अँगुली हिलाओ, पंजे चलाओ
- 1 April, 2015
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- 1 April, 2015
अँगुली हिलाओ, पंजे चलाओ
पकरू ने ‘बड़का बाबा’ की मूर्ति पर फूलों के साथ थोड़ी दारू छिड़की और अपना तीर कमान सामने भागते खरगोश पर तान छोड़ दिया। नरम-नरम खरगोश पलट कर भी नहीं देख सका। वहीं ढेर हो गया। उसे झोले में रख जंगली बेरों को तोड़ अपने टापरे की ओर मुड़ गया। उसका टापरा उसकी जन्नत था। माई, बापू बूढ़ा हो गये हैं पर आज भी माँ रमिया चक्की पर मक्का पीस लेती है–सबसे खुशी की बात तो यह है कि उसकी लुगाई सरौती बेहद समझदार है। उसके बापू भीखू ने ही उसे हाट में पसंद किया था। पकरू ने तो उसे बाद में ही देखा। ‘देख रे बिटवा, लड़की गरीब है पर समझदार है। हम सबको लेकर चलेगी दहेज से उसका पिता केवल दो बकरे देकर अपनी खातिरदारी कर देगा और कछु की उम्मीद न करे।’
पकरू को सरौती पसंद आ गई। वह जन्म से कुछ लचक कर ही चलता है। तीर कमान चलाने में माहिर है पर बहुत तेजी से नहीं दौड़ पाता। जंगल में जब वो सरौती के साथ भागा तो पीछे रह गया था।
सरौती समझदार जोरू रही, साधारण से पीले, हरे, लाल तीन लगुश में साल काट लेती है। उसके बापू ने उसे पीतल का चूरा काँसे के व एक चाँदी का चूरा दिया था और उन्हीं गहनों के साथ परंपरागत लाख की तरक्की के साथ बिछावन, पेटी आदि टापरे में आ गई।
उसी ने अपने मर्द के साथ पुराने टापरे से जोड़ एक और कमरा उसी से जुड़ा तैयार किया, उसमें भित्ति चित्र बना एक बड़ी लकड़ी पर सास, ससुर का सामान सजा दिया।
कोदो, कुटकी, मक्का, शहद लेकर पकरू साहूकार को बेच राई का तेल, नमक, सुपारी, नारियल खरीद लाता।
लौटकर बापू की सरई के चोंगे में तंबाकू पीते व माँ को करमा खेकेर अँगना कचीदार बटर खाकेर अँगना में डंडा खेले, गाते देख प्रसन्न हो जाता। हँसते हुए टापरे में घुसता तो सब लोग मक्का का दालिया एवं कोई न कोई मांस का टुकड़ा ले खाते। सरौती जब सारी सब्जी मिला मक्के का दलिया बनाती तो लगता जैसे वो पकवान खा रहे हों।
मजबूत लकड़ी ढूँढ़ उससे पकरू ने एक बड़ी मचिया बना ली थी जिस पर एक कथरी पड़ी थी। जब कोई आता तो सरौती उन्हें वहाँ बैन गुड़ का दलिया परोसती सरौती ने ही भाग-दौड़ कर टापरे के पास घनी छाँह के पेड़ लगा दिये व पकरू की खेती के लिये टापरे से दिखने वाली जमीन ढूँढ़ कर उसमें मक्का, राई, गन्ना एवं कुछ हरी भाजियाँ लगा दी।
रोने की सुबक व हँसी की खनक वे सब साथ बाँटते। सरौती जानती है कि पकरू माँ व बापू को उससे अधिक प्रेम करता है, एक-एक पल में वो दुहराता है। ‘इनका मुझ पर कर्जा है, वो तो सेवा करके ही उतार सकता हूँ न!’
परिवार में सभी असभ्य, जंगली एवं अज्ञान व्यक्ति भी अपने-अपने रिश्तों की सीमा जानते हैं। रमिया ने एक बकरी पकड़ी है। उसे पता है कि सरौती थोड़ा देर से उठ सूरज बाबा को हाथ जोड़ती है तो माँ लाडली बकरी को पत्तियाँ खिला दूध दुह लेती हैं। बापू लकड़ियाँ चुन आग जला टापरी के नीचे पेड़ की छाँह तले आँच पर हाथ सेंकता है : सरौती खाना कपड़े, भांडे, लीपना-पोतना के बाद व मर्द को खुश रखने हेतु सारे हथकंडे आजमाती है। जिस दिन ससुरी के मन में फुलवा खिले तो नीचे सास-ससुर व पति के साथ करमा कर गाने लगती है, ‘हरियल मंडवा, फुलेवा फुलवा;…।’
जंगल क्या था खजाना था, खाना-पीना सब मुफ्त, कटहल, महुआ, मक्का तो पेट भरता ही है।
ऐसा लगता कि बड़का बाबा ने उन्हें सकून व संतोष का वरदान दिया है।
डेरेवाले की कृपा से बढ़िया पत्तों, भाजी, फल बरमसिया के पेड़ अपने आप उगते हैं। रोज पकरू फूलों का दोना ले डेरे वाले भगवान के नाम पर बरगद के नीचे रखी मूर्ति पर चढ़ा देता है। यों तो पकरू सीधा नम्र साँवले रंग का गबरू जवान था परंतु जब कोई छोटा अफसर उसे डाँटकर शहद या कटहल माँगता तो वो गुर्राने लगता, लेकिन मन मसोस कर ढोंक दे निकल जाता।
सीधे-साधे पकरू को यह नहीं पता था कि समय परिवर्तन कभी भी हो सकता है इसलिए भविष्यनिधि या कोई खाता भी खोलना वह नहीं जानता। जमा भी कहाँ से करता, कोई ऐसी कमाई भी तो न थी। एक शाम जब वो जंगली लकड़ी काटकर लौटा तो उसकी माँ पैर पकड़ रो रही थी और बापू कभी पैर में तेल लगाता तो कभी सेंक रहा था। सरौती घबराई माँ का सर तो कभी कमर दबा रही थी।
– क्या हुआ री माँ?
– समझ ना परे है; देख ना पैर कितना मोटा व सूज गया है। जड़ी लगाय दी पर दर्द में आराम ना ही पड़ा है।
– जाता हूँ जग्गी या वैद्य काका के पास, शायद वे कुछ मदद करें।
वैद्य जी ने तत्काल आकर झाड़-फूँक कर दी। लेकिन कोई आराम न पड़ा। उसी समय पकरू का मुँह बोला भाई जग्गी उससे मिलने शहर से आया। वो अंबिकापुर में संतरी का काम करता था। उसने देखा तो बोला पकरू मौसी को तो बड़े डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा; मेरे पास तो एक छोटा कमरा है तुम एक दो दिन रह सकते हो; दवा लेकर चले आना। सरौती व बूढ़े बाप को जंगल में अकेले छोड़ना ठीक न था, और दो चार दिन की ही तो बात थी; पर बापू वहीं रुक गया।
– ठीक है चलता हूँ, साहूकार से कुछ पैसे ले लूँ। भागता दौड़ता पकरू साहूकार के पास पहुँचा, ‘माई-बाप पिछली बार जंगल लाया था, मेरे पैसे जमा हैं; माँ को शहर ले जाना है, दे दो।’
साहूकार ने बड़ी कठिनाई से पाँच सौ रुपये दे दिये।
सरौती ने भुना मक्का, कुम्हड़ा, कोदू का आटा व पूरिया ली; रस्सी का ताला अपने टापरे में ऐसे लगाया मानो वो महल था।
शहर आते ही पकरू ऐसे चौंका जैसे वो किसी नई दुनिया में आ गया हो। जग्गी का कमरा छोटा था पर पीछे तक वो सब अपनी कथरियों में लपट सो गये।
जग्गी ने दो दिन का छुट्टी ले ली व सरकारी अस्पताल में माँ को दिखाने वे सब पहुँचे। लंगोटी पहने व ऊँची साड़ी में सजी सरौती को ताक कोई उन्हें फर्स्ट तो कोई चार मंजिला तक दौड़ाता रहा। रमिया तो लिफ्ट में घबरा जाती; अंत में एक नये डॉक्टर ने दया कर उन्हें रायपुर जाने की सलाह दी। देखो भाई ऐसा लगता है पैर में कुछ गड़बड़ है। शायद ऑपरेशन करना पड़े या काटना ही पड़े। तुम वहाँ चले जाओ व मेरा नाम लेकर डॉ. बनर्जी साहब से मिल लेना।’
पकरू दोनों हाथ जोड़े आभार प्रदर्शन करता रायपुर रवाना हुआ। जग्गी ने जैसे-तैसे उनका टिकट कटा दिया।
रायपुर बड़ा शहर था। किसी ने प्लेटफार्म पर समझाया कि वो नगर-सेवा बस से अस्पताल जा सकता है।
सरौती अमरकंटक जाती रही थी, इसलिये पूछने व बोलने में वो मददगार सिद्ध हुई। बस स्टॉप पर एक छोटा सा शेड था। पकरू वहीं बैठा कि पल दो पल बाद ही मुसलसल पानी गिरने लगा। अब वे कहाँ जायें?
बीमार रमिया माँ पत्नी के साथ वे सब शेड में भींगते रहे। तभी सामने शायद स्कूटर रखने का एक छोटा बंद कमरा खाली देख बैठ गया। तीनों बस उसमें ठूँसे भर थे; कुछ देर बाद भुने मक्का के दाने व जंगली बेर थैले से निकाल उन्होंने खाये बिना पानी पिये वे डरे सहमे उस छोटी सी जगह में काँपते एक दूसरे से सटे बैठे रहे थे। अज्ञानी, सीधे आदिवासियों की यही नियति है, जिसे सुधारने की बुद्धि उनमें नहीं है।
जैसे ही मकान मालिक अपनी मोटर साइकिल लेकर आया तो उन सबको वहाँ से बाहर आना पड़ा। यह भी इत्तफाक था कि मालिक दयावान था। उसने सरकारी अस्पताल का पता बता उन्हें बीस रुपये बस का किराया दे दिया।
अस्पताल पहुँचते अँधेरा हो गया। लँगड़ाती माँ व पत्नी के सहारे पकरू व सरौती वहाँ सोने की जगह खोजने लगे। चपरासी ने तो डपटा, ये कोई आश्रम नहीं, पड़े रहो। कोने तक में पेशाब भरा था। हाँ, कोरेडर खाली रमिया तो रातभर हाय-मरी-हाय मरी की रट के साथ रोती कलपती तड़फती रही।
प्रातःकाल तो लोग उनके ऊपर से गुजरने लगे। वे तीनों भड़भड़ाते उठे। पकरू ने वहाँ से गुजरते एक वार्ड बॉय के पैर पकड़ लिये और गिड़गिड़ाते उससे पूछा; भइया कहाँ जाएँ माई को दिखाने, ये इमारत तो इतनी ऊँची है, मुझे कुछ नहीं समझ आता। लखन कुछ दयावान प्रवृत्ति का था लेकिन बिना घूस कुछ नहीं करता। पकरू को एक भिखारी सा गिड़गिड़ाते देख वो कुछ नरम हो बोला, वो ऊपर तीसरी मंजिल तक जा पहुँचो जहाँ दरवाजे में एक ठौ चपरासी रहे वहीं न पूछ लेना। डॉ. भटनागर सज्जन हैं। न मिले तो बनर्जी के पास जाना। पकरू माँ की कराहट से विचलित था। आव देखा न ताव, वो माँ को कंधे पर उठा ऐसे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा कि जैसे पैरों में पंख लग गये हों।
चपरासी रोकता उसके पहले ही पागलों सा डॉक्टर साहब के सामने हाथ जोड़े बड़बड़ाने लगा ‘आप हमारे भगवान हो, बचइलो, मेरी माँ मेरी भगवान है। माई बाप हम जिंदगानी भर जब बुलइयो आन पड़ेंगे सेवा खातिर।’
भटनागर ने उस आदम मनुष्य को ताका और माँ को देखा, पैर देखा और फोन पर किसी से बात की, तब पकरू को राहत देते बोले माई का ऑपरेशन करना पड़ेगा तुम्हें जनरल वार्ड में भेजते हैं। वहाँ तुम्हारा इलाज प्रारंभ हो जायेगा। अपने चपरासी को बुलाया व नोट सहित उसको जनरल वार्ड में भेज दिया।
चौथी मंजिल पर जब पकरू पहुँचा तो उसे सरौती का ख्याल आया। पहले तो जनरल वार्ड की नर्स ने लोगों को ताका, बेड तो खाली नहीं, जमीन पर पेशंट को रखना पड़ेगा पर तुम्हें मेरे लिये जंगल से कटहल, बेर, शहद लाना पड़ेगा।
– हऊ…हऊ रोता पकरू उसके भी पैर छूने लगा। रमिया कमरे के एक कोने में पड़े फटेहाल गहे पर लेटी तो कराहट कम हुई; पकरू ने बचे पैसों से नीचे से चाय व ब्रेड लाकर माँ को खिलाया। पास में लोटे में पानी भर सरौती के साथ नीचे को दौड़ लगा दी, चल कब से सूनी सटाक खड़ी है। चाय की दुकान के सामने बेंच पर पत्नी के साथ बैठ पकरू ब्रेड व चाय चुस्की ले खा रहा था मानो पंचसितारा में पकवान खा रहा है। खा पी कुछ तसल्ली के बाद वो बोला, माँ का कल को ऑपरेशन होयेगा। पता नहीं कितना रुपया लगेगा।
– मेरे पास तो सौ रूपल्ली है; तुमसे छुपाकर रखे हैं। अब इहन चूल्हा ना है तो टिक्कड भी बिना प्याज व हरी मिर्च से नहीं खा सकते।
पोटली में बंधे महुआ देकर पकरू ने चाय वाले से कहा, भइया तुम्हारे स्टोव पर तीन ठो रोटी बना लें?
– मेरे पास यहाँ तबा नहीं, कड़ाही तो है; उसी में सेंक लो। सरौती ने फुर्ती से कड़ाही में ही नरम नरम रोटियाँ सेंकी और वापस माई के पास लौटी; उसे दर्द कम करने वाले ‘एंटी एनर्जिक व एंटी बायटीक के दोनों इंजेक्शन लग चुके थे, वो शांत लेटी थी।
नर्स घुड़की, यहाँ बस रात में एक ठहरेगा, याद रख।
– हाँ हाँ कह सरौती व पकरू कमरे के बाहर वाली पाँच फिटी रौशनदान के नीचे की जगह में बिलकुल चिपक से गए; प्रातः पुनः पाँच बजे रमिया को इंजेक्शन दे तैयार कर करीब सात बजे ऑपरेशन रूम में ले जाया गया।
एक घंटे बाद ऑपरेशन थियेटर से डॉ. भटनागर व टीम बाहर आई। पकरू से बोले, तुम्हारी माँ की वो टाँग काटनी पड़ी, नहीं काटते तो इंफेक्शन फैल जाता। अब कुछ दवाइया तो तुम्हें लानी ही पड़ेगी, ये लो पर्चा। तुम्हें आठ दस दिन ठहरना ही पड़ेगा।
पूरे सौ में जो भी दवा आ सकी पकरूी ले आया और उसने सरौती को माँ के पास छोड़ पुनः अमरकंटक की ओर दौड़ लगा दी।
जंगल ने उसके आँचल में महुआ, कटहल, मक्का डाल दी। अपना एक कुरता व कुछ कपड़ों के साथ पकरू को लौटने में देर हो गई।
लौटकर उसने सरौती के हाथ में बाटी, चूरमा, उबले आलू रख दिए। उसे आश्चर्य हुआ…सरौती स्वस्थ्य हरी-भरी थी।
अरी तू तो बेहद साफ-सुथरी है। कछु खाया का? तभी वहाँ से काले भहे एवं ठिंगने से डॉ. गुजरे।
– ये वार्ड मां सुबह-शाम चैक अप करते हैं। चार दिन से इनके घर झाड़ू पोछा करने वाली बाई नहीं आई थी, मुझसे पूछा तो मैं हाँ बोली। तब से आराम है। माँ का देख-रेख सही है! दवा भी मिले है। मैं पैसा नहीं माँगती। अब इन डॉ. रमानी के कारण माँ की कुछ कसरत होगी और पट्टी खुलेगी, सब ठीक रहा। हम दबा दारू ले अपने जंगल लौट जायेंगे। बापू वहाँ अकेला घबरा रहा होगा न?
और कोई बात ना है? मैं भी यहाँ आस-पास मजदूरी कर लूँगा। कहकर पकरू ने सरौती को घूरकर देखा। कुछ दूर पर मल्टी बन रही थी। वहाँ दौ सौ रोज पर पकरू अन्य मजदूरों से अच्छा काम करता। रात में वहीं कहीं सो जाता। भागते दौड़ते भी पत्नी मैया की खबर दे जाती।
रमिया अब ठीक थी। उसने बेटे के सर पर हाथ रखा, ‘बेटा पहले दिन से ही यहाँ मच्छर चूहों खटमल ने रूला दिया। सारा शरीर लाल हो गया।’
जब सरौतिया काम पर गई तो कछु विस्तर बदला। डॉ. साहब के यहाँ से सरौती खा पी मेरे लिये भी दाल, चावल, रोटी ला देती।
अभी रात होने के पहले जब पकरू माँ के पास आया तो सरौती वहाँ नहीं थी। पकरू उस पूरी रात माँ के पास बैठा रहा।
प्रातः टिफन लेकर जब सरौती आई तो पकरू ने पूछा ‘सच्ची बोल क्या करती है वहाँ? झूठ बोलेगी तो बड़का बाबा तुझे सजा देगे।’ सहमी सरौती बोली, ‘डॉ. रमानी अकेले रहते हैं, शाम को साथ ले जाते हैं, सुबह ले आते है। मैं रातभर डॉ. साहब की सेवा करती हूँ, सुबह से सब खाना झाड़ू कर निबटा टिफन लेकर आ जाती हूँ। तू तो चार दिन लौटा नहीं। माँ को चूहो खटमल मच्छरों ने काटा! पैर यों ही नहीं बदली, दवाइयाँ ये लोग नहीं दे रहे थे। मैं किसी से कुछ पूछती तो वे मेरा मजाक बनाय देते। तू क्या धन्ना सेठ की सेठानी है। चल हमारे साथ।
घबरा कर डॉ. रमानी से शिकायत की तो उन्होंने सब ठीक किया, पर मुझे न छोड़ा। अब भी तो माँ को यहीं रखना पड़ेगा। मैं क्या करती? कूएँ में डूब भी जाती तो माँ यहाँ तो सड़कर मर ही जाती। आँखों से गिरते आँसुओं को पोछ सरौती बोली, यह अस्पताल काहे का है, यह तो कसाई घर है। सरकारी अस्पताल में सरकार भर नहीं, सब मस्तीखोर है। पेशंट एक ओर, वे मस्त दूसरी ओर कोई सुनवाई ही नहीं, मैं तो अनपढ़ हूँ मेहनत मजदूरी से न डरूँ। पड़ी रही भूखी प्यासी उस ठंडी जगह में। यहाँ की नर्स बैठने भी नहीं देती। तो डॉ. साहब की सहायता अच्छी लगी। मनवा तो तेरा ही है, ये कड़ा, गले की माला तेरा ही है, शरीर तो धो पोछ ठीक ही हो जायेगा पर तू तो मइया के बिना न रह सकत है न?
पकरू ने धीरज शांति से सरौती को गले लगा लिया। वह मन भर रोया। मुझमें तुझे कुछ तो बुरा लगा रे तभी तो तू तगाड़ी ने उठा उस अफसर के साथ हो ली। तुझे तो पता है न मोय शेर से भी ज्यादा इन सरकारी अफसरों से नफरत है जो हमें कुत्ते से भी बदत्तर समझते हैं।
– मैं कुछ न समझूँ। दो दिन भूखी रही वो हरिजन, चपरासी रात में बुलाकर मेरे साथ बुरा सलूक किये, न मैं माँ को देख पाऊँ न सो सकूँ।
ये जो वार्ड नर्सें होती हैं न ये ही मेरे जैसी सीधी स्त्रियों को बर्बाद करती हैं। औरत होकर भी औरत को मदत न करें। अपने जंगल में तो हम औरतें निडरता से खुले बदन घूमती हैं।
– ये प्रथा हमारी ही है कि हम छोटी उम्र में मिट जाते हैं। सरकार हमारी पढ़ाई का सुविधाजनक बंदोबस्त भी ना करे। तीन मील भागो तो पढ़ो, और देखो जग्गी को, आठवाँ पास भी है तो कौन सुखी है मुरगी के दड़वे में।
– मैं तो ताड़ के पत्तों से भी झाड़ू बनाती हूँ।
पर मुझे ये दंद फंद न समझे डॉ. साहब मेरे साथ क्यों क्या ऐसा? गरीब से करो ये वो ही जाने जब कोई ना हो तो मानुष ही मदत देता है। मैं भी साथ चली गई। मेरो एक तकलीफ से कई तकलीफ दूर हो गई।
तभी पकरू के सामने दूसरा डॉ. आया व रमिया से बोला, पट्टी खुल गई है, पर अभी पट्टी करते रहना पड़ेगा। दूसरा पैर चलाती रहा करो–हाँ, पंजा चलाओ अँगुली हिलाओ। देखो माई मैं करके बताता हूँ फिर तुम जंगल जाकर भी ऐसा ही करना। और उस नये डॉ. ने पैर व अँगुली चलाई। पकरू सब देखता बड़बड़ाया–‘इससे अच्छा तो है कि माओवादी बन जाओ; सरकारी अस्पताल, सरकारी पाठशाला, सरकारी पट्टा प्राप्ति कुछ भी तो नहीं। बंदूक से तो सरकार भी डरती है।’
– चुप रहना। अचानक हरिजन जितेन वहाँ से गुजरा तो आँख मार बोला, खाली है क्या आज रात। चली आना ढेर दवाइयाँ दूँगा।
बस, अब आवेशी पकरू से रहा नहीं गया और उसने उठकर दो लट्ठ जितेन को जमा जमीन पर पटका दिया–हरामी कहीं के…हम गरीबों की मेहरिया तेरे चाटने को है क्या? अब तो पूरा अस्पताल उमड़ पड़ा व निश्छल, निरीह, सीधा आदिवासी युवा पुलिस को सौंप दिया गया।
सरौती भागती हुई डॉ. के पास गई तो उन्होंने बेरहमी से सौ का नोट फेंक कर कहा, अब चली जा जंगल। जानवर जंगल ही में ठीक रहते हैं।
ना साहब छुड़ाय लो साहब, मैं कहाँ बूढ़े सास-ससुर को पाल पाऊँगी।
पाल या सड़क पर फेंक अच्छी तो हो गई। अब क्या मुझे भी बदनाम करेगी। मेरी पत्नी लौट आई। उसी दिन बड़े डॉ. साहब ने रमिया को डिस्चार्ज कर दिया। एक घायल टाँग से उसे नीचे स्ट्रेचर से बरांडे में फेंक सा दिया।
दो दिन सास-बहू वहीं कचरे-सी पड़ी ईश्वर को याद करती भूखी-प्यासी पड़ी रही। शायद कुछ नियति ने जोर मारा तो जग्गी रमिया को देखने आया और उन्हें इस हालत में देख चौंका, सरौती से पकरू के बारे में जान वो बार्ड बॉय के पास गया और पूछा वो नालायक व्यक्ति किस थाने में बंद है?
विजय नगर में मर रहा होगा।
सरौती व रमिया को बस स्टैंड की छपरा में बैठा वो विजय नगर थाने पहुँचा। बहुत सर फोड़ी के बाद एक हजार गिनवा उन्होंने पकरू को छोड़ा।
पकरू टूट चुका था। उसने पूछा, भाई तुम कौन हो? मेरी तो माँ व जोरू मर गई। तुम यदि जीना चाहते हो तो पंजा चला लो, अँगुली हिला लो पर सरकार से बचकर रहना।
रोती रमिया व सरौती को जग्गी ने किसी प्रकार टपरी तक पहुँचा दिया।
भीखू बेटे, पत्नी, बहू को जीवित देख रो पड़ा। जग्गी ने समझाया, झगड़े झाँसे, बंदूक से हम कुछ नहीं पा सकते। हम कमजोर आदिवासी हैं। पकरू सुधर कर आदिवासी संगठन से जुड़े, तब सहयोग मिलेगा। आजकल वे सब यहीं अस्पताल खोलने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
– मैं तो सरकार पर भरोसा नहीं करती।
– भाभी सरकार एक व्यक्ति नहीं होती। उसको भी हमारे जैसे मनुष्यों द्वारा काम करवाना पड़ता है। इन्हीं में से कुछ अच्छे व कुछ बुरे होते हैं।
जंगल छुड़वाय शहर जाये तो वहाँ भी कोई न मदद करे। सरौती टपरा साफ करने लगी।
– मैं तो जा रहा हूँ। अमरकंटक में शादी तय हो गई है जल्दी न आ पाऊँगा, पकरू शायद अपनी इस जन्नत में ठीक हो जाये। भाभी तुम स्वयं को इनसान बनाने का जतन शुरू कर दो।
पकरू पूर्व सा जंगल जाता। लकड़ी, महुआ, मक्का, शहद एकत्रित करता और रात सरौती व माँ के गोद में देर तक रोकर उठता, ‘माँ पंजे चला अँगुली हिलाओ।’
सलोनी ही हफ्ते दो हफ्ते में अमरकंटक जा दवा दारू ले आती और कुछ रुपये बचा लेती। वो भी पढ़ेगी, संगठन में जायेगी, स्वयं अपना व अपने परिवार को पालेगी किसी सरकारी दफ्तर के पास जा अपना हक माँगने से नहीं डरेगी, ताकि सरकार से अधिक वो स्वयं अपनी सहायता कर सके।
Image: Sultan Ali-Adil-II Shah of Bijapur hunting tiger
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