मैं समलिंगी नहीं हूँ
- 1 October, 2023
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- 1 October, 2023
मैं समलिंगी नहीं हूँ
कॉलिंग बेल के बजते ही मैंने दरवाजा खोल दिया। जुरी धड़धड़ाती हुई भीतर घुस आई। सुबह के नौ बजे से ग्यारह बजे तक किसी अतिथि का आना मुझे नहीं सुहाता। पूरे दिन में यही मेरे एकांत का समय होता है। इस निर्जन-नि:संग समय में मैं ‘स्वयं’ को अनुभव करती हूँ अथवा मनचाही किताब पढ़कर, कविता पढ़कर, संगीत सुनकर इसका उपभोग करती हूँ। पहाड़ पर गर्व से जल रही फागुनी मौसम वाली वन की आग का उपभोग करती हूँ। पलाश, मदार के रंग हृदय की अनुभूति में मिश्रित हो जाते हैं। उस समय कलम की नोक से कुछ-न-कुछ अपने आप निकल जाता है। इसी तरह प्रत्येक ऋतु की भिन्न अनुभूति मुझे सिक्त कर देती है। ऐसे समय में जुरी की उपस्थिति कुछ अच्छी न लगने पर भी अपना मुँह खोलकर उससे कुछ कह नहीं पाती और वह भी मुझे कोई मौका नहीं देती।
‘जुरी…’ मेरे मुँह से यह शब्द निकलने ही वाला था लेकिन जुरी ने उसे निकलने का मौका ही नहीं दिया। मेरी तरफ देखते हुए मुझे बाँहों में भरकर गालों और मुँह पर चुंबनों की बौछार कर दी। भीतर-ही-भीतर मुझे थोड़ी असहजता महसूस हुई लेकिन अपने आचरण से प्रकट नहीं होने दिया।
जुरी की मुझसे बहुत सारी शिकायतें हैं–दो दिनों से उसका फोन क्यों रिसीव नहीं किया। मेरे बारे में उसे बहुत चिंता हो रही थी। कहीं मैं अस्वस्थ तो नहीं हो गई हूँ। कहीं मुझ पर दूसरी विपत्ति तो नहीं आ पड़ी है। किसी कारणवश कहीं मैं उससे रंज तो नहीं हूँ। इत्यादि, इत्यादि। मैंने अत्यंत सतर्क होकर जुरी की शिकायत का निवारण किया कि मैं उससे रंज नहीं हूँ। दस बजे आई जुरी ग्यारह बजे तक उठने का नाम ही नहीं ले रही थी। इधर साढ़े बारह तक शेखर आ जाएँगे। खाना बनाने का काम पड़ा हुआ है। वह आकर मेरे बिस्तर पर बैठ गई और मुझे वहीं बुला लिया।
‘आओ, आओ कुँवली। काम बाद में करना। शेखर दा के आने के पहले ही मैं चली जाऊँगी। उनसे मुझे डर लगता है। शायद कहीं यह न सोच लें कि मैं तुम्हें क्यों इतना फोन करती हूँ। है न?’
न चाहते हुए भी मैं जुरी के साथ बिस्तर पर लेट जाती हूँ। कोई विशेष बातचीत नहीं। वह मेरे चेहरे की ओर देखती रहती है। मेरे दोनों हाथों को देखती रहती है। हाथों को कोमलता से सहलाती है। कभी-कभी उन्हें चूम लेती है। बात न करने पर मान करती है। वह मुझे इस बात के प्रति सतर्क कर देती है कि यदि मुझे कहीं जाना हो तो उसे बताकर जाऊँ। यदि कभी नहीं हँसती हूँ तो मुझे हँसने को कहती है। मज़ाकिया बातें कहकर मुझे हँसाती है। मेरे हँसने पर वह मुग्ध नेत्रों से मुझे देखती रहती है। उसके बाद मेरे कपाल पर झट से एक चुंबन देकर कहती है, ‘आइ ओ; हँसती रहना कुँवली!’
इस तरह छोटे बच्चों की तरह मान-अभिमान का आचरण करने के बाद वह बारह बजे चली गई। उसके जाने पर मैंने भी संतोष की साँस ली।
आज दो माह हुए। तबसे जुरी मुझे हरदम फोन करती है। उससे परिचय हुए लगभग छह माह हुए हैं। पहले एक-दो माह में वह बीच-बीच में फोन करती थी। लेकिन धीरे-धीरे उस ‘बीच-बीच’ का अंतराल क्रमश: घटते-घटते एक अर्थ में लगातार फोन करने में बदल गया। अब तो वह दिन में फोन करती है ताकि मैं उसके साथ बात करते रहने के साथ-साथ अपने काम भी करती चलूँ। मैं अपने कानों में हेडफोन लगाकर काम करते-करते अकेले ही घर के इस कोने से उस कोने तक घूमती रहती हूँ। वैसी कोई विशेष बात भी नहीं होती। ‘भात खा लिया न?’ कहकर कुछ देर चुप रहेगी। उसके बाद पूछेगी–‘इस समय क्या कर रही हो?’ फिर बताएगी कि वह क्या कर रही थी। दिन में मुझे फोन न करने के दौरान उसके पास किस-किस का फोन आया था, फोन करने वालों से कौन-सी बातें हुईं। जुरी इसी तरह की बातें ‘फुटबॉल मैच’ की कमेंटरी की तरह धाराप्रवाह करती रहती है। उसके बीच यदि मैं यह कहूँ, ‘एक फोन आ रहा है, रिसीव करने दो।’ तो इस तरफ से मैं यह अनुमान करती हूँ कि वह अनिच्छा से उसका समर्थन करती है। किंतु किसी तरह घंटा-डेढ़ घंटा बीता नहीं कि वह फोन करके पूछेगी, ‘कुँवली, किसका फोन था, बताओ न।’
शुरुआती दिनों में जुरी के ऐसे प्रश्नों पर सच्ची बात ही बताती थी, लेकिन इन दिनों झूठ-मूठ कुछ कह देती हूँ।
जुरी शादी-शुदा है। दो संतानों की माँ है। मैं भी शादी-शुदा हूँ। जुरी का घर मेरे घर से पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। उससे मेरी मुलाकात साहित्यिक, सांस्कृतिक जैसे कुछ सामाजिक अनुष्ठानों में हुई थी। ‘वह मेरे गुणों पर मुग्ध है’ जैसी बातें शुरू कर उसने मुझसे परिचय बढ़ाया था। उसने मेरा फोन नंबर लिया था। बातचीत करने पर मैंने यह अनुमान लगाया कि वह मुझसे लगभग तीन साल छोटी होगी। उसकी बातचीत मुझे बुरी नहीं लगी। असल में जुरी की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी थी। उसने कहा था कि वह एक नारी है। व्यक्तिगत रूप से नारी समाज बहुत ही कड़वाहट भरा है, इसकी तिक्तता का अनुभव मुझे है। हाँ, यह भी नहीं कि मुझे इसके मधुर अनुभव नहीं हैं। बहुत से मधुर अनुभव हैं। लेकिन जब भी मुझे कोई तिक्त, कड़वा अनुभव होता है, उस समय मेरे भीतर एक करुण हँसी की लहर उठती है। हमारे समाज में नारी या महिला, नारी जाति के समान अधिकार, नारी को अग्राधिकार, नारी मुक्ति संग्राम, नारी सुरक्षा के नाम पर कितना भी विप्लव क्यों न करे, शेखी क्यों न बघारे, अधिकांश मामलों में यह देखा जाता है कि सामाजिक काम-काज, घर-संसार, ऑफिस–कचहरी, विभिन्न संगठन-प्रतिष्ठान में नारी ही नारी की घोर शत्रु बन जाती है।
शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में और सरकारी पदों आदि पर सुप्रतिष्ठित नारियों की सुरक्षा के संबंध में भाषण देकर जनता की तालियाँ बटोरने वाली नारियों को भी देखा है–साथ ही देखा है उनका कपट, डाह और ईर्ष्या। उनका यह आचरण किसी-न-किसी दिन अनजाने में ही प्रकट हो जाता है। अपनी वैसी कपटी मनोवृत्ति, डाह और ईर्ष्या को ढँकने के लिए वे कितना भी अभिनय क्यों न करें, जिस तरह दूध में डुबाने से कोयले का रंग सफेद नहीं हो जाता, ठीक वैसे ही उनकी ये समूह प्रवृत्तियाँ अनायास ही पकड़ में आ जाती हैं।
हो सकता है कि बहुत जगह, बहुत मामलों में शायद अपने कौशल से इन्हें ढँक रखने में सफल भी हो जाती हों। हालाँकि उसकी दृष्टि में अन्य कोई एक नारी उसकी तरह सामाजिक ख्याति-प्राप्त नहीं भी हो सकती है। विद्या-बुद्धि में भी कमतर हो सकती है। लेकिन हो सकता है कि उसमें भी ऐसा कोई गुण हो जिसके कारण समाज में वह लोकप्रिय हो और उसकी वही लोकप्रियता ही विद्या-बुद्धि और सामाजिक पदवी से अँटी पड़ी औरत के लिए ईर्ष्या का कारण बन जाए। हो सकता है कि इस ईर्ष्या के वश में होकर वह दूसरी औरत के, चाहे वह उसके नजदीक की हो या फिर सामाजिक क्षेत्र की, यश को धूमिल करने के लिए, उसे नीचा दिखने के लिए अपनी शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान पर कलंक लगाते हुए किसी भी हद तक गिर जाए।
घर-परिवार में तो मतभेद होते ही रहते हैं। सास-बहू, ननद, माँ-भौजाई के बीच मतभेद होते रहते हैं। किसी ऑफिस में काम करने वाली कोई-कोई महिला कर्मचारी यह अभियोग भी करती है–‘यदि मेरे बॉस पुरुष होते तब तो कोई बात नहीं थी। वे किसी औरत की सुविधा-असुविधा समझ लेते। दुर्भाग्य से महिला बॉस होने से मुझे बड़ी दिक्कत होती है। मैडम अनवरत छोटी-मोटी गलतियाँ निकाल कर मुझे नीचा दिखाने की ताक में रहती हैं।’ नारी देह के व्यापार के पथ प्रदर्शन के काम में नारी ही लिप्त हुई होती है। तो क्या यह उचित नहीं कि नारी पहले अपने इन दोषों-त्रुटियों से मुक्त हो ले? यह भी ठीक है कि हमारे नारी समाज में मदर टेरेसा, फ्लोरेन्स नाइटिंगेल जैसी बहुत-सी मशहूर नारियाँ हुई हैं और बहुत-सी अख्यात साधारण, असाधारण, मानवप्रेमी, देशप्रेमी नारियाँ भी हैं। इसी कारण तो नारी को महीयसी, सहानुभूतिशील, सहनशील, उदार, स्नेहमयी की आख्या दी गई है।
नारी का पुरुष की गुण-मुग्धा और पुरुष का नारी का गुण-मुग्ध होना स्वाभाविक है। पुरुष नारी के सामने और नारी पुरुष के सामने यह बात बेझिझक व्यक्त भी करती है। लेकिन एक नारी मन-ही-मन दूसरी नारी के गुण की प्रशंसा करने पर भी उसे ईमानदारी से स्वीकार करने की इच्छुक नहीं होती। कभी किसी कारण से स्वीकार करती भी है तो उसके साथ एक दोष जोड़ देना पसंद करती है। जैसे यह कहना चाहती हो–‘चंद्रमा उज्ज्वल तो होता है लेकिन उस पर धब्बे भी होते हैं।’ ऐसी सहानुभूति दिखाकर इस पद्धति से की गई प्रशंसा से उसके अहं की तुष्टि होती है। व्यक्तिगत रूप से मेरे जीवन पथ पर बहुतेरे पुरुष और युवक मिले हैं लेकिन कोई मेरे गुण पर मुग्ध हुआ है, यह कहने में मैं संयम बरतती हूँ, क्योंकि मैं खुद को प्रशंसा योग्य नहीं समझती। हाँ, यह अवश्य है कि वे लोग मेरी प्रशंसा करने वालों, शुभेच्छा देने वालों, प्रेरणा देने वालों में शामिल हैं। लेकिन उनकी तुलना में नारियों की संख्या कम है। इसलिए यदि कहीं कोई नारी अप्रत्याशित रूप से अपने-आप मेरी अत्यधिक प्रशंसा करती है तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है।
मैं नारी विद्वेषी नहीं हूँ बल्कि जिस नारी को त्यागी, उदार, सहनशील, प्रयोजन होने पर साहसी, स्नेही जैसे गुणों की आख्या दी जाती है, वैसी नारी से मुलाक़ात होने पर उसके सामने मेरा अंतर सदा नतमस्तक रहता है, चाहे वह ख्यात हो, अख्यात हो, साधारण हो या असाधारण हो। नारी सुरक्षा के नाम पर लंबे-चौड़े स्लोगन, भाषण देकर घूमने वाली नेत्री मैं नहीं हूँ। किंतु यदि मैं यह देख या सुन लूँ कि कोई नारी पुरुष द्वारा सचमुच में उत्पीड़ित की जा रही हो तो उस पुरुष को सामाजिक तौर पर कठोर दंड दिलाने के लिए उस समय मैं नारी-नेत्री को प्राणपण से परामर्श देती हूँ। संभव होने पर मुझसे जितना बन पड़े, उतना खुद भी करना चाहती हूँ। ऐसा मैं किसी नेत्री की भूमिका लेकर नहीं करना चाहती। दो-चार दिन हो-हल्ला मचाकर चुप हो जाने वाली ऐसी नेत्रियों को देखकर मन-ही-मन मुझे हँसी आती है।
जुरी के मामले में इस स्थिति ने धीरे-धीरे दूसरा मोड़ ले लिया था। इस तरह दिन भर बार-बार फोन करने, मुझे क्या खाना अच्छा लगता है, लिखने-पढ़ने के अलावा और क्या करती हूँ, इसकी जानकारी लेने, और तो और जहाँ-तहाँ देखने पर मुझसे लिपट कर मेरा चुंबन लेने-जैसी बातों से भीतर-ही-भीतर मुझे विरक्ति होने लगी थी। रसगुल्ला खाना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन दो से ज्यादा होने पर वह गले से नीचे नहीं उतरता। मेरे तईं जुरी की सनक का भी ठीक यही हाल है।
बार-बार फोन करने के उसके उत्पात से हेडफोन को कान से निकाल रखने की भी फुर्सत नहीं मिलती। कभी-कभी शेखर के पास रहने पर ‘कौन इतनी बात करती है’ समझने की चेष्टा करने की प्रक्रिया में उसे भी मुझ पर तरस आता है।
रात होने पर भी जब उसकी बातें खत्म नहीं होतीं तो पास ही लेटा शेखर विरक्ति से आह, उँह करते हुए सो जाते हैं। इसी कारण एक दिन रात के समय मोबाइल ऑफ कर दिया। अगले ही दिन सुबह ही जुरी ने मुझ पर इल्जाम लगाते हुए कहा–‘तुमने फोन क्यों ऑफ कर दिया था? ऐसा न करना, सुन लो। मुझे बड़ा दुख होता है, प्लीज। अगर शेखर दा बुरा भी मानें तो उनसे कह देना कि तुम तो उनके साथ सदा रहती ही हो। यदि मैं थोड़ा समय लेती हूँ तो यह उन्हें क्यों बुरा लगता है?’
मैंने कहा–‘नहीं, बात यह है जुरी कि तुम्हारे मिस्टर यानी बिमान तुम्हारे पास नहीं रहते हैं, इसीलिए तुम समझ नहीं पाती। यदि पास होते तो वे भी पूछते–‘इतनी बात करने वाली मैं कौन हूँ?’
मेरी बात सुनकर उसने उत्तर दिया–‘मैं यह सब नहीं जानती। यदि फिर फोन ऑफ किया तो मैं रात को ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी, तब समझना।’
मैं डर गई। आ भी सकती है। जिस तरह का आचरण है उसका, क्या ठिकाना कि इस तरह का पागलपन कर बैठे। उसकी बात को ध्यान में रखकर मैंने उस रात से मोबाइल का स्वीच ऑफ करना बंद कर दिया और मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना करने लगी–‘हे प्रभु! बिस्तर पर लेटते ही जुरी को नींद आ जाए।’
इस साधारण बात के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना करने पर मुझे लज्जा हो आई।
× × × ×
आज पूरे दिन कल रात की घटना से मै चिंतित हो उठी थी। रात को मोबाइल बज उठा। उस समय बस नींद आने ही वाली थी। इस समय जुरी को छोड़कर और कौन फोन करेगा? बिना नंबर देखे हुए अलस भाव से बोल उठी– ‘हाँ, बोलो जुरी।’
कुछ पल के लिए उधर से कोई आवाज नहीं आई। मैं फिर बोली–‘हेलो, जुरी।’
इस बार नीरवता को भेद कर सिसकी की आवाज आने लगी।
‘क्या हुआ तुम्हें?’
‘नहीं, नहीं बाइदेउ (दीदी)। मैं जुरी नहीं हूँ। मैं…’
फिर वही सिसकी की आवाज। तब जाकर मैंने मोबाइल का स्क्रीन चेक कर देखा कि यह जुरी का फोन नहीं है। कोई अनजान नंबर है। अब मेरी आश्चर्यचकित होने की बारी थी। तुरंत बिस्तर पर उठ बैठी। फोन करनेवाली औरत से मेरी बात जल्दी खत्म नहीं होगी, यह अनुमान करते हुए और शेखर को कुछ पता न चले यह सोचकर मैं दबे पाँव कमरे से बाहर निकली और बरामदे में आकर कुर्सी पर बैठ गई।
‘हाँ, कहिए। आप कौन बोल रही हैं? रो क्यों रही हैं?’
‘बाइदेउ, मैं आपके पड़ोस में ही रहती हूँ। लेकिन आप मुझे पहचान नहीं पाएँगी। आप मेरे ‘उनको’ अच्छी तरह पहचानती हैं, यह मैं जानती हूँ। मैं आपको अच्छी तरह जानती हूँ।’
‘क्या जानती हैं?’
‘सताई गई, पीड़ित नारियों के प्रति आप सहानुभूति रखती हैं। आप ऐसी नारियों की जी-जान से सहायता करती हैं। मेरी बगल में रहने वाली एक ने मुझे आपको फोन कर पूरी बात बताने का परामर्श दिया। मुझे आपकी सहायता चाहिए।’
‘किस तरह की?’
‘आप जिस तरह की कार्रवाई करने का परामर्श दें।’
‘किंतु बात क्या है? खुल कर कहिए।’
‘मेरे पति समलैंगिक पुरुष हैं।’
‘क्या? आपने कैसे जाना?’
‘मैंने अपनी आँखों से देखा है बाइदेउ।’
‘पास-पड़ोस के लोगों से अपने पति और उनके दोस्त के बीच के संबंध के बारे में अफवाह सुन रखी थी। हालाँकि मैंने उन अफवाहों पर विश्वास नहीं किया था। लेकिन उनके आचरण पर धीरे-धीरे मुझे भी संदेह होने लगा। पति के दोस्त की पत्नी भी यह बात जानती हैं। समाज के डर से वे कुछ भी नहीं कहतीं। यहाँ तक कि मेरे पति के दोस्त तरह-तरह की धमकियाँ देकर उनका मुँह बंद रखते हैं। लेकिन मैं यह सह नहीं पाई। एक दिन दोस्त की पत्नी के सहयोग से मन-ही-मन यह सुनने का संकल्प किया कि वे दोनों देर रात तक एक कमरे में घुसकर क्या बातें करते हैं। पता नहीं लोगों से सुनी बातें सच्ची हैं या झूठी। इस तरह एक दिन चुपचाप खिड़की के पल्लों की ओट से भीतर की ओर देखा…’
शायद वह औरत बताने में झिझक रही थी। लेकिन मैं भीतर की बात जानने को उत्सुक हो उठी। क्या देखा होगा? जो देखा होगा, वह भ्रम भी तो हो सकता है। अदालत में वकील द्वारा किसी आसामी से जिरह करने की तर्ज पर मैं भी खोद-खोदकर पूछने लगी। हो सकता है कि मेरे कान पर्दे की ओट में उन दोनों दोस्तों के बीच होनेवाली बातों की रोमांचक कथा सुनने को कुछ ज्यादा ही व्यग्र हो उठे हों। ऐसी कहानियाँ सभी के मन की उत्कंठा बढ़ा देती हैं। यह भी हो सकता है कि बाहर से देखने पर मैं जितनी निर्लिप्त लगती हूँ, उतनी न होऊँ। यह सोचकर मैं खुद को छल नहीं सकी।
‘हाँ, क्या देखा?’
‘कहने से लाज लगती है बाइदेउ। अपनी पत्नी की उपस्थिति में ही एक पुरुष जैसे…। बाइदेउ, वे दोनों नंगे थे। एक दूसरे के गुप्तांगों के मंथन में इतने व्यस्त थे कि…’ औरत की आवज में फिर हकलाहट आ गई।
मैंने पुन: पूछा–‘आप कहती हैं कि आपलोगों की शादी हुए दो माह हुए हैं। इन दो महीनों में उन्होंने आपके साथ…’
‘नहीं बाइदेउ, वे मुझसे दूर-दूर रहते हैं।’
‘क्यों? आप अपनी ओर से कोशिश नहीं करतीं क्या? हो सकता है कि वे किसी बात पर आपसे रंज हों।’
‘बाइदेउ, फूल शैय्या के दिन ही उनके दोस्त उन्हें मेरे पास से बुला ले गए। उनको जाने से किसी तरह मेरे मना करने पर उल्टे मुझसे ही कहा–‘इतने वर्षों पुरानी हमारी दोस्ती के बीच अड़ंगा डालने वाली तुम कौन होती हो? तुमसे तो शादी किए जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए। वह मेरा पच्चीस वर्ष पुराना दोस्त है। आज तक उसकी पत्नी कोई बाधा नहीं दे पाई है, तथापि वह एक संतान का बाप भी बन गया है।’
‘उसके बाद आपने कुछ नहीं पूछा?’
‘कहा था। मैंने जब यह कहा कि इतने वर्ष जब बीत ही गए थे तो फिर रिटायर होने के दो-तीन वर्ष पहले आपने शादी ही क्यों की? दोस्त के साथ ही रह लेते।’
‘मेरी बात सुनकर उन्होंने गुस्से से मेरी ओर देखते हुए कहा था–‘हुँ। रह सकता था। मुझे पता चला कि मुझे लेकर समाज में कानाफूसी हो रही है। घर में मौजूद बूढ़ी माँ ने भी मुझे यह कसम दे दी कि अगर मैं शादी नहीं करता, तो उसके मरने पर उसके शव को स्पर्श तक न करूँ। इसी कारण बाध्य होकर शादी करनी पड़ी। वह भी तुम्हारे जैसी उम्रदराज औरत से। इस समय तुम 20-25 वर्ष की छोकरी नहीं हो। इस तैंतालीस वर्ष की उम्र में कम उम्र वाली नई-नवेली दुल्हन जैसी हरकतें क्यों कर रही हो?’
‘उसके बाद?’
‘उसके बाद और क्या होगा बाइदेउ? मेरी आवाज खो गई थी। मेरे अस्तित्व का इतना अपमान? मेरी जिंदगी से इस तरह खेलने का अधिकार उन्हें किसने दिया है? समाज की गिद्ध दृष्टि से छुटकारा पाने के लिए मुझे बलि का बकरा बना दिया। बड़े भाई के घर तो इतने साल गुजार ही लिए थे, बाकी बचे कुछ साल भी गुजार ही लेती। इस उम्र में शादी होकर मेरा इस कदर अपमान!’
औरत रोते-रोते बेहाल हो गई थी। मैंने उसके अंतर की ज्वाला को महसूस किया। उस समय मैं उसे क्या सांत्वना दूँ, समझ नहीं पा रही थी। फिर भी उससे कहा–‘ठीक है। अभी आप सो जाइए। मैं कल शाम को आपके घर जाऊँगी। इसके बारे में वकील से बात करूँगी कि क्या करना ठीक रहेगा। आपके प्रति अन्याय नहीं होने दूँगी।’
फोन को डिस्कनेक्ट करने के बाद कुछ समय तक जड़वत् बैठी रही और उस दौरान पूरी घटना को फिर से ‘रिकैप’ कर मन में बिठा लिया। इस बात से मुझे बड़ी खीज हुई। समलिंगियों को न्यायालय द्वारा वैध ठहराने की राय दो दिन पहले ही अखबारों में पढ़ी थी और टीवी न्यूज में भी देखा था। उस औरत को वकील के पास जाने को कहा। पता नहीं, अब वकील क्या कहेगा? फिर से उलझन में पड़ गई। मुख्तसर तौर पर ऐसा कुछ किया जाए जिससे उस औरत का सम्मान बचा रहे। इसके साथ ही इस मामले में औरत के पति के दोस्त की पत्नी के घर-संसार का सवाल भी उठता है।
इस इलाके में आकर रहने के समय से ही एक औरत के पति और उससे थोड़ी कम उम्र के पुरुष के साथ उसकी अंतरंग दोस्ती की बात सुनती आई हूँ। दोनों दोस्तों के घर पास-पास हैं। बस एक दीवार का अंतर है। सभी लोग उन्हें एक साथ घूमते-फिरते देखते हैं। एक साथ खाते-पीते देखते हैं और एक ही साथ रहना भी देखते हैं। उस दोस्ती की आड़ में और कुछ भी हो सकता है, मुझे कभी यह संदेह नहीं हुआ था। बहुत से पुरुष दोस्तों या महिला दोस्तों के बीच किसी बात पर अनबन हो जाने के कारण एक दिन उनकी पक्की दोस्ती के बीच पड़ी दरार देखी है। लेकिन इनलोगों के पड़ोसी यह भी बताते हैं कि उनके बीच जम कर तकरार भी होती है। औरत के पति द्वारा कोई कड़वी बात कह देने पर उसका दोस्त औरतों की तरह हरकत करता हुआ कहता है–‘आप लेकिन मुझे इस जिंदगी में कभी मत त्यागिएगा। हमारे बीच कितना भी झगड़ा–तकरार क्यों न हो।’
अगर सुबह में वे लोग पति-पत्नी की भाँति झगड़ा करेंगे, रोना-धोना करेंगे तो फिर शाम को आपस में बात करते हुए बाजार जाने के लिए निकल पड़ेंगे। लोग उनको ‘कप-प्लेट’ भी कहते हैं।
मैं उनकी दोस्ती की बात जानती हूँ। अच्छी, प्रगाढ़ मैत्री के सिवाय उनके बीच किसी दूसरे तरह का संबंध भी हो सकता है, मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।
हवा के साथ बारिश आकर फागुन की शुष्क प्रकृति के घास-वन में जैसे जान डाल देती है, ठीक उसी तरह मेरे मन की स्मृति के मैदान में सूखी पड़ी एक घटना जीवंत हो उठी। कॉलेज के दिनों की बात है। मेरी सहपाठी दो सहेलियों की अंतरंगता की घटना याद आती है। उन सहेलियों के बीच के प्रेम-स्नेह, विश्वास देखकर मैं सोचती थी–‘काश इनकी तरह मेरी भी कोई अच्छी सहेली होती!’
कुछ लड़कियों के साथ वे हॉस्टल में रहती थीं। हॉस्टल के अलग-अलग कमरे में रहने के बावजूद वे एक कमरे में ही अपना समय व्यतीत करतीं। यदि एक बाथरूम में घुसती तो दूसरी उसके लिए तौलिया-गमछा लिए तैयार रहती। यदि एक बाहर जाने के बाद आने में देर करती तो दूसरी अपने चेहरे और आँखों में विषाद भर मेघाच्छन्न आकाश की तरह हो जाती। लौटकर आने के बाद दूसरी अपनी बातों से, प्रेम प्रदर्शन से पहली के चेहरे पर छाए विषाद रूपी मेघों को सूरज की किरणों वाली हँसी से दूर कर देती। उनके बीच के सौहार्द को दोस्ती का विरल नमूना मानकर मैं गहरी साँस लेती, क्योंकि मेरे भाग्य में पड़ने वाली मेरी कुछ दोस्त मेरे प्रति अपनी ईर्ष्या का खुल्लम-खुल्ला इजहार कर जातीं।
एक दिन कॉलेज का क्लास करने के बाद पास ही के कैंटिन में अपनी दो सहपाठियों के साथ चाय पीने बैठी थी। उसी समय मेरे पास बैठी दो सहपाठी सहेलियों ने कहा–‘हॉस्टल सुपरिन्टेंडेंट ने उन दोनों अंतरंग सहेलियों को हॉस्टल से निकाल दिया है।’ मैंने जब इसका कारण पूछा तो वे बोल पड़ीं–‘नियमानुसार उनके कमरे अलग-अलग होने पर भी वे लोग एक-दूसरे से बात करने के बहाने एक ही बिस्तर पर रात बिताती थीं। प्राय: ही ऐसा होते रहने से उनकी अन्य रूममेट परेशान हो उठी थीं। एक दिन उसके कमरे की रूममेट ने हॉस्टल के सुपर को इस बात से अवगत कराया। सुपर ने उनसे कहा कि उन दोनों लड़कियों को रंगे हाथ पकड़े जाने पर ही उनकी बात पर विश्वास करेंगी। योजना के अनुसार एक रात को दो रूममेट नींद का बहाना बनाकर बिस्तर पर पड़ी रहीं। ये दोनों बहुत देर तक बातचीत करने के बाद मसहरी लगाकर उसके भीतर घुस गईं। उस समय सभी लोग चुप्प हो गईं। नींद में होने का बहाना किए एक रूममेट उठकर हाथ-पैर धोने बाथरूम में जाने के बहाने बाहर आकर हॉस्टल के सुपर को बुला लाई। उन दोनों को इसकी तनिक भी भनक नहीं लगी। हॉस्टल सुपर के आदेश पर एक ने कमरे की बत्ती जला दी। मसहरी के भीतर उन दोनों सहेलियों को अर्ध-नग्न, असंयत अवस्था में देखकर हॉस्टल की सुपर अपने दोनों हाथों से आँखें ढककर चिल्ला उठीं–‘ओह नो! माई गॉड! हाउ शेम! छि: छि: छि:। कल से तुमलोग इस हॉस्टल में नहीं रह सकतीं।’
दोनों सहपाठी सहेलियों की बातों पर मुझे ठीक विश्वास नहीं हुआ। कहीं बढ़ा-चढ़ाकर तो नहीं कह रहीं? इस समाज में ऐसे काम और घटनाएँ होती रहती हैं। यह बात भी जानती हूँ। लेकिन कभी-कभी तिल को ताड़ भी बनाया जाता है। इस कारण जब कोई बात या घटना एक मुँह से होकर दूसरे मुँह तक पहुँचती है, उस समय उसका वर्णन करने वाले प्रत्येक वक्ता की कथन-पद्धति के मुताबिक शब्दों और वाक्यों में परिवर्तन होने के कारण असल घटना का विकृत रूप ही सामने आता है। बाद में हॉस्टल सुपर द्वारा उन दोनों सहपाठी सहेलियों को निकालने की बात की भी जानकारी हुई थी। उन दोनों की रूममेट द्वारा कही गई बातों के आधार पर कैंटीन में बैठी सहेलियों द्वारा पूरी बात बताने के बावजूद उस समय उन दोनों से संबंधित घटना की सच्चाई को स्वीकारने में भी लज्जा का अनुभव हो रहा था। इसका कारण यह था कि बहुत से मामलों में अज्ञ, अनभिज्ञ मैं यह सोचती थी या मेरी यह धारणा थी कि यौन संबंध केवल नारी और पुरुष के बीच ही हो सकता है।
इस समय मेरे पड़ोस में रहने वाले दोनों पुरुष दोस्तों को समाज में क्या न क्या कहा जाना मेरे कानों में पड़ा था। उसके बाद भी मुझे विश्वास नहीं होता यदि उनमें से एक की सद्य:विवाहिता पत्नी ने अपने पति के सुख से वंचित होकर उस पर उचित विचार करने का उपाय बताने के लिए अपने ज़बान से यह बात नहीं कही होती। खुद देखे बिना दूसरों के मुँह से सुनी हुई बातों पर मैं सहज ही विश्वास नहीं कर पाती। इसका कारण यह कि अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखने की आड़ में दूसरे सत्य के भी छिपे होने के प्रमाण मिलते हैं।
× × × ×
‘क्या कर रही हो जी? इस रात में बाहर क्यों बैठी हो? और कोई काम नहीं मिला? आदमी फोन पर इस कदर बात करता है क्या?’
पीछे से आकर शेखर ने कहा। वे हरदम की तरह मुझे बात करते देख शायद आज भी यही सोच रहे थे कि मैं उस समय जुरी से ही बात कर रही थी।
आया था। जुरी का फोन आया था। जिस समय वह औरत अपने पति से मिले मानसिक अत्याचार की बात मुझे सुना रही थी उस दौरान मुझे जुरी के दस मिस्ड कॉल मिले थे। मैं जानती थी कि वह मुझ पर बहुत नाराज हो जाएगी। लेकिन कोई उपाय नहीं था। अनिच्छा के बावजूद मैंने उसके हाव-भाव पर भी तुलनात्मक रूप से विचार किया। कॉलेज में पढ़ने वाली उन दोनों सहेलियों की कहानी समानांतर रूप से मेरे मन में डोलती रही। क्या पुरुष के साथ पुरुष की, नारी के साथ नारी की गहरी मैत्री नहीं हो सकती? समाज में ऐसे संबंधों को गिद्ध दृष्टि से देखा जा रहा है। इससे ‘समलिंगी कानून को वैध’ घोषित करने के बाद पूर्व में दबी-छिपी ज़बान में कही जाने वाली बहुत सी बातें अब फटाफट बाहर निकल रही हैं।
लेकिन जुरी? मेरे प्रति उसका इतना आकर्षण क्यों है? बहुत दिनों के बाद पति के घर आने पर भी उसके साथ सुख-दुख की बातें करना बंद करके मुझे क्यों फोन करती रहती है? छि:। कैसी-कैसी बातें सोच रही हूँ। यदि उसके इस अत्यधिक आकर्षण को समाज दूसरी नजरों से देखे तो? ओ माई गॉड! बिना दोष के भारी दंड? लेकिन उसका मतलब क्या है? फिर वही संदेह! मुझे अँधेरी रात के बाद प्रकाश वाला पक्ष हठात् क्यों नहीं दिख रहा?
घड़ी देखी। रात के बारह बज गए थे। ऐसा लग रहा था, जैसे वाल क्लॉक से 12 बजने की टंग टंग टंग टंग की संकेत ध्वनि मेरे हृदय और दिमाग में हथौड़े मार रही हो।
पता नहीं जुरी शायद फिर फोन करे। उसके मान और बच्चों जैसे हठ का क्या भरोसा? यह सोचकर फोन का स्वीच ऑफ कर दिया। कौन जाने शेखर भी अकारण किसी तरह का संदेह कर सकते हैं। जुरी हरदम फोन कर संदेह करने लायक आचरण ही तो किया करती है।
× × × ×
अगले दिन सुबह ग्यारह बजे जुरी मेरे घर उपस्थित हुई। उसके आने पर मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ बल्कि मैं तो अनुमान कर ही रही थी। भीतर-ही-भीतर मैं बहुत बेचैनी महसूस कर रही थी। भाग्य अच्छा था कि उस समय शेखर घर पर नहीं थे, अन्यथा वे भी सोचते कि रात को बारह बजे तक फोन पर बात करने के बाद अपने लड़के-लड़की को छोड़कर जुरी फिर मिलने क्यों आ गई?
‘कल रात तुम किससे बात कर रही थी? तुम तो जानती ही हो कि मेरे फोन कॉल को इस तरह ‘अंडरएस्टिमेट’ करने पर मुझे कितना आघात लगता है?’
‘यदि मैं बात न करूँ तो हो सकता है कि किसी दूसरे को तुम्हारी ही तरह आघात लगे। दिन भर बहुत से परिचित-अपरिचित लोगों के फोन मेरे पास आते रहते हैं।’ अंदर की झुँझलाहट छिपाकर थोड़ा हँसते हुए ही उत्तर दिया।
‘लेकिन तुमने तो कहा था कि रात को मेरे फोन को छोड़कर तुम अन्य किसी व्यक्ति का फोन रिसीव नहीं करती…’
‘किसी का कोई अर्जेंट काम हो तो करना पड़ता है।’ जुरी की तरफ देखे बिना दाल धोते-धोते यह उत्तर देकर कुकर को गैस पर चढ़ा दिया।
जुरी को बैठने को कहा, पर वह नहीं बैठी। इसलिए मैं इधर-उधर की व्यस्तता दिखाती रही। मैं जिधर जाती, जुरी भी मेरे पीछे-पीछे उधर ही चली जाती। पूछूँ कि न पूछूँ इसी दुविधा में अंतत: उससे पूछ ही लिया–‘अच्छा जुरी, तुम मुझसे स्नेह रखती हो इसीलिए मुझे भी तुम अच्छी लगती हो, लेकिन तुम इतनी व्याकुल क्यों रहती हो? इस तरह का आचरण लेकिन…’ मैं चुप रह गई। कहूँ या न कहूँ? सीधे कुछ न कहकर वह प्रसंग छेड़ दिया। जुरी उत्सुकता से मेरा मुँह ताकती रही।
‘जानती हो, कल क्या हुआ था? एक औरत इस मुसीबत में है कि उसका पति समलिंगी है। उसे न्याय चाहिए। ठीक इसी तरह मेरे कॉलेज में पढ़ने के समय दो सहेलियाँ…’
‘इसका मतलब तुम मुझे…?’
मेरी बात पूरी होने के बीच में ही जुरी के प्रश्न करने पर कुछ न कहकर मैंने उसकी आँखों में झाँका। आँखों में भर आई आँसुओं की बूँदों को पोछते हुए जुरी बोल पड़ी–‘मेरी एक दीदी थी। एकदम तुम्हारी तरह। वही हँसी, वही आँखें, वही हृदय और जब तुम मुझे जु…री…कहकर पुकारती हो तो मैं विस्मित हो जाती हूँ। इतनी समानता कैसे हो सकती है। बड़ी प्यारी थी वह। सभी की प्यारी थी। तुम्हारी ही तरह वह भी साहित्य-संस्कृति के विभिन्न कार्यों से जुड़ी थी। उ…स…की…’
जुरी की आवाज काँप रही थी। मैंने अत्यंत विस्मयकारी लज्जा मिश्रित दृष्टि से उसे देखा।
‘जानती हो उसका क्या हुआ? उस दिन गुवाहाटी गई थी। 30 अक्तूबर था। अपनी नौकरी का एप्वाइंटमेंट लेटर लेकर उस दिन रेडियो सेंटर में ज्वाइन करने गई थी। लेकिन उस दिन हुए भयंकर बम ब्लास्ट में उसकी मौत हो गई। उसके मृत्यु-शोक से मैं कभी भी उबर नहीं पाई थी।’
‘तुम्हारा नाम सुनती आई थी। लेकिन तुमसे मुलाकात नहीं हुई थी। जिस दिन तुम्हें देखा, भौंचक रह गई। अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। शायद तुम्हारे भीतर वह अभी भी जीवित है। शायद भगवान ने इसी कारण तुमसे मेरा परिचय होने का सुयोग दिया। उस भयंकर दिन के बाद अप्रत्याशित रूप से जिस दिन तुम्हें अपनी दीदी के रूप में पाया…’
अब मेरे चौंकने की बारी थी।
‘मैं पल-पल तुम्हारी ख़बर लेती हूँ। तुम्हारा फोन न मिलने पर अधीर हो जाती हूँ। कहीं तुम विपत्ति में तो नहीं हो, इस आशंका से तुम्हारे घर चली आती हूँ। लेकिन मैं अपने स्वार्थ में इस कदर अंधी हो गई थी कि तुम क्या सोचोगी, इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया था।’
अब जुरी की सिसकियाँ जोरों की रुलाई में बदल गई थीं। वह अपने होंठों को दाँतों से दबाकर यथासंभव संयत होने की चेष्टा कर रही थी। अब मैं क्या करूँ? छि: क्या कह दिया? लगता है जैसे उसकी निगाहों में मैं कितना गिर गई हूँ। लगता है कि जुरी से मिले असीम दुलार, मान, प्रेम ने ही उस औरत का फोन आने के बाद मुझे अन्य बातें सोचने के लिए भड़काया था। आज की व्यस्त, यांत्रिक दुनिया में रक्त-मांस का संबंध भी कितने दिन टिका रहता है? इसीलिए कहीं किसी से सच्चा प्रेम मिलने पर भी वह संदेह के घेरे में आ जाता है।
कितनी देर तक मौन रही, नहीं कह सकती। गैस पर रखे कुकर की सीटी बजने पर घबरा-सी गई।
‘कुँवली, चलूँ। अत्यधिक आवेग अच्छा नहीं होता। सीख मिली। लेकिन तुम्हारे प्रति जो मेरा प्रेम है, उसे तुम संदेह की दृष्टि से मत देखना, प्लीज…।’ अपना मौन भंग करते हुए जुरी बोली। इधर मैं लज्जा से गड़ी जा रही थी तो उधर हृदय के आवेग का सैलाब अनियंत्रित हो रहा था। जुरी पर मुझे प्यार हो आया। इतने दिनों का विरक्ति-बोध गायब हो गया। उसके गालों पर ढलक आए आँसुओं को पोंछा। अचानक मैं उसकी खोई हुई ‘दीदी’ जैसी लगने लगी। पहली बार उसके कपाल पर हल्का चुंबन दिया। यह देखकर आवेग में सिसकती हुई उसने मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया फिर मेरे पैर छूकर मुझे प्रणाम किया। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी तरह मेरी भी एक बहन थी जिससे मैं वर्षों से जुदा थी।
मेरा दुलार पाकर जुरी मुस्कुरा उठी और स्नेहिल नेत्रों से मेरी ओर देखकर बोली–‘भूलकर भी नहीं सोचना। विद्या कसम, सच कह रही हूँ–मैं समलिंगी नहीं हूँ।’
हिंदी अनुवाद : विजय कुमार यादव
Image : The Reader (Marie Fantin Latour, the Artist_s Sister)
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Artist : Henri Fantin-Latour
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