नई शिक्षा नीति और भाषा

नई शिक्षा नीति और भाषा

भारतीय शिक्षा भाषायी पराधीनता की बेड़ियों में सैकड़ों वर्षों से जकड़ी रही है। देश में शिक्षा मातृभाषा अथवा स्थानीय भाषा में ही मिले, यह संकल्पना अधूरी है। अँग्रेजी भाषा नीति-निर्णय नियामकों पर हावी है, जिसकी वजह से भारतीय शिक्षा और साहित्य में मौलिक चिंतन का सर्वथा अभाव-सा है। देखा जाए तो शिक्षा एक प्रकार से सामाजिक क्रिया है। भारत में आदिकाल से शिक्षा धर्म से निर्देशित होती रही है। धर्म ने साहित्य को भी जन्म दिया है, जिस कारण आरंभ में उसे वैदिक शिक्षा कहा गया। ईसा पूर्व छह सौ से पंद्रह सौ वर्षों तक के काल को वैदिक काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में ही ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि ग्रंथों की रचना वेदों के भाष्य के रूप में हुई। वेद भारत का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य माना जाता है। वही भारतीय शिक्षा का आदि स्रोत है, जिसके अनुरूप भारतीय जनता के जीवन-दर्शन निर्धारित हुए। वेद में ही समस्त ज्ञान समाहित था। ‘वेद’ शब्द की उत्पत्ति ‘विद्’ धातु से हुई, जिसका अर्थ है ‘ज्ञान प्राप्त करना’। वेद में मंत्रों और यज्ञ की विधियों का संग्रह है। उसमें जो मंत्र पद्य रूप में आते हैं, उन्हें ‘ऋक्’ कहा गया। गद्य, पद्य और ज्ञान की रचना-भेद के कारण उसे ‘त्रयी साहित्य’ भी कहा जाता है। आगे चलकर उसे चार भागों में बाँटा गया, जिन्हें ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के नाम से जाना गया। इनमें भारतीय रीति-रिवाजों, प्रथाओं और परंपराओं के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान और अनुभवों का समावेश है। 

संपूर्ण वैदिक शिक्षा साहित्य का ही सृजन है। तब शिक्षा का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित एवं संवर्द्धित करना था। इस संस्कृति को गौरव प्रदान करने और उसे फैलाने के लिए साहित्य को सशक्त माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया गया। साहित्य का निर्माण एवं विकास वैदिक शिक्षा का एक प्रमुख दायित्व था। शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी, जिस कारण साहित्य की रचनाएँ संस्कृत में ही होती थी। तब वैदिक शिक्षा में लोकभाषा की घनघोर उपेक्षा हुई, जिसके कारण तब लोकभाषा का कोई साहित्य सामने नहीं आ पाया। धर्म पर आश्रित शिक्षा में विचारों की स्वतंत्रता की संभावना नहीं थी। धार्मिक ग्रंथों में वर्णित विचारों को ही अंतिम माना जाता था, जिसके कारण अंधविश्वास और रूढ़िवाद का जहर फैलता चला गया। वैदिक साहित्य में शिक्षा का उद्देश्य ‘मोक्ष’ प्राप्ति का मार्ग बताते हुए सांसारिक-व्यावहारिक जीवन के कर्तव्यों से उन्हें विमुख कर दिया गया। आध्यात्मिक पक्ष पर जोर देकर लौकिक पक्ष को तिलांजलि दे दी गई। जीवन को जटिल कर्मकांडों के भरोसे छोड़ दिया गया। परिणामस्वरूप वैदिक शिक्षा और साहित्य सामान्य जन के लिए अनुपयोगी होने लगे।

वैदिक शिक्षा के विकल्प के रूप में बौद्ध शिक्षा का आरंभ हुआ। ईसा पूर्व छह सौ वर्षों से लेकर बारहवीं शताब्दी तक का काल बौद्धकाल माना जाता है। इस काल में गौतम बुद्ध और उनके द्वारा प्रस्थापित बौद्ध धर्म का अभ्युदय हुआ, जिसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘मठों’ और ‘विहारों’ की स्थापना की गई। इन मठों-विहारों में बौद्ध शिक्षा का प्रबंध किया गया। बौद्ध शिक्षा में शिक्षक या छात्र होने के लिए ब्राह्मण होने की अनिवार्यता नहीं थी, जिसकी वजह से शिक्षा के प्रति जन-जन का आकर्षण बढ़ा। हालाँकि उस काल में शिक्षा पाने के अन्य विकल्प जैन धर्म की शिक्षा, मक्खलि गोसाल के आजीवक धर्म की शिक्षा आदि भी थे, लेकिन वैदिक शिक्षा के वर्चस्व को चुनौती देने वाले बौद्ध धर्म की शिक्षा के विकल्प को सबसे बड़ा और प्रभावी माना गया। बौद्ध धर्म में शिक्षा का माध्यम संस्कृत न होकर जनभाषा पाली-प्राकृत थी और उस शिक्षा में प्रजातांत्रिक सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता था। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह धार्मिक-आध्यात्मिक होने के साथ-साथ लौकिक भी थी। लोक व्यवहार से जुड़ी होने के कारण बौद्ध शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। बौद्ध शिक्षा में विपुल मात्रा में लोकतत्वों को देखा-परखा जा सकता है। 

बारहवीं शताब्दी के बाद भारत में विदेशी आक्रांताओं की आवाजाही बढ़ गई थी, जिनमें मुख्यतः मुस्लिम आक्रांता थे। तब तक एक नए इस्लाम धर्म का उदय हो चुका था, जिसे मानने वाले मुस्लिम संप्रदाय के लोग शिक्षा का इस्लामीकरण कर पूरी दुनिया में फैलने के मंसूबे के साथ बढ़ रहे थे। भारतीय शिक्षा का भी इस्लामीकरण होना शुरू हो चुका था। देश में जगह-जगह बौद्ध साहित्य के साथ-साथ कुरान के आयतों का पाठ होने लगा। मुस्लिम शासकों ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था के प्राचीन आदर्शों पर प्रहार किया। संस्कृत के साथ-साथ पाली-प्राकृति के ग्रंथों की उपेक्षा की गई और हिंदू शिक्षा केंद्रों-पुस्तकालयों पर हमले किए गए। वेदों को जलाया गया और अरबी-फारसी भाषा तथा उसके साहित्य को प्रोत्साहित किया गया। अरबी-फारसी के साथ हिंदी जबान को मिलाकर उर्दू की उत्पत्ति हुई, जिसमें लिखा गया ‘आईने अकबरी’ तथा ‘अकबरनामा’ उस काल के विख्यात ऐतिहासिक साहित्य हैं। मुस्लिम काल में इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए शिक्षा और साहित्य को वशीभूत करने का जोरदार प्रयास किया गया। मकतब और मदरसा में कुरान को कंठस्थ कराकर बच्चों में इस्लाम धर्म के प्रति आकर्षण पैदा किया गया। तब साहित्य के छात्रों को ‘कामिल’, धार्मिक शिक्षा के छात्रों को ‘आमिल’ और दर्शन के छात्रों को ‘फाजिल’ की उपाधि दी जाती थी। धार्मिक कट्टरता एवं संकीर्णता के कारण मुस्लिम शिक्षा का सार्वजनिक स्वरूप नहीं उभर सका। मुस्लिम शासक अपनी जीवनी लिखवाने में मशगूल रहे। उस काल में भारतीय शिक्षा, साहित्य और दर्शन के प्रचार-प्रसार और उसकी सेवा करने में भारतीय संत गुरुओं और कवियों का भारी योगदान रहा। ‘रामचरितमानस’, ‘सूरसागर’, ‘बीजक’, ‘पद्मावत’ आदि उस काल के ऐतिहासिक महत्त्व की कालजयी रचना है, जिसका प्रभाव आजतक भारतीय समाज पर है। 

मुस्लिम शासकों के पराभव के बाद भारत में ब्रिटिश हुकूमत की औपनिवेशिक दासता का दौर आरंभ हुआ। शिक्षा का अँग्रेजीकरण और धर्म का ईसाईकरण होने लगा। तब ईस्ट इंडिया कंपनी के अध्यक्ष चार्ल्स ग्रांट का मानना था कि अँग्रेजी भाषा एवं साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने के बाद भारतीय ईसाई धर्म का अनुयायी बनना पसंद करेंगे। उन्होंने पंचसूत्री शिक्षा योजना प्रस्तुत की, जिसके अंतर्गत भारत में विद्यालयों की स्थापना करने, अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने, अँग्रेजी साहित्य की शिक्षा देने, पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करने तथा ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने जैसे क्रियाशीलन शामिल थे। कंपनी ने अपने व्यापारिक तथा राजकीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ही अपनी शिक्षानीति को अग्रसारित किया, जिसके तहत मिशनरियों को शिक्षण संस्थाएँ खोलने को प्रोत्साहित किया गया। वहाँ पर कर्मचारियों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। इसी क्रम में 1781 ई. में कोलकाता में मदरसा, 1791 ई. में बनारस संस्कृत कॉलेज तथा 1802 ई. में कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई। मदरसा की स्थापना के पीछे का रहस्य था इस्लाम धर्म और कानून की शिक्षा प्रदान कर अँग्रेजी न्यायाधीशों के लिए मुस्लिम सलाहकार तैयार करना। इसी तरह बनारस संस्कृत कॉलेज में मनुस्मृति पर आधारित हिंदू कानूनों की शिक्षा देकर अँग्रेज न्यायाधीश के लिए हिंदू सलाहकार तैयार करना था। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना अँग्रेजों को भारतीय भाषाओं, साहित्य तथा हिंदू-मुस्लिम कानूनों की शिक्षा प्रदान करने के लिए की गई थी। सर्वज्ञात है कि सन् 1813 ई. में ब्रिटिश संसद ने कंपनी को भारत पर शासन करने के लिए ‘आज्ञा पत्र’ का नवीनीकरण किया था, जिसकी धारा-43 में कहा गया कि प्रतिवर्ष भारत के विद्वानों के उत्साहवर्द्धन तथा साहित्य के पुनरुद्धार व विकास के लिए एक लाख रुपये व्यय किए जाएँगे। किंतु इस धारा में विद्वान और साहित्य की स्पष्ट परिभाषा नहीं रहने के कारण प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षाविदों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। प्राच्य शिक्षा समर्थकों का कहना था कि साहित्य का अर्थ है संस्कृत और अरबी साहित्य से तथा विद्वान का अर्थ है इन दोनों भाषा के किसी भी साहित्य में से कोई भी विद्वान या साहित्यकार, जबकि पाश्चात्य शिक्षा समर्थकों की इससे विपरीत राय थी। कंपनी ने अपनी कूटनीति के सहारे भारतीय नागरिकों पर अँग्रेजी भाषा और साहित्य थोपने की चाल चली, जिसमें राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक भी फँस गए। उनका विचार था कि अरबी, फारसी और संस्कृत का साहित्य अनर्गल प्राचीन विचारों से भरा पड़ा है, इसलिए भारतीयों का शैक्षिक विकास के लिए पाश्चात्य ज्ञान और साहित्य का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। 

सन् 1835 ई. में लॉड मेकाले ने 1813 ई. के ब्रिटिश संसद के आज्ञा पत्र के निहितार्थ को स्पष्ट करते हुए अँग्रेजी शिक्षा नीति पर स्वीकृति की मुहर लगा दी, जिसमें कहा गया कि अरबी, फारसी और संस्कृत के स्थान पर भारतीय स्वयं अँग्रेजी पढ़ने को इच्छुक हैं। यहाँ थोड़ा ठहरकर मेकाले की मंशा को समझ लेना जरूरी है, क्योंकि शिक्षा नीति की बात करने पर लॉर्ड मेकाले की चर्चा करनी ही होगी। वह कोई शिक्षाविद् नहीं था, बल्कि तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक का कानूनी सलाहकार था। दिमाग से शातिर कूटनीतिक होने के कारण उसने भारत के लिए जो शिक्षा नीति (1832-36) बनाई, उसने पूर्व से चली आ रही शिक्षा-संस्कृति को ध्वस्त कर दिया। सदियों तक भारत में अँग्रेजी सत्ता बनी रहे, इसी नीति पर काम करते हुए उसने भारतीय भाषा और शिक्षा-संस्कृति पर हमला किया। उसने भारत के सहिष्णु धर्म को छद्म ठहराते हुए यहाँ के निवासियों को विलायती संस्कृति का गुलाम बनाने के निमित्त योजना बनाई और उसे धर्म, शिक्षा-संस्कृति और कानून इन तीन स्तरों पर लागू किया। लॉर्ड मेकाले ने एतद् संबंधी जो पहला नियमन दिया, वह ‘white man’s Burden’ अर्थात ‘सफेद मानव का बोझ’ नाम से जाना जाता है। इसका आशय था कि गोरे लोगों पर ईशा मसीह द्वारा दिया गया दायित्व है कि वह भारत के लोगों का उद्धार करे। ब्रिटिश गोरे देवदूत हैं, जो काले भारतीयों के उद्धार के लिए ही यहाँ आए। इसी तरह मेकाले ने 2 फरवरी, 1835 ई. को ‘मेकाले विवरणी’ (Mccalay Minutcs) नामक एक संलेख तैयार किया, जिसमें अपने विचार व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं–‘क्या हम झूठा इतिहास, झूठा नक्षत्र-विज्ञान और झूठा चिकित्सा विज्ञान ही पढ़ाएँ, क्योंकि ये सब एक असत्य धर्म (हिंदू धर्म) से संबद्ध है?’ मेकाले का मानना था कि भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शिक्षा का घोर अभाव है और ज्ञान की दृष्टि से यह बहुत ही निम्न श्रेणी की है। उसने अपने संलेख में यहाँ तक लिखा कि ‘लंदन के एक पुस्तकालय के एक आलमारी के एक छोटे हिस्से में रखी गई पुस्तकों का ज्ञान भी भारत के संपूर्ण ज्ञान से श्रेष्ठतर होगा।’

भारतीय शिक्षा दर्शन के प्रति अनगिन दुराग्रहों से आक्रांत लॉर्ड मेकाले ने भारत में पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को थोपने का निर्णय किया। उसने 4 मार्च, 1835 ई. से भारत में अँग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रणाली का श्रीगणेश किया और तय किया कि सरकारी नौकरियों में वे ही नौजवान लिए जाएँगे, जिन्हें अँग्रेजी भाषा का ज्ञान होगा। वे हर तरह से भारतीय भाषाओं पर अँग्रेजी को थोपते हुए उसका वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे, जो हुआ भी। मेकाले ने जिस भाषायी गुलामी में यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था को जकड़ना चाहा, उसमें सफल रहा और वह भाषायी गुलामी अब तक बनी हुई है। मेकाले भारतीय शिक्षा व्यवस्था के हर सकारात्मक कदम को कुचल कर हर हाल में अँग्रेजी का वर्चस्व कायम रखना चाहता था, जिसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। उन्हीं दिनों शिक्षाविद् डब्ल्यू. एडम्स के नेतृत्व में भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर एक सर्वेक्षण हुआ था, जिसके रिपोर्ट में बताया गया था कि–‘भारत के प्रत्येक गाँव में कम-से-कम एक स्कूल जरूर है और जिसका पाठ्यक्रम भी बढ़िया है।’ अपनी रिपोर्ट में मि. एडम्स ने अनुशंसा की थी कि ‘सरकार देशी शिक्षा के उन्नयन के लिए इन विद्यालयों को धन दें।’ मेकाले ने मि. एडम्स की रिपोर्ट को कूड़ेदान में फेंक दिया, क्योंकि उसका मानना था कि अँग्रेजी जानने वाला ही शिक्षित है, बाकी सारे गँवार हैं। शिक्षा में अँग्रेजी के वर्चस्व से भारतीय शिक्षा चरमरा गई। नौकरी चाहने वाले लोग शहरों की ओर भागने लगे। गाँव वीरान होने शुरू हो गए। इन सबका दुष्फल यह हुआ कि 1881 ई. की जनगणना में 98 प्रतिशत भारतीय अँग्रेजी नहीं जानने की वजह से अनपढ़, गँवार और मूर्ख मान लिए गए। उसके बाद अँग्रेजी शिक्षा के विकास के लिए योरोपीय देशों से ईसाई मिशनरियों को बड़ी संख्या में भारत आमंत्रित किया गया। भारत में राजा राममोहन राय, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे यशस्वी समाज सुधारक भी इंगलिश स्कूल के नाम से विद्यालय खोलने-चलाने लगे। मेकाले की शिक्षा नीति ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को कांतिहीन कर दिया। उसने कंपनी के सीमित साधन से अँग्रेजी भाषा के प्रचार के लिए ‘छन्नीकरण सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार समाज के कुलीन या उच्चवर्गीय को सर्वप्रथम अँग्रेजी की शिक्षा देनी थी और बाद में वह शिक्षा कुलीन से होकर निम्नवर्ग तक पहुँच जाती। इससे यूरोप के ज्ञान, कला, साहित्य और इतिहास-दर्शन की जानकारी फैलाई गई और इसके साथ ही भारतीय भाषाओं का विकास अवरुद्ध होता चला गया।

भारतीय भाषाओं को यहाँ के संतों, कवियों आदि ने न केवल बचाए रखी, अपितु उसका अपनी रचनाओं-वाणियों द्वारा विकास भी किया। सन् 1857 के ‘गदर’ के बाद जो देश में स्वतंत्रता पाने की चिंगारी फैली, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उस पृष्ठभूमि में निज भाषा का आंदोलन छेड़ा और ‘हिंदी नई चाल में ढली’ के तहत उस काल के तमाम साहित्यकारों को गोलबंद किया। जनवरी, 1915 ई. में महात्मा गाँधी भारत लौटे। उन्हें मेकाले की शिक्षा नीति के दुष्परिणामों की जानकारी थी, अतः उन्होंने अँग्रेजी-भाषा की साम्राज्यशाही नीति के विस्तार पर पहला प्रहार किया। उन्होंने अँग्रेजी की जगह हिन्दोस्तानी भाषा की वकालत की। वे स्थानीय भाषा के उन्नयन और उनके परस्पर मेल से हिन्दोस्तानी जबान की बात करने लगे। आजादी के लिए देश में छेड़े गए राष्ट्रीय आंदोलन ने पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा की माँग की। शिक्षा के द्वारा भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय चरित्र के विकास पर बल दिया गया। अँग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त कर उसके स्थान पर भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य के अध्ययन को सर्वोपरि स्थान दिए जाने की बात की गई। महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा, कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग, सैडलर आयोग, एबट बुड रिपोर्ट, हर्टांग समिति, खैर समिति आदि ने भी मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का परामर्श दिया। आजादी के बाद भारतीय संविधान में भारत को पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प किया गया। संविधान के अनुच्छेद 350ए में स्पष्ट रूप से कहा गया कि मातृभाषा में बालकों को शिक्षा उपलब्ध करवाना राज्य सरकार का दायित्व है। अनुच्छेद 351 में राष्ट्रभाषा हिंदी का विकास करने का दायित्व केंद्र सरकार को सौंपा गया। जहाँ तक भाषा और साहित्य का सवाल है, वह विविध कारणों से आज तक विवादित है। सन् 1948-49 में गठित विश्वविद्यालय आयोग (राधाकृष्णन-आयोग) द्वारा राष्ट्रभाषा हिंदी और देवनागरी लिपि को अपनाने तथा शिक्षा का माध्यम बनाने का परामर्श दिया गया। 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा के लिए गठित मुदालियर आयोग ने भी मातृभाषा या स्थानीय भाषा के अध्ययन पर जोर दिया। 1964-66 में कोठारी आयोग ने त्रिभाषा फार्मूला को लागू करने का परामर्श दिया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 तथा 1986 में भी त्रिभाषा फार्मूला के क्रियान्वयन पर ही जोर डाला गया, जिसे व्यावहारिक तौर पर आज तक कारगर तरीके से लागू नहीं किया जा सका है। 1992-93 में यशपाल समिति का मानना था कि पाठ्यपुस्तक में कृत्रिम भाषा-शैली का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। आमतौर पर बच्चों के वातावरण में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली, मुहावरे तथा अभिव्यक्ति शैली का ही प्रयोग किया जाना चाहिए।

भारतीय शिक्षा भाषायी पराधीनता की मार झेलने को अब तक अभिशप्त रही है। महान वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद् कस्तूरीरंगन ने 480 पृष्ठों की जो नई शिक्षा नीति की रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी थी, उसे सरकार ने महज 60 पृष्ठों में समेकित कर जो निचोड़ प्रस्तुत किया है, उसमें उच्च शिक्षा को शोधोन्मुखी दृष्टि से गुणवत्तापूर्ण बनाकर किस प्रकार से अधिक-से-अधिक छात्रों की आलोचनात्मक दृष्टि का विकास हो सके, वैसी शिक्षा स्थानीय भाषा में देने की वकालत की गई है। अब तक जितनी भी शिक्षा नीतियाँ बनी, उनसे इसमें अलग कोई मौलिकता न होते हुए भी मूल्य, संकल्प, क्रियान्वयन क्षमता आदि के द्वारा ही इसमें नवीनता भरने की कोशिश की गई है। देखा जाए तो अन्य शिक्षाविदों की तुलना में कस्तूरीरंगन ने देश के लगभग सभी तबके के लोगों से बातचीत करते हुए उनके अधिक-से-अधिक विचारों एवं अनुभवों को इस नई शिक्षा नीति में शामिल करने की कोशिश की है। इसमें प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय भाषा में देने की बात कही गई है। बीते दो सौ वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं पर अँग्रेजी लादकर जिस भाषायी दासता का उसे शिकार बनाया गया, उससे मुक्ति का समय इस नई शिक्षा नीति के जरिये अब आ गया है। इस भारतीय उपमहाद्वीपों को अँग्रेजी की अँग्रेजियत से मुक्त करना ही होगा। नई शिक्षा नीति इसी तर्क को आगे बढ़ाती हुई शिक्षा प्रदान करने की बात करती है। नई शिक्षा नीति के द्वारा हमारे लिए एक अवसर है, जब शताब्दियों बाद हम एक देश, एक भाषा अपनी भाषा में ज्ञानार्जन की दिशा में अपना कदम बढ़ाते हुए भाषायी दासता से मुक्त हो सकते हैं। हमें अपनी नई शिक्षा-नीति के प्रति विश्वास रखते हुए भारतीय शिक्षा व्यवस्था को विश्वस्तरीय करने की दिशा में कदम बढ़ाने ही होंगे।


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शिवनारायण द्वारा भी