किसी दिन अचानक
- 1 December, 2023
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- 1 December, 2023
किसी दिन अचानक
अपने आसपास के नजदीकी लोगों के बदलते हावभाव भाँपकर मौन हो जातीं वे। बाहरी व अंदरूनी जीवन यानी दो अलग-अलग सच्चाइयाँ। क्या सचमुच इतनी संकरी, उथली और अँधेरे से भरी गुफा की तरह रहस्यमयी है अंतसलोक जिसके आर-पार ठीक से दिख ही नहीं रहा कुछ भी। इस सिस्टम की सच्चाई को बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत कितने कायदे से कितनी परतों में दाब-ढाँककर आमजन से छिपाया जाता रहा है सालों से। जब-जब उसने उच्चाधिकारियों के सामने मुँह खोलकर सच्चाई उगलनी चाही, हर बार उसे डरा-धमकाकर आगाह कराया जाता–‘थोड़े दिन और सह लो। जब इतने साल संघर्ष करके सबसे विरोध करके भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो कुछ दिन और चुप नहीं रह सकती? अंदर से ज्वालामुखी की नीली लपटें उसके वजूद को धू-धू करके जलाने पर आमादा थी, जिससे बचने के लिए वह विशाल समंदर देखने निकल पड़ी।
समयनुमा अथाह समंदर अनादि, अनंत, अछोर, अबूझ, अगम्य और अप्रत्याशित हादसों से भरपूर कुदरत की खूबसूरत रचना। कुदरत के अज्ञात अनिश्चित कालखंड की बँधी डोर से खिंचते हुए यहाँ-वहाँ फिसलती लहरों की तरह नीतिका खुद को यूँ ही ताजिंदगी मूल धारा से किनारे फिकते देखती रही। उसकी इस बीहड़ यात्रा में कई सहयात्री टकराए मगर तभी तक, जब तक गतिवान गाड़ी चलती रही। गाड़ी के रुकते ही तमाम सहयात्री अपनी-अपनी तयशुदा मंजिल की तरफ रुख़सत कर जाते, ठीक उसी तरह वह भी अपनी छोटी-सी गृहस्थी सँभालती-सहेजती रह गई इस पार, सधे कदमों से धूप भरे आकाश का सफर तय करते हुए आहिस्ते-आहिस्ते लौटना पड़ा घर।
पक गई फसल को जैसे मशीन में डालकर गेहूँ और भूसा को अलग-अलग किया जाता, ठीक उसी तरह वह अपने जीवन को दो हिस्सों में बाँटकर देखने लगी। गेहूँ और भूसे के दोनों तरफ लगे बड़े-बड़े ढेर देखकर वह बचपन के हरे-भरे खेत-खलिहानों में खो गई जहाँ टटरी पर बैठकर वह गोल-गोल गेहूँ की गठरियों पर कूदती-फुदकती रहतीं। ऐसा करने में उसे खूब मज़ा आता और फ्रॉक में जगह-जगह काँटे लग जाते। घर आते ही माँ की डाँट–तुझे वहाँ जाकर टटरी पर बैठने की जरूरत क्या थी? बिखरे बालों की चोटी बनाती माँ उसके सिर पर उलझे बालों को जोर-जोर से सुलझातीं, ठीक उसी तरह वह अपने जीवन की उलझनों को तार-तार करके सुलझाकर देखने की कोशिश करने लगी।
नीतिका का मन पढ़ाई में कम, फैशन में ज्यादा लगता। चंचल हिरणी जैसी तेज चाल से वह समूची दुनिया को नाप लेने का हौसला पाल बैठी। आँखों में मॉडल बनने की हसरत लिए वह रंगीन तितलियों की तरह हरदम उड़ती रहती, लेकिन घर के विपरीत हालातों में उसके सपनों को मुकम्मल जमीन मयस्सर होना मुमकिन ही नहीं था। अब इसे संजोग कहें या मनमानी जिद कि पड़ोसन की बेटी नव्या संग अचानक एक दिन वह मुंबई निकल आई–‘एक बार तो मौका ले लूँ अपना भाग्य आजमाने का, बाद में जैसा आपलोग कहें, करेंगे’–बाद में अपने घर पर खबर कर दी, लेकिन…नहीं, नहीं, इस प्रसंग को वह किसी भी तरह याद ही नहीं करना चाहती। क्या-क्या नहीं घटा उसके साथ? उन सब घटनाओं, हादसों या अनकही तकलीफों को याद करके मन खट्टा कतई नहीं करना चाहती वह। दर्द, गुस्सा, आक्रोश और तनाव की अतिशयता से रातों की नींद उड़ गई।
नव्या ने जिस राज से उससे मिलवाया, वह अनजानी-अबूझ रास्तों पर रोजाना ले जाता, जहाँ से वह अपना चमचमाता करियर देख सकती थी, लेकिन केवल सपने में क्योंकि वहाँ तक पहुँच पाने की कोई कारगर तरकीब उसे सूझी ही नहीं। राज ने अपनी तरफ से भरसक कोशिश की मगर यहाँ इस नकली दुनिया में पेट भरने लायक काम मिलना मुश्किल था। साल भर के भीतर ही जुटाए पैसे खर्च होने लगे तो घर लौटने की सोचा। इसी दरम्यान एक दिन राज ने उसके सामने सीधे-सीधे पूछा–‘हम दोनों पेट भरने लायक तो जुगाड़ कर ही लेते हैं, क्यों न यहीं रहकर कुछ और करने की सोचते हैं।’ नीतिका के पास न कहने का विकल्प बचा ही कहाँ था? बापू ने फोन पर साफ लहज़े में अपना फरमान सुना दिया–‘तू वहाँ रहकर चाहे जो करे, मरे-खपे, पर हमारी देहरी पर राज के संग आकर हमारी नाक मत कटा।’ माँ से जरूर उसकी जब कभी फोन पर बात हो जाती। मन नहीं मानता या घर से मिले निस्वार्थ अपनेपन की भूख उसे परेशान करने लगती तो माँ की बातें सुनकर भड़भड़ाता मन शांत हो जाता–‘तू ये सब करना छोड़कर बी.एड. कर ले नीतिका। स्कूल में सम्मानित अध्यापिका की नौकरी करेगी तो रोज-रोज के झमेले खत्म हो जाएँगे। फिर तुम दोनों तबादला करवाकर यहीं आसपास लौट आना।’
बस, उस दिन माँ की सीख को गाँठ में बाँध लिया उसने। दिन भर की भागदौड़ के बाद देर रात जगकर पढ़ाई करती और पहले ही प्रयास में बी.एड. पास कर लिया। कुछ महीनों बाद ही सरकारी स्कूल में नियुक्तिपत्र मुट्ठी में दबाए माँ से मिलने चली आई। कितने सालों बाद माँ से मिलकर आँखें नम हो गईं–‘अम्मा, दुबरा गई हो।’
‘तूने कम दुख दिए हैं मुझे, कठकलेजा है तेरा।’ माँ ने भरी आँखों से देखा उसे।
गर्दन नवाए पापा के कमरे में जाकर भरे गले से इतना भर बोल पाई–‘माफ करना पापा। गलती हुई हमसे, आपका दिल दुखाया। नौकरी लगी है सरकारी स्कूल में…।’
टुकड़ों-टुकड़ों में जोड़कर कुछ बताना चाहा मगर भरे गले से ज्यादा बोलते नहीं बना। वे भी कुछ नहीं बोले, अखबार में आँखें गड़ाए, गर्दन नवाए बैठे रहे चुपचाप, सो बिना कुछ कहे-सुने लौट आई, उदासी को सीने में समेटे हुए।
एक समय बाद सारे फितूर हवा हो जाते हैं। कुछ कर गुजरने की समुद्री तूफान की तरह हलचलें अपने आप थिर हो जातीं और ठहरे पानी में सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता, खुद का चेहरा भी और औरों का भी।
नीतिका अपने घर की देहरी जरूर छोड़ आई मगर मन है कि वहीं ठहरा हुआ, उसी दरवाजे पर, जहाँ से उसके सपनों ने उड़ान भरनी शुरू की। उसकी उम्मीदें उसी तरह वापस धरती पर बैठती गईं, जैसे हवा में उड़ती रेत के कण वापस धरती पर लोटने लगते। एक उम्र बीतने के बाद उसके सपने थककर चूर हो गए सो वह किनारे बैठकर चुपचाप सपनों से खाली आँखों से विगत के अक्स देखती रही, जब वह नौकरी ज्वाइन करने कॉलेज आई थी–
‘तो, ओबीसी से हो आप?’
‘मेरी शिक्षा-दीक्षा सामान्य संवर्ग से हुई, शादी के बाद ओबीसी में…।’
‘देखिए, ये लफड़े वाली बात हो गई मैडम, ज्वाइनिंग समय एक-एक चीज़ देखी-परखी जाती है, हमारा मैनेजमेंट बहुत सख्त है…।’ बाबू ने तरेरती नजरों से उसे नापने की कोशिश की।
‘मतलब? हमारा चयन तो सामान्य संवर्ग से हुआ है तो नो प्राब्लम…।’ उसने अपने बिखरे भरोसे को समेटते हुए ऊँची आवाज में प्रतिप्रश्न किया।
‘तो उससे क्या?’ बाबू के बगल में बैठी लड़की ने इशारे से नीतिका को अपने पास बुलाकर धीमी आवाज में कहा–‘मैडम, आप केवल पाँच हज़ार दे दो, बाकी का मामला हम निबटा देंगे, आप चिंता न करो। यही है यहाँ का सिस्टम वरना ये लोग महीनों ज्वाइनिंग लटका देंगे और आपकी सीनियरटी या तनखा का नुकसान होगा अलग से। परेशान न हों, लीजिए, पानी पीजिए।’
धीरे-धीरे इस महकमे की एक-एक बात पता चलती गई। शिक्षा विभाग की दीवारों को तो नीचे से लेकर ऊपर तक सभी जगह भ्रष्टाचार की दीमक ने बुरी तरह चाट लिया है। वह कायदे से अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती मगर कार्यालय के हर रुटीन काम में बाबू कोई-न-कोई अड़ंगा जरूर लगा देता। जब कभी वह छुट्टी के लिए आवेदन करती, वह तुनककर जवाब देता–‘आपने सीसीएल के लिए एप्लाई किया है, वो भी 6 महीनों के लिए एक साथ, संभव ही नहीं है। हम तो केवल दो महीने की छुट्टी मंजूर कर सकते हैं, बाकी की निरस्त। ऑडिटर तमाम ऑब्जेक्शन लगा देते सो हम ऐसा जोखिम नहीं उठा सकते, आपको नहीं पता क्या?’
‘रामबाबू जी’, उसने मुँह खोलकर दबंगई से अपनी बात जोरदार तरीके से रखी–‘शादी के 5 साल बाद बच्चा हुआ है, और हमें इसकी सख्त जरूरत है। आप कहेंगे, ये आपकी समस्या है, मगर ये जो मिड-डे मील स्कीम चल रही है, इसकी हकीकत आप नहीं जानते क्या? गिनती के कितने बच्चे खाना खाते हैं, मुश्किल से 5 मगर यहाँ छात्राओं की उपस्थिति संख्या तो सौ परसेंट दिखाई जाती, ये सब सही चल रहा है क्या? तो ये कानून की पट्टी हमें मत पढ़ाइए आप। मिड-डे मील का फंड कितना आता है, जानते हो न? या मैं बताऊँ?’ न चाहते हुए भी आवाज तल्ख हो गई।
नीतिका की बातों को सुनी-अनसुनी करता रामबाबू फोन लेकर बाहर निकल गया। पास बैठी लड़की ने उसकी तरफ भेद भरी मुस्कराहट से देखा, मगर बोली कुछ नहीं। घंटी बजते ही वह ऊपर क्लास लेने पहुँच सोचने लगती–‘आखिर मेरी गलती क्या? सच बोलना, मेहनत से एक-एक बच्चे के पास जाकर पढ़ाना और जो बच्चे कमजोर हों, उन्हें अलग से पढ़ाना लेकिन आजकल इतनी मेहनत करता ही कौन है? पर, मेरा मन तो बच्चों को पढ़ाने में ही रमता है।’
नौकरी करने आईं नई लड़कियों को ध्यान से देखती–गाढ़े मेकअप में रंगीन साडि़याँ लहरातीं ये टीचर कम, मॉडल ज्यादा लगतीं। उनकी दिलचस्पी पढ़ाने से इतर बातों में ज्यादा। मौका मिलते ही प्रिंसिपल की चापलूसी करने में वे हमेशा सौ कदम आगे बढ़-चढ़कर प्रशस्ति गायन करने लगतीं–‘मैम, आपने पीएच.डी. किस टॉपिक पर की है, यू आर रियली टैलेंटेड मैम…आप पर ये ऑफ व्हाइट कलर की साड़ी खूब फब रही है। उस दिन आपने फेयरवैल में छोटे मोतियों का जो सैट पहना था, बिल्कुल क्लासिक लुक था। मैम, सर भी पढ़ाते हैं न?’
‘नहीं, वे तो डॉक्टर हैं, हमेशा अपने मरीजों से घिरे, परी भी उनके नक्शे-कदम पर मेडिकल कर रही है।’ अपने बिखरे बालों को पॉनीटेल में समेटते हुए वे बोलती रहीं।
‘मैम, एक खबर देनी है आपको, वे जो सीनियर नीतिका मैम हैं न, हर बात में सौ अड़ंगे लगाने लगतीं। जिस किसी पर बेवजह चिल्लाने लगतीं। बात-बात पर अपना ज्ञान झाड़ने लगतीं। कल हमसे स्टाफ रूम में ही उलझ पड़ी–‘तुम्हें केवल दो ही क्लास दी गईं, जबकि तुम तो इतनी ज्यादा जूनियर हो मुझसे।’ ये तो गलत बात है। मैं शिकायत करूँगी तो मैंने रिक्वेस्ट किया, ‘मैम, मेरा बच्चा छोटा है अभी, इसलिए थोड़ा जल्दी जाना पड़ता’ तो वे पलटकर चिल्लाने लगीं–‘तो मेरा बेटा भी तो छोटा है, अभी 10वीं में है’ जबकि मेरा बच्चा मात्र दो साल का।’
अतिशय विनम्रता दर्शाती टोन सुनकर प्रिंसिपल थोड़ा पिघलीं मगर तेज आवाज में बोलने लगीं–‘देखती हूँ, सीनियर होंगी, ठीक है, मगर इसका क्या मतलब? ये फैसला लेना मेरा काम है या उनका? बहुत कुंठित और निगेटिव सोच वाली हैं ये। समय पर आतीं भी नहीं, हर रोज इनके सौ बहाने कौन सुनता रहे? मुफ्त की तनखा थोड़े ही देती है सरकार?’ कहते हुए वे तेजी से अपने कक्ष की तरफ मुड़ी और चपरासी को बुलाने के लिए घंटी बजाई।
‘नीतिका मैडम को बुलाकर लाइए।’
‘जी…कहते हुए वह सर्र से निकलकर बरामदा पार करते हुए तेजी से ऊपर की सीढि़याँ चढ़ता हुआ कक्ष संख्या 12 की तरफ मुड़ा जहाँ नीतिका बच्चों से कुछ ब्लैकबोर्ड पर लिखवा रही थीं।
‘प्रिंसिपल मैम ने बुलाया है आपको’, क्लास के बाहर से ही बोल पड़ा वह।
‘ठीक है, क्लास खत्म करके आते हैं, हाँ तो बच्चों…’ वे अपनी ही धुन में बच्चों को लोककथा के जरिये किसी पौराणिक प्रसंग सुनाने में डूबी हुई थीं। तभी चापलूस टोली में से किसी ने मैम को फोन कर दिया–‘मैम, नीतिका मैम ने आपकी बात नहीं मानी।’
‘क्या’, तब तक चपरासी हाजिर हो गया–‘आईं नहीं वे अब तक?’
‘अरे, अभी-के-अभी बुलाओ उन्हें, बड़ी महारानी बनी बैठी है…।’ अचानक उनका अहं फुफकारने लगा, गुस्सा सातवें आसमान पर।
‘क्या समझ रखा है आपने इस स्कूल को? अनुशासन नाम की कोई चीज़ होती है या नही?’ नीतिका के आते ही बरस पड़ीं वे।
‘क्यों मतलब?’ विनम्रता की कोशिश में उनकी आवाज और ज्यादा ऊँची होती गई।
‘अगर किसी जरूरी काम से बुलाया जाए तो हायर अथॉरिटी की अवज्ञा करने का हक किसने दिया आपको?’ बिना जवाब सुने फिर से बोलने लगीं–‘देखिए, आपको सोच-समझकर क्लास आवंटित की हैं मैंने। गंभीरता से सोचिए, आप इतनी बुजुर्ग हैं, और आपको 9 से 3 तो विद्यालय में ही रहना है तो क्लास में ही बैठे रहने से क्या परेशानी है आपको? लिसन, सारी टीचर्स को इतनी देर बैठना पड़ता है। सुना है, आप जूनियर टीचर्स को भड़काती रहती हैं, बोलिए, आप चुप क्यों हैं?’ एक साथ इतने इल्जाम सुनकर उनका सीना धौंकनी की तरह जोर-जोर से दहकने लगा। लगा कि वे चक्कर खाकर गिर जाएँगी। चाहकर भी तुरंत जबाव देते नहीं बना। सिर्फ इतना भर कहा–‘उन्हें भी सीनियर्स का लिहाज़ तो करना चाहिए न? गलत बात है ये कि मुझे जानबूझकर दूर भेजा जाता है।’
एक-एक शब्द नाप-तौलकर बोलती रहीं वे–‘सुनिए, मैं उनसे और भी दूसरे काम लेती हूँ, सबके साथ बराबरी करती हूँ मैं। वैसे, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है आपकी सेहत पर?’
‘फ़र्क़ पड़ता है, इसलिए ऐसा सोच-समझकर कहा है। मुझे डायबिटीज है, बीपी हाई रहता है जबकि जूनियर्स अभी यंग हैं सो वे बाहर दूर जाकर काम कर सकती हैं, जबकि हमारी उम्र ढलान पर है, हम इतनी दूर की यात्रा करने लायक नहीं रहे अब।’
‘तो मेडिकल लीव लेकर घर पर बैठिए, किसने रोका है?’ आवाज में दंभ और अहं मिल गए।
‘ठीक है’, कहते हुए नीतिका बरामदा पार करते हुए धीरे-धीरे ऊपर सीढि़यों पर चढ़ते हुए हाँफने लगीं। सामने से जूनियर टीचर्स को फल, फूल और शॉपिंग बैग्स लाते हुए देखकर सोचा, ‘आज किसका जन्मदिन है या कौन आ रहा है, ये तीनों शॉपिंग मॉल जाने की बातें स्टाफ रूम में कर तो रही थीं। इनके लिए घूमने-फिरने, मौज-मस्ती के लिए खुला नीला आसमान और मुझे इस कदर जलील करने के लिए ऐसे पक्षपाती प्रिंसिपल मिलते हैं। हम जैसे मेहनती अध्यापकों के हिस्से सिर्फ और सिर्फ बच्चे की शिक्षा मायने रखती है। ओफ, इतना मानसिक उत्पीड़न, इतनी घुटन…’ सोचकर आँखें भर आईं और उस दिन पढ़ाने की इच्छा जाती रही।
पिछले महीने 26 जनवरी के कार्यक्रम पर यही सब लड़कियाँ सज-धजकर आईं तो नीतिका ने हँसते हुए पूछा–‘आज तो आप सब बढ़िया तैयारी से भाषण देने वाली होंगी?’
‘नो मैम, भाषण देना हमें नहीं आता। हम तो बस बुके से स्वागत करेंगे मुख्य अतिथि, विधायक जी एवं हमारे प्रबंधक महोदय सर का।’
थोड़ी देर बाद किसी ने नीतिका से इशारे से पूछा–‘बोलिएगा आप?’ तो ऐन मौके पर प्रिंसिपल ने चिढ़ते हुए कहा–‘अरे, जाने दीजिए, इन्हें छोड़ दीजिए। किसी और को उठाओ।’ सुनकर कचोट-सी लगी ‘तो क्या नीतिका जैसी दो तीन सीनियर टीचर सिर्फ मूकदर्शक बनने के लिए अभिशप्त हैं?’ जैसे ही एक सीनियर टीचर ने माइक पकड़कर देशभक्तिपूर्ण गीत सुनाया तो चापलूस टीम की लड़की ने उन्हें तरेरकर देखा मगर कुछ बोलते नहीं बना। प्रबंधक कमेटी के अलावा जिला विद्यालय निरीक्षक भी उस समय मंच पर विराजमान थे जिनके स्वागत-सत्कार के लिए कई युवा लड़कियाँ सुबह से जुटी हुई थीं। जिला विद्यालय निरीक्षक ने नीतिका को देखकर प्रणाम किया–‘और मैडम, कैसी हैं आप? …ठीक हैं।’
‘पुराने स्कूल के बच्चे आपको बहुत याद करते हैं। पिछली बार आपको स्टेट लेबल का बेस्ट टीचर अवार्ड मिला था, तो इस बार आप अगले लेबल पर जाने की कोशिश करेंगीं?’
जबाव में वे मुस्कुराकर रह गईं।
स्टाफ रूम में सारी टीचर्स अपने-अपने घर की रामकहानी लेकर बैठ जातीं। कुछ नई टीचर किसी-न-किसी नई रेसिपी तैयार करके लाती तो कुछ अपनी शॉपिंग की बातें साझा करतीं तो कुछ अपने दोस्तों की। नीतिका अक्सर बच्चों की प्रोग्रेस की चर्चा कर रही होतीं–‘मेरे लिए बच्चों का नियम से स्कूल आना सबसे ज्यादा जरूरी है। उस दिन फ़ातिमा के घर जाकर उनके माँ-बाप को समझाना पड़ा, उन्होंने उसे स्कूल आने से मना कर दिया था–इसके स्कूल जाने से हमें रोटी बनाकर कौन देगा? फिर मैंने फ़ातिमा को समझाया कि तुम सुबह उठकर पहले खाना बनाकर रख दो, उसके बाद स्कूल आओ। तब जाकर उसने नियम से स्कूल आना शुरू किया।’
‘अरे, आपको उसके घर जाने की क्या जरूरत थी?’ जूनियर टीचर ने आश्चर्य से पूछा।
‘उसके पास किताबें नहीं थीं, उसकी गरीबी हालत में अगर मुझे अपनी तनखा से भी किताबें खरीदवाना पड़े तो मैं हज़ार-दो हज़ार खर्च कर देती हूँ, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?’ वहाँ बैठी अन्य अध्यापिकाओं ने भी उसे आश्चर्य से देखा।
‘आपको तो पता ही होगा मैम, कक्षा 6 से 8 तक की किताबें मुफ्त में मिलती हैं मगर वे भी सबको नहीं मिल पाती। हमारे पास बहुत से बच्चों ने किताबें न मिलने की शिकायत की है।’
‘मैम, मुझसे भी कुछ बच्चों ने शिकायत की थी। मैंने पता किया तो पता चला कि गरीब बच्चों को भी पचीस रुपये देने पड़ते हैं।’ दबी जुबान से उन्होंने सच बताने की कोशिश की।
‘जबकि ये किेताबें छात्रों के नाम गिनकर मुफ्त में बाँटने के लिए आती हैं। बुकसेलर्स से 20 प्रतिशत की छूट अलग से।’ अभी उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई कि बाहर शोर सुनाई पड़ा। शायद किसी टीचर की जन्मदिन पार्टी का केक कटने लगा, तो सब बाहर निकल आईं। नीतिका को देखते ही बाबू ने उनसे पूछा–‘नीतिका मैम, आपने अभी तक हज़ार रुपये नहीं दिए। सब टीचर्स ने जमा कर दिए हैं…।’
‘परंतु किसलिए?’ बगल से गुजर रहे बाबू ने एक बार फिर से तरेरती नजरों से उसे घूरा–‘आपको यहाँ से सैलरी मिलती है न, तो कुछ विद्यालय की बेहतरी के लिए भी सोचना चाहिए न? इमारत जर्जर हो रही है, रंगाई-पुताई करवानी है, फोटोस्टेट करवाना पड़ता है तो सोचो, आखिर हम सरकार से मिलने वाले फंड का कब तक इंतजार करते रहें? आपसे कम वेतन लेने वाली टीचर्स ने कब के पैसे दे दिए, मगर आपको हर बार रिमाइंड करवाना पड़ता है…।’
‘तो इसकी रसीद भी देंगे रामबाबू?’
‘बिल्कुल देंगे। लीजिए, इस कागज पर दस्तखत कर दीजिए।’ कागज पढ़ने लगी नीतिका–सुश्री ने स्वेच्छा से विद्यालय के पुनरूद्धार हेतु अपनी तरफ से रुपये 1000/ सहर्ष प्रदान किए। पैसे देते हुए उसके होंठ टेढ़े होते गए मगर अकेले विरोध करके भी क्या होगा? सब उन्हें कंजूस समझेंगे जबकि बात कंजूसी की नहीं, नियमों की अवहेलना की है। हकीकत ये है कि इन सब पैसों का दुरुपयोग किया जा रहा है, ये बात सब जानते हैं मगर बोलता कोई नहीं।
मन में आया, कह दें, ये जो हमसे हर महीने स्वेच्छा से हज़ार रुपये वसूलती हो, वे स्वेच्छा से नहीं, मजबूरन देने पड़ते हमें वरना बाबू धमकाने लगते–‘तुम्हारे सारे काम रुकवा दिए जाएँगे। चयन वेतनमान नहीं देंगे, 60 से 62 साल का विकल्प नहीं भरने देंगे, प्रोन्नत वेतनमान में सौ अड़ंगे लगाएँगे यानी उसे परेशान करके दर्जनों हथकंडे।’ नीचे से ऊपर तक पूरा चैनल ही भ्रष्ट हो तो किस तरह कोई अकेला कब तक लड़ सकता है? इस लौह सिस्टम का कुछ न बिगड़ेगा बल्कि हथौड़ी मारने वाले के हाथ ही थक जाएँगे, ये सारी बातें वह कई बार अपने पति व बेटे को बताती रही, मगर वे भी मूक श्रोता बने सुनते रहे, किसी बेजान स्टैच्यू की तरह।
कभी-कभी लगता, जैसे आसपास के तमाम लोगों के कान, आँख या मुँह ही ठीक से काम नहीं कर रहे यानी सच्चाई को न तो कोई देखना चाहता, न सुनना चाहता और न बोलना चाहता। नई टीचर ज्वाइन करने आई तो उससे सीधे-सीधे दो लाख रुपये माँग लिए गए। उसने देने से आनाकानी की तो महीनों यहाँ-वहाँ दौड़ाते रहते–अभी प्रबंधक बाहर गए हैं, मैंबर्स नहीं हैं, फलाना कागज तैयार करवाकर लाओ, तब अगले महीने देखेंगे। हर दिन कोई नया बहाना गढ़ लेते। बाद में किसी बिचौलिए ने एक लाख में समझौता करवाकर ज्वाइनिंग करवाई वरना पोस्टिंग के बाद तुरंत ज्वाइन न कराने से उसके वेतन, वरिष्ठता या अन्य चीज़ों का नुकसान होने लगता। कौन मुँह लगे इन बाबुओं से, इन झंझटों-झमेले से बचने हेतु सभी चुपचाप पैसे देकर काम करवाकर निकल जाते। तर्क-वितर्क से बचना दिमागी सुकून के लिए जरूरी है, सच की नंगी राह पर बिना किसी सपोर्ट सिस्टम के अकेले नंगे पैर चलने में कितने जोखिम हैं, सोचकर सभी शॉर्टकट पकड़ इस लौह सिस्टम पर हथौड़ा ठोकने से बच निकलने में ही अपनी भलाई समझ लेते।
साल भर पहले रीता मैडम के साथ भी ऐसा ही हुआ था। घुट-घुटकर जीने वाली रीता मैडम की कहानी की याद अनायास आने लगी जिनके साथ प्रबंधतंत्र, प्रिंसिपल और विधायक तीनों ने मिलकर इस कदर अपमानित किया, जिस मानसिक चोट से वे कभी नहीं उबर पाईं। ये कैसा अलिखित नियम है कि सीनियर को न समय पर प्रमोशन दिया गया, न यथेष्ट मान-सम्मान जिसकी वे हकदार थीं। हर बार वही होता, एप्रोच और पैसों का खेल खेलकर अपनी पसंद के ऐसे रबड़ स्टैम्प वाले को प्रिंसिपल बनाकर बिठा दिया जाता जिससे सबके हित सध सकें। अन्याय और पक्षपात देखकर उन्हें घुट-घुटकर चुप्पी साधे जीने के लिए मजबूर किया जाता।
एक बार रीता मैडम ने वाजिब सवाल उठाकर प्रबंधन कमेटी और प्रिंसिपल को घेरते हुए सवाल उठाया था–‘इस तरह मनमाने ढंग से पैसे ऐंठने का खेल मत खेलिए आपलोग। हमारे पति एयरफोर्स से रिटायर्ड फ़ौजी अफसर हैं। मीडिया में हमारे लिंक हैं। एक बार आप सबके खिलाफ सुबूत इकट्ठा हो गए तो ऊपर कहाँ तक शिकायत जा सकती है, इसका अंदाज़ा नहीं है आपको?’ सुनकर करेंट-सा दौड़ गया सबके तन-बदन पर और प्रिंसिपल ने उनसे दुश्मनी बाँध ली।
कहासुनी के अगले दिन मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए उनके पति मैडम को लेने स्कूल गेट पर जा पहुँचे तो उन्हें जलील करके स्कूल से बाहर करवा दिया–‘आपको पता है न कि ये गर्ल्स स्कूल है और आप हाफपैंट पहनकर यहाँ आ गए। यहाँ ऐरे-गैरे पुरुषों का प्रवेश वर्जित है। अभी और इसी वक्त सीधे अपने घर जाइए वरना हम केस कर देंगे आपके खिलाफ कि आपके आने से गर्ल्स स्कूल का अनुशासन भंग होता है…’ उनकी मुँहलगी टीचर्स ने उनका संदेश सुनाया।
‘और जो शिक्षक संघ के तमाम पदाधिकारी यहाँ बेधड़क चले आते हैं, तो उनके लिए क्यों कोई प्रतिबंध नहीं है, वह भी तो नियम विरुद्ध चल रहीं गतिविधियाँ हैं।’ स्वत:स्फूर्त आवेग से भरी तेज आवाज नीतिका के गले से निकली।
‘चलिए, आप अपनी क्लास में जाइए, बीच में हस्तक्षेप मत करें। नो मोर आरगुमेंट्स।’ अचानक वे खटखट करते हुए प्रकट हो गईं वहीं।
उस दिन नीतिका को बहुत तेज गुस्सा आया, सो वह देर तक बड़बड़ाती रही–‘कितनों के नाम गिनाऊँ जो यहाँ आए दिन आते रहते, जिनके लिए चाय पानी, नाश्ते आदि का इंतजाम हमसे वसूले पैसों से पूरा किया जाता, आखिर किसके लिए, क्यों होता है ऐसा?’ अंदर भरा जहर थूककर बाहर फेंका लेकिन टीस गहराती रही।
उस दिन तेज गुस्से और आक्रोश में स्कूटी चलाते हुए पथरीले रास्तों पर चलते हुए वह बैलेंस न बना सकी और सीधे सड़क पर स्कूटी संग धड़ाम से गिर पड़ी। पूरे तीन महीने पाँव में प्लास्टर चढ़ा रहा। चौथे महीने जब स्कूूल कैंपस छड़ी लेकर आना पड़ा। ठीक से चला नहीं जा रहा था, सो प्रिंसिपल से पूरी विनम्रता से अनुरोध किया–‘मैं नीचे ही क्लास ले लूँगी। बच्चों के बोर्ड एक्जाम हैं, उनका छूटा कोर्स पूरा कराना है, बच्चों की चिंता में परेशान हो रही थी, इसलिए चली आई।’
बिना जवाब दिए वे अपने कक्ष में चली गईं मगर उनकी आवाजें उसे साफ-साफ सुनाई दीं।
‘लिसन, उनसे कहो कि वे ऊपर ही चढ़कर क्लास लें। हम नीचे क्लास नहीं लगाने देंगे।’ सुनकर सकते में आ गई वह। कोई इतना कठोर और निर्मम हो सकता है, किसी तरह चपरासी को आवाज लगाई–‘हाजिरी रजिस्टर को यहीं ला देना। हमें चलने में दर्द हो रहा है। दस्तखत करने हैं।’
‘ऐसा है, उनको यहीं आकर दस्तखत करने पड़ेंगे। न आ पाएँ तो उनसे कह दो कि फिर से मेडिकल लीव ले लें।’ गर्म कोलतार की तरह कान में पड़ी ये कर्कश आवाज जिसे सुनकर तन-मन दोनों धू-धू कर जलने लगे।
ओफ, कोई इस तरह 55 साल से ऊपर की सीनियर की ऐसे लफ्जों में बेइज्जती कर सकता है? इतना बेरहम कोई क्यूँ कर होगा? मन मारकर किसी बच्चे का हाथ पकड़कर बमुश्किल ऊपर चढ़कर अभी उन्होंने पढ़ाना शुरू ही किया था कि नीचे से आवाजें सुनाई दीं–‘लल्लन, वहाँ ऊपर कुर्सी मेज़ मत ले जाना।’
‘क्या इस तरह के कुछ लिखित में आदेश निर्गत हुए हैं?’ अब नीतिका तैश में आ गई।
सकपकाकर रह गया चपरासी और गर्दन नवाए नीचे उतर गया। उस दिन उन्होंने बच्चों की बेंच पर बैठकर क्लास ली और प्रबंधन को खत लिखकर अपनी आपबीती लिखी–नीचे वाशरूम की व्यवस्था है, जबकि क्लास रूम ऊपर है, ऐसे में या तो उसके लिए ऊपर वाशरूम बनवाया जाए या उसे क्लास लेने के बाद घंटे भर पहले छोड़ दिया जाए। प्रबंधक ने उसके आवेदन पर सहानुभूतिपूर्वक गौर किया और उसे दो घंटे पहले स्कूल से घर आने के आदेश जारी हुए।
सब कुछ खत्म होने के बाद भी पूरी तरह सब कुछ खत्म कभी नहीं होता। अंदर से लगातार आती आवाजें उसे चैन से सोने नहीं दे रही थीं। सोचो, ये कितनी अमानवीयता है जिसे पेशाब के लिए भी लिखकर देना पड़ रहा है, ये कैसी क्रूरता है, इनसानी मूल्यों को किस कदर सरेआम रौंदा जाता है, देर तक अपने भीतर उठ रहे सवालों से जूझती रही।
आखिर क्या मिला नीतिका को इस राह पर अकेले चलने की जिद पर? पिछले बीस साल तो निकल गए यूँ ही इस सिस्टम से लड़ते–संघर्ष करते हुए मगर हासिल क्या रहा, शून्य। देर तक सोचते हुए गला सूखने लगा। बाहर तपते सूरज ने सड़क पर तेज चलती लू के थपेड़ों को भट्टी-सा दहका दिया था। उस दिन किसी ने ऐसी बात कह दी जो सीने के आर-पार उतर गई–‘कुछ दमखम हो तो बनकर दिखा दो प्रधानाचार्या, इससे जूनियर टीचर्स के हौसले बढ़ेंगे। सच बताएँ मैडम, ऐसे नियम-कानूनों के चोंचलों में मत पड़िए, कायदा-फायदा बस वाहियात बेकार बातें हैं। सीधे तरीके से वेतन उठाइए, अपने घर जाइए और समय पर रिटायर होकर चैन की नींद सोइए। आई बात समझ में? आपके भले की खातिर समझा रहे, हाँ। कोर्ट-कचहरी सबसे बुरी चीज़ होवै, चप्पल घिस जाएँगी आपकी और नतीजा जीरो, हाँ, अभी भी सँभल जाओ।’ मामूली से प्रबंधक नाम के खड़ूस के मुँह से ऐसी सीख सुनकर सन्नी रह गई वह।
सुनकर अचानक कलेजे में हूक-सी उठी और रीता मैडम की सलाह पर अपना हक माँगने सीधे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया था। वकीलों की फीस, बढ़ती तारीखें और टलते रहे फैसले, कुछ साल और निकल गए। तब से आए दिन स्कूल में उल्टे सुनने पड़ते गर्मा-गर्म तानों की मार–‘अरे मैडम, गईं तो थी हाईकोर्ट तक, करवा लिया अनुमोदन? करवा सको तो करवा लें प्रमोशन, उन्हें किसने रोका है? क्या हुआ मैडम, उच्च? न्यायालय से न्याय नहीं मिला? बहुत गलत हो रहा वैसे आपके साथ, च, च्चर, च…।’ तंज कसने में कोई पीछे नहीं रहता।
‘सुनो मैडम, जब तक कोर्ट का फैसला आएगा, तब तक आप यूँ हीं रोते-कलपते रिटायर हो जाएँगी। हम जिसे ठीक समझेंगे, उसे ही प्रमोशन देकर प्रिंसिपल बनाएँगे और आप हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगी, समझीं?’ प्रबंधन समिति के चेयरमैन ने पान चबाते हुए टेढ़ी नजरों से आँखों में आँखें डालकर देखा और वह मौन साधे बैठी रही।
उस दिन हताश मन लिए वह रिटायर्ड टीचर रीता मैडम के पास चली आई–‘दीदी, ये कैसे नियम हैं कि हम जैसे मेहनती टीचर को घुट-घुटकर जीने को मजबूर किया जाता। हम जैसों के साथ कभी न्याय नहीं होता…’ भरी आवाज सुनकर वे बोल पड़ी–‘सुनो नीतिका, एक न एक दिन न्याय होगा, सो इतनी जल्दी हिम्मत नहीं हारते। विधायक, नेताजी, प्रबंधक कमेटी और जो भी दूसरे लोग इस साजिश में शामिल हैं, उसमें तुम्हारा ये पैसाखाऊ शिक्षक संघ भी है, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। हमारे समय भी तो यही सब गेमप्लान था, 5 लाख दे दो, हमने मना कर दिया। हमें अपने बेटे को पढ़ाने के लिए बाहर भेजना था सो हम चुप्पी साध गए।’
‘एक और बात, पिछले साल मार्क्सशीट बनवाने के लिए भी कुछ बच्चों से अलग से पैसे माँग लिए गए।’
‘और हाँ, और जो बच्चे टीसी बनवाने आते हैं, उनसे भी तो खुलकर पैसों की माँग की जाती। अब कहाँ तक मुँह खोलें? ये प्रिंसिपल पैसा बटोरने में लगी रहती। बहुत सी अनियमितताएँ देखी हैं पर कोई कुछ उँगली नहीं उठता।’ आधी बात कहने के बाद वे चुप लगा गईं।
‘ये जो विद्यालय निरीक्षक सिंह साब हैं, ये कुछ नहीं करेंगे? इन्होंने तो हमारा तबादला यहाँ करवाया था। बैस्टल टीचर का अवार्ड इन्होंने ही तो दिया था…’ नीतिका ने रीता मैडम की राय जाननी चाही।
‘सुनो, ऐसे कुछ ईमानदार अफसर हैं, जो मेहनती टीचर्स की सच्चे मन से कद्र करना चाहते हैं। हमने एक बार खुलकर उनसे यहाँ के मिड-डे मील की हकीकत बताई थी, तो वहाँ से प्रिंसिपल के पास पैसा आना बंद हो गया। अचानक एक दिन भड़क गई वो हम पर, अनुशासनहीनता के आरोप भी लगाए मगर हम डिगे नहीं, जरा भी डरे नहीं बल्कि उसी साल बच्चों का रिजल्ट जिले में सबसे अच्छा रहा। चाहकर भी वे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाईं।’ एक-एक बात पर गंभीरता से सोचकर बोलती रहीं वे।
‘हाँ, मिड-डे मील की पोल खोल दो किसी मंत्री, मुख्यमंत्री के सामने, बस बन गया काम। उनके सामने निडर होकर बोलने की हिम्मत होनी चाहिए, पर हाँ, सुबूत इकट्ठे करने पड़ेंगे।’
‘लिसन, नीति व नियमों के मुताबिक रास्ते निकलते तो हैं मगर देर से। लेकिन बच्चों के दिल में जगह जरूर बनाओ, पॉपुलरिटी हासिल करो। इनके काले कारनामों का चिट्ठा मीडिया में भी उछले। इन दिनों तो वैसे भी सोशल मीडिया पावरफुल शेर की तरह दहाड़ने लगता है, गली-गली, कूचे-कूचे तक पहुँच बना ली है सोशल मीडिया ने। बस, चुप रहकर सबकी नजरों को परखती रहो, हरेक कारनामों के साक्ष्य जुटाओ, याद रखो, मौन में बड़ी शक्ति होती है।’
‘सही कहा आपने। मुझे याद है, रिटायर होते ही आपको स्कूल के बाहर कोचिंग सेंटर वालों ने हाथोंहाथ ले लिया था, हर विषय के सब्जेक्ट एक्सपर्ट में आपका नाम बड़े अक्षरों में चमचमा रहा था। शहर में कितनी जबरदस्त लोकप्रियता हासिल है आपको, तो आप तो कतई नहीं हारीं दीदी।’ प्रकट रूप से इतना बोलकर सोचने लगी–‘क्या पता किसी रोज उसका नाम भी इसी तरह कोचिंग सेंटर पर चमचमाता मिले, मैथ की मास्टर माइंड नीतिका।’
‘ज्ञान की जलती लौ को बुझाने की सामर्थ्य किसी में नहीं होती। किसी के लिए भी रास्ते कभी पूरी तरह बंद नहीं होते। एक रास्ता बंद होते ही कई और रास्ते अपने आप खुलते जाते। स्कूल में पढ़ाना यानी जीवन जीने का सिलसिला भर थी ये नौकरी जो समयबद्ध तरीके से 62 साल तक चली फिर नियमानुसार हमें रिटायर होना पड़ा, मगर बच्चों के दिलों से बाहर फेंकने की ताकत है किसी में? आज भी हमारे पढ़ाए बच्चे कितनी बड़ी-बड़ी कंपनियों में बड़े पदों पर काम कर रहे हैं मगर जहाँ कहीं भी मिल जाएँ, सम्मान में सिर झुका देते और यही है हमारा हासिल, हमारे जीवन की सफलता का मूलमंत्र। बच्चों के मुख से अपनी कामयाबी के किस्से सुनकर जीवन सार्थक लगने लगता…।’ बताते हुए भावविभोर हो उठीं रीता।
‘तो, उस हाईकोर्ट वाले केस को वापस ले लें क्या?’ नीतिका ने साफ-साफ पूछा।
‘न, कतई नहीं। चलने दो। लगने दो डेट-पर-डेट। समझ लो, ये भी हमारी नौकरी का या जिंदगी का जरूरी हिस्सा है। क्या पता, एक न एक दिन चमत्कार हो जाए। अँधेरे में भी पलकों के अंदर से रोशनी तो देख सकते हैं न हम, सो उम्मीदें मत छोड़ना। मान लो, जीती तो ये जीत अकेली तुम्हारी नहीं होगी, बल्कि तुम्हारे जैसी कई काबिल टीचर्स के अंदर अन्याय व पक्षपात के खिलाफ लड़ने का जज्बा जगेगा। उनकी हौसला आफ़ज़ाई के लिए जंग जारी रखो, समझीं?’ आत्मविश्वास से भरी आवाज सुनकर नीतिका का मनोबल बढ़ा।
‘ठीक कहा। अपने हक की आवाज उठाने के लिए अंदरूनी ताकत मिलेगी सबको। आपके मुताबिक शायद चमत्कार जैसा कुछ हो ही जाए?’ बोलते हुए आवाज में खनक आ गई अनायास।
वक्त ने करवट बदली। बेटे-बहू अच्छी नौकरी में आ गए और अब रिटायर होने में महज महीना भर शेष। बेटे ने उन पर नौकरी छोड़ने का दबाव बनाया, पर वे अड़ी रहीं–‘कुछ दिन और बचे हैं।’
रोज की तरह उस दिन भी वे सही समय पर विद्यालय गेट पर पहुँची ही थीं कि दर्जनों बच्चे और टीचर्स अपने-अपने हाथों में गुलाब के फूल लिए लाइन से खड़े होकर उनका अभिवादन करने लगे–‘अरे, अभी कुछ दिन बाकी हैं, आज तो जन्मदिन भी नहीं मेरा। अभी से इतना सब करने की जरूरत नहीं है!’ संकोच भरी सधी आवाज निकली।
‘मैम, ग्रेट न्यूज, बहुत-बहुत बधाई, अवर न्यू प्रिंसिपल नीतिका मैम, …हुर्रे…की आवाजों के साथ चारों तरफ जैसे खुशियों की बरसात होने लगी। विद्यालय के सभी साथी टीचर्स, प्रबंधक कमेटी के हैड, शिक्षक संघ के पदाधिकारी वगैरह आपसी मतभेद भूलकर बुके सौंपते हुए नीतिका को फूलों से लादते हुए प्रिंसिपल कक्ष की तरफ बहुत सम्मान से ले जा रहे थे। बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में प्रिंसिपल कक्ष के बाहर नीतिका का नाम चमक रहा था, जिसे देखकर उनकी मुर्दा देह में प्राण फूँक दिए जैसे किसी जादुई शक्ति ने। आँखों की सिकुड़ी पुतली चकाकौंध से भर उठी। चेहरे की आभा अद्भुत और अभूतपूर्व रंग बिखेरने लगी। सालों तक चली इतनी लंबी लड़ाई के बाद उस दिन पहली बार अपनी जीत का एहसास होते ही अनायास उनके बंद होंठों पर नैसर्गिक मुस्कुराहट खिलने लगी। अवचेतन में पड़े मृत सपने ऐसे जिंदा हो उठे, जैसे तपती गर्मी की मार से सूख रहे पत्तों पर बेमौसम बारिश ने नई जान डाल दी हो।
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