प्रोफेसरी की बतकही

प्रोफेसरी की बतकही

बातें, बातें और सिर्फ बातें। हमारे प्रोफेसर साहब के पास बातों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है। वे सदा सर्वदा बातों की दुकान फैलाए रहते हैं। बातें करने का मौका मिल जाए, तो फिर उन्हें कौन रोक सकता है? बिना कॉमा, फुलस्टॉप के बातों की रेल चल पड़ी तो फिर उनकी बातों को किसी भी छोटे-बड़े स्टेशन पर रुकने का चांस नहीं मिलता। उनकी बतकही के ओर और छोर दोनों ही भ्राताओं का वास्तव में कोई अंत नहीं।

बाइक पर चलते समय अथवा कार चालन के समय हमारे प्रोफेसर साहब सचेत रहते हैं कि राह में बातचीत के योग्य कोई सुपात्र न छूट जाए। इसीलिए वे ‘चरन धरत चिंता करत’ की मनोदशा से गुजरते हुए ही रास्ता तय करते हैं। भले ही आधे घंटे का सफर तीन घंटे में पूरा हो। हमारे प्रोफेसर साहब के पास समय की कोई कमी नहीं। समय ही समय है। बातें करने का चांस मिलना चाहिए। हर राह चलते को नमस्कार गिफ्ट करने के बाद हर व्यक्ति की सेवा में बातों के गुच्छे पेश करते हुए ही उनका ‘कालोगच्छति धीमताम्’ है। इस बातचीत की एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी होती है कि बातें करने के दौरान वे सामने वाले के कर कमलों को अपने हाथों में कसकर पकड़ लेते हैं। इससे सामने वाले को भागने का चांस नहीं मिलता। अजी, छोड़कर अब कहाँ जाइएगा। जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा। हमारे प्रोफेसर साहब सामने वाले के कर कमलों को पकड़कर लगातार इस प्रकार दबाते हैं कि शिकार आर्तनाद करने लगे। कई लोग तो प्रोफेसर साहब की बतकही के बाद डॉक्टर की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं। लेकिन प्रोफेसर साहब तो बस प्रोफेसर साहब हैं। आदत से मजबूर बातें करने के बेहद शौकीन।

प्रोफेसर साहब को किसी सभा-संगोष्ठी में सुनना अपने आपमें किसी करिश्मे से कम नहीं। पहले से तय विषय पर पूरी तैयारी के साथ बोलने वालों की कतार में तो हर दूसरा-तीसरा आदमी मिल जाएगा। लेकिन प्रोफेसर साहब जैसे महान वक्ता विषय से बँधकर नहीं बोलते, जो बोलते हैं वही विषय हो जाता है। हमारे प्रोफेसर साहब की अनन्य विशेषता है कि वे बिना किसी विषय के घंटों धाराप्रवाह बोलते हैं। आप उनके लिए कोई भी विषय तय कर दें, प्रोफेसर साहब वही बोलेंगे जो उन्हें बोलना है। उनका विचार है कि टॉपिक से बँधकर तो मूर्ख बोलते हैं। जैसे बस्ती-बस्ती घूमने वाले सभी कुत्ते शेर नहीं होते, जैसे हर कोयला हीरा नहीं होता, वैसे ही हर जानकार वास्तव में जानकार नहीं होता। हमारे प्रोफेसर साहब की जानकारी के सारे प्रसंग, सारे किस्से उनके पास आकर ही ऊँचाई प्राप्त करते हैं। ‘मैं’ उनका प्रिय विषय है, जिस पर वे लगातार बोल सकते हैं। अपने बारे में बातें करने, अपने बारे में बोलने में उन्हें कोई फेल नहीं कर सकता। टॉपिक कुछ भी हो, प्रोफेसर साहब घूम-फिरकर जल्दी ही अपनी चर्चा के हरे-भरे मैदान में उतर आते हैं। निज गाथा सुनाने से समय बचे तो वे अपनी धर्म की पत्नी और बच्चों के बारे में बताने से परहेज नहीं करते। अपने बारे में अनवरत बातें करते रहने की इस सुंदर आदत के कारण कभी-कभी उन्हें आपातस्थिति का सामना भी करना पड़ा है।

एक बार उन्होंने सेना के किसी अधिकारी को अपने बारे में सप्रसंग व्याख्या करने के लिए सारा ट्रॉफिक जाम कर दिया था और बदले में वहाँ मौजूद फौजियों से थोक मात्रा में गालियाँ प्राप्त कीं। बाद में हमारे प्रोफेसर साहब ने बताया कि बेचारा अधिकारी तो चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था, लेकिन उसका ड्राइवर ही दुष्टतावश अनेक प्राइवेट किस्म की गालियों का सदुपयोग करने लगा। ऐसे अवसर उन्हें लगभग हर दिन मिलते हैं कि इधर उन्होंने किसी को पकड़कर अपने बारे में बतलाना शुरू किया और उधर धिक्कार की नदी, गालियों की नहर लहराने लगी। यह किस्सा बार-बार साकार होता है, लेकिन प्रोफेसर साहब का दिल है कि अपनी तारीफ करने से मानता ही नहीं।

वह प्रसंग तो बेहद लोमहर्षक है जब वे कविवर झमाझम प्रसाद के घर गए। उस समय वयोवृद्ध महाकवि अंतिम साँसें ले रहे थे। परिवार के सारे लोग उन्हें घेर खड़े थे, दो-तीन डॉक्टर जाँच कर रहे थे। ऐसे में हमारे प्रोफेसर साहब का सहसा प्रवेश हुआ। सभी उन्हें देखते ही काँप गए कि बातों का झरना बहेगा। प्रोफेसर साहब ने प्रस्तुत होकर सबको बताया कि पिछले सप्ताह ही वे क्योंझर और झरिया की यात्रा से लौटे हैं। इस क्रम में उन्होंने पंद्रह मिनट तक क्योंझर यात्रा का वर्णन किया और सिर्फ बीस मिनट में झरिया यात्रा की कथा सुनाई। इसके बाद ही उन्होंने स्वर्ग की ओर चलायमान कविवर झमाझम प्रसाद जी से निवेदन किया–‘अब तो आप इस असार संसार को त्यागने ही वाले हैं। लेकिन जाते-जाते अपनी ताजा कविता की कुछ लाइनें हम सबको सुनाते जाइए। फिर आपके जैसी सुमधुर आवाज कहाँ मिलेगी?’

महाकवि के परिवार के सभी लोग हमारे प्रोफेसर साहब को डाँटने-झिड़कने लगे। डॉक्टरों ने तत्काल उन्हें धकियाने का प्रस्ताव रख दिया। लेकिन प्रोफेसर साहब अडिग थे। तनिक भी हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने उत्साहपूर्वक अपने दादा जी के देहावसान की दृश्यावली का वर्णन शुरू किया कि कैसे उनके पितामह ने अरथी पर लेटकर भी हितोपदेश के श्लोक सुनाए थे। इस घटना की चर्चा करते हुए प्रोफेसर साहब ने फिर से फरमाया–‘आप लोग चाहे जो कहिए, लेकिन महाकवि झमाझम प्रसाद जैसा सुकंठ फिर कहाँ मिलेगा?’

‘नेवर एंड नेवर मिलिंग अगेन!’

महाकवि के सुपुत्रों और रिश्तेदारों ने सामूहिक प्रयास द्वारा हमारे प्रोफेसर साहब को सशरीर उठा लिया। घर से बाहर निकाला और गली से निष्कासित करके ही वापस लौटे। बाद में प्रोफेसर साहब को बेहद अफसोस हुआ कि कविवर झमाझम प्रसाद के प्राण उन्हें काव्यपाठ सुनाए बिना ही निकल गए।

मिठास का गुण चींटी जानती है और सुबह का पता मुर्गी जानती है, वैसे ही बातों का मोल हमारे प्रोफेसर साहब जानते हैं। अज्ञान के झूले में अपनी बातों को रखकर उन्होंने हमेशा ही नई-नई बातें सामने रखी हैं। प्याज के छिलके की तरह उनकी हर बात में से बात निकलती है। उनकी ही सूक्ति है कि यातायात के सबसे सस्ते साधनों में केले के छिलके का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनकी ही सूक्ति यह भी है कि झींगुर प्रकृति के वायलिन वादक हैं और मच्छर मन की बात कहने वाले सबसे पुराने प्राणी हैं। सूखे तालाब में जैसे झरना आ मिले, वैसे ही हमारे प्रोफेसर साहब की बातावली में हमेशा ही कुछ न कुछ अनोखा सुनने का चांस मिलता रहता है। उनकी बातें टाइटेनिक की यात्रा कराती हैं क्योंकि अंत में उनकी महाबोर बातों के सागर में डूबने के सिवा कोई चारा नहीं। बातों से बोर होना मंजूर नहीं, तो भी ‘जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै’ की पावन परंपरा में एक बार फिर प्रोफेसर साहब की बतकही की शरण में जाना बेहतर होगा।


Image : On a Visit to the Teacher
Image Source : WikiArt
Artist : Nikolay Bogdanov Belsky
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