सोलह दिनों का सफर

सोलह दिनों का सफर

आज सवेरे ही इंदु बिलासपुर से विवाह में सम्मिलित होकर लौटी थी। शादी में हुई भाग-दौड़ की थकान और तेज सिर दर्द की वजह से इंदु काफी परेशान थी। जल्दी-जल्दी जतन कर इंदु ने अपने सभी शादी वाले कपड़ों को ब्रीफकेस से निकालकर अलमारी में करीने से लगा दिया। इंदु की हमेशा की ही आदत थी, अपने कामों को जल्द-से-जल्द समेट कर सुव्यवस्थित कर देना। उसके बच्चे जब भी उसकी अलमारी देखते, तो बोलते…‘मम्मा! आपकी व्यवस्थित चीजों को देखकर कभी लगता ही नहीं, आपने उनको निकाला भी था। सभी कपड़ों की तह और प्रेस को देखकर लगता है कि उनको कभी खोला-पहना ही नहीं गया। हम आपसे बहुत सीखते हैं पर आपके जैसा कर ही नहीं पाते।’

‘समय से सब आ जाता है बेटा…धीरे-धीरे…इन सब बातों को सोचना नहीं चाहिए। बस धीरे-धीरे आदतों में ढालोगे सब होता जाएगा…।’

तेज दर्द में भी अपना बैग खाली करते हुए अपने बच्चों की बातों को इंदु बार-बार दोहरा रही थी। पूरी यात्रा में उसे भयंकर सिर दर्द महसूस हो रहा था। दो सिर दर्द की गोली खाने के बाद भी दर्द में कोई आराम नहीं था।

इंदु को लग रहा था सब जल्दी-जल्दी सुव्यवस्थित करके वो बिस्तर पर जा कर लेट जाए। पर जैसे ही लेटने का सोचा, उसको लगा बी.पी. की भी दवाई खानी है तो पहले कुछ खा लें। मुश्किल से दो निवाले ही उसके मुँह में गए होंगे कि तेज चक्कर आने की वजह से उसका सिर टेबल से टकराया और उसके बाद उसको होश ही नहीं आया।

उच्च रक्तचाप के कारण भीषण सिर दर्द के बाद हुए मस्तिष्क आघात (ब्रेन हेमरेज) ने इंदु को अस्पताल पहुँचा दिया था। हालाँकि बी.पी. की दवाइयाँ इंदु समय पर लिया करती थी, पर होनी को कौन टाल पाया है।

बिस्तर पर निढाल पड़ा हुआ इंदु का शरीर, अब उसके बस में नहीं था। जब तक साँस थी, इंदु में महसूसता तो थी ही। दिल बराबर चल रहा था। दिमाग ने लगभग साठ प्रतिशत काम करना बंद कर दिया था। एक हाथ में ड्रिप और नाक से गुजरती हुई नलकियाँ डॉक्टरों ने इलाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए लगा कर रख छोड़ी थी।

सभी डॉक्टरों के परिचित होने से इलाज प्रथम दर्जे का हो रहा था। पर अब इंदु को अपने निमित्त का आभास था। सो सब छूटता हुआ नजर आ रहा था। किसी भी जीव के लिए अपना शरीर छोड़ना इतना आसान कहाँ होता है…कैसे धीरे-धीरे अलग-अलग रिश्तों में बँधे-छूटते संबंधी, नेह-मोह, जीव को न जाने कितने अनुभव करवाते हैं…इंदु को बहुत अच्छे से आभास हो रहा था। जब तक शरीर नहीं छूटता इंदु और उसकी आत्मा एक ही थे।

सुबह से ही चुपचाप बगैर किसी हरकत निश्चेत बिस्तर पर पड़ी इंदु, अपने ऊपर सब घटित होता हुआ निहार रही थी। विदा लेने से पहले सत्तर साल के इस जीवन में इक्यावन साल का वैवाहिक जीवन और उन्नीस साल बचपन के, चलचित्र से उसके आसपास घूमने लगे थे। दिमाग भले ही पूरी तरह काम न कर रहा हो पर स्मृतियाँ तो अपना समय लेकर ही धीरे-धीरे विलुप्त होती हैं। जाने से पहले इंदु को सबसे ज्यादा बचपन की यादों संग अपनी माँ का लाड़-प्यार याद आया, जो कि हमेशा ही उसका संबल बना।

इंदु का शरीर चोटिल पीड़ित था पर उसकी आत्मा अभी भी शरीर में जागृत अवस्था में थी, जो कि स्वयं का पूरा आकलन कर रही थी। नए शरीर और नई प्रविष्टि की प्रतीक्षा में अस्पताल के तीन दिन और आने वाले तेरह दिन इंदु को मूक दृष्टा बनकर न जाने क्या-क्या महसूस करवाने वाले थे।

इंदु के आसपास बैठे उसके बच्चों का चुपचाप बार-बार सिसकना उसको बहुत आहत कर रहा था। बीच-बीच में बेटी कनक जब सुबककर रो उठती तो इंदु का हृदय आर्तनाद कर उठता। कैसे भी करके अपनी बेटी को एक बार गले लगा ले और उसको रोने न दे, पर निःसहाय-सी इंदु चुपचाप अपने बेसुध शरीर की क्षीण होती चेतना को महसूस करती रही।

आज जब अचानक ही बेटी कनक के पति जय ने कहा…‘कनक! तुम माँ को आवाज लगाओ, हो सकता है माँ कोई प्रतिक्रिया दें। सुनते हैं बच्चों की आवाजें माँ कभी टालती नहीं। कभी-कभी अनहोनियाँ भी हो जाती हैं कनक…एक बार माँ को आवाज लगाओ…सुसराल गई हुई बेटियों की आवाजें माओं को दूर से ही महसूस होती हैं…।’

कुछ समय पूर्व ही जय की माँ भी अचानक ही चली गई थी सो जय का भी इंदु के साथ बहुत स्नेह बढ़ गया था। तभी वो पुनः बोले…‘कनक! तुम आवाज लगा कर तो देखो शायद माँ के अंदर चेतना आ जाए।’ जय के बार-बार बोलने पर कनक भी माँ को पुकारने को तैयार हो गई।

‘मम्मा! मम्मा उठो न…सुन रही हो अपनी बेटी को…ठीक हो जाओ माँ!… आपके बच्चे आपके बगैर कैसे रहेंगे।… आपको अभी नहीं जाना है। हम सब आपके बिना कुछ भी नहीं सोच सकते…प्लीज माँ! उठ जाओ न…ठीक हो जाओ…हमें आपकी बहुत जरूरत है माँ…।’

कनक माँ को न जाने कब तक आवाज देती रही। पर अब जवाब देना इंदु के बस में नहीं था। कोई जवाब न मिलने पर कनक ने जोर-जोर से सुबकना शुरू कर दिया। जय और कनक दोनों ही हालाँकि पहले से जानते थे कि माँ अब कभी जवाब नहीं दे पाएँगी। पर मन था बच्चों का, जो हकीकत को स्वीकारने के लिए एकदम सहमति नहीं दे रहा था।

इंदु से भी अपनी जायों का परेशान होना कहाँ देखा जा रहा था। घंटों बेटी का तो कभी बेटे ईश का उसके हाथ में खुद का हाथ लिए-लिए बैठना…एक तरफ तो उसको बहुत अच्छा लग रहा था। पर दूसरी तरफ उसको अपनी बेबसी का भी एहसास हो रहा था कि अपने बच्चों का एक आँसू भी नहीं पोंछ सकती। अब उसका शरीर पर कोई जोर कहाँ था। जिस शरीर के साथ वह अपने प्रिय जन को लाड़-प्यार-दुलार किया करती थी। आज अस्पताल के बिस्तर पर उसको पड़े-पड़े तीन दिन हो चुके थे।

इंदु हर रोज रात को अपने पति शिशिर को अस्पताल में आता हुआ देखती थी पर वो एक घंटे से ज्यादा कभी भी अस्पताल में नहीं ठहरता था। हर रोज ही उसके साथ कोई-न-कोई उसका मित्र होता जो कि उसके भविष्य के लिए चिंताएँ करता हुआ नजर आता। दुनियादारी की बहुत सारी बातें शिशिर और उसके दोस्त इस एक घंटे में इंदु के बिस्तर के पास लगे बिस्तर पर बैठकर करते।

इंदु को कभी भी महसूस नहीं हुआ कि शिशिर अस्पताल में सिर्फ उसको देखने के लिए आया हो या इंदु के जाने से पहले उससे विदा लेने या उसको विदा करने आया हो। कहने को शिशिर ने घरवालों से जिद करके इंदु से शादी की थी। बेहद खूबसूरत इंदु उन्नीस साल की उम्र में ही शिशिर के घर ब्याह करके आ गई थी। इक्यावन साल के वैवाहिक जीवन में सिर्फ खुद लिए उसने शिशिर से कुछ ही पल चाहे थे। जिनकी गिनती आज जाने से पहले इंदु ने करनी चाही तो एक हाथ की उँगलियों पर ही वो खास पल सिमटकर रह गए, जिनमें शिशिर सिर्फ इंदु के लिए जिया हो।

आज न जाने क्यों इंदु को शिशिर का खाने से भरी हुई थाली फेंकना याद आया और उस फेंकी हुई थाली के कँपन के साथ इंदु को खुद में भी हुई कँपन महसूस हुई। न जाने कितने दिनों तक वो पहले स्वयं से, फिर शिशिर के शांत होने पर थाली फेंकने की वजह पूछती रही…पर उसको कभी भी संतुष्टि भरा जवाब नहीं मिला। शिशिर का बचपन बहुत कठिनाइयों में बीता था, जिसका असर इंदु को अक्सर उसकी बातों और प्रतिक्रियाओं में दिखता था। पर वो इन सबकी जिम्मेवार तो नहीं थी।

खाना वही था जिसको बच्चों ने प्रेम से खाया तो फिर शिशिर ने किस कुंठा को अहम बना कर उस पर उतारा, उसके लिए बहुत पीड़ा देने वाला था। ऐसे वाकये इंदु के जीवन में होते ही रहते थे। माँ-बाप से उपेक्षित शिशिर के लिए क्रोध उतारने को सुगमता से उपलब्ध लक्ष्य इंदु ही थी। इंदु इन सब बातों को जाने से पहले याद नहीं करना चाहती थी। पर अभी भी इतने सालों के वैवाहिक संबंध के बाद भी तो शिशिर उसके लिए कहाँ था।

अगर वह सिर्फ उसके लिए आता तो किसी मित्र को साथ लाने की आवश्यकता ही कहाँ थी। एकांत में वह उसके पास बैठता शायद अपने अतीत से जुड़ी हुई कुछ बातों को दोहराता-सोचता, तो इंदु को लगता कि शिशिर उसके लिए ही आया है।

पर ऐसा तो हुआ ही नहीं। इंदु को अब शिशिर का व्यवहार देखकर, उसके प्रति मोह पूरी तरह टूटता हुआ नजर आ गया। हमेशा की तरह ही इंदु को शिशिर से यह उम्मीद कभी भी नहीं थी कि वह उसके बच्चों की तरह सिरहाने के पास अकेला बैठेगा और समय बिताएगा। बस मन था जाने से पहले इंदु का, जिसके रहते एक कसक उसको अनकहा-सा सोचने को कह बैठी।

विवाह उपरांत शिशिर के व्यवहार की वजह से इंदु ने उसे मन-ही-मन छोड़ना शुरू कर दिया था। शिशिर का अपनी दोस्ती यारी में मगन रहना, इंदु की जरूरतों पर साथ न होना, दोनों के बीच में संवादों की एक खाई बनाता गया था।

बच्चों की बातें दोनों के बीच कभी-कभी बाँध बनती थी। पर इंदु को समय रहते सब समझ में आ गया था कि यह सब क्षणिक से भ्रम होते हैं। इसलिए शिकायत करने की बजाय उसने स्वयं को जिम्मेदारियों के प्रति बाँध लिया था।

खैर, अब वह अंतिम क्षण भी आ गया था, जब इस शरीर को और शरीर से जुड़े रिश्ते-नातों से जुड़े सब तार टूटने थे। सारी रात माँ के साथ जागने की वजह से कनक को झपकी आई ही थी कि इंदु ने विदा लेने से पहले बच्चों से मिलने के लिए अंतिम बार अपनी बची-खुची संपूर्ण ऊर्जा को लगाकर ज्यों ही दोनों बच्चों को दुलार करने का जतन किया दोनों ही उठ कर बैठ गए।

माँ की तेज उतरती-चढ़ती साँसों के साथ दोनों ही ईश्वर से प्रार्थना कर बुदबुदाने लगे…‘हमारी माँ के कष्ट कम करो ईश्वर…माँ को कष्ट अब मत दो…!’

शायद माँ को चुभती सुइयों को तीन दिनों में ईश और कनक ने अपने अंतः से महसूस किया था। डॉक्टरों की नाउम्मीद ही ने दोनों को इस निर्णय पर पहुँचा दिया था कि माँ से अब उनको विदा लेनी ही होगी।

बड़ा होने के कारण ईश को बहुत कुछ सँभालना था सो ईश बहुत खामोश हो गया था। कनक रो-रोकर बेहाल थी। माँ का जाना बेटी के लिए बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि माँ के जाते ही उसका मायका आना भी कम होना, काफी हद तक तय ही था। इंदु भी इस सच से वाकिफ ही थी। आज अपनी मृत देह के साथ इंदु भी स्वतंत्र चेतना थी।

अब इंदु को आगे के तेरह दिन उसी घर में ठहरकर अपने मोह-बंधनों से पूर्णतः मुक्त होकर नई यात्रा पर निकलना था। चोला छूटते ही इंदु का नाम भी उसी के साथ छूट गया। पर तेरह दिन की बची, जीव की इस यात्रा में इंदु की मित्रों और रिश्तेदारों के साथ तय की हुई, सह यात्रा अभी बाकी थी। इंदु को चाहते न चाहते हुए भी उसको देखना था।

ईश ने दौड़कर डॉ. शर्मा को बुलाया और पापा को भी फोन कर अस्पताल आने को कहा…‘शी इज नो मोर…’ डॉक्टर ने अंतिम सभी जाँचें कर इंदु के शरीर को मृत घोषित कर दिया। डॉक्टर ने इंदु के शरीर में लगी सभी नलकियों को निकालकर कचरा-पात्र में फेंक दिया। तब तक शिशिर भी अपने दो मित्रों को लेकर पहुँच चुके थे ताकि अस्पताल की औपचारिकताओं व शरीर को ले जाने की सुविधा रहे।

तभी इंदु को शिशिर की आवाज सुनाई दी थी वो वार्ड बॉय से बोल रहे थे…‘सुनिए…शरीर को अच्छे से लपेटकर बाँध देना। ताकि इसमें से जो फ्लूइड लगातार रिस रहा है…उससे कहीं वैन की सीट गंदी न हो जाए…।’ 

बोलकर शिशिर ने ज्यों ही ईश की तरफ देखा, ईश के चेहरे पर आए भावों को देखकर शायद अपने कहे पर शिशिर थोड़ा झेंप गए थे। बात को बदलते हुए ईश से बोले…‘ईश! तुम माँ के साथ वैन में जाओगे…तुम आगे की सीट पर बैठे होगे तो बीच-बीच में शरीर को सँभाल लेना…नहीं तो आगे की तरफ लुढ़क न जाए।’ 

हालाँकि सब बातें बहुत व्यावहारिक थीं, अगर शिशिर न भी बोलते तो भी ईश ऐसा ही करता। पर ईश शिशिर को तो कुछ नहीं बोला पर कनक को धीरे से बोल पड़ा…‘गाड़ी ड्राइ-क्लीन भी तो होती है कनक…पापा क्यों भूल जाते हैं! कितनी बार तुमने और मैंने गाड़ी में उल्टी की होगी और माँ ने पूरी गाड़ी साफ की होगी…। क्या हो गया है पापा को…!’ 

कनक ने कोई जवाब नहीं दिया। उसके दिमाग में तो कुछ भी नहीं घुस रहा था। तभी शिशिर ने ईश को कहा…‘किस तरह देख रहे हो ईश तुम मुझे…बी प्रेक्टिकल…जानता हूँ तुम्हारी माँ गई है बेटा…पर हिम्मत रखो यह हरेक के साथ होता है…सुन रहे हो न मुझे…।’

आज न जाने क्यों ईश को पापा के मुँह से माँ के लिए शरीर कहना भी अच्छा नहीं लगा। पर वह चुप रहा, क्योंकि उसने सोचा–पापा भी कहीं-न-कहीं मन में परेशान होंगे। बड़े होने के नाते उन्हें भी तो बहुत कुछ अरेंज करना है।

‘हिम्मत रखो बेटा। अभी बहुत कुछ सँभालना है तुमको…तुम्हारी माँ गई है। मैं तो हूँ न…कनक को घर भेज दो उसको यहाँ रुकने की कोई जरूरत नहीं। हम अस्पताल की सब औपचारिकताएँ पूरी कर देंगे, तुम भी माँ के साथ जाओ।’ 

‘पापा मैं भी माँ के साथ ही वैन में जाऊँगी, अगर आपको भी अस्पताल में जरूरत हो तो मैं यहाँ रहूँगी।’

‘नहीं, तुम घर जाओ और घर का सारा इन्तजाम देखो…क्योंकि जैसे-जैसे लोगों को पता चलेगा वह घर में इकट्ठे होंगे कनक। दोनों ने ही शिशिर की बातों को माना। आज इंदु को अपने दोनों बच्चों पर बहुत प्यार आया…उसके बच्चे समझदार हो गए हैं।’

वैन में बैठकर ईश ने पूरे रास्ते इंदु के शरीर पर हाथ रखा…शायद वो किसी भी कीमत पर माँ के संतुलन को बिगड़ने नहीं देना चाहता था। उसके लिए माँ का शरीर सिर्फ शरीर नहीं था…अभी भी माँ ही था।

घर पहुँचकर उसके शरीर को एक कमरे की जमीन पर लिटाया गया। अब इंदु अपने शरीर के पास बैठी हुई हर आने-जाने वाले को निहार रही थी।

कनक का घर के कामों को सँभालते-सँभालते बार-बार इंदु के पास आकर चुपचाप बैठ जाना, इंदु को भी सुख दे रहा था। दोनों बच्चे आने-जाने वालों को अटेंड करते-करते बीच-बीच में आकर इंदु के पास बैठ जाते थे। पिछला कुछ याद करके चुपचाप ही सुबकते और फिर किसी की आवाज पर या कुछ काम याद आते ही अपने काम में जुट जाते। दोनों की स्थिति देखकर इंदु को लग रहा था दोनों बहुत बेमन से उठते हैं।

तभी अचानक लगभग एक घंटे तक जब इंदु को कनक आसपास नजर नहीं आई तो इंदु भी बेचैन होकर इधर-उधर देखने लगी। दोनों भाई-बहन बगल वाले कमरे में एक दूसरे के गले लग कर खूब रो रहे हैं।

अब इंदु को अपने शरीर के पास से बच्चों के पास पहुँचना था। इंदु इस वक्त चाहती थी दोनों को अपने गले लगा ले, पर कितनी नि:सहाय थी वो इस समय। जिन बच्चों की खुशियों के लिए इतने साल निकाल दिए थे पर आज वो उनके एक भी आँसू को पोंछ नहीं सकती थी।

घर में इकट्ठे हुए सभी रिश्तेदारों के पास अपने-अपने दुखड़े थे। सब जैसे ही घर में घुसते, आँखों में आँसू दिखाई देते। पर जैसे ही किसी दूसरे की बातचीत का साथ मिलता, उनकी बातों में सारे विषय थे…बस इंदु से जुड़ी कोई बात नहीं थी। इंदु को आज कितना गैर जरूरी अपना अस्तित्व महसूस हुआ। जब तक हो, हो…उसके बाद सब खत्म।

यह सब वही थे जिनके आदर-सत्कार में एक लंबी उम्र इंदु ने गुजारी थी। संबंधियों से जुड़े रिश्तों के तार कितने रेशम के धागों से बँधे थे। जिनको बाँधने में सालों-साल लगे थे और वही बगैर वजह चुपके से टूट-छूट गए। इंदु को वैसे भी इन रिश्तों की क्षणभंगुरता का जीते-जी पूरा-पूरा एहसास था, क्योंकि जिस रिश्ते को इक्यावन साल से ऊपर का समय दिया वही उसका नहीं था तो उससे जुड़े रिश्ते समय के साथ टूटने ही थे। समय के साथ बँधे सब संबंधी थे।

तभी शिशिर ने ईश को आवाज दी…‘सब तैयारी हो चुकी है बेटा! अब हमें अंत्येष्टि के लिए निकलना चाहिए सभी लोग आ चुके हैं।’

‘पापा! थोड़ी देर और नहीं रुक सकते क्या?’ ईश ने पूछा।

‘नहीं बेटा कोई भी नहीं रुकेगा इतनी देर…समाज के लोगों के भी बहुत काम होते हैं…उनको भी जाना होगा। तुम जाओ और जाकर तैयारी करो।’

‘पापा! कनक भी साथ चलने का बोल रही है। वह चाहती है कि माँ की इस अंतिम यात्रा में वह साथ चले।’ ईश ने हिचकते हुए पूछा।

‘नहीं हमारे यहाँ बेटियाँ नहीं जाती, समझाओ उसको…तुम बड़े भाई हो।’

‘उसका बड़ा भाई हूँ तभी तो बोल रहा हूँ पापा। उसका मन है तो हमें उसको लेकर चलना चाहिए।’

‘अभी मैं जिंदा हूँ…जैसा मैं कहूँगा वैसा ही होगा। कनक घर पर रहेगी और यहाँ पर सब सँभालेगी। समाज को मुझे जवाब देने होते हैं…।’ पापा ने जोर देकर अपनी बात को कहा।

ईश ने आँखें उठाकर कनक की ओर निःसहाय दृष्टि से देखा। तो कनक ने इशारे से भाई को जाने को कहा। इंदु जिस घर में आज से इक्यावन साल पहले, जिस शरीर व आत्मा के साथ प्रविष्ट हुई थी, आज उस शरीर की अंत्येष्टि के बाद इंदु को बारह दिन बाद हमेशा के लिए विदा लेनी थी। इस अंत्येष्टि के बाद शरीर नहीं था, पर इंदु की आत्मा घर के लोगों के साथ वापस लौटी, क्योंकि अभी पूरे मोह छूटे कहाँ थे, जो बँधन मुक्त होकर इंदु विचरण कर पाती।

कपाल क्रिया के वक्त जब ईश को नारियल से इंदु के कपाल को खंडित करने को कहा गया, उसके हाथ काँप रहे थे…उससे यह नहीं हुआ। उसके लिए इंदु अभी तक माँ ही थी। तो कपाल क्रिया शिशिर ने की।

घर लौटने पर जहाँ शरीर रखा था वहाँ तेरह दिन तक दीपक जलाने व शयन करने की बात आई तो शिशिर की बातों से इंदु चकरा गई।

शिशिर ने ईश से कहा–‘तुम मेरे पास ही सोओगे ईश। मुझे किसी काम की जरूरत हुई तो, मुझे तुम्हारे पास उठ कर आना पड़ेगा। तुम्हें पता है न मुझे बी.पी. रहता है।’

‘पर पापा दीपक वाले कमरे में कौन सोएगा। फिर माँ अकेली ही…।’

‘माँ जा चुकी है ईश…दीपक में ज्यादा-सा तेल डाल दो।… कनक सो जाएगी वहाँ। तुम मेरे पास ही सोओ।’

‘पर पापा पंडित जी बोल रहे थे जिसने कपाल क्रिया की है या जिसने अंत्येष्टि की सारी क्रियाएँ की है वही माँ के पास सोएगा। आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती तो आप वहाँ मत सोइए। मैं और कनक उस कमरे में सो जाएँगे। मैं आपको बीच-बीच में आकर सँभाल लूँगा।’

‘सुना नहीं तुमने जो मैं बोल रहा हूँ वही करो।’ घर में मेहमान होने से पापा बहुत ही धीमी आवाज में बोल रहे थे। अभी सब व्यवस्थित न होने के कारण ईश भी पापा से कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं था। उसे तो बस जो जैसा कहें वैसा ही करना पड़ रहा था। कनक सारी रात इंदु की स्मृतियों के साथ बैठी रही और माँ को याद कर करके न जाने कितनी बार रोई। इंदु को हर पल कनक में अपनी छवि नजर आ रही थी।

अगले दिन जब पंडित जी ने कहा कि बारह दिन तक इंदु को जो-जो पसंद था, वही चीज उसके लिए भी बनाई जाए और उसी से अछूता निकले। तब ईश ने कनक की तरफ देखा…‘भाई, हमने कभी भी जानने की कोशिश ही नहीं की कि माँ को क्या पसंद है। बोलिए न आपको पता है। आप तो बड़े थे न…मुझे तो कुछ ही चीजें पता है जो माँ को पसंद थी। हमेशा ही तो माँ हम लोगों की ही पसंद का बनाती रही।’ 

इंदु अब सोचने में थी कि क्या करेंगे। अब तो उसे भी याद नहीं था कि उसको क्या-क्या पसंद था। जब रिश्तेदारों के बीच बात उठी तो शिशिर ने कहा…‘पंडित जी इंदु को क्या पसंद था याद नहीं है, पर बेटा कनक! जो भी घर में बनाता आया है सबके लिए वही बनवा दो। हम सब जो भी कुछ खाएँगे-पिएँगे इंदु को भी अच्छा लगेगा। हमेशा ही हम सबकी पसंद का खाना बना कर खिलाना, उसको खुश किया करता था न।’

शिशिर की बात सुनकर इंदु के कुछ और भ्रम टूटे। एक-एक कर दिन गुजर रहे थे। विदा लेने में अब मात्र दो दिन शेष बचे थे। ईश और कनक दीपक वाले कमरे में चुपचाप बैठे माँ को याद कर रहे थे। तभी ईश ने कनक को बताया कि तीसरे दिन माँ की अस्थियाँ चुनकर जब वो लाया, तो उसने माँ की अस्थियों के साथ आई राख को घर के एक क्यारी में डाल दिया है।

कनक ने प्रश्नसूचक रूप में जब उसे देखा तो बोला…‘पगली माँ अचानक से चली गई तो क्या, कुछ तो रहेगा न माँ का यहाँ। देख तू किसी से मत कहना सब गुस्सा होंगे’ और बताते-बताते ईश सुबकने लगा।

कर्मकांड में एक-एक कर सभी दिन निकल गए अब शुद्धि की पूजा होते ही दान-दक्षिणा भी खत्म हो गई। तभी शिशिर की आवाज ईश और कनक को सुनाई दी। वह अपने बड़े भाई से बोल रहे थे…‘इंदु तो अचानक चली गई, उसका सब जेवर व सभी कुछ ईश के नाम कर देते हैं, क्योंकि कनक की शादी में भी मुझे जितना खर्च करना था मैं कर चुका हूँ। खूब शानो-शौकत से उसकी शादी की थी। ससुराल में खुश है वो। …

वकील को बुलाकर सारी फॉर्मेलिटी पूरी करवा देता हूँ, क्योंकि अभी तो कनक आई हुई है…जहाँ पर भी साइन करने होंगे…वह कर देगी, नहीं तो इतनी दूर से उसको वापस बुलाना पड़ेगा।’ 

कनक ने जैसे ही यह सब सुना उसकी जोरो से हिचकी निकल गई, क्योंकि माँ के घर आने के लिए बेटी दूरियाँ कब सोचती है। उलटे बेटियाँ तो पीहर आने के बहाने ढूँढ़ती हैं। कोई उनको झूठ को भी आने को बोले तो वो दौड़ी चली आए।

कनक से तो आज पापा ने पूछा तक नहीं कि तुम माँ की कोई निशानी ले जाना चाहती हो या नहीं। सब खुद से ही उन्होंने निश्चित कर लिया कि मम्मी का सारा जेवर ईश को दे देते हैं।

कनक चाहती थी आखिरी समय में माँ ने जो अँगूठी या कुछ भी छोटा-सा चाँदी की बिछिया ही माँ ने पहना हुआ था वो निशानी के तौर पर ले जा पाती। कम-से-कम माँ की छुअन तो महसूस होती रहती उसको कुछ समय। पर किसी ने पूछा ही नहीं कनक घर से क्या विदा हुई उसको क्या अच्छा लगेगा क्या नहीं, कोई सोचना ही नहीं चाहता। फिर अब तो माँ भी नहीं थी, कनक को सब निर्वात में तैरता नजर आ रहा था। कनक की मनःस्थिति इंदु को भी दुखी कर रही थी। पर अब वो जिंदा रहने से ज्यादा निःसहाय थी। अब सब बातें सुविधाओं को ध्यान में रखकर सोची जा रही थी।

आज इंदु को भी अपनी निमित्त यात्रा पर निकलना था। वहाँ निकलने से पहले कनक को आहत होते देखकर और ईश का चुपचाप सब कुछ देख और सुनकर खामोश रहना इंदु को अंदर-ही-अंदर छलनी कर गया।

ईश भी तो धीरे-धीरे शिशिर ही बनता जा रहा था। गुजरे कई सालों से इंदु महसूस कर रही थी, क्योंकि ईश को अपने पापा की काफी गलत बातें भी सही लगती थी। इंदु को भी जो ईश को सिखाना-समझाना था उसकी उम्र निकल चुकी थी। और कनक जो माँ की यादों को भी हर तरह से समेटना चाहती थी, उसे वहाँ कोई नहीं कहने वाला था कि…‘माँ की चीजों पर तुम्हारा भी हक है, कनक तुम जो चाहो ले जाओ।’… बस उसको महसूस कराया गया तुम्हारा आना-जाना ही भला है। इंदु ने आज कनक को अनगिनत प्रश्नों में घिरे देखा। आज कनक सोच रही थी, कल उसको भी घर से विदा लेना है…पता नहीं अब कब पीहर आना हो दिल से, क्योंकि अब माँ से जुड़े मायके के एहसास नहीं रहे।

जिस इंदु के कंधे पर घर की सारी ईटों का भार था, उससे शिशिर ने कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि उसकी अंतिम इच्छा क्या हो सकती है। शिशिर की सोच से तो यही लगता था कि अगर इंदु की इच्छा जान ली तो घर की नींव हिल जाएगी, क्योंकि शिशिर को इंदु के मन का भी करना पड़ता।

कितनी कमजोर होती है घरों की नींव, जहाँ माँ अक्सर बेटियों के लिए हार जाती हैं।

आज सोलवाँ दिन था, इंदु को भी अब मुख्य द्वार से हमेशा के लिए निकलना था। जितना शायद वह इन इक्यावन सालों के वैवाहिक जीवन में नहीं टूटी उससे ज्यादा इन सोलह दिनों में टूट चुकी थी।

सारे मोह-बंधन एक-एक कर कैसे-कैसे टूटते गए, इंदु को बहुत अच्छे से एहसास हो चुका था। उसको घर छोड़ने में अब कोई पीड़ा नहीं होगी। कनक का जीवन भी उसका ही जीवन था। वह भी तो उसी यात्रा पर थी जहाँ पहले कभी इंदु थी। इक्यावन सालों के मोह-बंधन इन सोलह दिनों पर बहुत हल्का पड़कर आज पूरी तरह से टूटकर बिखर चुके थे। इंदु नाम के इस चोले को उतारकर, अब वो एक नवीन जीवन यात्रा के लिए तैयार थी।


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Artist : Ilya Repin
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