बड़ी बी

बड़ी बी

बड़ी बी कामदार सरौते से एक सुपारी काटकर नाड़ेदार रेशमी बटुए के हवाले करके दूसरी सुपारी उठा लेती। रेहाना सरौते की लय-ताल और उनकी कलात्मक तन्मयता पर मन-ही-मन मुग्ध होती रहती। उसे लगता कि मन लगाकर काम करने का अपना संगीत है, जो इनसान को आला दर्जे का सुकून बख्शता है।

साठ को पार कर चली बड़ी बी आज भी अपने जमाने का खुशनुमा सपना अपनी बड़ी-बड़ी सुरमेदार आँखों में सँजोए हुए हैं। वक्त उसको छू तक नहीं सका। उसका मासूम तथा रोबीला चेहरा नूरानी है। उसके पारदर्शी होंठ सुर्ख हैं। उसकी सुराईदार गरदन से पान की पीक एकदम नजर आती है। उसके लंबे रेशम से गेसू चमकदार और सियाह हैं। वह हर काम बड़े इत्मीनान और सलीके से करती है। जल्दबाजी उसे कतई पसंद नहीं। चिट्ठीरसां पुकारा करता मगर वह हाथ का काम पूरा किए बगैर नहीं उठती। बाहर आकर उसे समझाती–‘मियाँ, भरी दोपहरी में कहाँ चिट्ठियाँ बाँटते फिरते हो! खुदा न करे कि लू लपेट की चपेट में आ जाओ और बिस्तर पकड़ लो। पहले सेहत फिर आलतू-फालतू काम।’ इसके बाद वह मखनिया छाछ से भरा गिलास उसकी ओर बढ़ा देती।

चिट्ठी को दराज के हवाले करते हुए समझाती, ‘चिट्ठी और मेहमान से तुरंत छेड़छाड़ करना ठीक नहीं है। पहले उन्हें सुस्ता लेने दो, उसके बाद कुछ और।’

रेहाना चाहकर भी यह नहीं कर पाती कि जमाना बेलगाम घोड़े की तरह भागे जा रहा है। उसको मरने की भी फुरसत नहीं है। अक्सर रेहाना गरमियों की छुट्टियों में पर्यटन के लिए निकल जाती थी, मगर इस बार उसे घर आना पड़ा और बराबर उसकी यह कोशिश रही कि वह बड़ी बी के नजदीक बनी रहे। बड़ी बी रिहल पर कुरआन रखकर पल्लू से अपनी ऐनक साफ करती। करीने से चश्मा आँख पर चढ़ाकर वह भरपूर चाह से कुरआन की ओर देखती। फिर उसे सिजदा कर पढ़ने लगी। एक-एक सफहा बहुत देर बाद पलटकर कुछ देर सोचती रह जाती।

रेहाना सोचती कि बड़ी बी को ऐसा सुकून कैसे मिला? किससे मिला? गजब का है उसका मुस्तकिल मिजाज! जबकि वह ठीक उसकी उलटी। बड़ी बी ने यह कहकर उसे चौंका दिया–‘तेरा प्यारा-प्यारा नाश्ता-इमरती और गेहूँ-चने का सत्तू।’ रेहाना चहकर दोहरा उठी–‘सत्तू-इमरती!’

‘तुझे प्रिय है।’

‘अम्मीजान…।’ रेहाना इतराकर कहती, ‘आप कुछ भी नहीं भूलतीं। अपना मुश्तरफा खानदान है मगर आपको एक-एक की चाहत का पूरा-पूरा ख्याल है।’

बड़ी बी थूक गटककर कहतीं–‘बेटी, जो खुदा को याद रखता है, उसके रोशन कदम को चूमता चलता है और अपने को फकत खिदमतगार मानता है, वह कभी कुछ नहीं भूलता।’

रेहाना सोचती रह जाती कि क्या आज भी कोई इतना प्यारा, नेक और पाक इनसान हो सकता है कि जिसे बुराई छू भी नहीं गई हो! रेहाना को लगा कि यह मौका मौजूँ है, वह अपनी बात छेड़ सकती है। मगर वह अपने सोवसार पर झुक आई लट को पीछे ढकेलकर इतना कहकर रह गई–‘अम्मीजान!’

बड़ी बी उसे अपने पास खींचकर उसका सिर अपनी गोदी में ले लेतीं और अपनी लंबी पतली उँगलियों से उसका सिर सहलाने लगतीं। रेहाना में धीरे-धीरे बचपन उतरने लगता। वह बच्ची हो जाती। उसकी देह हल्की होने लगती। उसकी पलकें भारी हो जातीं। क्या अम्मी की गोद इतनी प्यारी होती है!

वह कुछ नहीं कह पाती। सो जाती। बड़ी बी चुपके से उठकर खड़ी हो जाती और सम्मोहित सी होकर उसको देखती रह जाती। ‘कितनी प्यारी लाडो है, मेरी बच्ची,’ मन-ही-मन कहती हुई वह बाहर आ जाती।

आसमान तारों की हाट लगा बैठता। रेहाना का मन कहीं नहीं लगता तो वह सप्त तारा मंडल तलाशने लगती। तभी पदाहट होती। चौंककर मुड़ती और बड़ी बी को सामने पाती। वह रेशमी गरारे कुरते में थी, ऊपर आसमानी रंग का दुपट्टा लिए थी। वह कहती, ‘कल तू चली जाएगी।’

‘हाँ अम्मी!’ रेहाना धीरे से कहती और चिक गिराकर आगे बढ़ आती। उसका मन भारी होता। वह क्या सोचकर आई थी और भीगी बिल्ली बनकर रह गई। फिर भी, उसने अपने को सहज बनाते हुए कहा, ‘पता ही नहीं चला कि इतनी लंबी छुट्टियाँ कैसे बीत गईं!’

‘जब दिल में प्यार होता है तब यह पता ही नहीं चलता कि दिन कब उगा और कब डूबा!’ बड़ी बी आरामकुरसी खींचकर बैठते हुए कहतीं।

कुछ पल अनबोले बीतने लगते। रेहाना जी पक्का करने लगती। अचानक बड़ी बी कह उठतीं, ‘तू मुसल्ला पर बैठी है, बेटी।’

रेहाना चौंक पड़ती। वह अपने को स्टूल पर बैठा पाती। बड़ी बी रेहाना की आँखों में परेशानी के बादल मँड़राते पाकर कहती, ‘ये सारी जमीं नवाज जीने का इल्म है। तेरा ये मौला-दौलापन, अटककर सोचते रह जाना और दिल को होंठों पर समेट लेना, प्यारी बच्ची, अल्लाताला की मेहरबानी का नतीजा है।’

‘मुझे कुछ नहीं पता, अम्मी।’

‘जिसे कुछ नहीं पता, मेरी बच्ची, उसे ही सब कुछ पता होता है। उसके लिए ही सारी जमी मुसल्ला होती है। वही नेक पाक होता है, वही मोमिन भी।’ बड़ी बी ने पानदान उठाकर मेज पर रख दिया।

रेहाना कहीं और जा खोई। वह कुछ नहीं बोली। बड़ी बी कह उठीं–‘ये सारी जमीं खुदा का पैगाम है। हम अब उसी पैगाम के हर्फ हैं, हिज्जे हैं, जुमले हैं। किताब इनसे ही बनती है। तस्वीर इनसे ही उभरती है। एक उम्र होती है। हमारी भी थी, जब किताब सामने होती थी, हर्फ तस्वीर बनाने लगते थे। तस्वीर गुनगुना उठती थी और आँखें सामना करने से कतराने लगती थीं। क्या तू भी, मेरी बच्ची…।’

रेहाना के पाँव तले से जमीन खिसकने लगी। उसने जोर से नगमों को मुट्ठी में भींच लिया और आँखें शुतुरमुर्ग की तरह फर्श पर गड़ा लीं।

‘हर जिंदगी का एक सपना होता है। सपना अल्लाताला का पैगाम होता है।’

‘सच, अम्मी!’

‘सपने बुनने वाले किसी से डरते नहीं, और जो डरते हैं, वे सपना नहीं, सपने का वहम बुनते हैं। वहम बुनना खुद को धोखा देना है।’ बड़ी बी चिक से अंदर आती ध्वनि को महसूसते हुए कहतीं। रेहाना की आँखें सुन रही थीं। कान चिलमन गिराकर मौन थे। बड़ी बी भारी मन से कहने लगतीं–‘आज सपने कहाँ है? सपने होते तो दुनिया इतनी काली नहीं होती, ना इतनी परेशान। सपने तो जमीं के पंख हैं। क्या तू ऐसा महसूस करती है, मेरी बच्ची?’

रेहाना की देह में झुनझुनी दौड़ जाती। वह थूक गुटककर रह जाती।

बड़ी बी की निगाहें बहुत भीतर उतरकर उसको पकड़ लेना चाहतीं। उसकी ताम्र वर्णीय देह बुत बनकर रह जाती।

बड़ी बी गीले कपड़े में लिपटे पानों से एक पान निकालती। उसे घुटने पर रखकर बाकी पान उसी गीले कपड़े के हवाले कर देती। उस पान को करीने से साफ करती हुई कहने लगतीं–‘मर्द हमेशा सपने खरीदने की जुगाड़ में रहता। वह खरीदे हुए सपनों से अपनी जिंदगी को रोशन करने की हसरत रखता है। जबकि उसका कोई सपना नहीं होता, सिवाय दूसरों के सपनों से अपने को मालामाल बनाए रखने के। बमुश्किल ही कोई सपना उसका नसीब बन पाता है। अक्सर मछली उसके चुग्गे पर निगाहें गड़ाए रह जाती है, उसके जाल पर नहीं।’

रेहाना में सुगबुगाहट हुई। उसके सुर्ख होंठों पर मेमने का सकलाती दिल जोर-जोर से धड़धड़ा उठा। उसने सुबुकदस्ती से पानदान अपनी ओर खींचकर कहा, ‘अम्मीजान, पान हमें दीजिए। पान हम बनाएँगे।’

बड़ी बी ने उसके सरकते दुपट्टे की ओर आँख भर देखा और पाया कि वह दुपट्टे को अदब से उसकी इस हरकत के लिए आँख दिखला रही है। बड़ी बी कह रही थीं–‘अब तू हमसे एक इंच ऊपर निकल गई है।’

रेहाना के हाथ में थमा पान का पत्ता काँप गया।

बड़ी बी की आँखें कह उठीं–‘अब तू राजदाँ बन सकती है। हम भी कभी तेरी उमर से गुजरे थे। तब हमारी आँखों में नाजोअदा की हसरतें मचलती थीं और दिल दरियाई मोड़ बन जाता था। हाय री किस्मत! तब हमारा कोई राजदाँ नहीं बन सका!’

कहानी कुलबुलाई। होंठों के पंखों ने हवा भरी। बड़ी बी खामोशी भरी निगाहों से कह उठीं, ‘हमारे लिए आला दरजे के खानदानों से रिश्ते आने लगे। उनके खानदानों के खुलासा होने लगे। इसमें कोई शक नहीं कि हम बड़े लाड़-प्यार से पले, मगर हमें जबाँ खोलने का हक नहीं मिला।’

कहानी पथरा गई। चुप्पी की साँस घुटने लगी। बड़ी बी कहीं दूर से बोलने लगीं–‘तुम्हारे दादा सदरआला थे। गजब का था–उनका रुतबा। खौफ खाते थे लोग उनसे। अल्लाताला का दिया हवेली में सब कुछ था। गाड़ी-घोड़ा, झाड़-फानूस, कीमती गलीचे, नौकर-चाकर। मगर उस बड़ी हवेली में हम तीन जने थे और तीनों अपने-अपने में कैद। हम बात करने को तरसते थे। मरदों का आना-जाना बैठक तक था। जब-तब रेशमा, नरगिस आ जाया करती थीं। तब कुछ देर के लिए दिल की बदलियाँ उमड़-घुमड़ करती थीं। उनकी शादी हो गई, हम रेगिस्तान में जा धँसे। हसरतें मुँह छिपाने लगीं।’

रेहाना हक्की-बक्की सी इधर-उधर देखने लगी। बड़ी बी ने खखारकर कहना जारी रखा–‘हम पाबंदियों में रहकर बड़े हुए थे। हमारी आवाज हलक में अटककर रह जाती थीं।’… 

‘तब, अम्मी।’ रेहाना ने हुंकारा भरा।

‘तू पान तो लगा।’ रेहाना पान लगाने लगी। बड़ी बी बैठने का रुख बदलकर बोलीं, ‘हम तमाम पाबंदियों की आँख में धूल कैसे झोंक सके? कैसे हौलखौल के साथ हो लिए? कैसे चींटी न मार पाने वाले दिल ने इतना बड़ा हौसला जुटा लिया, यह हम आज तक नहीं जान पाए।’

अब बड़ी बी के होंठ हिल रहे थे मगर आवाज गायब थी। वह बेवजह अपने पल्लू को सँभालने लगी थीं। वह उलझे धागों को सुलझाते हुए कहने लगीं–‘शौकत मियाँ हमारे दिल के दरवाजे पर दस्ते दे बैठे और हम इनकार न कर सके। वह मामूली खानदान से था। उसके अब्बा लोहा कूटते थे। जाहिर था कि हमारे अब्बा हुजूर को वह रिश्ता फूटी आँखों से नहीं सुहाता और हम शौकत मियाँ के बगैर जिंदा नहीं रह सकते थे।’ रास्ता तिलिस्मी मोड़ पर आकर रुकने लगा तो रेहना की साँसों में हड़कंप होने लगी। बड़ी बी ने आहिस्ता से कहा, ‘हम भाग गए।’

रेहाना को तो काटो खून नहीं। उसकी जुबान तलुए से जा चिपकी। उसके अब्बा तो हैदरअली हैं, फिर शौकत मियाँ! कहीं शौकत मियाँ ही हैदर अली तो नहीं हैं! उसकी समझ कलामंडी खाने लगी।

बड़ी बी शांत थीं। वह कह गईं–‘हमारी अम्मी यह सदमा बरदाश्त नहीं कर सकीं और खुदा को प्यारी हो गईं।’ रेहाना के हाथ से पान की डंडी छूटकर उसकी सिलवार से जा टकराई उसे लगा कि शिकार हाथ न आने की शिकस्त से बौखलाकर किसी शिकारी ने जंगल में अंधाधुंध गोलियाँ चला दी हों और उसकी वजह से सारा जंगल एक साथ बदहवास होकर चीख पड़ा हो।

रेहाना अपनी अम्मी जान को बगैर देखे ही यह महसूस कर रही थी कि परछाइयाँ बोल सकती हैं। उसे लगा कि बड़ी बी ने ऐनक उतारी, उसे हथेलियों से मसला और फिर उसे मगरमच्छ की तरफ फेंक दिया। बड़ी बी ने गिलौरी उठाई। उसे मुँह में दबाया। फिर बटुए में से छालियाँ निकालकर मुँह के हवाले कीं। धीरे से कहने लगीं–‘शुरू-शुरू में शौकत मियाँ ने हमें सिर आँखों पर रखा। बहुत जल्द उसके तेवरों में बल पड़ने लगे। वह हमें अपने अब्बू से रुपया मँगाने के लिए तंग करने लगा। आखिर हम अपने वालदैन की इकलौती संतान ठहरे! फिर वह रुपया-पैसा किसके लिए है! मगर हम नहीं समझे, नहीं माने। वह हमें खरी-खोटी सुनाने लगा। मारने-कूटने लगा। हमें चुटिया पकड़कर नीचे गिरा लेता, फिर जूतियों से धुनाई करता। उसके सिर पर कर्ज हो गया था। औरत का खसम मर्द और मर्द का खसम कर्ज! एकदम निखट्टू था वह। उसकी निगाह हमारे अब्बा की दौलत पर थी।’

कहानी सुस्ताने लगी तो रेहाना टोक बैठी–‘फिर, अम्मी?’

‘एक रात वह हमारे पास पराये मर्द को लाकर बोला, ‘मुझे पैसा चाहिए–वह चाहे तू अपने बाप से मँगा या अपने तन को कुटुवाकर दे।’ हम पगला गए। पराये मर्द को बरदाश्त नहीं कर सके। वह हम पर टूटा और हम आपा खो बैठे। भागकर दीवार से सर-माथा फोड़ते रहे। लहू का फौव्वारा फूट पड़ा।’

कहानी चीख पड़ी। बड़ी बी ने हाँफी पर कब्जा करते हुए गमगीन होकर कहा, ‘जब हमें होश आया, तब हमारे सामने पराया मर्द खड़ा था। हम फफक पड़े। सोच में पड़ गए, यह क्या हुआ, हम रखैल हो गए या रंडी! जैसे हमने उठना चाहा, वह बोला पड़ा–हकीम साहिब ने उठने की सख्त मुमानियत की है।

‘हमने नफरत से आँखें फेर लीं। सोच गए, गले में फंदा डालकर लटक जाएँगे। वह बोला, ‘शौकत मियाँ भाग चुका था और तुम जमीं पर बेहोश पड़ी थीं। खून बह रहा था।’… 

‘तो पड़ा रहने देते। मर जाते।’

‘काश हम अल्लाताला के सामने सिजदा न किए होते तो शायद वह मुमकिन हो जाता।’

…‘हम जीना नहीं चाहते।’

‘मरना-जीना तो रब के हाथ में है। तुमने अपनी ओर से मरने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।… पिछले जुमे की रात को यह हादसा घटा था।’

‘तो?’ बड़ी बी ने उन फफोलों को फूटता हुआ महसूस करते हुए कहा, उसमें पीड़ा कसमसायी। वह बोला, ‘आपको रब की कसम, न कुछ सोचना, न बोलना। हमें आपकी दास्ताँ की मालूमात है। खुदा के वास्ते अपने सेहतमंद होने तक हम पर शक नहीं करना। आप हमारे लिए उस रब की अमानत हैं।’ उसने हाथ छत की ओर उठा लिए थे

वह जा चुका था। दिन गुजरने लगे। हम उठने-बैठने लायक हुए। समझाता रहा–‘यह जिंदगी अल्लाह के बंदों की खिदमत के वास्ते है।’ हमने उसे झिड़क दिया और कहा, ‘हमें समझाओ। खुदा नहीं होता।’

‘आप गुस्सा नहीं करें। आप जब हुक्म करेंगी, हम तब आपको आपके अब्बा हुजूर के पास छोड़ आएँगे। शौकत खौफ खाकर भागा है, अब नहीं लौटेगा।’

बड़ी बी आगे कुछ कहतीं कि दरवाजे पर दस्तक हुई। रेहाना से उठते नहीं बन सका, बड़ी बी उठीं और बाहर चली गईं। रेहाना सोच के मरोड़ के लिए कुलबुलाती रहीं। उसके लिए रब के बाद उसकी अम्मीजान थी। अब? कौन हैं उसके अब्बाजान? आने दो अम्मी को, के निश्चय के साथ वह म्यान से तलवार खींचकर वक्त की आहट का बेसब्री से इंतजार करने लगी।

अचानक उसका ध्यान अपने गिरे हुए आँचल पर गया। वह सँभल गई। एक और शौकत मियाँ उसके सामने आ खड़ा हुआ। वह कह रहा था, ‘अब हमें खुद इख्तियार है। वालिदैन राजी-खुशी मान जाएँ तो ठीक, वरना हमें उन्हें अपने बालिग होने का सबूत देना होगा।’

दरवाजा फिर चरमराया। रेहाना ने अपना दुपट्टा सहेज लिया। बड़ी बी थीं। चेहरे पर शिकन नहीं, मन में मलाल नहीं। वह कुरसी पर बैठते हुए कहने लगी–‘घर हम क्या मुँह लेकर लौटते! क्या पहले हमने अपने अब्बा हुजूर की थुक्का, फजीहत कम कराई है, जो अब हम उनके बचे-खुचे वजूद पर मिट्टी डालते! वह आए दिन हमें छोड़ आने की बात दोहराने लगे। एक दिन हमने घबराकर कह डाला–‘हम अपने अब्बा हुजूर के पास नहीं जा सकते।’

‘खौफ नहीं। आखिर वे तुम्हारे अब्बा हैं। तुम उनके कलेजे का टुकड़ा हो।’

‘मेहरबानी करके यह जिक्र न करें।’

‘तो कुछ तो करना होगा। ये दुनिया अब उतनी अच्छी जगह नहीं रही है। अभी आपकी उम्र ही क्या है?’

‘हम समझ गए, मियाँ।’ 

…‘क्या समझे?’

‘हम आप पर और भार नहीं बनेंगे।’

‘तो क्या करेंगे, आप?’

‘कुछ भी।’ 

‘कुछ क्या?’

हम चीन की दीवार के सामने आ खड़े हुए, सोचा सलीब के हवाले होकर रह गया। एक दिन वह बोला–‘निकाह करोगी।’

‘हम चीख पड़े और बोले, ‘कदापि नहीं?’

हम आईने के सामने आते तो बदहवास हो हाँफ उठते। आखिर जाना तो था ही। हम ठीक भी हो चले थे। घाव भर चला था। हम कह बैठे–‘अब हमें जाना चाहिए।’ 

…‘कहाँ जाएँगी?’

‘कहाँ जाएँ।… आप बताएँ, हम कहाँ जाएँ? हमें कुछ नहीं सूझता। मगर जाना तो लाजिमी है, मियाँ।’

‘हर मर्द शौकत नहीं होता। हमारे मशविरे पर गौर कीजिए।’

‘निकाह, कदापि नहीं।’

‘यही एकमात्र रास्ता है।’

‘कौन करेगा निकाह?’

‘हम, हम करेंगे। हमारा यकीन कीजिए। हम अल्लाताला को हाजिर-नाजिर जानकर वादा करते हैं कि…।’

‘बस…बस…बस चुप करो, मियाँ।’

‘सोच लीजिए। वरना आपको अपने अब्बा हुजूर के पास लौटना होगा।’

‘यह शहर हमें काटता है।’

‘हम इस मनहूस शहर को छोड़ देंगे।’

‘कहाँ जाएँगे?’

‘जहाँ आपको इसका खयास भी न आ सके।’

हमने गौर से देखा। वह नमाजी इनसान कुरआन पाक-सा लगा। पूछा, ‘कब?’ ‘परसों जुमा है, ठीक रहेगा।’

हम कुछ नहीं बोले। वह चुपचाप उठकर चला गया।

‘फिर?’ रेहाना से नहीं रहा गया, वह पूछ बैठी, ‘वह शहर छोड़ दिया। और निकाह?’

‘वह भी हो गया। वो बोला, ‘मुहब्बत खुदा का इलहाम है। ये तोहफा उनके नसीब होता है, जिनको वह बेइंतहा प्यार करता है।’

‘अब तक, हम उनको जान चुके थे। वह खुदा की इबादत से हमारे दिलोदिमाग पर छा गए थे। कहते थे–‘बेगम, मुहब्बत तो निकाह के बाद भी हो सकती है।’ हम क्या जवाब देते। सिजदा करके रह जाते थे। वह रुकते नहीं, आगे कहते, ‘वालिदैन औलाद के दुश्मन नहीं होते। उनके हाथों औलाद की परवरिश होती है। वे ही होते हैं उनके सपने, उनका भविष्य।’ बड़ी बी उठीं तो रेहाना अपने को रोक नहीं सकी और पूछ बैठी, ‘कहाँ हैं आपके वो?’ फिर उसने चारों ओर देखा।

बड़ी बी की आँखों में चमक महक उठी। बड़े प्यार से उसकी ओर देखकर वह बोलीं, ‘यह उनका ही मशविरा था कि…’

‘क्या?’

‘अब तू भी बड़ी हो गई है। दूध का जला छाछ फूँक-फूँककर पीता है।’

‘अम्मी…।’ बड़ी बी मुसकुराकर चल पड़ी और रेहाना सिर झुकाए बैठी की बैठी रह गई स्तब्ध।


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Artist : Pieter Bruegel the Elder
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