उत्तर-दक्षिण के शब्दसेतु

उत्तर-दक्षिण के शब्दसेतु

एन. रामन् नायर

मनुष्य सोचता कुछ, होता कुछ और है! अपने गृह पुस्तकालय में मैं व्रात्य सभ्यता से संबंधित पुस्तक खोज रहा था कि एक किताब मेरे हाथ आ लगी–‘सागर की गलियाँ।’ यह मलयालम के लेखक एन. रामन नायर का मछुवारों के जीवन पर लिखा उपन्यास है, जो उन्होंने मुझे स्वयं 1987 में भेंट किया था। मलयालम के लेखक डॉ. नारायण पिल्लई रामन् नायर का नाम हिंदी संसार के लिए भी अजाना नहीं है, क्योंकि कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक सहित अनेक विधाओं में उनकी दर्जनाधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी में उनके महत्व का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा उनकी एक पुस्तक को पुरस्कृत करते हुए हिंदी के यशस्वी साहित्यकार पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि दक्षिण राज्यों के हिंदी लेखकों को संस्थान की ओर से जो पुरस्कार दिए जाते हैं, उनमें सम्मिलित न करके डॉ. नायर को हिंदी लेखकों के बीच में पुरस्कृत कर रहा हूँ।

‘सागर की गलियाँ’ समुद्र के मछुवारों के जीवन पर लिखा गया दमदार उपन्यास है, जिसकी उन दिनों भी हिंदी जगत में काफी चर्चा हुई थी। डॉ. नायर अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन 1988 से लेकर अंत समय तक उनसे मेरी काफी निकटता रही। 1988 में वे विज्ञान एवं प्रावैधिकी विश्वविद्यालय, कोचिन में मानविकी संकाय के अध्यक्ष एवं हिंदी विभागाध्यक्ष थे। एक कार्य से वे पटना आए हुए थे और पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ. सीताराम झा ‘श्याम’ के आवास पर ठहरे हुए थे। वहीं उनसे मेरी पहली भेंट हुई थी। उनकी रचनात्मक आत्मीयता के पाश में ऐसा बँधा कि जीवनपर्यन्त उनके स्नेह के अधीन हो गया। बाद में भी वे कई बार पटना आए। एक बार सपत्नीक आए थे। हर बार उनसे बातचीत होती और उनका प्रीतिपूर्ण साहचर्य प्राप्त होता। मुझे याद है कि 1988 में ही पटना कॉलेज के पीछे गंगातट पर टहलते हुए मेरी उनसे साहित्य के सरोकार को लेकर लंबी बात हुई थी, जो पूर्णिया से प्रकाशित पत्रिका ‘भागीरथी’ में छपी भी थी। यहाँ तब उनसे हुई बातचीत की कुछ स्मृतियाँ दर्ज कर रहा हूँ, जिसके ब्याज से उनके जीवन और साहित्य की संवेदना को समझने में काफी सुविधा होगी।

पाटलिपुत्र के गंगा तट पर टहलते हुए मैंने उनसे पूछा था कि आपने साहित्य में लेखन कब से आरंभ किया और उसकी प्रेरणा कहाँ से मिली थी? हिंदी लेखन की ओर आप कैसे प्रवृत्त हुए? मेरे सवाल सुनने के बाद वे लहरों की ओर देखते हुए बोले–‘सन् 1931 में 17 मई को मेरा जन्म हुआ। 12-13 वर्ष की उम्र में ही पहली बार कुछ लिखा और उसके बाद फिर लिखने का क्रम जो शुरू हुआ, वह अब तक चल रहा है। मेरे पिता जी और चाचा जी तेलुगु के चर्चित कवि थे, सो मेरे घर में पढ़ने-लिखने का अच्छा माहौल था। बाहर से भी बड़े-बड़े लेखक मेरे घर आते रहते थे। परिवार के इसी साहित्यिक परिवेश के कारण मेरी रचनात्मक प्रतिभा निखरती गई। मेरे पिता जी तेलुगु और संस्कृत के पंडित थे, जिनसे मुझे भी इन दोनों भाषाओं की अच्छी शिक्षा मिली। भारत सरकार ने तो आजादी के बहुत बाद त्रिभाषा फार्मूला की बात कही, किंतु मेरे पिता जी आजादी के बहुत पहले से ही इस त्रिभाषा फार्मूला की वकालत करते थे। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने अँग्रेजी, हिंदी और तेलुगु इन तीनों भाषाओं में एम.ए. करने के बाद हिंदी को आजीविका के रूप में स्वीकार किया।’ एक स्वाभाविक-सा सवाल मैंने पुनः उछाला था–‘पारिवारिक सदस्यों के अलावा और किन व्यक्तियों से रचनाकर्म के प्रति प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिली?’ उन्होंने मुझ पर एक गहरी नजर डालते हुए कहा था–‘जी. शंकर कुरूप मेरे प्रथम काव्य-गुरु थे, जिन्हें प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। ‘रामचरितमानस’ का काव्यानुवाद करने वाले मलयालम के प्रसिद्ध कवि वेन्निकुलम गोपाल कुरूप भी मेरे काव्य-गुरु थे। मुख्यतः ये ही दोनों मेरी सृजनशीलता के प्रेरणास्रोत रहे। उन दिनों मैं त्रिवेन्द्रम में रहता था।’

गंगातट पर टहलते हुए हम एक जगह बैठ गए थे। मेरे सवालों से वे अतीत के उत्खनन में रमने-से लगे थे। मेरे इस जिज्ञासा पर कि दक्षिण भारत में आपकी ख्याति कहानी एवं उपन्यास लेखक के रूप में है, किंतु अपने लेखन के आरंभिक दिनों में आपने किस विधा के माध्यम से साहित्य में प्रवेश किया था; उन्होंने सहज भाव से कहा था–‘साहित्य में मेरा प्रवेश काव्य-सृजन से हुआ। वैसे उससे भी पहले मैं विज्ञान का छात्र होने के कारण वैज्ञानिक लेख लिखता था, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे। फिर आलोचना एवं समीक्षा लिखने लगा। उसी क्रम में प्लेटो, अरस्तू आदि का अध्ययन किया। अरस्तू के काव्यशास्त्र विविधताओं से भरा है।’ उनका जवाब पूरा होते ही मैंने तत्क्षण पूछा था कि आपके लेखन की शुरुआत कविताओं से हुई तो कृपया यह बताएँ कि उन दिनों आपकी कविताओं की पृष्ठभूमि क्या होती थी? उन्होंने स्मित भाव में कहा था–‘मेरी कविताएँ रोमांटिक पृष्ठभूमि की होती थी। उनमें प्रयेाग भी होते थे। मलयालम के एक प्रसिद्ध आलोचक एन.वी. कृष्णा वारियर ने मेरी कविताओं के बारे में लिखा है कि स्वतंत्रता के समय तक जो हिंदी काव्य है, उससे अन्य भारतीय भाषाओं में लेने के लिए कुछ रहा ही नहीं था। कारण यह था कि महाभारत, रामायण आदि पुराणों से ही हिंदी में कथ्य लिया जाता है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद जो नई कविता प्रारंभ हुई और उसमें जो आधुनिकता का बोध, कुंठा, त्रास, अकेलापन आदि का समावेश होता चला गया, उसको मौलिक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास डॉ. नायर ने किया है। इसका आशय है कि मलयालम काव्य भी हिंदी से नया कुछ ग्रहण कर सकता है। जैसे-जैसे हिंदी काव्य-विकास का चित्र स्पष्ट होता गया, अनचाहे मेरी कविताओं की पृष्ठभूमि भी वैसी-वैसी ही बनती गई। मैंने छंदों को स्वीकार किया, पर ज्यों-का-त्यों नहीं। काव्य-विन्यास में परिवर्तन का प्रयास मैंने हमेशा किया।’

कहने के साथ ही डॉ. नायर ने अपनी दो-तीन कविताएँ भी सुनाईं, जिनमें प्रकृति, किसान-जीवन, सौंदर्य आदि के चित्रण थे। कविता सुनने के बाद मैंने पूछा था–‘कविता से कथा-लेखन की ओर आप कैसे प्रवृत्त हुए? आपकी कहानियों का मुख्य कथ्य क्या होता है?’ उन्होंने सहज भाव से कहा था–‘मैं मलयालम में बहुत पहले से ही कहानियाँ लिखता था। हिंदी में सन् 1970 के आसपास लिखना शुरू किया। 1978 के आसपास मेरी कहानियों को देखकर कथा लेखिका नमिता सिंह ने उसे छपवाने के लिए मुझे उत्साहित किया। तब इस ख्याल से कि अब इस अधेड़ावस्था में कहानी छपवाना श्रेयस्कर नहीं होगा, कहीं नहीं भेजता था। किंतु नमिता सिंह के बार-बार उत्साहित किए जाने पर मैंने अपनी कहानी ‘भ्रूणहत्या’ मासिक ‘संचेतना’ के तत्कालीन संपादक भवानी प्रसाद मिश्र को भेजा था। वह कहानी ‘संचेतना’ में छपी। मुझे भरपूर सराहना भी मिली। मेरी कहानियों में मध्यवर्ग, निम्नवर्ग तथा शोषित वर्ग को प्राथमिकता मिलती है। मछुवारा, धोबिन आदि की वेदना मेरी कहानियों में मुखर होती है। दक्षिण भारत की गरीबी के कारणों का पड़ताल भी मेरी कहानियों में है।’ कहते-कहते वे मौन ही होते कि मैंने पूछ लिया–‘एक उपन्यास लेखक के रूप में भी आपकी ख्याति है। आपका पहला उपन्यास कौन-सा है और आपके उपन्यासों का कथ्य क्या होता है?’ उन्होंने शांत भाव से जवाब दिया–‘मेरा पहला ही उपन्यास काफी चर्चित हुआ, जो राजपाल एंड संस से छपा था। उसका नाम था ‘सागर की गलियाँ।’ मछुवारों के जीवन पर आधारित इस उपन्यास को हिंदी में छपवाने की प्रेरणा हिंदी के यशस्वी लेखक जैनेन्द्र कुमार से मिली थी। इस उपन्यास में मछुवारों के जीवन की यथार्थ दशा का वर्णन है। सागर की छाती पर सैर करते मछुवारों का जीवन साधारण नहीं होता है। उनका पूरा जीवन ही अस्त-व्यस्त होता है। साहुकारों द्वारा हमेशा ही उनका शोषण होता है। ये सागर से लड़ते हैं, लेकिन तब भी दुःख भोगते रहते हैं। उनकी जीवन-दशा से प्रभावित होकर ही मैंने उनकी करुणा को मुखरित करने के लिए यह उपन्यास लिखा और उसे लिखने से पूर्व वर्षों तक मछुवारों के बीच जाकर रहा।… देखिए भाई शिवनारायण जी, यह कटु सत्य है कि पढ़े-लिखे लोगों की जितनी गरीबी दक्षिण भारत में है, वह उत्तर भारत में नहीं है। मैंने गरीबी के कारण वहाँ की जनता के घर, बर्तन से लेकर बच्चे तक को बिकते हुए देखा है। अमूमन वहाँ किसी के पास जमीन नहीं है, क्योंकि जमीन का संपूर्ण बँटवारा वहाँ हुआ है। ऐसे में, इससे संबद्ध जो विसंगतियाँ एवं समस्याएँ केरल के समाज में है, वही सब मेरे कथा-साहित्य की पृष्ठभूमि में है। मेरे कथा-साहित्य के सारे चरित्र इन्हीं समाज से हैं, जिनका अपनी जमीन से गहरे ताल्लुकात हैं।’

कहने के साथ ही वे पुनः गंगातट पर टहलने लगे थे। साथ चलते हुए मैंने पूछा–इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं–कविता, कहानी, उपन्यास या फिर…मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने कहा था–‘केरल की विभिन्न समस्याओं को लेकर तीन उपन्यास लिखने की मेरी योजना है। मेरे एक उपन्यास का नाम होगा ‘चूरनी धीरे-धीरे बहो।’ चूरनी केरल में एक नदी का नाम है, जिसके किनारे शंकराचार्य रहते थे। केरल की यह सबसे बड़ी, चौड़ी तथा अपने किनारे सर्वाधिक समृद्धशाली शहरों को बसाने वाली नदी है। मेरा दूसरा उपन्यास भूमि वितरण समस्या पर आधारित होगा, जबकि तीसरा उपन्यास विदेशी संस्कृतियों के हमले पर आधारित। इन दिनों पहला उपन्यास लिख रहा हूँ।’ कहते-कहते वे फिर से वहाँ बनी सीढ़ियों पर बैठ गए। वे लगातार गंगा की लहरों को देखते और उत्फुल्ल होते हुए काव्यात्मक टिप्पणी करते। उसी बीच मैंने उनसे पूछा था–‘मलयालम के साथ-साथ आप हिंदी में भी लिखते रहे हैं। हिंदी के अध्यापक होने के कारण आप इसके साहित्य के मर्म को भलीभाँति समझते हैं। एक साहित्यकार होने के नाते बताएँ कि उत्तर और दक्षिण की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में आप क्या बुनियादी परिवर्तन महसूस करते है?’ उन्होंने मुझे गहरी नजर से देखते हुए कहा था–‘बिहार,  उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे मैदानी राज्यों के बारे में जो कहा जाता है कि यहाँ जमींदारी व्यवस्था खत्म हो गई है, यह सही नहीं है, क्योंकि आज इनके स्वरूप मात्र ही बदले हैं। यहाँ केरल की तरह जमीन की कमी नहीं है। सुनियोजित ढंग से विकास होने के कारण आज केरल में गाँव और शहर में अंतर नहीं रह गया है। सन् 47 के आसपास हिंदी के तीन मूर्धन्य कवियों सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को केरल घूमाने ले गया था। कन्याकुमारी से उत्तर प्रदेश लौटकर उन कवियों ने कहा कि आश्चर्य है कि केरल में गाँव-शहर का कोई फर्क ही समझ में नहीं आया। वहाँ के लोग सफाई पसंद हैं। वैसे एक बात बताऊँ कि देखने में बिहार और केरल की जनता में कोई अंतर समझ में नहीं आता है। दोनों प्रदेशों में अद्भुत समानता है। मेरा विचार है कि दोनों राज्यों में कुछ-न-कुछ सांस्कृतिक समानता अवश्य रही होगी। हमारे यहाँ सभी शब्द केवल संस्कृत से न आकर पाली-प्राकृत से भी आए हैं, वही यहाँ भी है। इस कारण दोनों राज्यों में समानता कई हैं और अद्भुत हैं। देखा जाए तो ये समानता लोगों के औसत रहन-सहन, पोशाक, खान-पान, सोच-विचार आदि में भी है। परिवार और समाज की जो बुनियादी बातें हैं, उनमें उत्तर-दक्षिण में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। भौगोलिक, भाषिक, सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद अर्थाश्रित समस्याएँ सभी जगह एक हैं, जिन पर हमारे साहित्यकारों का ध्यान जाना चाहिए।’

एक सवाल बहुत देर से मेरे मन में बार-बार आ रहा था। आखिर में मैंने पूछ ही लिया कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, बावजूद इसके दक्षिण भारत में इस भाषा के विरोध में जब-तब आवाज उठती रहती हैं। आखिर इसके क्या कारण हैं? उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा–‘क्षमा कीजिएगा, दक्षिण भारत में हिंदी का कोई जनविरोध नहीं है। यद्यपि देखने में आता है कि हिंदी का सर्वाधिक विरोध तमिलनाडु में हो रहा है, जो राजनीति का खेल खेलने वालों का षड्यंत्र मात्र है। यह विरोध वोट के लिए राजनीतिक भर है। आम लोगों में हिंदी का कोई विरोध नहीं है। सारे विरोध राजनीतिक दाँव-पेंच के कारण हैं। तमिल की जनता में अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति एक प्रकार का पागलपन है। केरल में हिंदी का कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वहाँ प्रगतिवादी चिंतन ही मुख्यधारा में है। हिंदी वहाँ सभी विश्वविद्यालयों में अनिवार्य विषय है, इसलिए भी वहाँ इस भाषा के प्रति अच्छा माहौल है।’

डॉ. नायर के लेखन और उनके परिवेश को जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई थी। डॉ. नायर का लेखन एक प्रकार से किसानी चेतना और निम्न मध्यवर्गीय जीवन-संस्कृति को केंद्र में रखता है, जो अपने पाठकों को मोहित करता है। उन्होंने कई विधाओं में लिखा। और भी लिख सकते थे, पर अपने स्वास्थ्य को लेकर हमेशा अस्त-व्यस्त रहे। उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘सागर की गलियाँ’ (उपन्यास), ‘द्वादशी’ और ‘माफी नहीं दोगे’ (कहानी-संगह), ‘वेलुत्तंपी दसवा’ (नाटक), ‘इक्कीस कविताएँ बेहूदी’ और ‘मैं शक्ति हूँ’ (कविता-संग्रह), ‘दिग्विजयी शंकर’ (जीवनी), ‘त्रिवेणी’ (बाल कहानियाँ), ‘गुरु-शिष्य’ (खंड-काव्य), ‘होरेस की काव्य-कला’ (अनुवाद) के साथ-साथ मलयालम में कविताएँ, नाटक, खंडकाव्य, अनुवाद आदि प्रमुख हैं। अपने लेखन के लिए वे अनेक राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित हुए, जिनमें उ.प्र. हिंदी संस्थान का सौहार्द पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान (भारत सरकारा का गंगाशरण सिंह पुरस्कार सहित दर्जनाधिक पुरस्कार प्रमुख हैं।

बिहार से डॉ. नायर का खासा लगाव रहा। किसी-न-किसी प्रयोजन से वे अक्सर पटना आते। आने पर मुझे खबर भेजते। मैं उत्साहपूर्वक उनसे मिलने जाता। एक बार अपनी विदुषी पत्नी डॉ. के. वनजा के साथ पटना आए। तब वे शांतिनिकेतन में प्रोफेसर रहे डॉ. सियाराम तिवारी के घर पर ठहरे थे। सूचना मिलने पर उनसे मिलने गया था। उसी यात्रा में ‘नई धारा’ के एक आयोजन में भी उन्हें मुख्य अतिथि का सम्मान देकर ले गया था, जहाँ उन्होंने समकालीन कविता के सामाजिक सरोकारों को लेकर सम्मोहक व्याख्यान दिया था, तब ‘नई धारा’ के संपादक उदय राज सिंह जीवित थे, जिनसे डॉ. नायर का प्रीतिपूर्ण संवाद हुआ था। कोचिन लौटकर वे अक्सर मुझे पत्र लिखते, जिसमें अपने बारे में विस्तार से जानकारी देते। उनके लिखे अनगिन पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। कभी उन पत्रों को लेकर अलग से लिखूँगा। यहाँ उनका 17 अक्तूबर, 2007 का लिखा एक पत्र साझा कर रहा हूँ, जिसे पढ़कर उनके चिंतन और मनःस्थिति का आभास आपको मिल पाएगा–

बंधुवर शिवनारायण जी,

‘नई धारा’ का अगस्त-सितंबर, 2007 का अंक मिला तो आपको फोन करना चाहा। ‘नई धारा’ का अंक उलट-पुलट कर देखा, तभी महसूस हुआ कि आपका आवास बदल गया है। उसकी सूचना लेकर ही आपको पत्र लिख रहा हूँ। उसमें आपने दूरभाष का नंबर दिया नहीं, सेलफोन की सूचना भी नहीं! क्या तमाशा हुआ! थक-हारकर इसी कारण पत्र लिखना ही उचित समझा। आपसे संवाद बनाए रखने के लिए मैं बेचैन हो उठता हूँ। आपमें मैं अपने को ही जो देखता हूँ!

गत 15 वर्षों से मेरा स्वास्थ्य उतना अच्छा नहीं था। 80 पार आयु वालों को जो शिथिलता हो सकती है, वही लिखने में, यात्रा करने आदि में मेरे साथ भी होती है। अब तो हमारे परममित्र आनंदशंकर माधवन जी भी नहीं रहे। उनकी मृत्यु की सूचना पत्र-पत्रिकाओं द्वारा ही मिल पाई। सचमुच उनसे मिलने की बड़ी लालसा थी। आप मुझे उन तक ले चलने वाले भी थे, लेकिन जो सिर पर लिखा है वह मिटाए नहीं मिटता! फिर भी, कभी अवसर मिला तो मंदार हिल्स जाकर उनके प्रयत्नों का आँखों देखा चित्र जरूर खींचना चाहता हूँ। देखता हूँ, इस जीवन में सफल हो सकता हूँ या नहीं। इधर ‘नई धारा’ में त्रिलोचन जी की हालत के बारे में भी जाना। दुःख हुआ। मैंने मुझसे मिलने आए उनके पुत्र से कहा था कि उन्हें मेरे यहाँ ले आओ, अंत तक उनकी सेवासुश्रूषा करूँगा। उन्होंने हाँ किया, लेकिन जाने के बाद न कोइ पत्र, न फोन, न उनके संबंध में कोई सूचना! हाय संसार, कैसी कलियुग की गति है! अब हम सबकी गति भी इससे भिन्न नहीं होगी!

अब मेरी यादें ताजी हैं। स्मरण शक्ति दुगुनी हो गई है। मेरे मित्रगण बराबर कहते हैं कि मैं अपना उपन्यास ‘चूरनी धीरे-धीरे बहो’, जो अधूरा पड़ा है, उसे पूरा करूँ। इन दिनों उसी में लगा हूँ। कुछ अध्याय पहले लिखे जा चुके थे। अब दुबारा उन्हें पढ़कर आगे के अध्यायों की रूपरेखा तैयार की है। यह सामान्य उपन्यास नहीं, प्रयत्न साध्य है। बड़ी खोज और अन्वेषण से पुष्ट कर लिखना है। मैं ही आद्यंत कालटी के श्रीशंकराचार्य के गाँव में खड़े होकर उनके हजारों वर्षों का धार्मिक, सांस्कृतिक, तात्विक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक मतों-जातियों का लंबा स्वरूप स्मृतिमंडल में लाता हूँ और उन्हें उपन्यास रूप दे रहा हूँ। अनेक आचार-विचार, धर्म-संप्रदाय, जाति-पाँति, विश्वास, भाषा-वेशभूषा, जीवनयापन आदि सभी चीजों का पूर्व और परिवर्तित दृश्यों का पट खेाल रहा हूँ। इसको एक वृहद् उपन्यास का रूप देना चाहता हूँ। जब यह पूरा होगा, तब अपने जीवन की साहित्यिक अभिलाषा की परिणति अवश्य पूरी होते देखूँगा। समूचे भारतवर्ष के लोग उपन्यास के पाठ का तथा अद्भुत भारतीय संस्कृति के विकास एवं परिणामों का चित्र अनुभूत कर नई संस्कृति के साथ विचरण करने में एवं भारतीयों के मानभाव को आँकने में समर्थ होंगे। इस इच्छापूर्ति के लिए मुझे खूब यात्रा करनी है। विद्वान, पंडितों, धर्मों के गुणीजनों और अपने वयस्क मित्रों से मिलना होगा। इस श्रमसाध्य एवं अर्थापेक्षित काम में मेरे जैसे अस्सी पार वाले व्यक्ति से ये सब कैसे हो पाएगा, यही सोचता हूँ। मेरा आत्म अंतरनाद हाँ-हाँ कहती है, आगे बढ़ने के लिए अनुज्ञा देती है। जिन विद्वान बुजुर्ग मित्रों से विचार विनिमय किया, वे सब भी यही कहते हैं। अब मैं भी पीछे की ओर नहीं जाऊँगा। आप सभी का आशीर्वाद चाहिए। आँखों की शक्ति और लिखने की क्षमता कुछ कम है। आशा करता हूँ कि वह भी धीरे-धीरे तेज हो जाएगी।

मैं इस उपन्यास का पहला अध्याय आपको भेज दूँगा। उसे ‘नई धारा’ में दें। बाद में एक-एक कर सारे अध्याय आपको भेजता जाऊँगा। ‘नई-धारा’ को ही इसके प्रकाशन का उचित माध्यम समझता हूँ। पटना की ही ‘अंवतिका’ में पचासों वर्ष पहले दिनकर जी एवं माथुर जी की प्रेरणा से रचनात्मक लेखन शुरू किया था, अब सांध्य वेला के लेखन प्रकाशन की पूर्ति भी पटना की पत्रिका से ही हो। आपके पत्रोत्तर की प्राप्ति के बाद मैं इस दुस्साहस के लिए तैयार हो जाऊँगा। सियाराम तिवारी जी को भी इसकी सूचना नहीं दी है। उपन्यास हिंदी में ही लिख रहा हूँ। बाद में दक्षिणी भाषाओं में भी दूँगा। कृपया अपने घर के फोन के साथ ही सेलफोन नंबर की भी सूचना दें।

यहाँ वनजा भी अपनी रचना प्रक्रिया में मशगूल है। वह युवावस्था में ज्यादा काम कर सकती है। मेरी हालत ऐसी नहीं है। हिरण और कच्छप की स्थिति है। देखें, जीत किसकी होती है! मेरा पुराना ग्रंथ वाणी प्रकाशन से 1970 में प्रकाशित है। ‘दिग्विजय शंकर’ नाम की इस पुस्तक के कई संस्करण हो चुके। यहाँ के पाठ्यक्रमों में भी लगे हैं। उसी की बची-खुची एक प्रति डॉ. विद्यानिवास मिश्र ले गए थे। उसी के आधार पर वे शंकर पर एक उपन्यास लिखना चाहते थे। मुझे वह उपन्यास उन्होंने भेजा नहीं। छप गया है। उसको पढ़कर कई मित्रों ने मुझे लिखा कि विद्यानिवास जी ने आपकी पुस्तक की ज्यों-की-त्यों नकल की है। अगर विद्यानिवास जी की यह किताब आपकी दृष्टि में आए तो उसकी एक प्रति मुझे भी भिजवाने का कष्ट करें। लेखकों का ऋण पुराण प्रसिद्ध है। इसे रचनाकारों का ऋण कहते हैं। इसी तरह कानपुर के मानस संगम, जिसका आरंभ–मैं, सोहनलाल जी, श्रीनारायण चतुर्वेदी, रामकिंकर जी तथा बद्री नारायण जी ने मिलकर किया था, जिसकी लंबी-चौड़ी भूमिका मैंने ही तैयार की थी। मुझे उसकी प्रति मिली नहीं। उसका कुछ अंश तिरुअनन्तपुरम के चन्द्रशेखर नायर की पत्रिका में प्रकाशित देखी। तभी उसका समाचार मिला। उस ग्रंथ की भी प्रति मिले तो भेजिएगा। बहुत लिख गया, अब आपके पत्रोत्तर की प्राप्ति के बाद…।

आपका, एन. रामन नायर

डॉ. नायर के इसी प्रकार के अनगिन पत्र हैं, जो उनके चिंतन, लेखन, साहित्यिक सरोकार आदि की जानकारी देते हैं। डॉ. नायर सरलचित्त रचनाधर्मी थे। एक बार उनकी विदुषी पत्नी डॉ. के. वनजा के आमंत्रण पर मैं विज्ञान एवं प्रावैधिकी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने कोचिन गया, तो चार दिनों की उस कोचिन यात्रा में एक दिन डॉ. नायर से मिलने उनके घर गया। पहले से तय था कि वे मुझे चूरनी नदी सहित शहर के कुछ प्रमुख स्थलों का भ्रमण कराएँगे। उन्होंने अपना वायदा पूरा किया। बहुत मधुर स्मृतियाँ लेकर मैं कोचिन से लौटा था। केरल के अनेक विद्वानों-लेखकों से मेरा सरोकार रहा, पर जितना स्नेह और सहयेाग डॉ. नायर से मिला, वह अतुलनीय है। सन् 2012 की 25 जुलाई को उन्होंने अंतिम साँस ली, तब तक वे ‘नई धारा’ के माध्यम से उत्तर और दक्षिण भारत के शब्दसेतु बने रहे! आज उनका उपन्यास ‘सागर की गलियाँ’ देख कर डॉ. नायर से जुड़ी जाने कितनी सारी स्मृतियाँ याद आ रही हैं! कभी-कभी हम किसी से दूर रहकर भी उनके कितने निकट हो जाते हैं!


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Artist: William Henry Fox Talbot
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शिवनारायण द्वारा भी