। बस, फर्क पड़ा था तो आदमी पर। जानवर पहले की ही भाँति सड़क के किनारे निर्विघ्न चर रहे हैं। आदमी के भीतर एक डर बैठ गया है। शत्रु, आपदा, बम या हथियार कुछ दिखाई नहीं देता, फिर भी डर बुरी तरह भीतर तक उतर गया है …उसे लगता है कि वह एक घने जंगल से गुजर रहा है और किसी भी क्षण शेर उसे या उसके परिवार को धर दबोचेगा। वह बेतहाशा खुली प्रकृति को निहार तो रहा था, पर जाने क्या सोच रहा था।
‘कैसा लग रहा है पापा?’ बेटे ने उसकी विचार शृंखला तोड़ी।
‘बहुत अच्छा। अच्छा किया तुमने, आज इधर आ गए। आज आजादी का एहसास हो रहा है…इस करोना ने सबको जकड़ रखा था।’ वह पहली बार खुलकर बोला।
बेटे को भी अच्छा लगा कि पिता मुख्यधारा में संवाद से शामिल हो गए।
अब शहर के निशान मिट चुके थे। सड़क गाँवों को पार कर रही थी। इक्का-दुक्का कारें आ-जा रही थीं। सड़क के किनारे कुछ रिसोर्ट बने थे। शहर से ही कुछ ग्राहक आते, पर अब संख्या नहीं के बराबर थी।
‘कितनी दूर और जाना है?’ पहली बार उसने अपनी ओर से सवाल किया।
‘बस जहाँ कार पार्क करने को जगह मिल जाए…रुक जाएँगे।’ बेटे ने जवाब दिया। आगे एक पुलिया के पास बेटे ने कार रोक दी। जगह कुछ सूखी थी। तीनों फटाफट कार से उतर गए। वह बैठा रहा। नीचे उतरने की उसकी इच्छा नहीं थी। पता नहीं कीचड़ हो…बाद में कार में कीचड़ आ जाए। आजकल इस तरह की अनहोनी बातों को लेकर वह उलझन में पड़ जाता।
बेटे ने डिक्की खोली। खाने-पीने की चीजें पेपर प्लेट में डालने लगा।
‘मुझे केवल चाय दो।’ उसने कहा।
‘नीचे तो उतरिए। देखिए कितनी खूबसूरत हरियाली है।’ उसकी पत्नी ने कहा था।
कार का दरवाजा खोलकर उसने देखा कि कहीं कीचड़ तो नहीं है। कीचड़ नहीं था। वह नीचे उतरा। सड़क के एक ओर दूर पर एक पहाड़ था और दूसरी ओर बाँध के किनारे का दूर-दूर तक फैला पानी। हरियाली चारों ओर फैली थी, पहाड़ पर भी घनी हरियाली। पहाड़ियों की तराई में धान की फसल गहरी हरियाली लिए लहलहा रही थी। पल भर वह मग्न हो चारों ओर नजरें घुमाता रहा। तभी उसके बेटे ने थर्मस से गरम चाय उँड़ेलकर मग उसके हाथ में थमाया। सड़क की दूसरी ओर पुलिया की जगत पर बैठने की इच्छा से वह सड़क पार कर सूखी जगह देखकर बैठ गया। वातावरण में खुशनुमा ठंडक, चारों और हरियाली, शाम का समय, आकाश में बादल, पर बारिश थमी हुई यहाँ उसे चाय की चुस्की महीनों बाद सुकून दे रही थी। वह पता नहीं कहाँ खो गया था…अपने अतीत में…बच्चों के भविष्य में…अपने रिटायरमेंट में…चाय में…अपने आप में…या और कहीं…पर इतना तो था कि वह खो गया था। उसके बेटे-बेटी को अच्छा लगा कि पापा आनंद में हैं। सड़क पार से ही बेटी संकेत कर रही है…खाने को कुछ चाहिए…पर वह खो गया था बहुत गहरे…बेटी की शादी के विचार में…यहाँ की गहन हरियाली में…या कोरोना…पता नहीं। बेटी की तरफ ही वह देख रहा था पर खोया-खोया सा। लगता था वह शून्य में है।
आज अर्से बाद प्रेस किए कपड़े पहने थे। लगभग चार महीने बाद…सुबह ही शेविंग की थी। अच्छा-सा पसंदीदा टी-शर्ट पहना था। उसके खिचड़ी बाल काफी बढ़ गए थे। वह किसी कलाकार-सा लग रहा था। भावमुद्रा चिंतन में भी। वैसे वह कहीं नहीं था। चाय का मग उसके हाथ में था। सड़क से एक पतली सड़क बाँध के किनारे की ओर निकलती है। उस कोने में एक रिसोर्ट का बोर्ड लगा था। उस सँकरी-सी सड़क के दोनों ओर गन्ने के ऊँचे-ऊँचे पौधे लगे थे। पर उसका ध्यान पता नहीं कहाँ था।
उस रिसोर्ट की गली से एक कार बड़ी-सी अचानक निकली और इनकी कार के पीछे आकर रुक गई। चूँकि ये सब प्रकृति में लीन थे, कोई भी व्यक्ति इनके आसपास नहीं था। सुनसान जगह चुनकर ही कुछ खा-पी रहे थे। वह तो केवल अपने आप में ही खोया हुआ था।
दूसरी कार पर उसका ध्यान तो गया, पर उसने गौर नहीं किया। ड्राइवर की सीट से एक चालीस-पैंतालीस की उम्र का व्यक्ति उतरा। उसके मुँह पर मास्क नहीं था। इससे पहले कि वह कुछ समझे, वह व्यक्ति उसके सामने आकर बोला, ‘आपके साथ एक फोटो लूँ…’ इससे पहले कि वह कुछ कह पाता, समझ पाता, वह दूसरा व्यक्ति उसके पास पुलिया पर आकर बैठ गया और बेटे को आवाज देने लगा, ‘जल्दी मोबाइल ला, फोटो निकाल…।’
उसका बारह-पंद्रह साल का बेटा आनन-फानन कार से उतरा। उस व्यक्ति की पत्नी और दूसरा छोटा बेटा कार में ही बैठा रहा।
उसकी कुछ समझ में नहीं आया। यह अजनबी फोटो क्यों ले रहा है? उधर उसका बेटा भौचक हो उस अजनबी को देख रहा था और पिता को उठने का संकेत दे रहा था। पर वह अजनबी यूँ ही बोलता रहा कि कितना खूबसूरत नजारा है न आपके आसपास…। उसके बेटे ने पाँच-छह फोटो खींचे और थैंक्स कहकर हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया। पर इसने हाथ जोड़ लिए। वह उठकर चला गया। इसे लगा कि उसके मुँह से बीयर की गंध आ रही थी।
बेटा सड़क के इस किनारे आया। उसके तमाम सवाल…वह कौन था, आपके पास क्यों बैठा था, क्या बातें कर रहा था, मास्क भी नहीं लगाया था उसने…आपने भी मास्क नहीं लगाया…कई कई सवाल…।
वह आदमी कार में बैठकर जा चुका था। ‘इसीलिए बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं होता।’ बेटे ने कहा। वह कुछ कहना चाहता था। पर उसकी आँखें बस इतना कह पाई कि इसमें मेरा क्या कसूर…सब अचानक घट गया। पर वह कुछ नहीं बोला। सब कुछ ठीक था। घर से निकलते समय एक उत्साह था पर लौटते समय चुप्पी थी। उसका कोई दोष, कोई गलती नहीं थी। पर उसे लगता कि उसी की वजह से यह चुप्पी लेकर सब लौट रहे हैं।
घर लौटकर वह और गंभीर, और अनमना हो गया। हाँलाकि बाद में किसी ने कुछ नहीं कहा। कहते भी क्या? पर वही सोचने लगा कि वह अजनबी क्यों पास आ गया…ऐसा क्या वह सेलिब्रेटी था कि उसके साथ वह अजनबी फोटो खिंचवा गया? उसके नजदीक बैठ गया। बियर की गंध भी छोड़ गया।…क्या चाहता था वह? पत्नी को कुछ बताना-जताना चाहता था। बच्चे तो छोटे थे उसके …फिर अचानक कार स्टार्ट कर फुर्र से निकल गया। चारों तरफ एक अजनबी वायरस और अचानक एक अजनबी उसकी बगल में आकर फोटो खिंचवा गया। क्या है यह सब?… यह उसकी समझ से परे था।
दूसरे दिन बेटा और बेटी अपने कामों में व्यस्त थे। वह उस अजनबी के व्यवहार में व्यस्त था। तरह-तरह के सवाल आते और वह गंभीर हो जाता। उसे अफसोस था कि उसने क्यों मास्क नहीं पहन रखा था…पर फिर चाय कैसे पी पाता…एक फीकी हँसी उभरी और वह फिर कल के उस अजनबी के बारे में सोचने लगा…तभी उसे एक जोरदार छींक आई…वह भीतर तक सिहर गया…छींक?
‘पापा, आर यू ऑल राईट?’ बेटे की आवाज थी।
‘कुछ नहीं’ संक्षिप्त-सा था उसका जवाब, पर बेटे का प्रश्न उसके भीतर में कई प्रश्न बो गया।
अब उसका सिर भारी लगने लगा। कुछ जुकाम सा भी महसूस होने लगा…क्या है यह? इससे तो घर में ही ठीक थे। क्या जरूरत थी बाहर जाने की…वह खुद से सवाल करता और खुद ही जवाब देता…बेटे ने दिल बहलाने के लिए यह सब किया…पर कल तो उस अजनबी के पास बैठने पर उसने मुझ पर ही दोष मढ़ा…फिर खुद ही बोल गया…उसे चिंता है इसीलिए वह बौखलाया था…मुझ पर नहीं उस अजनबी पर…। अब उसे इस तरह के आत्मसंवाद की आदत लग चुकी थी। उसका यह मौन एकालाप घंटों चलता रहता है।
‘क्या सोच रहे हैं?’ पत्नी ने टोका।
उसने ऊपर देखा और ‘कुछ नहीं’ में सिर हिला दिया।
भोजन के समय वह बेटी को लगातार देखता रहा। बेटी ने महसूस किया कि पिता के दिमाग में कुछ चल रहा है। उसने कुछ कहा नहीं, पर वह अनमना ही था। खाने में उसका ध्यान नहीं था।
‘आपने खाना खाने से पहले वाली दवाई ली है न?’ बेटी ने जानबूझकर पूछा।
‘अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया था!’ अफसोस जताते हुए वह बोला।
‘आपको रोज की गोलियाँ भी याद नहीं रहतीं…इसीलिए शुगर ऊपर नीचे होती रहती है…।’ पत्नी ने कहा।
बेटा आँखों के इशारे से यह सब न कहने के लिए कह रहा था। माँ रुक गई। बेटी समझ रही थी कि पिता को उसकी शादी की चिंता है। वैसे सब जान रहे थे कि वे बहुत विचलित हैं…बेटी की शादी, बेटे का सेटल होना, उनका नजदीक आता रिटायरमेंट…यह सब पहले भी था, पर तब वे इतने गुमसुम नहीं थे। हाँलाकि बहुत बातूनी उनका स्वभाव नहीं था, पर इतने गंभीर भी कभी नहीं थे। अब तो उन्होंने घर से काम करना बंद कर छुट्टी ले ली है। टीवी भी ज्यादा नहीं देखते। अखबार बंद है। पुस्तकें पढ़ने का शौक उन्हें कभी नहीं था। बस अकेले बैठे-बैठे कुछ सोचते रहते हैं, नहीं तो बेडरूम में सो जाते हैं। कभी-कभी भोजन के बाद ड्राइंगरूम में सोफे पर ही सो जाते हैं, दोपहर में भी। घर के सब उनकी मानसिक स्थिति समझ रहे थे। इतने दिनों तक दिन और रात उन्होंने घर में कभी नहीं बिताए थे। ये सारी बातें पत्नी, बेटा, बेटी निरंतर सोचते रहते हैं।
जब से वह अंतर्मुखी हो गया है, बेटी ने घर के सारे खर्चों की जिम्मेदारी उठा ली है, ताकि पिता को बाहर जाने की जरूरत न हो और न ही कोई चिंता हो। भाई बहन ने घर सँभाल लिया है। वे पिता को घर से बाहर कदम नहीं रखने देते। सबसे ज्यादा खतरा बुजुर्गों को ही है कोरोना का। सुबह-शाम टीवी दिखाता रहता है। दूध, सब्जी, खानपान का सामान बिग बास्केट या अमेजन से मँगवाते हैं। बेटी ही कार्ड से भुगतान करती है।
‘अरे पापा को तो बुखार है। अम्मा, थर्मामीटर तो निकालना।’ बेटे ने पिता की नाड़ी छूते हुए कहा। बेटी और माँ भागती हुई आईं। सब चिंता में पड़ गए। वह भी सबको परेशान देखकर घबरा गया। पत्नी ने तुरंत थर्मामीटर लाया। बेटे ने देखा। बुखार 101 था। आँखों-आँखों में सब सहमे हुए थे। बेटी ने कहा, ‘डॉक्टर के पास जाएँगे…।’
‘नहीं’ उसने कहा। पत्नी कुछ नहीं कह पाई।
बेटे ने कहा, ‘मेरे मित्र के पिता डॉक्टर हैं। उनको फोन करता हूँ। आजकल इस कोरोना में डॉक्टर के पास जाना भी सुरक्षित नहीं है।’ सब सहमत थे।
पर वह भीतर-ही-भीतर घबरा रहा था…पता नहीं यह कैसा बुखार है…कहीं यह…? पर ऊपर से वह उन तीनों को चिंता न करने की नसीहत दे रहा था। सबके उपचार शुरू हो गए। बेटी ने पानी गरम कर लिया पहले भाफ के लिए। फिर पीने के लिए हल्दी डालकर। सब देखकर उसे लगने लगा कि लक्षण ठीक नहीं लग रहे हैं। पत्नी सूप बनाने निकल गई। बेटा डॉक्टर अंकल से फोन पर बात कर रहा था।
‘घबराने की कोई बात नहीं। हर बुखार कोरोना का लक्षण नहीं होता।’ डॉक्टर ने आश्वासन दिया। हाँलाकि उसने प्रत्यक्ष में कोई जाँच नहीं की। तीन दिन की खुराक दे दी।
‘डॉक्टर दीक्षित से मैंने बात कर ली है। चिंता की कोई बात नहीं है। मौसमी बुखार है। तीन दिन की दवाई उन्होंने वॉट्सअप पर लिखकर भेज दी है। मेडिकलवाला लेकर आता ही होगा…आप चिंता न करें।’ कहकर बेटे ने उसका हाथ थाम लिया।
बेटे का हाथ हाथ में पाकर वह रोमांचित हो गया। उसे बल मिला। साहस भी आया। कल तक वह अकेला हो चला था, पर आज लगा पूरा घर उसके साथ है…। पर यदि दुर्भाग्य से उसे कोरोना हो गया, तो इस पूरे घर का क्या होगा? उसने बेटे का हाथ भींच लिया। भीतरी हलचल को छिपाने के लिए उसने आँखें मूँद लीं। पर भीतर-ही-भीतर वह अपनी सिसकियों को दबा रहा था।
दवा लेकर और सूप पीकर वह मानो नींद में चला गया। पर वह आधी नींद और आधी जागृत अवस्था में था। वह सो गया होगा, यह सोचकर सब वहाँ से उठे। पत्नी ने सिर पर हाथ रखकर देखा सिर तप रहा था। पर वह यह मानकर वहाँ से निकली कि उसे नींद आ गई है। उसे अपने काम पूरे करने थे। कोई कामवाली नहीं आ रही थी।
सबके जाने के बाद उसने आँखें खोलीं। कमरे के परदे बंद थे। दरवाजा अधखुला था। वह अपनी ही नाड़ी दूसरे हाथ से टटोलता, अंदाज लेता कितनी गति है…थर्मामीटर लगाता…बुखार उतना ही है! एक घंटा भी तो नहीं हुआ है…अपने आप को समझाता…फिर उस अजनबी का चेहरा कौंध जाता जो अचानक उसके बिल्कुल पास पुलिया पर आकर बैठ गया था। उसे बड़ा अजीब लगता…कैसे आ गया वह अचानक पास में…क्यों मना नहीं कर पाया…दरअसल वह खो गया था चारों ओर की हरियाली, गर्वीले पहाड़, गीत गाते झरने, लहलहाते धान के खेतों के किनारे बैठकर! जहाँ वह बैठा था वहाँ से फोटो का दृश्य बहुत लुभावना लग रहा था। यही कारण होगा कि वह अजनबी वहीं का फोटो लेना चाह रहा हो…पर यह सब उसकी कल्पना ही थी। पर यदि वह अजनबी संक्रमित रहा हो तो? …उसके भीतर एक अजनबी विचार कौंध गया…वह अजनबी आदमी…और एक अजनबी वायरस…सब कुछ अजनबी…आज वह अपने आप के प्रति भी अजनबी-सा…घर के लोगों के लिए भी अजनबी…वह घबरा उठता…पता नहीं क्या-क्या विचार उसके दिमाग में कौंधते रहते। साठ साल के व्यक्ति को अधिक सावधान रहना चाहिए…टीवी की चेतावनी की रेंज में वह था।
मेरे बाद बेटी की शादी का क्या होगा? बेटे का सी.ए. अभी हुआ नहीं है। पत्नी ने जीवन में बहुत दुख झेले हैं…फैमिली पेंशन तो उसे मिलेगी पर वह अकेली हो जाएगी…फिर उस दिन टीवी पर रिपोर्ट आ रही थी…उस पत्रकार को कोरोना हुआ और चार घंटों तक एम्बुलेंस नहीं मिली और अस्पताल पहुँचने से पहले ही उसकी मौत हो गई…फिर किसी को एम्बुलेंस तो मिली पर बीच रास्ते में ही ऑक्सीजन खत्म हो गया और उसने एम्बुलेंस में ही दम तोड़ दिया…अस्पताल कोरोना संक्रमित मरीजों से भरे पड़े हैं…बेड नहीं बचे हैं। इस अस्पताल से उस अस्पताल के बीच की दूरियाँ नापने में कोई मरीज रास्ते में ही साँसें खो बैठा।
अस्पतालों में कर्मचारियों की इतनी कमी कि एक मरीज के पास के बेड पर एक आदमी बॉडी में तब्दील हो गया! उसे उठानेवाला कोई नहीं! परिवारवालों से मिलना दूभर! गुजर गया कोई तो देखनेवाला कोई नहीं…परिवार भी दूर से ही…और तो और अस्पताल का बिल भी पंद्रह-सोलह लाख रुपये…जीवन भर की कमाई स्वाहा…वह गहरी नींद में फिसल गया…वह अजनबी बार-बार पास आकर बैठ जाता। अब उसका चेहरा भी उसे साफ दिखाई न देता…चारों ओर पीपीई किट पहने लोग उसे अजनबी लगते! यमदूत की तरह…पास की बॉडी ले जाने के इंतजार से तंग आकर खुद ही उठकर चलना चाहती है ऐसा उसे महसूस होता…वह बड़बड़ा रहा था, वह छटपटा रहा था…वह जोर से चिल्लाना चाहता था, पर आवाज ही नहीं निकलती…फिर सचमुच वह जोर से चिल्लाया…नींद खुली…देखा, बेटा-बेटी, पत्नी सब उसके पास बैठे हैं। सब गहरी चिंता में!
‘कोई बुरा सपना देखा पापा?’ बेटी का सवाल था।
बेटे ने हाथ आधा छूकर देखा और थर्मामीटर काँख में लगा दिया। पत्नी बेचैन ‘क्या हुआ?’
वह अजनबी सा बारी-बारी सबको देखता रहा। बुखार कम हो गया था। माथे पर कुछ पसीने की बूँदें थीं। बेटे ने निःश्वास छोड़ा। बुखार तो कम हो रहा है, पर दवाई तो तीन दिन लेनी चाहिए।
उसे बेहद कमजोरी लग रही थी। बिस्तर सबसे सुविधाजनक लगता। बार-बार नींद आती, पर गहरी नींद रात में भी न लग पाती। दिन में भी वह सपने की गिरफ्त में था।… वह सड़क पर पैदल जा रहा है…सपना ब्लैक एंड व्हाइट था…सड़क पर यहाँ-वहाँ लोग भरे पड़े हैं…किसी का ध्यान नहीं है। सब अपने-अपने मुकाम की ओर आ-जा रहे हैं। किसी को फर्क नहीं पड़ रहा है कि कौन चलते-चलते गिर पड़ा या मर गया है। न कहीं पुलिस, न कहीं डॉक्टर, न कोई मोटरगाड़ी, न कोई ताँगा-रिक्शा…बड़ी-बड़ी नई-पुरानी इमारतें, लंबी सड़कें, लोगों की आवाजाही चुपचाप, किसी की कोई आवाज नहीं…और अजनबी लोगों की लाशें…कोई पूछनेवाला नहीं…सब लोग कहाँ आ-जा रहे हैं किसी को पता नहीं…सब अंतर्मुखी…जिंदा-मुर्दा आदमी तो थे पर समाज कहीं नहीं…वह भी इन सबके बीच कहीं जा रहा था, कहाँ जा रहा था उसे भी नहीं मालूम।
‘सुनिए…’ यह शब्द उसके कानों में पड़ा। उसे तुरंत आकलन नहीं हुआ कि उसने सपने में किसी की आवाज सुनी या वह जग गया है। बहुत प्रयास से सिर को झटका दिया तो उनींदी अवस्था में उसने एक आकृति देखी, पत्नी थी।
‘सुनिए…’ पत्नी ने कहा था।
वह उत्सुकता से सुनने की मुद्रा में पत्नी को देखता रहा।
‘गरम-गरम सूप है। पी लीजिए, गोली का भी समय हो गया है। आपको आराम हो जाएगा…।’ पत्नी ने माथा छूते हुए कहा।
कुहनी के बल उठने की कोशिश करने लगा वह। पत्नी ने तकिये को दीवाल से टिका दिया और सहारे से उसे बिठा दिया। वह केवल पत्नी को देखे जा रहा था। माँ की आवाज सुनकर बेटा-बेटी भी बेडरूम में आ गए।
बेटे ने उनके पैर छुए, हाथ टटोला, माथा छुआ…बुखार कम है कहकर थर्मामीटर लगा दिया। तीनों उसे निहार रहे थे और वह मानो सड़क पर गिरे हुए अजनबी लोगों की तरह पथरायी आँखों से उन्हें देख रहा था।
‘बुखार तो पूरा उतर गया है…!’ बेटे ने संतोष जताते हुए कहा।
वह कहाँ खो गया था, उसे भी नहीं मालूम।
बेटी ने सूप का बाऊल अपने हाथ में लिया और चम्मच से पिता को सूप पिलाने लगी। साथ ही, खुराक की अंतिम गोली पिता को दी। उसने किसी से कोई बात नहीं की। सूप और गोली लेने के बाद उसे फिर नींद आने लगी।
उसे लिटा दिया गया।
तीनों ने एक-दूसरे को देखा और ड्राइंगरूम में आकर तीनों बातें करने लगे।
‘बुखार तो उतर गया है, पर पिता जी के दिमाग में कुछ चल रहा है…वैसे भी वे बहुत कम बात करते थे…अब तो कुछ बोलते ही नहीं…फोन पर भी किसी से कोई बात नहीं करते। पता नहीं क्या बात है।’ बेटे की चिंता बाहर आ रही थी।
‘सुनील अंकल का तीन बार फोन आ चुका है। हमने उन्हें तबीयत के बारे में कुछ नहीं बताया। मुझे लगता है उन्हें घर पर बुला लें…पिता जी को अच्छा लगेगा।’ बेटी बोल रही थी।
दोनों ने हामी भरी, पर बेटे को लगा कि पता नहीं लॉकडाउन में वे आ पाएँगे या नहीं…।
‘वे जरूर आएँगे…।’ माँ ने कहा पूरे विश्वास के साथ।
सुनील अंकल आए सीढ़ियों से, लिफ्ट का उपयोग नहीं किया उन्होंने। बेल भी नहीं बजाई, मोबाइल पर आने की सूचना दी।
‘नमस्कार…कहाँ है मेरा दोस्त, क्या हुआ उसे…कब से तबीयत खराब है? मुझे पहले क्यों नहीं बताया…अस्पताल चलना है क्या…?’ ढेर सारे सवाल सुनील अंकल के थे।
उन्हें अलग से प्लास्टिक की कुर्सी पर बिठाया गया। पहले कुर्सी पर सेनेटाइजर का स्प्रे छिड़का गया। उनके हाथों पर भी! ‘बस…बस…’ सेनेटाइजर को रोकते हुए उन्होंने कहा। ‘नीचे भी वॉचमैन ने सेनेटाइजर छिड़का है। वह ऊपर आने देने से मना कर रहा था। मैंने बताया जरूरी काम है। तबीयत की बात नहीं बताई। वर्ना पूरी बिल्डिंग में इसकी चर्चा हो जाती…पर अच्छी व्यवस्था है आपकी सोसायटी में…अब यह सब जरूरी हो गया है…।’ कुर्सी को, वह भी प्लास्टिक की…सोफे से दूर रखी देखकर इशारा करते हुए ‘सोशल डिस्टेंसिंग?’ कहा, तो सब हँस पड़े।
‘कहाँ है पेशेंट?’ सुनील अंकल जोर से बोले।
सुनील की आवाज सुनकर बेडरूम से वह बाहर आ गया। तेजी से वह सुनील की ओर बढ़ा…सुनील से हाथ मिलाने के लिए उसका हाथ बढ़ा। उसके हाथ को इशारे से रोकते हुए सुनील ने हाथ जोड़ लिए…‘फिर कभी हाथ मिलाएँगे…’ फिर तपाक से बोले, ‘ये क्या हाल बना रखा है…?’ और अँगूठा ऊपर दिखाते हुए बोले, ‘कुछ लेते क्यों नहीं?’ दोनों के बीच एक ठहाका गूँजा।
बेटा-बेटी अपने-अपने कमरे में जाते समय एक-दूसरे से कहते गए, ‘देखा, सुनील अंकल के आते ही पापा की सारी कमजोरी दूर हो गई…न जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं!’
पत्नी भी ‘अभी आई…’ कहकर उठने लगी तो सुनील ने कहा, ‘वैसे तो आज कुछ नहीं लेना चाहिए, पर नमकीन और चाय चलेगी…।’
पत्नी ने पति को देखा और मुस्काते हुए किचन में चली गई।
सुनील के साथ वह लंबे समय तक बातें करता रहा, ठहाके और हँसी गूँजती रही। खूब बातें हुईं। इधर की और उधर की भी। घर में तीनों अपनी-अपनी जगह खुश थे कि आज पाँच महीने बाद पापा हँसे हैं। कमाल तो सुनील अंकल का है कि एक फोन पर हालचाल पूछने आ गए, लॉकडाउन के बावजूद। थोड़ी देर में सुनील चला गया।
थोड़ी देर वह सोफे पर बैठा रहा। टीवी खोला…वही कोरोना…वही सुशांत…टीवी बंद कर दिया उसने और फोन करने लगा। सुनील घर पहुँचा भी नहीं होगा कि उसे फोन…पर सुनील घर पहुँचते ही घबराहट में कॉलबैक करता है। हँसते हुए वह कहता है, ‘मैं एक बात बताना तो भूल ही गया…’ सुनील ने टोकते हुए कहा, ‘किसी विज्ञापन की नकल कर रहा है क्या…?’
‘अरे नहीं यार…’ कहकर उस दिन अचानक एक अजनबी का बिना मास्क लगाए करीब बैठकर फोटो खिंचवानेवाली बात को वह चटखारे ले-लेकर देर तक सुनाता रहा…।
Image : Portrait of the Author Mikhail Saltykov Shchedrin
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