नई धारा संवाद : कथाकार चित्रा मुदगल

नई धारा संवाद : कथाकार चित्रा मुदगल

मेरे लेखन का मुख्य स्वर विद्रोह है


नमस्कार, ‘नई धारा’ संवाद में आपका स्वागत है! कक्षा में जो छात्र जोर से नहीं बोलते उनकी आवाज दब जाती है, धीरे-धीरे वे पिछले बेंच पर चुपचाप बैठने लगते हैं। फिर एक दिन ऐसा आता है जब उनका होना-न-होना एक बराबर हो जाता है, होते हुए भी वे गायब हो जाते हैं, और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होती। हमारा समाज भी कुछ इस तरह का ही है, जहाँ कमजोर की आवाज को दबा दिया जाता है। लेकिन कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो इन कमजोर बच्चों का हाथ थाम लेते हैं। चारों तरफ मच रहे शोर में से उनकी आवाज को खींचकर समाज के सामने रख देते हैं। फिर उन्हें सुनने के अलावा कोई चारा नहीं बचता, जमीर की तहों में उनकी आवाज दूर-दूर तक गूँजती है, उस समय एक लेखक रचनाकार हो जाता है। जो सिर्फ एक कहानी की नहीं बल्कि समाज की रचना करता है।

आज हम एक ऐसे ही रचनाकार से मिलेंगे, जिन्होंने रेलवे प्लेटफार्म पर अखबार बेचनेवाले बच्चों, झुग्गी-झोपड़ी में जिंदा रहने के लिए जद्दोजहद करने वाले मजदूरों, लिंग विकलांगता की वजह से भीख माँगने पर मजबूर कर दिए जाने वाले लोगों। इन सब की आवाज हमारे बीच रखी। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ प्रसिद्ध लेखिका चित्रा मुद्गल की। उनके विपुल रचना-संसार में दबे-पिछड़े एवं गरीब-निर्बल जन की आवाज मुखर हुई है, जिनके बारे में हम उन्हीं से जानेंगे। 

चित्रा जी ‘नई धारा’ की ओर से मैं आपको सादर नमन करती हूँ।

मैं भी तुम्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद और नमस्कार करती हूँ, और सारे यूनिट को मैं नये वर्ष पर बधाई देती हूँ। ‘नई धारा संवाद’ ये जो आरंभ हुआ है, ये बहुत चर्चा में आया है, चर्चा चल रही है, और मैं याद कर रही हूँ उदय राज जी को। उदय राज स्मृति सम्मान मुझे 2010 में मिला था और मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी, क्योंकि उदय राज जी का पूरा परिवार समर्पित रहा साहित्य को लेकर। मुझे याद आता है कि जिस वक्त मैं प्रसार भारती में 2002 में थी, मैंने उनके पिता (राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह) की कहानी ‘कानों में कँगना’ को इंडियन क्लासिक्स के तहत बनाया था। तो ये एक ऐसे परिवार के द्वारा मिला सम्मान है जो खुद कहीं-न-कहीं समकालीन साहित्य में एक हलचल पैदा करता है। मनमीत मुझे तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लग रहा है और मैं जो शुरुआत करना चाहती हूँ–एक छोटी-सी कविता पढ़कर।

ये एक छोटी-सी लघुकथा है। और मेरी लघुकथा की पुस्तक जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है, उसमें ये शामिल है। लेकिन कुछ लोग इसे कविता समझते हैं, लेकिन ये मेरे लिए एक इतना बड़ा दु:ख है, इतनी बड़ी पीड़ा है जो उस समय पंजाब में घट रहा था। और हमारे बच्चों को जो कहीं भटके हुए थे, या कहीं कुछ उनकी माँगें थीं। उसको लेकर ये दु:ख एक स्त्री लेखिका ने महसूस किया, और उसकी अनुभूति भी। मैं अपने उपन्यास जिसे अकादमी अवार्ड–‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’, 30 जनवरी 2019 को मिला। उस समय मैंने लोगों को ये बताया, उत्सुक थे लोग, जानना चाहते थे–मैंने ये उपन्यास क्यों लिखा, और ये उपन्यास है क्या, क्योंकि उस वक्त तो उन्होंने वो उपन्यास नहीं पढ़ा था। तो मैं एक बेहद छोटा-सा, छोटा-सा अंश मनमीत की अनुमति लेकर के, मुझे अनुमति है मनमीत?

जी बिल्कुल, हम भी उत्सुक हैं सुनने के लिए। 

इसका शीर्षक मैंने दिया–‘कबूलनामा’। कबूलनामा यानी लेखक जो लिखता है, वो क्यों लिखता है, किसलिए लिखता है, कैसे लिखता है, क्यों प्रेरित होता है लिखने के लिए। और कभी-कभी उसे लगता है कि उसके लेखन का अर्थ क्या है, समाज में क्या वो लेखन हस्तक्षेप करेगा। यानी मेरा, नाला सोपारा लिखने का जो उद्देश्य रहा। तो मैं वो अंश पढ़ती हूँ–‘कबूलनामा’।

हाँ, हाँ, मैं लेखक चित्रा मुद्गल स्वीकार करती हूँ अपने पूरे होशोहवास के साथ कि मैं एक अक्षम अपराधी हूँ, और शायद मैं आखिरी साँस तक भी उस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पाऊँगी। हाँ, मैं स्वीकार करती हूँ यह भी कि ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ लिख लेने के बाद भी मैं उस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पाई हूँ, जिससे मुक्ति की कामना ने मुझसे यह उपन्यास लिखवाया, अपने चेत से, यानी अपनी चेतना से लगातार मुठभेड़ करती हुई मैं लिखी जाती पंक्ति-दर-पंक्ति की पगडंडियों की माटी में गहरे धँसी, तीखी नुकीली कंकड़ियों को उचकाते, बीनते, बीनकर उखाड़ फेंकते उन रास्तों को तलाशती रही और सोचती रही–जिन पर चलते हुए खोज लूँगी उन्हें, और चिह्नित कर सकूँगी उन अपराधियों को जो मुझे मुक्त कर देंगे इस अपराध बोध से। स्वयं ही यह कबूल कर कि फिजूल ही तुम पदताप में घुल रही हो, जो अपराध तुमने किया ही नहीं है उसके लिए तुम स्वयं को दोषी क्यों ठहरा रही हो। हो सकता है यह अपराध तुम्हारे बुजुर्ग पीढ़ी से हुआ हो या बुजुर्ग पीढ़ी की पूर्व पीढ़ी से, या पूर्व पीढ़ी के पूर्व पीढ़ी से, या उस पूर्व पीढ़ी के पूर्व पीढ़ी से, लेकिन कुछ तर्क आपको सहारा देने की बजाय पूरी निस्संगता के साथ आपकी चेतना के नीचे से अपना कंधा खिसका लेते हैं। शब्दों में डूबे हुए हर पल महसूस हुआ लिखे जाते हर शब्द के साथ अचानक शब्द रूप बदल लेते हैं। सहसा वे हो उठते हैं नवजात क्रंदन करते हजारों-हजारों मासूम शिशुओं से, उन शिशुओं से उनकी काँपती मुट्ठियों से झरते हैं उनकी चीखों सने रिरियाते कुछ शब्द जो कह रहे होते हैं कि हम वो बच्चे हैं जिन्हें सदियों के सीने पर कलंक समझा गया। जनमते ही हमें माँ के दूध से वंचित कर घर से बाहर फेंक दिया गया, क्योंकि हम लिंग विकलांग पैदा हुए थे। विचित्र है गर्भ से बाहर आते ही नाल काट हमें सामाजिक जीवन से जोड़ दिया गया, लेकिन फिर समाज के भय से सामाजिक लोकापवाद के भय से, सामाजिकता से नाल काट हमें नरक सदृश्य समाज के उन अँधेरे कोनो में फेंक दिया गया–जहाँ न हमारा कोई घर था, न हमारे लिए कोई समाज, न सामाजिकता, कोई उत्सव न अनुष्ठान। वो समाज जो सबके लिए था नहीं था तो केवल हमारे लिए नहीं था। यह इतना दु:खदायी था और इस अन्याय के बारे में सोचकर मुझे लगा कि इन बच्चों के इन रुदन को कैसे दबाया जा सकता है, कैसे दबाया गया। समाज के हासिये पर हर वंचित को जगह दी गई, आरक्षण दिया गया, उनके बारे में सोचा गया, सरकार ने उन्हें सुविधा दी, उनके बच्चों को शिक्षित करने की बात की लेकिन नाला सोपारा यह सवाल उठाता है कि इन बच्चों को अपने घर से क्यों अपदस्थ होना पड़ा। और यह भी मैं कहना चाहती हूँ कि आपके लिए शायद यह विश्वास कर पाना कठिन होगा कि लेखकों की कुछ कृतियाँ उसके अपराध बोध की संतानें होती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता, मामूली सी सामाजिक कार्यकर्त्ता होने के नाते मैं ये लगातार महसूस करती रही कि एक माँ और बेटे के बीच पोस्ट बॉक्स नं. 203 की जरूरत क्यों पड़ी जबकि उसकी माँ है, उसके पिता हैं, उसका घर है। मैं अब आपको उपन्यास ‘नाला सोपारा’ का छोटा-सा अंश शुरुआती दौर का सुनाना चाहती हूँ।

23-07-2011

3/4 मोहन बाबा नगर, बदरपुर दिल्ली।

‘मेरी बा!

इस सँकरी गली के सँकरे छोर पर पलस्तर उधड़ी दीवालों वाले घर की सींखचों वाली इकलौती खिड़की के पार, दिल्ली के मेघ बरस रहे हैं, खिड़की से सटे सघन कचनार के पेड़ को तेज हवा में ऊभ-चूभ होती बारिश की तरंगें उसकी टहनियों को पकड़-पकड़कर नहलाने की कोशिश कर रही हैं। टहनियाँ हैं कि उन बौछारों की पकड़ से छूट भागने को बेचैन हो रही हैं, जैसे मैं तुम्हारे हाथों से छूट भागने को व्याकुल, तुम्हारी पकड़ में कसमसाता, पानी के उलीच में ऊभ-चूभ होता रहता था।

‘खुद से रोज नहाता है तो इतनी मैल कैसे छूट जाती है?’ 

‘धप्पऽऽ’ खीझ भरा धौल मेरे पखोरे हिला देता।

तुझसे कभी बता नहीं पाया, बा! नहाने से मुझे डर लगता था। बाथरूम में तेरे जबरदस्ती धकेलने पर नल खोल, बाल्टी से फर्श पर पानी उलीच मैं नहाने का सिर्फ स्वाँग भर रचता था। बस, तौलिये का कोना भिगोकर मुँह-हाथ भर पोंछ लिया करता था ताकि तू छुए तो महसूस करे कि मैं सचमुच बाथरूम से नहाकर निकला हूँ। तू तो समझती थी कि नहाने के मामले में मैं नम्बरी आलसी हूँ। तेरा भ्रम तोड़ता तो कैसे?

डबल रोटी से फूले तेरे थके पाँवों को जब भी मैं देखता था, मुझे चिंता होने लगती थी। तेरे पाँव सूजे हुए हैं। साड़ी की फॉल से ढँकी हुई उनकी सूजन किसी को नजर नहीं आती है घर में, मालूम नहीं कैसे वह मुझे दिखाई दे जाती है, मैं तुझे टोकता। दिनभर घर में डोलती, बाजार से साग-सब्जी ढोकर लाती, ‘देवी के दर्शनों को पास में ही है’ कहकर मुंबा देवी के मंदिर जाती, लगभग चार-पाँच किलोमीटर का चक्कर तेरा रोज ही लग जाता है। मदद की खातिर तू कोई नौकर क्यों नहीं रख लेती? नौकर दुकान पर तो होते ही हैं और जाते ही हैं। तू हँसकर कहती बात टालते हुए–‘तू जो पैरों को चाँपकर उनकी उँगलियाँ खींचकर चटखाता है न! चलूँगी नहीं तो तेरे नन्हे हाथों का वह सुख कैसे पाऊँगी।’ तेरे पाँव अब भी सूजते होंगे न बा। मैं उन उँगलियों को कैसे चटखाऊँ। कैसे दूर करूँ उनकी थकान। थककर डबल रोटी से सूज जानेवाले तेरे उन पाँवों को मैं चूमना चाहता हूँ। उनकी टीसें हर लेना चाहता हूँ। उन्हें छाती से लगाकर सोना चाहता हूँ। हफ्ताभर! नहीं, दर रोज! नहीं, महीनों! नहीं, पूरे वर्ष! नहीं, सदियों! संचित कर लेना चाहता हूँ ताउम्र की नींद। जितनी भी मिल जाए, फिर चाहे जितनी रातें पलक झपकाये बिना गुजरें। बैठे-बैठे कटें। करवटें भरते बीतें या पूरी रात टहलते हुए। बस सह लूँगा, कष्ट झेल लूँगा। शिकायत नहीं करूँगा किसी से, कि मैं इसलिए अनमना हूँ कि रातभर सो नहीं पाया।

तूने फोन पर कहा था न! सुन, जब भी तू अनमना महसूस करे, दीकरा, किसी भी समय ध्यान मुद्रा में बैठकर कृष्ण को याद करना। गहरे-गहरे, अपनी अंतरात्मा में उतरने का प्रयास करना। दो-चार रोज हो सकता है तेरा प्रयत्न निरर्थक साबित हो, मगर कुछ रोज स्वयं को साधने के बाद तुझे कुछ अनोखा-सा अनुभव होगा। अनोखा! कृष्ण की छवि शून्य हो जाएगी और तेरी अंतरात्मा में तुझे कहीं से बाँसुरी की मध्यम सुरीली धुन सुनायी देगी, जो तेरे उस शून्य को सैकड़ों अगरबत्ती की सुगंध से सुवासित कर देगी जब तक तू दीकरा, बाँसुरी की महक में डूबा हुआ स्वयं को भूला रहेगा, तू गहरी नींद सोता रहेगा।

सुन दीकरा, तेरी बा की लोरी में भी वह सम्मोहन शक्ति नहीं है, जो अपने बच्चों को उस गहरी नींद का सुख दे सके।

बा, मैंने वह कोशिश शुरू कर दी है। रोज नहाने के बाद मैं ध्यान मुद्रा में बैठ जाता हूँ, पर विचित्र है बा, ध्यान में तू आ जाती है, तू, तेरे कृष्ण नहीं। 

तेरे कृष्ण को कहीं इस जगह से तो परहेज नहीं या आधे-अधूरे मुझसे?

उनकी लात, घूँसे, थप्पड़ कानों में गर्म तेल-सी टपकती किसी भी संबंध को न बख्शने वाली अश्लील गालियों के बावजूद न मैं मटक-मटक कर ताली पीटने को राजी हुआ, न सलमे-सितारों वाली साड़ियाँ लपेट देह में लिपिस्टिक लगा कानों में बूँदे लटकाने को।

तुमने स्कूल के लिए निकलते हुए बा, चुपके से मेरी जेब में सरकाये जाने वाले नोट की भाँति, एक सुझाव, एक सलाह सरकायी थी–‘खा लेना, जो तेरे मन में आए, बिन्नी!’ ढेर-सी दिलासा सरकायी थी मेरे जहन में। भयमुक्त किया था मुझे कि तू तिनका नहीं है ‘दीकरा’, तू फिजूल की चिंता क्यों करता है कि मैं वैसा क्यों नहीं हूँ बा, जैसे मेरे अन्य दोस्त? स्कूल की चारदीवारी से सटकर पैंट के बटन खोलकर खड़े हो जाते हैं?

मगर बहुत जल्द मेरा भ्रम टूट गया।

जिस नरक में तूने, और पापा ने ढकेला है मुझे वह एक अंधा कुआँ है–जिसमें सिर्फ, सिर्फ और सिर्फ साँप-बिच्छू रहते हैं। साँप-बिच्छू बनकर वह पैदा नहीं हुए होंगे बा। बस इस कुएँ में उन्हें आदमी नहीं रहने दिया।

भूलते क्यों नहीं किलों से चुभते प्रसंग, क्यों घुमड़ आते हैं तेरी स्मृतियों के कंधों पर सवार होकर किलों से चुभते प्रसंग?

क्यों घुमड़ आते हैं तेरी स्मृतियों के कंधों पर दुबके? तेरी स्मृतियाँ जो मेरी साँसों में घुली हुई हैं बा, उन्हें अपने से अलग करूँ तो कैसे अलग करूँ? कहाँ हूँ मैं, कहाँ आ गया हूँ? याद रखना चाहता हूँ तो बस, बरसों-बरस बाद तेरी सुनी गई फोन पर टट्‌कार भरी आवाज को, जो मेरी आवाज के ‘बा’ उच्चारते ही तेरी गोद में तब्दील हो गई थी।

‘दीकरा…मेरा बिन्नी।’

‘तू, तू कहाँ से बोल रहा है…?’

यह पत्र अब पूरा नहीं कर पाऊँगा।

सींखचों के बाहर मेघों का बरसना कम नहीं हो रहा।

भीतर, अपने भीतर उसे मैं कैसे रोकूँ!

कैसे रोकूँ कमरे की छत जाने कौन उड़ा ले गया है।

लिफाफे पर पता लिख दिया है जिसे तूने फोन पर नोट करवाया है।

पता पोस्ट ऑफिस का है, मेरे घर का नहीं।

मेरे घर का पता क्या कहीं कोई है बा?’

ये एक छोटा-सा अंश मैंने पढ़ा और क्या मैं एक छोटा अंश और पढ़ सकती हूँ मनमीत?

चित्रा जी मैं चाहूँगी कि दर्शक बहुत उत्सुक होंगे ये जानने के लिए कि उपन्यास, इसका जन्म कहाँ से हुआ? मेरे हाथ-पैर काँप रहे हैं, माफी चाहती हूँ आपसे, जो आपने पढ़ा है, मेरा गला रुँध गया है और जब मैंने पहली बार ये उपन्यास आपका पढ़ा था। जब आपने बात कही कि ‘भीतर भी मेघ, बाहर भी मेघ’, उस दिन मेरे यहाँ बारिश हो रही थी और मैं जार-जार रो रही थी। मेरे आँसू नहीं रुक रहे थे, अभी भी बड़ी मुश्किल से मैंने अपने आँसुओं को रोका है और जिस अपराध की बात आप कर रही हैं उस अपराध का हिस्सा मैं भी हूँ। ये शर्मिंदा जो आप महसूस हो रही हैं मैं खुद पर शर्मिंदा हूँ। एक अंश मैंने भी पढ़ना चाहा है जो मैं आपकी इजाजत से पढ़ना चाहूँगी और उसके उपरांत आपसे सवाल पूछना चाहूँगी?

ये आपकी पीढ़ी के लिए ही मैंने लिखा है, मेरा अपराध बोध उस दिन खत्म होगा। मेरी साँसें शायद खत्म होंगी उसके साथ। लेकिन आपकी पीढ़ी अगर इस संदेश को सदियों-सदियों से जो कुछ हुआ है, मेरे लिए ये सौभाग्य की बात है। मैं आपकी आवाज में सुनना चाहती हूँ कि माँ और बेटे के बीच ये पोस्ट बॉक्स।

‘मूर्ख नहीं आँखें खोल पा रही हैं कि तुम न माधुरी दीक्षित हो न रेखा, जननांग विकलांगता बहुत बड़ा दोष है लेकिन इतना बड़ा भी नहीं कि तुम मान लो कि तुम धड़ का मात्र वही निचला हिस्सा भर हो। मस्तिष्क नहीं हो, दिल नहीं हो, धड़कन नहीं हो, आँख नहीं हो, तुम्हारे हाथ-पैर नहीं हैं। हैं, हैं, हैं, सब वैसा ही है जैसे औरों के हैं। यौन सुख लेने-देने से वंचित हो तुम, वात्सल्य सुख से नहीं, सोचो!’ चित्रा जी ये पढ़कर मुझे ऐसा लगा मैंने पहले क्यों नहीं सोचा! जब भी रेड लाइट पर लिंग विकलांग लोगों को देखती थी मैं, बस अपने कार के सीसे ऊपर चढ़ा लेती थी और मुँह फेर लेती थी। एक बार भी मन में खयाल नहीं आया कि उनकी जिंदगी में क्या मजबूरियाँ रही होंगी। उनके भी कुछ ख्वाब होंगे। यों घर-घर बच्चा पैदा होने पर नाचना, रेड लाइट पर तालियाँ बजाकर भीख माँगना, ऐसा जीवन तो नहीं चाहा होगा उन्होंने। तो आपके मन में ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’, ये उपन्यास, इसका विचार कैसे आया आपके मन में?

कभी सोचा नहीं था जिस अपराध बोध की बात कर रही हूँ, वह अपराध बोध है–एक लेखक का, एक सामाजिक नागरिक का, और एक सोशल एक्टिविस्ट का। जब भी मैं तुम्हारी तरह ही, तुमने जैसा मेरा अनुभवी बयान किया है, महसूस किया है गहरे उस तकलीफ को–इस उपन्यास को पढ़ने के बाद। मेरे कम्पार्टमेंट में भी लोकल ट्रेन की, जब ये आते थे तो मैं वैसा ही महसूस करती थी ठीक जैसा तुमने महसूस किया बेटे। और ये तो मैंने वर्षों, वर्षों, वर्षों बाद की एक घटना ऐसी घटी कि सन् 79 की बात है–मेरे पति का ट्रांसफर बॉम्बे टाइम्स ऑफ इंडिया से, वो सारिका के चीफ सब थे उस वक्त और ट्रांसफर दिल्ली टाइम्स ऑफ इंडिया में कर दिया गया, पूरा सारिका का डिपार्टमेंट जो है दिल्ली आ गया 79 में, और मैं उस वक्त, मेरे बच्चे पढ़ रहे थे, मेरा बेटा कार्डिनल ग्रेशियस में पढ़ रहा था, मेरी बेटी भी पढ़ रही थी छोटी, और मुझे लग रहा था कि, और मैं जिन सोशल संस्थाओं से जुड़ी हुई थी उनकी भी कुछ जिम्मेदारी थी मेरे ऊपर। क्या करें जल्दबाजी में कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बच्चों को गर्मी की छुट्टियों में लेकर मैं दिल्ली आती थी और उस वक्त लॉरेंस रोड पर मैं रह रही थी, और एक महीना मैं पूरी गर्मी की छुट्टियों भर अपने बच्चों के साथ, अपने पति के साथ वहाँ रहती थी, और उसके बाद वापस लौटती थी।

मैं 13 जुलाई को, चूँकि बॉम्बे में स्कूल खुल जाते हैं तो यह बात थी 11 जुलाई की और हम नई दिल्ली स्टेशन से 5 नंबर प्लेटफार्म से अमृतसर से डिलक्स पश्चिम एक्सप्रेस कहलाती थी ये ट्रेन और वैसे डिलक्स कहा जाता था, उससे हम लौट रहे थे अपने बच्चों के साथ और तीन बर्थ हमारी थीं, बेटी भी थोड़ी बड़ी थी उसकी भी थी। बेटी अपने पापा की गोद से बिलखती हुई, उतरने को तैयार नहीं थी, किसी तरह उसे छिनकर के गोद से मैं दरवाजे पर टाटा, बच्ची का हाथ हिलाते हुए उनके पिता की ओर, उसे दिखलाते हुए उसके बाद मैं अपनी सीट की ओर बढ़ी तो इतने में मैंने देखा कि एक लड़का भागते-भागते एकदम से हैंडिल पकड़ कर भीतर आया, और गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी। इतना मुझे भय लगा कि, मैंने कहा, ‘अरे तुम आ जाओ! बैठ जाओ, बैठ जाओ, बाद में सीट देख लेना’, वह हाँफ रहा था एकदम। बाद में जब थोड़ी दूर तक गाड़ी निकल आई और तब मैंने उसको कहा–मैंने सोचा मन में तीन बर्थ हैं, चौथी बर्थ शायद इसी की होगी जो ये भागते-भागते चढ़ा। उसको पूछा कि तुम्हारी बर्थ है, तो उसने कहा कि नहीं, मेरा जनरल कम्पार्टमेंट है, और मैं, गाड़ी छूट रही थी इसलिए भागते हुए चढ़ आया हूँ। मैं, भरतपुर जब ये गाड़ी रुकेगी तब मैं उतर कर के अपने जनरल कम्पार्टमेंट में चला जाऊँगा, तब तक तो कोई उपाय नहीं है। तो मैंने कहा–‘भरतपुर तो गाड़ी रात को 11 बजे पहुँचेगी, और तब तक तुम तो बैठो, बैठो आराम से।’ टीटीआई आया, टीटीआई को उसने सही बात बताई, जो उसने मुझसे कही। मैंने टीटीआई से कहा–‘मेरी बेटी का भी एक बर्थ है और सीट है, बच्ची है, छोटी है, इसके पिता रिजर्वेशन करा देते हैं’, जबकि छह साल तक बच्चों का उस वक्त, मतलब टिकट नहीं कटता था, लेकिन फिर भी कि बच्ची को कोई तकलीफ न हो। तो मैंने कहा कि अगर ये यहीं बैठा रहेगा तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है, मैंने ये बात कह दी। टीटीआई आगे चला गया और उसके बाद मेरी बच्ची जो बहुत रो कर के बिल्कुल उदास थी उसके साथ उस बच्चे ने बातें करनी शुरू की और धीरे-धीरे जब हमने खाना खाया, हमने उसे साझा किया। भरतपुर आने पर बच्ची सो गई, मेरा बेटा राजीव भी सो गया। उसने वो बिस्तर वगैरह लगा दिया उनका और मैंने उसको कहा–‘नहीं तुम नहीं उतरोगे!’ मैंने उससे बातें करनी शुरू की। मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता उस रात, उस एक रात जिन लोगों से मैंने 45 वर्षों तक घृणा की, और समझा–ये क्या है! एक नागरिक होने के नाते भी मैंने उनको मनुष्य नहीं समझा, मँगता समझा, भिखारी समझा–आ जाते हैं, और जिद्द करते हैं, लड़ते हैं, जबरदस्ती करते हैं।

जो बातें हुईं रात को, चार बजे तक हम सो नहीं पाए। उसने कहा, उसको नाला सोपारा उतरना है। मैंने कहा–‘नाला सोपारा तो ये गाड़ी रुकती नहीं है, ये तो बोरीवली रुकेगी जा करके। तुम कैसे नाला सोपारा उतरोगे? मैं तो बॉम्बे सेंट्रल उतरूँगी।’ मैंने कहा–‘एक काम करते हैं, तुम नाला सोपारा न उतर के, बॉम्बे सेंट्रल उतरो।’ तो बोला–‘नहीं मैं बोरीवली उतर जाऊँगा और रातभर प्लेटफार्म पर सोऊँगा बेंच के ऊपर। सुबह 9 बजे मेरी माँ घर में झूठ बोलकर के, या झूठ नहीं भी बोलकर पूजा के लिए निकलेगी श्रीराम मंदिर, और माँ वहाँ मंदिर न जा कर के प्लेटफार्म आएगी थ्री व्हीलर पकड़ कर के मुझसे मिलने के लिए और ये चायवाले का जो स्टॉल है, यही हमारे मिलने की जगह है, यहीं हम मिलेंगे और दो-ढाई घंटे माँ जो है मेरे साथ रहेगी। और उसके बाद मैं माँ को स्टेशन पार करा कर के थ्री-व्हीलर में बैठा दूँगा, और फिर मैं ऐसे ही रात बिताऊँगा, और उसी तरह से मैं बोरीवली जाऊँगा और मैं डिलक्स पकडूँगा।’ तो मैंने उससे कहा कि ‘नहीं, रात को तुम प्लेटफार्म पर नहीं सोओगे। आज से तुम बिना माँ के नहीं हो, तुम चलो मेरे घर चलो, रात को मेरे बच्चों के साथ तुम वहीं सोना और सुबह मैं तुम्हारे साथ बच्चों को घर में छोड़ कर के मैं तुम्हारे साथ वहाँ चलूँगी, नाला सोपारा। तुम्हारी माँ से मिलूँगी।’ और फिर वह रात और वह सुबह और वह दिन, वह भेंट, उसने मेरी जिंदगी का वह फलसफा ही पलट दिया। मैं बता नहीं सकती, मैंने कहा–धिक्कार है, मैं अपने को एक सामाजिक कार्यकर्ता, मामूली-सा समझती हूँ, मगर मेरे जो नेता हैं ट्रेड यूनियन के उन्होंने भी कभी नहीं सोचा इनके बारे में, कि आरक्षण में ओबीसी, ये, वो। ये क्यों नहीं हैं? मेरी मलाल कि गोरे ने क्यों नहीं सोचा–जो वंचितों के लिए रात-दिन काम करती हैं, हमलोग को सड़कों पर डिब्बे लेकर खड़ा कर देती हैं कि आने-जाने वालों से कुछ मदद माँगो! क्यों नहीं इन्होंने सोचा? इनके बारे में तो कभी सरकार ने भी नहीं सोचा, इतने बड़े-बड़े कानूनविद, इतने बड़े-बड़े…!

ये जो तकलीफ मैंने उस रात झेली है, उस सुबह झेली है, ये था मेरी जिंदगी का वह डिपार्चर जिसकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी! उस दिन के बाद अपराध बोध लिए मैं डायरियाँ लिखती रही। और उसको मैंने कहा–‘जाने से पहले भी तुम मेरे घर आना।’ बच्चे स्कूल चले गए, वो घर मिलने के लिए आया, मैंने उससे पूछा–‘बहुत थोड़े से पैसे मेरे पास होते हैं, दो-दो गृहस्थियाँ एक दिल्ली में चलती है, एक यहाँ पर। और मैं फ्रिलांसर हूँ। मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूँ।’ उसने कहा–‘उतने पैसे मेरे पास में हैं।’ फिर भी मैंने जबरदस्ती उसको कुछ दिया, और वह मेरे पाँव छू करके गया, मैंने कहा, ‘मैं तुम्हें संपर्क करूँगी, कहाँ रहते हो?’ उसने अपना पता दिया ‘बदरपुर’ दिल्ली। वहाँ वो एक दल के साथ, अपनी ही बिरादरी के दल के साथ रह रहा था। उसने मुझे बताया था कि वह पढ़ना चाहता है, वह अपनी शिक्षा जारी रखना चाहता है, वह जिंदगी से मुक्त घूमना चाहता है, उसके दल वाले नाचते, गाते कभी गाजियाबाद जाते हैं, कभी फरीदाबाद जाते हैं, कभी कहीं आसपास के इलाके में जाते हैं। वह सिर्फ जाता है उनके साथ में लेकिन खड़ा रहता है, मजबूरी है। तो उस दिन मैंने तय किया था कि मैं इस विषय पर जरूर लिखूँगी, लेकिन मैंने नहीं लिखा! मैं अपने लेखन के किसी और प्रोजेक्ट में लगातार, लगातार रही और बात दिमाग से आई-गई हो गई। और 2010 की बात है, मैं दिल्ली के ‘वर्धमान अपार्टमेंट’ में रह रही थी, और अब मेरा घर थोड़ा पास में ही है, दूसरा है। लेकिन वहाँ पर जनगणना के लिए जो सरकारी अधिकारी आते हैं, वो आए और उन्होंने कहा कि चुनाव होने वाला है, हम ये जो है अपडेट कर रहे हैं, आपके घर में कौन-कौन है, और ये है वो है। तो जो फार्म उन्होंने मुझे दिया भरने के लिए उसमें मेल, फीमेल तो था ही, जीरो अदर भी था। मेरा सवाल था, जिज्ञासा, मैं पत्रकार भी फ्रिलांस रही हूँ। जिज्ञासा मेरे मन में उपजी कि ये जीरो अदर क्या है? तो उन्होंने कहा, ‘ये सरकार सोच रही है कि ये जो लिंग विकलांग हैं उनको लेकर के। और उनको भी विचार हो रहा है आरक्षण दिया जाएगा। पाँच करोड़ के लगभग इस देश में लिंग विकलांग हैं।’

सुनकर मैं दंग रह गई, क्योंकि इसके पहले ही मैंने, ‘नाला सोपारा’ को लिखना शुरू कर दिया था और उसका एक अंश पत्रिका है–‘साहित्यिक वागर्थ’ जो कोलकाता भारतीय भाषा परिषद् से छपती है। उसमें मैंने एक अंश भेजा था, और शंभुनाथ जी संपादक थे, और वह अंश उन्होंने बहुत सहर्ष छापा। उसको पढ़कर के एक जज हैं वैष्णव जी, उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी कि ‘चित्रा जी आपका ये अंश पढ़कर के मेरी आँखों से आँसू बह रहे हैं।’ उसके साथ ही एक दूसरी चिट्ठी मिली–वो चिट्ठी थी हिंदी के एक बहुत बड़े लेखक, बहुत बुजुर्ग लेखक प्रो. रमेश चंद्र शाह जी, जिन्होंने ‘किस्सा गुलाम’ बेगम बादशाह लिखा, उनकी चिट्ठी थी–‘चित्रा जी इस अंश को पढ़ते हुए मेरी आँखों से आँसू नहीं थम रहे थे’ और ये वही अंश था, आरंभिक अंश! जो मैंने पढ़कर सुनाया, आंशिक! और मैंने तुरंत-तुरंत फोन किया रमेशचंद्र शाह जी को। बोले–‘चित्रा जी क्या उपन्यास पूरा हो गया?’ मैंने कहा–‘नहीं।’ जब जनगणना के लिए आया अधिकारी तो उस वक्त लगा कि मुझे लिखना चाहिए! मैं लिखना चाहती हूँ। मैंने डायरी में सारे नोट्स लिए हुए हैं और मैं नरोत्तम (उस बच्चे का नाम)। मैंने कहा, मैं लिखना चाहती हूँ लेकिन अब मैं लिख रही हूँ…जब से मैंने जीरो अदर्स के बारे में पढ़ा है और वो पहला अंश मैंने भेजा है। तो उन्होंने कहा, ‘मुझे इंतजार रहेगा चित्रा जी, इस बारे में तो मैंने कभी पढ़ा ही नहीं।’ जबकि, जैसा कि तुमने कहा, ‘हर सड़क पर मैंने ये दृश्य देखा है। हर घर में जब बच्चा पैदा होता है, मैंने यह दृश्य देखा है।’

उस दिन मैंने ये निश्चय किया–लिखना कैसे है, उसकी संयोजना किस तरह से करूँ, माँ और बेटे के बीच! माँ वो समाज जिस समाज से वो आया है गुजराती समाज से, और वो समाज जो हमारा वर्तमान समाज है, और जिस वर्तमान समाज में हम इक्कीसवीं सदी में, हमारे नेता ने उस समय, राजीव गाँधी ने 21वीं सदी में जाने का सपना देखा और युवाओं का समाज होगा वो, उस समाज में ये युवा कहता है मैं पढ़ना चाहता हूँ। मैं लिंग विकलांग हूँ, लेकिन मेरे इस धड़ के ऊपर एक अगर मस्तिष्क भी है। दीदी में पढ़ना चाहता हूँ। मैं किसी का हाथ पकड़ लूँ तो वह हाथ नहीं छुड़ा सकता, मेरे अंदर वो ताकत है। ये जो मस्तिष्क की बात उसने की, तो मुझे लगा–जो उसके सवालों से मैं जूझी और उसने बताया मुझे कि उसके माँ-बाप ने किसी तरह उस लिंग विकलांगता को छिपाकर के…। उपन्यास में ये सब मौजूद है और आपने वह अंश भी मनमीन पढ़ा कि उसके मन में जो सवाल उठे, वो सवाल उसने रखे हैं। तो इस तरह से वो माँ किस तरह से और वो पिता किस तरह से समाज में बाध्य होते हैं, क्यों बाध्य होते हैं? क्योंकि ऐसे बच्चे जिस घर में भी होते हैं उस घर को लोकापवाद का भय होता है। उसको लगता है वो अपने लोक समाज में कैसे जिएगा, किसी को पता चल गया तो उसके घर के अन्य बच्चों की शादी-ब्याह नहीं होगी। अरे इसके घर में तो लिंग विकलांग है! यानी हिजड़ा है। जिसे हम आज की भाषा में ट्रांसजेंडर कहते हैं। तो ये ट्रांसजेंडर क्यों घर में अपने नहीं रह सकता? ये सवाल ये उपन्यास रखता है सामने, और बने रखने की कोशिश की है।

चित्रा जी, मुझे पूरी उम्मीद है कि ये सवाल आज दर्शकों के मन में जरूर उठा होगा, हमारी आँखें जो बंद थीं। कई बार हमारे सामने होते हैं लोग और हमें दिखाई नहीं देते, तो आपने हमारी आँखें खोली हैं। और मुझे पूरी उम्मीद है कि दर्शक ये उपन्यास पढ़ेंगे, उनकी आँखें और खुलेंगी और ये सवाल उठेगा! और ट्रांसजेंडर, इंटर-सेक्स लोग ये जो भी शब्द हमने इन्हें दिए हैं, इन्हें अपना दर्जा मिलेगा समाज में। और हम इसके लिए आभारी हैं कि आपने ये उपन्यास लिखा है! चित्रा जी इसके अलावा आपने और बहुत काम किए हैं, मैं थोड़ा-सा उसके बारे में आपसे बात करना चाहती हूँ। ये जो आवाज आपने आज लिंग विकलांग लोगों के लिए उठाई है ये पहली बार नहीं उठाई है आपने! आप छोटी-सी बच्ची थीं, आपने जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई थीं। फिर आपको मुहब्बत हुई, आपने मुहब्बत के लिए आवाज उठाई, फिर आप मुंबई में झुग्गी-झोपड़ियों में रहीं–आपने मजदूरों के लिए आवाज उठाई। तो हमें बताएँ कि ये जो बगावत है आपके अंदर ये कहाँ से आई?

ये बगावत, अगर आज मैं सोचती हूँ मनमीत, तो मुझे लगता है कि इसके पीछे कुछ मानसिक दबाव रहे हैं, और वो दबाव बिल्कुल स्पष्ट थे, कि हम जब भी गाँव जाते थे, मुंबई शहर से तो वहाँ हम पाते थे कि मेरी वो माँ जो मुँह खोलकर परदा न करके शहर में रह रही है। वो गाँव में दो हाथ का घूँघट काढ़ कर के रह रही है। वो मर्दों के सामने ही नहीं रह रही है, वो मेरी दादी के सामने भी, अपनी जेठानी के सामने भी घूँघट काढ़ कर रह रही है। और इसके साथ-साथ मुझे टोका गया कि ये जो छोटी फ्रॉक पहनी है न, मेरी माँ को टोका गया कि ये छोटी फ्रॉक यहाँ मत पहनाओ, यहाँ नहीं चलेगा, यहाँ सलवार-कमीज पहनाओ। मुझे टोका गया कि ये बाल खोलकर के, ये घर में मत डोलो, बाहर मत जाओ, घर के बाहर लड़कियों का खेलना मना है, सिर्फ मर्द घर के बाहर बैठे हैं दरवाजे पर। लड़के मुख्य द्वार से बाहर जा सकते हैं, लड़कियाँ नहीं जा सकतीं। लड़कियों के लिए एक दूसरा दरवाजा बना हुआ है, उस बड़े से घर में दो आँगनों वाले–एक छोटा आँगन, एक बड़ा आँगन और उसके बाद बड़ा-सा पैसेज, उसके बाद कुआँ, और उसके बाद एक दरवाजा। जिसे खिड़की कहा जाता था। वहीं से मेरी माँ, मेरी चाची, मेरी बड़ी माँ यानी मेरी ताई, वो लोग आती-जाती थीं। कहीं अगर बाहर भी जाना है–मेले जाना है, मंदिरों में जाना है, कार्तिक का नहान यानी मेले में स्नान जो होता है गंगा का, वहाँ जाना है। सुबह-शाम ऊपर टटियाँ (पाखाने) बने हुए हैं चार, लेकिन लोटा लेकर के वो सब औरतें पिछुआड़े के दरवाजे से बाहर खेतों में जाती थीं। इसलिए जाती थीं कि उनके लिए उस घर में केवल आँगन से जितना आकाश दिखता है या छत से दिखता है जिसे अटारी कहते थे, बस उतना ही दिखाई देता था। वो अगर लोटा लेकर के खेतों में न जाएँ मनमीत तो वो गाँव की अन्य औरतों से नहीं मिल सकतीं, उनसे नहीं बतिया सकतीं, घर में सास के आदेश सुनने पड़ते हैं, वो सास से बातें नहीं कर सकतीं, अपने को बाट नहीं सकतीं! तो ये मैं देखती थी कि सारी सुविधा होने के बावजूद उन औरतों के मन में ये भावना क्यों है? क्यों जाती हैं वो बाहर, जबकि मुझे तो आदत ही नहीं है लोटा लेकर के बाहर जाने की। तो उसके बाद बार-बार ये टोका-टोकी! भाई जा रहे हैं घर के बाहर मुख्य दरवाजे से, मैं जा रही हूँ। फौरन मुझे पकड़ लिया जाता–डाँटा जाता–कितनी बार समझाया जाएगा। समझ में नहीं आता तुमको! लड़कियाँ घर से बाहर नहीं निकल सकती। 

तो ये जो था और मैंने एक और फर्क पाया–मुंबई लौटने पर। मैंने ये फिर महसूस करना शुरू किया कि भाई मेरे डॉन बॉस्को माटुंगा मुंबई के स्कूल में, कॉन्वेंट में पढ़ रहे हैं और हॉस्टल में रह रहे हैं और हम दोनों बहनों को मेरे से जो छोटी बहन थी उनको हिंदी स्कूल में डाला गया, पहले सरकारी सेंट्रल स्कूल में डाला गया, पवई लेक में…कि वहाँ पर, लेकिन कुछ हत्या-वत्या हो गई थी। आई.आई.टी. पवई का, विकास हो रहा था उन दिनों, तो कुछ मजदूरों की चोरी-चपाड़ी का किस्सा हुआ, तो हमें वहाँ से निकाल लिया गया, और हिंदी हाईस्कूल घाटकोपर में डाला गया और वहाँ पढ़ाया गया। और वहीं से हमने पूना बोर्ड से हाई सेकेंडरी पास किया। ये फर्क बेटे और बेटी में, अपने ही इतने बड़े खानदान की लड़की, पोती (मैं)। मेरे बाबा डॉक्टर, मेरे बड़े चाचा फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर, मेरे पिता नेवल अधिकारी, मेरे सबसे छोटे चाचा पुलिस अधिकारी, और बाद में वो प्रमोशन होते-होते पुलिस कमिश्नर बने बॉम्बे के। तो ये फर्क पुरुषों और स्त्रियों में है, जो मैंने पाया, इसने विद्रोह मेरे मन में भर दिया। और ऐसे ही मैंने एक उदाहरण–जब मुझे स्कूल में कहानी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कहा गया मनमीत, तो वो घटना भी कहीं एक टर्निंग प्वाइंट है। मैंने कहा–मैं कहानी कैसे लिखूँ, तो मेरी कक्षा के हिंदी के अध्यापक ने कहा कि जैसे कहानियाँ तुम अपने पाठ्यक्रम में पढ़ती हो, तो मैंने कहा कि अच्छा! तो बोले कि कौन-सी कहानियाँ तुमने पढ़ी हैं? तो मैंने कहा कि मैंने ‘ठाकुर का कुआँ’ पढ़ी है, प्रेमचंद की। मैंने ‘ताई’ पढ़ी है, अरुण जी की। मैंने ‘उसने कहा था’ पढ़ी है। मैंने कुछ और कहानियों के नाम लिए–मैंने ये, ये पढ़ा है। तो उन्होंने कहा, ‘कौन-सी कहानी तुम्हें अच्छी लगी?’ तो मैंने कहा–‘ठाकुर का कुआँ।’ ‘क्यों?’ मैंने कहा–‘मुझे इसलिए अच्छी लगी कि ‘ठाकुर का कुआँ’ ठीक मेरे घर की कहानी है। मेरे घर के दरवाजे पर कुआँ है, घर के दूसरे आँगन में भी एक कुआँ है, लेकिन वो लोहे के ढक्कन से ढँका रहता है, उस कुएँ का पानी नहीं पिया जाता है।’ और मैंने जब सवाल किया कि घर में कुआँ है, और कहारिन जो हैं, बाहर के कुएँ से पानी क्यों भरती हैं घर में, तो मेरी माँ ने कहा, ‘बेटा इतनी सवाल क्यों करती है, ये कुआँ सजा देने का कुआँ बन गया है। घर की किसी लड़की का पाँव इधर-उधर होता है, तो इस कुएँ में धकेल कर कह दिया जाता है कि वह पानी खींचने के लिए सौखिया रही थी, पाँव फिसल गया।’ मैं सुनकर दंग रह गई।

दूसरी एक छोटी सी घटना और हुई, वो घटना हुई, वही जो मैंने कहा न कि कहानी लिखने के लिए कहा जब उन्होंने, तो वो तो कुआँ मुझे याद आया और उसके साथ डोमिन काकी के साथ का व्यवहार याद आया। डोमिन आईं घर में, ऊपर के पाखाने अटारी यानी छत के पाखाने साफ करने के लिए, जब वो साफ करके आ जाती थीं तो उनको टोकरी भर अनाज दिया जाता था और उसके साथ-साथ पनेथी यानी मोटी-मोटी रोटियाँ दो और उसके ऊपर आम का अचार, तो मैंने दादी को चिल्ला कर के कहा–‘दादी, दादी देखो डोमिन ऊपर पाखाना धो आई हैं, बैठी हैं।’ तो बोली–‘डोमिन! डोमिन मत कहा कर इनको, इधर आ’–एक चाटा लगाया। ‘ये डोमिन नहीं, डोमिन काकी लगती हैं, डोमिन काकी कहा कर।’ गाँव में हर ऊँच-नीच, कुछ नहीं है रिश्तों में। वो कोई-न-कोई संबोधन उद्बोध होता है और उसका इस्तेमाल किया जाता है कि तेरी काकी लगती हैं। तो मैंने कुछ दिनों बाद…फिर मैं गिट्टक खेल रही थी गाँव की लड़कियों के साथ आँगन में। मैंने कहा, ‘डोमिन काकी आई हैं’, तो बोली, ‘ये टोकरी भरा अनाज और ये पनेथी (मोटी रोटियाँ), ये ले जा और उनके कोछ में डाल आ।’ मैं गई लेकर डालने के लिए, मैंने पनेथी रखी यानी रोटी रखी, अचार रखा और वो कोछ में यानी आँचल में वो अनाज की टोकरी पलट दी, अनाज बिखर गया आस-पास। मैं बैठ गई, मैं उसको बैठकर के अनाज सरियाने लगी, उनको जो छिड़क जाना कहते हैं, बिखर जाना। मैं सरियाने लगी। मेरी दादी ने–उठीं वो अपने जगह से और दौड़ कर के आईं और मुझे पकड़ के, झटक के उन्होंने एक चाटा मारा गाल में! ‘छू लिनो’ यानी छू लिया तुमने, और इसके बाद उन्होंने (डोमिन काकी ने) हाथ जोड़ लिया–‘बच्ची है।’ और उन्होंने मेरी बड़ी माँ यानी ताई को आवाज दी कि आ और इसको नहान घर में ले जाओ और गंगाजल पानी में डाल दो। इसको नहलाओ और इसके कपड़े रख दो। खुद भी नहाओ और मेरे लिए भी दूसरे नहान घर में नहाने कि लिए बाल्टियाँ भर के रख दो, और उसमें भी गंगाजल। यानी तीनों जने नहाएँगे! ‘काकी को छू लिया!’ काकी कहते हैं! और ये रिश्ता कायम करते हैं और उसके बाद ये भी कि छू लिया! तो ये कैसा रिश्ता है, ये कैसा संबोधन है? वो रिश्ता जिसमें रिश्ते की कोई भावना ही नहीं है।

तो मैंने उनको बताया ये दोनों घटनाएँ। तो उन्होंने कहा, ‘तुम लिखो।’ मैंने कहा, ‘ठाकुर का कुआँ’ पढ़कर के मुझे यही लगा कि मेरे घर के दरवाजे पर जो कुआँ है उस घर के दरवाजे के कुएँ में सिर्फ मेरा घर और मेरी बड़ी पुरखीन जो दादी हैं, दूसरी दादी हैं उनके घर वाले ही पानी भर सकते हैं। कोई अन्य नहीं भर सकता। किसी दलित के टोले का कोई व्यक्ति पानी नहीं भर सकता। तो ये कहानी कहीं-न-कहीं टैली करती है और मैंने ‘डोमिन काकी’ कहानी लिखी। और वो कहानी छपी है ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से, जो संग्रह है मेरी लघुकथाओं का उसमें ‘डोमिन काकी’ और वह कई जगह पाठ्यक्रमों में भी पढ़ाई जा रही है। तो इस तरह से इन भावनाओं के, इन दबावों के, इन उलझनों के, ये कैसा हमारा बड़प्पन है? हम एक अनाज देते हैं और वो यही अनाज, हमारे खेतों के अनाज जब इनके आँचल में जाता है तो वो न छूने योग्य हो जाता है!

चित्रा जी आपकी यही विशेषता है कि आपकी कथनी और करनी में फर्क नहीं है। आपके व्यक्तित्व और कृतित्व में एक एकरूपता है, जो हमारे समाज में नहीं है। हम कहते तो काकी हैं, लेकिन छूने से हम घबरा जाते हैं, हम छुआछूत में विश्वास रखते हैं। और यही जो आपने समाज में देखा, ये विद्रोह की भावना बना और आपके पन्नों पर उतर आया। और ये हमारा सौभाग्य है हम पाठकों का कि हम आपके द्वारा इतना कुछ सीख पा रहे हैं। आज मुझे लगता है हमारी आवाज और बुलंद हो गई है। तो हमारे साथ अपना कीमती वक्त जो आपने बिताया है आपके लिए बहुत-बहुत शुक्रगुजार हैं, अब समय नहीं है, नहीं तो बातचीत करने का बहुत मन है लेकिन आज की कड़ी हमें यहीं समाप्त करनी होगी चित्रा जी।

बहुत-बहुत धन्यवाद! और मैं आपकी पूरी संवाद की जो यूनिट है सबको धन्यवाद देती हूँ और ये संवाद मुझे लगता है लेखकों के मन के ऐसे द्वार और चौखटे खोलेगा जिसे सुनकर लोग जानेंगे कि सृजनात्मकता का अर्थ क्या होता है। समाज सापेक्षता सृजनात्मकता क्या होती है। बहुत-बहुत धन्यवाद! ‘नई धारा’ के इस कार्यक्रम के लिए और बहुत खुशी हुई मुझे मनमीत, बहुत-बहुत धन्यवाद! 

बहुत-बहुत धन्यवाद! 

दर्शको, आँखें तो खुल गईं अब हमारी, अब देखते हैं हम में से कितने लोग आवाज उठाते हैं!


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