हिंदी तुलनात्मक साहित्य के प्रथम आचार्य
- 1 October, 2023
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हिंदी तुलनात्मक साहित्य के प्रथम आचार्य
छायावादोत्तर काल के कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का जन्म 05 फरवरी 1916 को मैगरा गाँव (गया, बिहार) में और निधन 07 अप्रैल, 2011 को मुजफ्फरपुर (बिहार) में हुआ। उनके सक्रिय साहित्यिक जीवन का कर्म-क्षेत्र मुजफ्फरपुर ही है। हिंदी में रचित उनकी कुल तिरपन कृतियों (बीस काव्य, पाँच आलोचना-संग्रह, तीन संगीतिका, चार नाटक, पाँच उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह, एक ग़ज़ल, एक महाकाव्य, सात संस्मरणात्मक कृतियाँ, दो ललित निबंध) के अलावा संस्कृत में भी कई रचनाएँ उपलब्ध हैं। प्रारंभ में वे संस्कृत में ही कविताएँ लिखते थे। महाकवि निराला की प्रेरणा से वे हिंदी में आए। निर्लिप्त साहित्य-सेवा के लिए उन्हें भारत-भारती, राजेन्द्र शिखर सम्मान, शिवपूजन सहाय सम्मान से सम्मानित किया गया।
वे संस्कृत, हिंदी, बांग्ला, अँग्रेजी अनेक भाषाओं में पारंगत थे। अल्पायु में ही वे अपने बहुभाषिक ज्ञान, विशद अध्ययन और आलोचनात्मक विवेक से परिपूर्ण रचना-दृष्टि के लिए ख्यात हो गए थे। उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ यद्यपि पाँच ही हैं, पर अनुवर्ती पीढ़ियों की शोध-दृष्टि विकसित करने के लिए वे पर्याप्त हैं। वे अपने संपूर्ण लेखन में वस्तुनिष्ठता, प्रामाणिकता, नैतिकता के प्रति आग्रहशील दिखते हैं। जनहित एवं राष्ट्रहित में रचनाओं की उपादेयता पर उनकी सावधानी एवं पाठ के प्रति सहृदयता सदैव बनी रहती है। बहुभाषिक ज्ञान की बदौलत उन्हें मूल-पाठ के अवगाहन की सुविधा थी। भाषा-ज्ञान की इस सुविधा के परिपाक से निश्चय ही उनका तुलनात्मक अध्ययन संपुष्ट हुआ होगा, किंतु तुलनात्मक-अध्ययन के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं होता। बेहतर तुलनात्मक-अध्ययन के लिए विवेकशील आलोचना-दृष्टि की बड़ी भूमिका होती है। उल्लेखनीय है कि बहुभाषा-ज्ञान एवं विलक्षण आलोचना-दृष्टि के साथ-साथ संबद्ध साहित्य-धाराओं की सूक्ष्मता से भी जानकीवल्लभ का गहन परिचय था। आलोचना-दृष्टि में हासिल महारत के कारण उन्होंने कभी किसी रूढ़ हो गई विचारधारा की लीक नहीं पीटी। साहित्य-सृजन के लिए उनकी अपनी जीवन-दृष्टि थी, जिसका किसी राजनीतिक धारणा से कोई करार न था। उनका जीवन-दर्शन अनुभूत-सत्य और नागरिक-जीवन की तर्कपूर्ण व्यवस्था से निर्धारित था। रचनात्मक संधान के लिए वे सतत लय, रस, आनंद और ज्ञान-दर्शन को प्रश्रय देते थे। संभवतः यही कारण हो कि उनकी रचनाएँ भावकों को कोलाहल से दूर ले जाकर शांति और थिरता देती हैं। जीवनानंद के बाधक तत्त्वों पर सहजतम किंतु घातक व्यंग्य उनके यहाँ ठौर-ठौर दिखता है। आनंद उनके यहाँ पाने की वस्तु है, छीनने की नहीं। किंतु जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्टि पर विचार करने से पूर्व एक नजर हिंदी की आरंभिक आलोचना के विकास-क्रम पर डालते हैं।
तथ्यतः आरंभिक हिंदी आलोचना का विकास साहित्यिक वाद-विवाद से हुआ है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के ‘नाटक’ शीर्षक निबंध, लाला श्रीनिवास दास रचित नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’, ‘पृथ्वीराज रासो’ की मौलिकता, भारतेन्दु युग में गद्य-पद्य की भाषा, भारतेन्दु रचित ‘पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा’ के मौलिक या अनूदित होने के तर्क-वितर्क, सन् 1850-1900 तक के समय को भारतेन्दु युग (जबकि उनका जीवन काल सन् 1850-1885 ही है) की संज्ञा, तिलिस्मी घटनाओं से भरे उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की संरचना एवं घटनाक्रम के ‘संभव-असंभव’ होने के तर्क, प्रेमचन्द रचित ‘प्रेमाश्रम’ पर रघुपति सहाय फ़िराक़ की प्रशंसात्मक और हेमचन्द्र जोशी की धज्जियाँ उड़ाती टिप्पणी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय में ‘भाषा की अनस्थिरता’ पर बहस, देव-बिहारी विवाद, ‘हिंदी नवरत्न’ विवाद, रीतिवाद बनाम स्वच्छंदतावाद, छायावाद काल में कविता के स्वरूप, भाषा और छंद संबंधी विवाद…बेशुमार विवाद हैं, जिनके व्यवस्थित तर्कों और कई कुतर्कों से टकराकर हिंदी आलोचना पुष्ट हुई है, और साहित्य की विभिन्न विधाओं में संभावनाओं के नए-नए अँखुवे फूटे हैं। इन बहसों की शुरुआत सन् 1885 से हुई, और बहस बढ़ती गई। हिंदी-आलोचना और साहित्येतिहास-लेखन का रूप निखरता गया।
बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक का अंत आते-आते हिंदी में कई तरह के विस्मयकर बदलाव परिलक्षित हुए। उसकाल तक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रखर आलोचना-दृष्टि से लोग परिचित हो गए थे। नन्ददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं रामविलास शर्मा जैसे समालोचकों की आलोचना-दृष्टि आकार लेने लगी थी। अल्प-वय जानकीवल्लभ शास्त्री की प्रखर आलोचनात्मक-दृष्टि की पहचान उन्हीं दिनों हुई। उसी बहुज्ञ पर्यवस्थिति में उनके आलोचनात्मक लेख पत्रिकाओं में सम्मान पाने लगे। सन् 1936-1941 के बीच लिखे उनके निबंधों का बहुचर्चित संकलन ‘साहित्य-दर्शन’ का पहला संस्करण (सन् 1943) आया। बीस-पचीस वर्ष की आयु में लिखे गए इन आलेखों को सुधी पाठकों का पर्याप्त सम्मान मिला। हिंदी के सुविख्यात आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के उत्कर्ष-काल में जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्टि को मिली वह जनस्वीकृति दिलचस्प थी। उन दिनों आचार्य शुक्ल के आलोचनात्मक लेखन की तूती बजती थी। किंतु जानकीवल्लभ शास्त्री ने उनके आलोचना-स्रोत की उस तीव्र धारा को चुनौती देते हुए अपने लेख ‘आलोचना का आदर्श’ में कहा कि ‘रामचन्द्र शुक्ल की आलोचनाएँ चरम-सत्य का फैसला नहीं देतीं। ऐसा करना उनकी शक्ति-सामर्थ्य के बाहर की बात है।’ कोई बेहतर आलोचकीय दृष्टि का नमूना प्रस्तुत किए बगैर ऐसी उद्घोषणा असंभव थी। अपने समय के स्थापित समालोचक की आलोचना-दृष्टि के शक्ति-सामर्थ्य को इस तरह चुनौती देना बहुत आसान नहीं था। इस वक्तव्य में छवि-भंग की अहंकारपूर्ण मंशा अथवा आत्ममुग्धता नहीं, बल्कि एक सतर्क आत्मविश्वास है। जाहिर है कि उस आत्मविश्वास का सूत्र आचार्य शास्त्री की आलोचकीय-क्षमता में तलाशना होगा। उनका यह आत्मविश्वास गहन अध्यवसाय, तथ्यात्मक इतिहास-बोध, मानवीय समाज-बोध एवं विवेकशील तर्क-दृष्टि से परिपूर्ण था; जिसके प्रतिमान उनके आलोचना-कर्म में तैनात हैं।
उपलब्ध परिस्थितियों में सृजनशील मनुष्य प्रतिभा, सुविधा, अनुभव और सपनों के आश्रय से अपनी रचना-प्रक्रिया के लिए जैसा दृष्टिकोण अर्जित करता है, वही उसकी जीवन-दृष्टि होती है। उसका संपूर्ण जीवन-क्रम उसी दृष्टिकोण से संचालित होता है। जन, राष्ट्र एवं मानवीयता के पक्ष में उठी हुई उसकी हर चिंता और रचनात्मक-विवेक उसी जीवन-दृष्टि से निर्देशित रहता है। जीवन-दृष्टि निर्धारित किए बगैर जो कोई कलम उठाता है, वह लेखक नहीं, अपराधी है। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के पूरे रचनात्मक उद्यम में उनकी सुचिंतित जीवन-दृष्टि स्पष्ट दिखती है। वे बेहद जनसरोकारी, दायित्वबोध-संपन्न, राष्ट्र-हित भावना से परिपूर्ण लेखक थे। उनका शिक्षार्जन बेशक संस्कृत पद्धति से हुआ, किंतु वे विराट अध्ययन-फलक और उदार वैचारिक दृष्टि के रचनाकार थे। पाश्चात्य साहित्य से भी उनकी अंतरंगता थी। संतुलित विवेक-दृष्टि और कर्मनिष्ठ सृजनात्मकता के सारे प्रतिमान उनके यहाँ तैनात मिलते हैं। जन एवं राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास की चिंता उनकी रचनात्मकता का मूल उद्देश्य था। इस दिशा में वे पल-पल चिंतित दिखते हैं।
अपनी विशिष्ट कृति साहित्य-दर्शन के चौथे संस्करण के प्रकाशन के समय सन् 1967 में ‘वेदना’ व्यक्त करते हुए उन्होंने उस दौर के अन्य समालोचकों की लेखकीय प्रतिबद्धता पर भी इशारे में बात की। उन्होंने लिखा कि ‘जब यह (ग्रंथ) पहली बार प्रकाशित हुआ था, तब आज के ‘अशोक के फूल’ नहीं खिले थे, ‘कल्पलता’ का भी पता नहीं था, होता तो कम-से-कम मैं यह अवश्य समझ लेता कि साहित्य कोई गढ़कुंडेश्वर के पुदीने का बगीचा नहीं है कि विन्ध्याटवी में भ्रमण करनेवाला प्रत्येक अराजकतावादी जंतु उसमें नाक घुसेड़े। उसमें एक शृंखला है; एक विधान है, एक उद्देश्य है, एक साधना है।’ इतना ही नहीं, तब ‘हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी’ या ‘आधुनिक साहित्य’ के समान महान आलोचनात्मक ग्रंथ भी नहीं छपे थे, जो मेरे समकालीन विशृंखल विचारधारा को कूल-किनारा बताते। ‘साहित्य-दर्शन’ के निबंध प्रायः बीस-बाइस की उम्र तक के हैं और मैंने अठारह-उन्नीस की उम्र से तो हिंदी में लिखना शुरू ही किया था। उल्लेखनीय है कि नन्ददुलारे वाजपेयी ने ‘साहित्य-दर्शन’ शीर्षक पुस्तक के पहले संस्करण की भूमिका लिखी है, और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उस पहले संस्करण की समीक्षा की है।
अपनी आलोचना-दृष्टि स्पष्ट करते हुए उन्होंने ‘आलोचना का आदर्श’ शीर्षक लेख में साफ-साफ कहा कि ‘आदर्श आलोचना में यही देखा जाएगा कि आलोच्य विषय के साथ स्वयं तन्मय होकर वह कहाँ तक पाठक के संशय-संदेह, जिज्ञासा-कुतूहल को शांत कर सकती है; उसे परितृप्त तथा तन्मय कर सकती है; अपने में घुला-मिला ले सकती है। उसे परमार्थ सत्य प्रदान करने का दम्भ तो करना ही नहीं चाहिए। उसका काम पाठक के किसी भावविशेष, सौंदर्यविशेष की अनुभूति के अयोग्य, अलस-निमीलित हृदय, स्वप्निल-तंद्रिल सहृदयता तथा सहानुभूति को आवश्यकतानुसार उन्मिषित, विकसित कर देना ही है। कृतिकार के कला-तत्त्व को उसने जैसा समझा उसे पाठक के हृदय में स्वच्छतया अंकित कर देना, कलाकार ने जो कल्पना की पाठक को उसकी अनुभूति करा देना; यही आदर्श आलोचना है।…आलोचक की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वह भ्रम से भी पाठक को यह सोचने का अवसर न दे कि वे विचार निश्चित रूप से मूल कृतिकार के नहीं, अपितु उसी आलोचक के हैं। और ऐसा तभी हो सकता है, जब वह आलोच्य विषय के अंतरंग में प्रविष्ट होकर, उसका मर्म मालूम करने के लिए अहर्निश साधना करता है, उससे एकतान होकर उसका अनाहत नाद सुन लेता है।’
कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा की बहस से बाहर आकर सोचने पर सृजनशील साहित्य भी अंततः जनजीवन की आलोचना होती है। जानकीवल्लभ शास्त्री की गहन आलोचना-दृष्टि के मद्देनजर उनका संपूर्ण रचनात्मक उद्यम भी समकालीन नागरिक-जीवन और आचार-संहिता की ईमादार आलोचना ही लगती है। आलोचना को तो रचना का शेषांश माना जाता है। पर साहित्यिक चर्चा में रचना है क्या? वह समकालीन भावयित्री प्रतिभा की सर्वेक्षण-परिणति ही तो है! नागरिक-परिदृश्य में मनुष्य की आत्ममुग्धता, निरर्थक बेचैनी और उद्देश्यविहीन जीवन-यापन देखकर आचार्य शास्त्री को स्पष्ट दिखा कि–
‘सब अपनी-अपनी कहते हैं!
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है,
…सब ऊपर ही ऊपर हँसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला, शिला।’
(–मौज)
बादलों की धृष्टता देखकर उन्हें गुस्सा आया, उसे उन्होंने फटकार लगाई, बादलों को उनकी अशक्यता याद दिलाई–
‘उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
पागल बादल,
शून्य गगन में व्यर्थ मगन मँड़राता है!
इतराता इतना सूखे गर्जन-तर्जन पर,
झूम-झूम कर निर्जन में क्या गाता है?
…रोमल, श्यामल मेष-शशक-सा विचर-विचर कर,
चरता है; परिणत गज-सा वह खेल दिखाता,
नटखट बादल,
जो भूखे-प्यासे को नहीं सुहाता है!
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
चंचल बादल,
शून्य गगन में व्यर्थ मगन मँड़राता है!!’
(–कुपथ रथ दौड़ाता जो)
गौरतलब है कि मनुष्य, मानवीय आचरण, समाज-व्यवस्था, प्रकृति…हर कुछ को देखने, और उन पर अपनी राय कायम करने की बड़ी तटस्थ दृष्टि उन्होंने प्रारंभिक आयु में ही विकसित कर ली थी। जिस बादल को रसिक जन, प्रेमाकुल प्रेमी, कृषक समुदाय…शुभागम मानते हैं; अपने सृजन-कौशल के सहारे जानकीवल्लभ शास्त्री ने उसी बादल को पागल, नटखट, बौड़म साबित कर दिया। उसके सूखे गर्जन-तर्जन और निर्जन में झूम-झूम कर नर्तन-गायन करने को व्यर्थ करार दिया। उसकी क्षमता को ललकारा कि पागल बादल, व्यर्थ ही शून्य गगन में मँड़राता है! हिम्मत है तो आ, रेत में उतर, आक जवास से भरे खेत में उतर, जो बात भूखे-प्यासे को नहीं सुहाती, वह क्यों करता है! प्राकृतिक उपादानों से तैयार ये प्रतीकार्थ इस कविता में अर्थ की कई परतें खोलते हैं। कहते हैं कि बाल्यावस्था की असह्य पीड़ा मनुष्य के जीवन-बोध को तीक्ष्णतर और उज्ज्वल बनाती है। उनकी नैसर्गिक प्रतिभा से परांग्मुख नहीं हुआ जा सकता, पर यह भी संभव है कि अल्पायु में हुए मातृशोक से उनकी चिंतन-पद्धति की दिशा बदली हो। पर्यवस्थिति को देखने का उनका अंदाज कुछ भिन्न हो गया था। उल्लेखनीय है कि जिस दिन उन्होंने बनारस जाने की अपनी जिद अपनी माँ को सुनाई, उसके अगले ही दिन उनकी माँ ने शरीर त्याग दिया। बालक जानकीवल्लभ ने उस पीड़ा को ताउम्र अपने प्राणों पर झेला। किंतु मातृसुख से वंचित होने के दुख का उन्होंने जीवन भर सकारात्मक उपयोग किया। जीवन भर वंचितों, साधनविहीनों, पशु-पक्षियों पर प्रेम लुटाया, उनकी वकालत की। बेज़ुबानों के ज़ुबान बननेवाले जानकीवल्लभ तभी तो बारिश को उसकी औकात बताते हैं, उसके अवांछित और अभद्र आचरण का अहसास कराते हैं–
‘क्या खाकर बौराए बादल?
झुग्गी-झोंपड़ियाँ उजाड़ दीं
कंचन-महल नहाए बादल!
दूने सूने हुए घर
लाल लुटे दृग में मोती भर
निर्मलता नीलाम हो गई
घेर अंधेर मचाए बादल!’
(–बौराए बादल)
समीक्षकों ने उन्हें तरह-तरह के विशेषण दिए। किसी ने महाप्राण निराला का अन्यतम उत्तराधिकारी माना; किसी ने छायावाद का पंचम स्तंभ, तो किसी ने छायावादोत्तर काल के मुखरतम वातावरण का सर्वथा भिन्न स्वर। यह उनकी विलक्षण प्रतिभा और रचनात्मक निष्ठा ही है कि इनमें से कोई एक विशेषण पूरे जानकीवल्लभ को नहीं समेट पाता। उनमें एक विशेषण और जोड़ा जाना चाहिए कि हिंदी में तुलनात्मक साहित्य के संभवतः वे पहले आचार्य हैं, जिनकी तुलन-दृष्टि का समुचित लाभ आज तक के अध्येता नहीं ले पाए। तुलनात्मक-साहित्य के विरले ही किसी भारतीय चिंतक ने लक्ष्य किया हो कि ‘साहित्य-दर्शन’ संकलन के तेइस में से चौदह निबंध भारतीय तुलनात्मक-अध्ययन के स्वरूप निर्धारित करते हैं। तुलनात्मक-साहित्य (कम्पैरेटिव लिटरेचर) ज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। स्वतंत्र अनुशासन के रूप में इसका विकास उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ और विभिन्न विश्वविद्यालयों में इसके अध्ययन-अध्यापन को महत्त्व दिया जाने लगा। सन् 1848 में अँग्रेजी के कवि मैथ्यू आर्नल्ड ने सबसे पहले ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ पद का प्रयोग किया। भारत में सन् 1907 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व-साहित्य का उल्लेख करते हुए साहित्य के अध्ययन में तुलनात्मक-दृष्टि की आवश्यकता पर बल दिया। दो पाठों के भाव, संवेदनाएँ, विचार, कला, संदर्भ के साम्य-वैषम्य का अनुशीलन तुलनात्मक-साहित्य का लक्ष्य होता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन के तीन स्कूल–फ्रेंच स्कूल, अमेरिकी स्कूल, जर्मन स्कूल–माने जाते हैं। इस ज्ञानशाखा के स्वरूप एवं मानदंड निर्धारित करने में पीटर स्जोण्डी (सन् 1929-1971), जाक देरीदा (सन् 1930-2004), पियरे बौरदिए (सन् 1930-2002), लूसिए गोल्डमान (सन् 1930-1982), पॉल डी मान (सन् 1919-1983), जरशॉम शॉलम (सन् 1897-1982), थियोडोर अडोर्नो (सन् 1903-1969) जैसे विद्वानों की बड़ी भूमिका है। प्रारंभ में तुलनात्मक-साहित्य को साहित्येतिहास की एक शाखा माननेवाले फ्रांसीसी चिंतकों को बाद में प्रतीत हुआ कि इससे तुलनात्मक-साहित्य का सम्मानित स्वरूप आहत और साहित्य का सौंदर्यमूलक पक्ष बेमानी हो जाएगा। फलस्वरूप व्यावहारिक और ठोस आलोचनात्मक दृष्टि की सहायता से उनलोगों ने साम्य-वैषम्य की तुलना और प्रभाव के सूत्रों के साथ अनुशीलन की संश्लेषणात्मक दृष्टि विकसित की। जबकि अमेरिकी संप्रदाय की नजर में साहित्येतिहास की सामान्य संरचना के अंतर्गत तुलनात्मक-साहित्य को ज्ञान की अन्य शाखाओं के साथ प्रदत्त पाठ के संबंध-बंध का अनुशीलन माना गया और साहित्यालोचन को तुलनात्मक-साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में स्वीकारा गया।
भारत में रवीन्द्रनाथ टैगोर (सन् 1861-1941) से पहले बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय (सन् 1838-1894) ‘शकुंतला, मिराण्डा एवं डेस्डिमोना’ शीर्षक निबंध में भारतीय तुलनात्मक दृष्टि का परिचय दे चुके थे। उल्लेखनीय है कि जिन दिनों यूरोप में जाक देरीदा, पियरे बौरदिए, लूसिए गोल्डमान, पाॅल डी मान, जरशाॅम शाॅलम, थियोडोर अडोर्नो जैसे विद्वानों का व्याख्यान आयोजित करवाकर पीटर स्जोण्डी (सन् 1929-1971) जर्मन तुलनात्मक साहित्य का स्वरूप एवं मानदंड निर्धारित करने में लगे थे, उससे कई वर्ष पूर्व आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ‘मुद्राराक्षस’ और ‘जूलियस सीजर’ का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर चुके थे। दो पाठों के भाव, संवेदनाएँ, विचार, कला, संदर्भ के साम्य-वैषम्य का अनुशीलन प्रस्तुत कर चुके थे। उनके तुलनात्मक अध्ययन का कौशल रोमांचक और प्रेरणास्पद है। मीरा-महादेवी, मुद्राराक्षस-जूलियस सीजर, दिंग्नाग-कालिदास, कालिदास-तुलसीदास, जयदेव-विद्यापति, गीता-गीतांजलि, भक्ति-शृंगार, साहित्य-राजनीति, साहित्य-दर्शन जैसे विषयों पर प्रस्तुत उनकी विलक्षण तुलनात्मक-दृष्टि की तात्त्विक समीक्षा अभी तक नहीं की जा सकी है। उनके द्वारा हिंदी में संस्थापित तुलनात्मक-साहित्य की नींव का संज्ञान अभी तक किसी भारतीय विद्वान ने नहीं लिया है। जबकि भारतीय-साहित्य, अनुवाद-अध्ययन, और तुलनात्मक-साहित्य में जुटे हर अध्येता के लिए शोध एवं आलोचना की दृष्टि से आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री कृत ‘साहित्य-दर्शन’ एक अनिवार्य पुस्तक है। तुलनात्मक-साहित्य से संबद्ध इस संकलन के चौदहों आलेख ‘हिंदी तुलनात्मक-साहित्य’ के आरंभिक शास्त्र के रूप में देखे जाने चाहिए। आचार्य शास्त्री ने इनमें जिन तुलनात्मक-विधानों का उपयोग किया है, वे चकित करते हैं। जिन दिनों (सन् 1936-1941 के बीच) ये आलेख लिखे गए, भारतीय साहित्य-धारा में इस पदबंध के नाम लेनेवाले भी गिनती के ही थे। तुलनात्मक-अध्ययन का कोई स्पष्ट विधि-विधान निर्धारित नहीं हुआ था। दुनिया के अन्य देशों के विद्वान भी इसका स्वरूप तय ही कर रहे थे।
विशाखदत्त-शेक्सपियर और कालिदास-तुलसीदास की तुलना करते हुए उन्होंने जिस तरह अपने इतिहास-बोध, समाज-बोध, साहित्य-बोध, मानवीयता और जीवन-दृष्टि का परिचय दिया है, वह विलक्षण तो है ही, आज के आलोचकों के लिए अनुकरणीय भी है। आलोचना एवं तुलना के उनके सभी सूत्र जनजीवन की सहजता, मानवीयता, समाज और राष्ट्र की हित-चिंता से संबद्ध होते हैं। विदित है कि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षस’ सुखान्त और शेक्सपियर रचित ‘जूलियस सीजर’ दुखान्त कृति है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ दोनों राजनीतिक नाटक हैं, दोनों में कई समानताएँ हैं। इसके बावजूद दोनों के रसास्वादन में अंतर है, और इस अंतर का कारण आचार्य शास्त्री उनका सुखान्त-दुखान्त होना नहीं मानते। उन्होंने तीनों नाट्य-तत्त्व–वस्तु, नेता, रस–पर सूक्ष्मता से विचार किया है। उन्हें राक्षस के आगे ब्रूटस और चाणक्य के आगे कैसियस फीके नजर आते हैं। वे पात्रों के आचरण के आधार पर उसकी मानवीयता की भी परख करते हैं, उसका मूल्यांकन वे नैतिकता के साँचे में करते हैं। उन्हें कैसियस कुटिल और अनैतिक लगता है, क्योंकि वह मित्र के साथ प्रपंच करता है; कैसियस को आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री श्रेष्ठ कोटि के राजनीतिज्ञ मानने को तैयार नहीं हैं। उन्हें उस नाटक की आत्मा खंडित दिखती है। राजनीति इस नाटक की आत्मा है, और उस राजनीति के आचार्य कैसियस अनैतिकता के संपोषक, तो रचना की आत्मा खंडित होना स्वाभाविक है। वे कहते हैं–‘जनता की मनोवृत्ति का, देश की गतिविधि का, विश्व की परिस्थिति का–संक्षेप में देशकाल का भी जिसे सम्यक् ज्ञान नहीं; अच्छी पहचान नहीं; उसे उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ कैसे कहा जा सकता है?’
इसके प्रतिकूल उन्हें कूटनीति में पारंगत होते हुए भी चाणक्य कहीं खूँखार नहीं दिखते; शत्रु तक के साथ अनैतिक आचरण करते नहीं दिखते; चाणक्य की नैतिकता ही उन्हें उनकी सफलताओं की कुँजी लगती है। वे कहते हैं–‘वैराग्य, निर्लोभता, प्रशांति आदि भाव विशेषकर भारत के ही हो सकते हैं, भारत का राजनीतिज्ञ भी इतना बड़ा तपस्वी होता है।’ इसी तरह वे ब्रूटस और राक्षस की तुलना करते हैं। ब्रूटस के उज्ज्वल, उन्नत, पवित्र जीवन के बावजूद अपने परम विश्वासी मित्र जूलियस की हत्या कर देने के कारण वे उसका सर्वनाश तय मानते हैं। जबकि राक्षस को वे उससे उन्नत मानते हैं। उसके आत्म-समर्पण को श्रेष्ठ मानते हैं। वे मानते हैं कि ‘सर्वस्वत्यागी चाणक्य से प्राणत्यागी कैसियस का या आत्मसमर्पणकारी राक्षस से आत्महत्याकारी ब्रूटस का ठीक-ठीक मुकाबला नहीं हो सकता।
मार्च 1936 में जानकीवल्लभ शास्त्री अपने लेख ‘कालिदास और तुलसीदास का शृंगारवर्णन (प्रतिवाद)’ में लिखते हैं कि ‘कविकुलगुरु कालिदास तथा भक्तशिरोमणि तुलसीदास के शृंगार-वैचित्र्य के विषय में एक तुलनात्मक आलोचना ‘माधुरी’ के गत अंक में प्रकाशित हो चुकी है। …अश्लीलता की दुहाई देनेवाले के लिए कालिदास से तुलसीदास की तुलना करना गलत है। कारण, कालिदास ने शृंगार-प्रधान काव्य लिखे हैं और तुलसीदास ने भक्ति-प्रधान।… ‘मेघदूत’ का यक्ष और ‘शकुंतला’ का दुष्यन्त मर्यादापुरुषोत्तम नहीं; वे सांसारिक हैं, अतएव सांसारिक चित्रण उनके चरित्र की स्वाभाविकता के लिए उतना ही आवश्यक है जितना मर्यादापुरुषोत्तम की मर्यादित भावनाओं की परिपुष्टि के लिए अलौकिक या असांसारिक चित्रण।… कालिदास केवल आदर्शवादी न थे, फिर भी उनकी कला आदर्श से सूनी नहीं है।… तुलसीदास ने शृंगार का वर्णन विस्तृत रूप में नहीं किया, यह कोई विशिष्ट आदर्श नहीं है। वाल्मीकि की यथार्थवादिता तुलसीदास से उनकी न्यून प्रतिभा होने का परिचय नहीं देती। सीता के स्तन में चोंच मारने की बात वाल्मीकि में भी बतलाई गई है। भक्त होने के कारण तुलसीदास उसे टाल गए तो इसके मानी यह नहीं कि वाल्मीकि या कालिदास की दृष्टि शृंगारिक है। भक्ति और कविता भिन्न-भिन्न वस्तु हैं। मुख का वर्णन करते समय भक्तकवि की दृष्टि चरणों पर ही कैसे रहेगी?’ …इन तर्कों के सहारे जानकीवल्लभ शास्त्री ने कहीं किसी रचनाकार के उखाड़-तिरस्कार की बात नहीं की। उनकी साफ मान्यता है कि प्रसिद्धि के लिहाज से तुलसीदास कालिदास से तनिक भी कम नहीं, बल्कि भक्त की दृष्टि से बढ़कर भी हैं; पर इसके मानी यह नहीं कि कवित्व-कला के सूक्ष्म पर्यवेक्षणावसर पर वे कालिदास से बढ़कर हैं। उनका तर्क है कि किसी श्रेष्ठ कलाकार का चरम उद्देश्य केवल चरित्रगान करना नहीं होता। शृंगारवर्णन मात्र से कोई रचना असंयत और आदर्श-चित्रण मात्र से कोई रचना संयत नहीं हो जाती। ऐसी राय बनाना किसी चिंतक के असंयम का द्योतक होगा। तुलसीदास की दृष्टि निश्चय ही सदैव आदर्श-चित्रण की ओर रहती थी, पर इस कारण कालिदास के आदर्श को कम स्वच्छ नहीं कहा जा सकता। तुलना करते समय विवेकशील दृष्टि से पाठ की परख अत्यंत प्रयोजनीय होती है। कालिदास के नायक दुष्यन्त एक राजा हैं, पूर्ण वयस्क, अनेक रानियों के राजा, समस्त राजकीय भोग के अनुभवी; जबकि तुलसीदास के नायक राम जनक की पुष्पवाटिका में एक किशोर हैं, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते शृंगारिकभाव से निश्चय ही भिन्न होगा। ‘माधुरी’, जुलाई 1937 में ‘आचार्य दिंग्नाग और कवि कालिदास’ शीर्षक उनके तुलनात्मक लेख पर विद्यावयोवृद्ध सेठ कन्हैयालाल जी पोद्दार ने जब उनके ज्ञान को चुनौती दी तो उस पर भी उन्होंने बड़ी ही शालीनता से किंतु व्यंग्यात्मक भाषा में जवाब दिया।
खंडन-मंडन की ये प्रक्रियाएँ तो जीवन-विधान के हर क्षेत्र में सदैव चलती रही हैं, खंडन करनेवाले वे विद्वान संभवतः उस दौर में यह अनुमान नहीं कर पाए होंगे कि आगामी कुछ दशकों में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का यह तुलनात्मक-अध्ययन ज्ञान की एक नई शाखा का रूप लेगा, जो दुनिया के उन्नत कहे जानेवाले राष्ट्रों के विद्वानों की तुलनात्मक-दृष्टि को भी चुनौती देगा। तथ्यतः तुलनात्मक-साहित्य के क्षेत्र में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री द्वारा शुरू किया गया प्रयास हिंदी के लिए तो नींव का पत्थर है ही, इस ज्ञान-शाखा के विशेषज्ञ चाहें तो उनके इन निबंधों में छिपी विलक्षण तुलनात्मक-दृष्टि के सूक्ष्म सूत्र भी तलाश सकते हैं। उनकी तुलनात्मक-दृष्टि स्थान-काल-पात्र, इतिहास-परिवेश-समाज की सूक्ष्मताओं को देखते हुए ही आगे बढ़ती है। भारतीय तुलनात्मक-अध्ययन को संपुष्ट करने के लिए उन सूक्ष्मताओं को गंभीरता से पहचानने और उसे विस्तार देने की बड़ी जरूरत है।