प्यार मरता नहीं
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- 1 June, 2016
प्यार मरता नहीं
तब इतनी गरीबी भी नहीं थी घर में कि मुझे काम करने के लिए जाना पड़ता लेकिन न जाने मुझे क्यों ऐसा लगा करता कि मुझे भी घर में कुछ सहयोग करना चाहिए। हालाँकि बड़े भैया हमेशा यही कहा करते, ‘नरेश को काम नहीं करना चाहिए उसे तो जो वह पढ़ाई कर रहा है उसी में मन लगाए और बड़ा आदमी बने। अगर वह बड़ा आदमी बन गया तो समझो समाज में हमारा कितना नाम होगा।’ और फिर अम्मा से जिद करने लगते, ‘अम्मा समझाओ न तुम उसे, वह इन सब कामों को छोड़कर अपना पूरा मन पढ़ाई में लगाए। मैं कहता हूँ तो हँसकर दिखा देता है।’ अम्मा ने उन्हें आश्वस्त भी किया था, कहूँगी मैं उससे।’ और ठीक उसी दिन शाम को अम्मा ने मुझे अपने पास बैठाकर समझाया था, ‘बेटा तुम्हारा बड़ा भइया कह रहा था तुम ये सब काम मत किया करो। अभी घर का खर्च चल रहा है। तुम अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दो। भइया कह रहा था कि तुम कभी कुछ काम करने लगते हो कभी कुछ…तुम पढ़-लिखकर बड़े आदमी बनो तो उसे ज्यादा खुशी होगी। तुम तो जानते ही हो कि तुम बड़े आदमी बनोगे तो मुझे ही नहीं तुम्हारे पिता और भइया…भाभी सभी को कितनी खुशी होगी।’ माँ ने मुझे बहुत प्यार और अपनेपन से समझाया था।
‘अम्मा हम जानते हैं कि आप, पिता जी और भइया हमें बेहद प्यार करते हैं…अम्मा हम पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ रहे यह बात आप भी अच्छी तरह जानती हैं। मैं रात-रात भर पढ़ता हूँ। आप यह भी जानती हैं कि जो भी एग्जाम मैं देता हूँ उसे क्वालीफाई कर ही जाता हूँ लेकिन अम्मा मैं क्या करूँ, इंटरव्यू में मात खा जाता हूँ। कोई बात नहीं अम्मा किसी न किसी दिन तो भगवान मेरी सुनेंगे ही। माँ मैंने भगवान का ऐसा कुछ बिगाड़ा थोड़े ही है जो मेरी मेहनत रंग न लाए। भइया से कहना मैं उनका सिर कभी नीचा नहीं होने दूँगा। रही बात मेरे काम करने की तो मैं कोई बुरा काम थोड़े ही करता हूँ। कभी सब्जी बेच ली तो कभी लोगों के घरों में पुताई कर ली। ये कोई बुरे काम थोड़े ही हैं। मेरा वश चले तो मैं तो मजदूरी भी कर लूँ लेकिन अम्मा, पिता जी के जानने वाले हैं सभी लोग जो मुझे कोई अपने साथ ले ही नहीं जाता। अम्मा मैं तुम्हें एक बात बताऊँ, अभी एक जगह पुताई करने का काम है। अपने ही मुहल्ले के लड़के वहाँ काम कर रहे हैं। मुझसे कह रहे थे, भइया आप मेरे साथ चलो। आप बस बैठे रहना। आपका दिमाग बहुत तेज चलता है। आप मुझे समझा दिया करना। अम्मा उन्हें खुशी होती है। वे सब बहुत कम पढ़े-लिखे हैं। मुझे अपने साथ देखकर खुश हो जाते हैं और अपने आप पर गर्व महसूस करते हैं…और जहाँ तक मेरी पढ़ाई का सवाल है तो आप तो जानती ही हैं। मैंने रिजर्व बैंक का एग्जाम पास कर लिया है। भगवान चाहेगा तो इंटरव्यू भी मैं पास कर ही लूँगा फिर क्या पूरी रिजर्व बैंक मेरी अम्मा की।’ मैंने मीठी-मीठी बातें बनाकर अम्मा को मना लिया था। अम्मा मान गई थी और अम्मा मान गई तो फिर पिता जी और भइया का मान जाना तो सहज ही था।
दरअसल हुआ यह था कि एम.ए. करने के पश्चात मैं घर पर ही था। पिता जी मेहनत मजदूरी का काम करते थे और भइया प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे। जैसा कि हर माँ-बाप, भाई-बहन चाहते हैं कि उनका अपना बहुत बड़ा आदमी बने। मेरे अपने भी चाहते थे कि मैं भी बड़ा आदमी बनूँ। मैं पढ़ता भी था मेहनत से लेकिन इंटरव्यू से मुझे डर लगता था। मैं एग्जाम पास करने के बाद इंटरव्यू में फेल हो जाता था। अब विभिन्न कंपटीटिव एग्जाम्स की तैयारी करने के साथ-साथ मैं और काम भी कर लेता था जिनमें लोगों के घरों में पुताई करना आदि काम शामिल थे। बच्चों को पढ़ाने का काम भी कर सकता था। लेकिन मैं उनसे पैसे लेने के पक्ष में नहीं था। जिसका सीधा मतलब था बच्चे अच्छी तरह नहीं पढ़ते और उनके माँ-बाप भी मुझे मूर्ख या बेवकूफ ही समझते। छोटा-सा कस्बा था जहाँ फैक्ट्रियाँ, बड़े-बड़े कारखाने नहीं थे। स्कूल थे भी तो पाँच सौ रुपये से ज्यादा नहीं देते जबकि यह सब काम करने से मुझे एक ही दिन में पचास, साठ रुपये मिल जाते थे। दिखावा न मुझे तब पसंद था न आज। इन पैसों से एक लाभ होता था कि मैं अपने भाई या पिता जी से परीक्षा देने के लिए फार्म या फीस आदि के लिए पैसे नहीं माँगता था। कभी कहीं परीक्षा देने जाना है तो वही पैसे काम आते थे। कई बार मैं अपने कपड़े भी बनवा लेता था। घरवालों को लगता कि मैं पढ़ने-लिखने की बजाय इन चक्करों में पड़ गया हूँ इसलिए वे मुझे रोकते थे। वे गलत नहीं थे और मैं भी सही ही था।
उस छोटे से कस्बे में जैन बनियों के पास ही सारे कस्बे की धन-दौलत थी। जैनी बनियों की दुकानें बीच बाजार में थीं। कोई किसी से कतई कम नहीं था। दोनों ही शांत स्वभाव के लोग थे लेकिन दोनों में ही जाति की बीमारी ने अपना घर बना लिया था। जहाँ ब्राह्मण, ठाकुर और तथाकथित उच्च जातियाँ समाज के हाशिये पर फेंके गए लोगों से छुआछूत मानती थीं वहाँ जैन भी इनसे छुआछूत मानते थे। हो सकता है मनु की तरह दिगंबर महावीर जी ने भी ऐसा ही कुछ कहा हो। खैर, उनकी लीला वही जानें। हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि हम बने ही अपमान सहने के लिए थे। हम ज्यादा विद्रोह करते तो भूखों रहने की नौबत संभव था। हाँ, इतना जरूर था कि जैन, ब्राह्मणों की तरह उतने धूर्त और मक्कार नहीं थे। जैन थोड़े से सहिष्णु और सॉफ्ट थे। सुशील जैन का बहुत बड़ा मार्केट था जिसमें बीसियों दुकानें थीं। कुछ उनकी अपनी थीं तो कुछ को उन्होंने किराये पर दे रखा था। जितनी उनकी दुकानें थीं उससे भी बड़ा उनका घर था। उनकी दो बेटियाँ और दो बेटे थे। दोनों बेटों की शादी उन्होंने कर दी थी। अब बड़ी बेटी की शादी थी। शादी लायक तो छोटी बेटी भी थी लेकिन बड़ी की पहले करनी थी। घर में पैसे का अंबार लगा था।
बड़ी बेटी की शादी में सुशील जी पैसे को पानी की तरह बहा देना चाहते थे और इसी क्रम में उनके घर की पुताई होनी थी। पुताई करने में मेरे मुहल्ले के लड़के और बड़े बुजुर्गों को महारत हासिल थी। मुकेशा, दीपिका, पपुआ, कालू, मरुधर और संतोषा से लेकर बड़े बूढ़ों में करुआ के पिता जी सूबेदार, रमकिसना, मुकेशा के चाचा दीना और परसादी प्रमुख थे। इन सबमें पपुआ का नाम सबसे ऊपर था। पपुआ मेहनती तो था ही ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ भी था। सुशील जैन के घर में पुताई का ठेका पपुआ ने ही लिया था। पपुआ मेरी बहुत इज्जत करता था। मुझे बहुत मान देता था। एक दिन चुपके से मेरे घर आया था, ‘भैया’
‘हाँ’ शाम के धुँधलके में, मैंने कहा था।
‘भइया, लगभग छह महीने का काम है जैन साहब के घर। जैन साहब की बड़ी लड़की की शादी है। मैं हिसाब-किताब तो जानता हूँ लेकिन आप साथ रहते तो मैं पूरा काम अपने हाथ में ले लेता। आप करना कुछ नहीं सिर्फ साथ बने रहना और लेबर को हिसाब-किताब करके पैसे देते रहना।’ पूरी रणनीति पपुआ ने मुझे समझा दी थी।
‘मैं हिसाब-किताब भी करूँगा और काम भी करवाऊँगा। ऐसे थोड़े ही न होता है। मैं तुम्हारा पूरा साथ दूँगा। लेकिन एक प्रोब्लम है। पप्पू।’ मैंने कहा तो पपुआ मेरे मुँह की ओर ताकने लगा था। मानो पूछ रहा हो बताओ भइया क्या प्रोब्लम है। ‘मुझे काम के बीच-बीच में संडे के दिन एग्जाम देने या कभी-कभी परीक्षाएँ देने और उनके परिणाम पता करने के लिए जाना पड़ा करेगा। तब तुम्हें, मुझे छुट्टी देनी पड़ेगी। मैं बाद में आकर कंपेनसेट कर दिया करूँगा।’ मैंने अपनी समस्या पपुआ को बता दी थी।
‘कंपेनसेट’ क्या होता है पपुआ नहीं जानता था लेकिन मुझे बीच-बीच में जाना होगा ये बात वह समझ गया था और खुशी-खुशी तैयार हो गया।
और अगले ही दिन, पपुआ ने अपनी फौज लेकर सुशील जैन साहब के घर की पुताई करने के लिए चढ़ाई कर दी थी। पाँच सात मजदूरों के साथ हम सभी लोग सुशील जैन साहब के घर की सफाई करने लगे थे। पुताई का काम शुरू हो गया था। घर थोड़े ही था वह तो महल था। और उस महल के राजा सुशील जैन साहब बहुत ही नेकदिल और ईमानदार होने के साथ-साथ सहृदय भी थे।
सुबह शाम ही घर के पुरुष दिखाई देते थे। पूरे दिन तो सुशील जैन साहब की पत्नी और उनकी दोनों बेटियाँ ही रहती थीं। बड़ी बेटी की शादी थी सो वह अपनी शादी के सपनों में ही खोई रहती। छोटी बेटी ही काम की देखरेख करती थी। छोटी बेटी का नाम सुधा जैन था। सुधा बेहद सुंदर थी। बी.ए. की अंतिम वर्ष में थी सुधा जैन। जब वह काम देखने आती तो काम करने वाले लड़के कनखियों से उसे देखते और जब वह चली जाती तो बाद में अपने आपको खुशनसीब मानते। वह किसी से कुछ कहती भी नहीं थी। सभी से भैया-भैया ही करती रहती। सभी के लिए चाय बनाती और स्वयं की कपों में चाय करके देने भी आती हालाँकि उसके घर में बहुत सी कामवालियाँ थीं।
काम चलता रहा और काम के दौरान ही मुझे दो-तीन बार कस्बे से बाहर जाना पड़ा। सुधा ने एक-दो बार पपुआ से पूछा भी था ‘अरे पप्पू जी वो तुम्हारे भैया नहीं आाए काम पर आज।’
‘वे कानपुर गए हैं।’ पपुआ ने बताया था।
‘क्यों।’
‘भैया ने रिजर्व बैंक में कोई इम्तिहान दिया था। वे पास हो गए हैं। उनकी वहीं नौकरी लगेगी। इसी का पता करने गए थे। परसों आएँगे। बताओ कोई बात…।’ पपुआ ने सुधा को बताया था।
‘बात कोई नहीं…अच्छा पप्पू जी एक बात बताओ तुम्हारे भइया लगता है कुछ पढ़े-लिखे हैं शायद।’ सुधा ने पप्पुआ से सारी बात जाननी चाही थी।
‘हाँ, दीदी। मेरे भैया खूब पढ़े-लिखे हैं। मेरे मुहल्ले में तो भइया से ज्यादा पढ़ा-लिखा और होशियार कोई नहीं है। खूब होशियार हैं हमारे भइया। उनकी बहुत बड़ी नौकरी लगने वाली है।’ पपुआ ने गर्व से बताया था।
‘तो ये काम क्यों करते हैं।’ सुधा ने पूछा था।
‘कुछ पैसे मिल जाते हैं। फिर मैंने ही उनसे जिद की थी। वैसे भइया में घमंड नहीं है। अपने पढ़े-लिखे होने का गरब भी नहीं है। काम भी खूब करते हैं।… बताओ, दीदी कोई शिकायत हो तो।’ पपुआ ने आगे बताया था।
‘नहीं, नहीं मुझे कोई शिकायत नहीं…मुझे क्यों होगी शिकायत…अच्छा परसों तो आएँगे। ऐसा तो नहीं काम छोड़कर चले जाएँ।’ सुधा ने शंका जाहिर की थी।
‘नहीं दीदी मेरे भइया बात के बहुत पक्के हैं। आप देखना हाँ।’ पपुआ का विश्वास अडिग था।
मैं कानपुर से पता कर आया था। कॉइन नोट एग्जामिनर की लिस्ट तैयार कर ली गई थी। मेरा नाम छिहत्तर नंबर पर था और पचहत्तर नंबर तक के कैंडीडेट्स को ज्वाइन कराने के लिए ज्वाइनिंग लेटर भेज दिए गए थे। मैं एक बार फिर निराश था। आँखों में आँसू भी आ गए होंगे लेकिन हथेलियाँ जब आँखों के नीचे की थी तो कोई आँसू टपका नहीं था। हथेलियाँ खुली की खुली ही रह गई थीं।
जिंदगी से हारने की आदत पड़ गई थी लेकिन जंग जारी थी। और वैसे भी हारना तो तब होते हैं जब युद्ध समाप्त हो जाए। युद्ध जारी था। दो परीक्षाओं के परिणाम आने वाले थे जिनमें एक का इंटरव्यू नहीं था वहाँ केवल एग्जाम के आधार पर ही सेलेक्शन होना था।
मैं काम पर पहुँच गया था। पपुआ खुश था, ‘आ गए भइया। अब ठीक रहेगा।’ क्या ठीक रहना था मैं नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता था कि पपुआ मुझे देखकर खुश हो गया था और कोई मुझे देखकर खुश था इससे बड़ी खुशी मेरे लिए क्या हो सकती थी।
उस दिन सुशील जैन साहब के घर में पुताई करने वाले हम तीन लड़के ही थे। कुछ लड़कों ने वैसे ही छुट्टी कर ली थी। पपुआ और दूसरा लड़का नीचे वाले कमरे में थे और मुझे पपुआ ने ऊपर वाले कमरे में किवाड़ों पर पॉलिस करने का काम दे दिया था, ‘भैया आप थके हारे होंगे। ये हल्के वाला काम तुम करो।’ बड़ा ध्यान रखता था पपुआ मेरा।
मैं रेगमाल से किवाड़ को रगड़-रगड़कर साफ कर रहा था। तभी पीछे से कोई आकर खड़ा हो गया था, ‘कहाँ गए थे।’
मैंने पीछे मुड़कर देखो। सुधा थी। ‘अरे आप…आप यहाँ कहाँ आ गईं। देखो तो मिट्टी उड़ रही है। आप गंदी हो जाएँगी। हटो-हटो पीछे-पीछे हटो।’ मैंने उन्हें पीछे हटने के लिए कहा था।
‘नहीं हो जाऊँगी गंदी। चाय लायी हूँ। पी लो। काम बाद में कर लेना।’ न जाने कौन सा अधिकार था जो कमरे में गूँज रहा था।
‘रख दो, अभी पीता हूँ।’ कहकर मैं हाथ धोने चला गया था। हाथ धोकर लौटा तो वे वैसी ही खड़ी थीं। मैंने झट से उनके हाथ से चाय ले ली थी। इतने बड़े घर की लाडली बेटी और कहाँ मैं फटेहाल।
मैं चाय पीने लगा। मजदूरों के साथ काम करता था सो शिष्टता भी भूल गया। उनसे पूछा भी नहीं था कि आप भी चाय ले लो। और वैसे भी मालिक और मजदूर का फर्क तो यथार्थ भी था।
‘पप्पू जी बता रहे थे आप बहुत पढ़े-लिखे हैं।’ बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने पूछ लिया था।
‘पढ़ा-लिखा होता तो मजूरी क्यों करता।’ दर्द था, कराह थी या कसक कौन जाने अचानक बोल पड़ा था मैं।
‘अच्छा आप बताओ…पढ़-लिखकर तो आदमी शिष्ट और विनम्र हो जाता है’ वे बोली थीं।
‘जी बिल्कुल।’
‘तो फिर आप क्यों नहीं हैं।’
‘मुझसे क्या अपराध हो गया।’ मैं डर गया था कि कहीं काम न छूट जाए।
‘आप अकेले-अकेले चाय सुड़क रहे हैं। ये भी जरूरी नहीं समझा कि पूछ लेते सुधा जी चाय पी लीजिए।’ न जाने कितने अधिकार से वह बोली थी।
‘मुझसे गलती हो गई क्षमा कर दीजिए मैडम।’ मैं डर रहा था।
‘अच्छा अभी मैंने अपना नाम बताया है न। मैं मैडम नहीं हूँ। मेरा नाम सुधा जैन है। तुम चाहो तो सुधा भी कह सकते हो।’ गुर्राहट लेकिन उस गुर्राहट में अनाप-शनाप अपनत्व भी था।
‘जी’ मैं अब भी हाथ बाँधे खड़ा था।
‘और ये हाथ में क्या है।’
‘कुछ नहीं।’ मैंने अपने हाथ अलग-अलग करके दिखा दिए थे। वे कुछ नहीं बोली थीं। खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। उनके हँसने से लगा था चारों ओर फूल बिखर गए हों। लगा था मानो मंदिर की घंटियाँ बजने लगी हों।
मैं नहीं हँसा था। मैंने फिर हाथ बाँध लिए थे। वे हँसते-हँसते चलने लगी थीं कि अचानक मुड़ी थीं, ‘एक बात रह गई।’
‘जी मैडम।’
उन्होंने मेरी तरफ आँखें निकाली तो मैं सकपका गया था, ‘जी…जी सुधा जी।’
‘ये छत्तीस बार जी लगाना जरूरी है।’ घुड़क थी जिसमें अब डर या भय नहीं था। ‘आप कुछ पूछ रही थीं।’ मैं हाथ बाँधे याचक सदृश खड़ा था।
‘आप कितना पढ़े हैं।’
‘एम.ए. अँग्रेजी से किया है।’
‘ये ही काम रह गया था।’
‘काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता जहाँ तक मैं जानता हूँ।’
‘और कहाँ तक जानते हैं आप।’
‘बस इतना ही।’
‘इतना डरे-डरे क्यों रहते हैं।’
‘क्योंकि मैं बहुत गरीब परिवार से हूँ।’
‘गरीब कोई होता ही नहीं।’
‘आपने गरीबी देखी ही नहीं।’
‘अच्छा जवाब तो खूब लपर-लपर देते हो।’ उनकी इस बात पर मैं फिर डर गया था।
‘अच्छा बताओ एम.ए. अँग्रेजी से कर लिया। कहीं किसी स्कूल में पढ़ाने लगते तो।’ एक रास्ता बताया था सुधा ने।
‘प्राइवेट स्कूल वाले शोषण करते हैं। दस्तखत पाँच हजार पर करवाते हैं। देते पाँच सौ रुपये।’ मुझे पता ही नहीं चला था कि मैं कब फॉर्मल हो गया था।
‘पप्पू जी बता रहे थे कि आप बहुत बड़ी-बड़ी नौकरियों के लिए एग्जाम्स क्लीयर कर लेते हैं।’ पूछा था सुधा ने।
‘जी लेकिन मुकद्दर से क्लीयर नहीं होता।’ मन में पीड़ा थी जो साक्षात् हो उठी थी।
‘निराश मत होओ। भगवान सब ठीक करेगा। वह सभी की मदद करता हैं।’ उन्होंने ऊपर की ओर आँखें उठायी थीं। मानो मेरे लिए भगवान से कह रही हों कि हे भगवान इनकी सुन लो।
‘भगवान गरीब की मदद नहीं करता।’ मैं न जाने कब बोल गया था और मेरे इतना बोलते ही वे वहाँ से चली गई थीं।
इस बार न जाने क्यों मैं डरा नहीं था। भगवान में कितना विश्वास करता। मेरी सुनता ही नहीं था। नहीं तो पचहत्तर नंबर तक के लड़कों को ज्वाइनिंग लेटर इश्यू हो जाएँ और छिहत्तर नंबर वाला मैं मुँह देखता रहूँ।
वे चली गई थीं। किचिन में कुछ खड़बड़-खड़बड़ हो रही थी। शायद बरतनों से लड़ रही थी। कुछ देर बाद पपुआ और उसके साथ वाला लड़का मेरे पास आया था। थोड़ी बहुत देर मेरे साथ काम किया था। देखते-देखते शाम हो गई थी। हम सभी अपने-अपने घर चले आए थे।
मैंने पपुआ को सारी बात बता दी थी। उसने भी बताया था कि भैया आपके कानपुर चले जाने पर सुधा ने आपके बारे में पूछा था। अगले दिन हमलोग फिर जाकर अपने-अपने काम पर लग गए थे। इस बार हम सभी एक ही जगह पर काम कर रहे थे।
सुधा जी सभी के लिए चाय से भरे कप एक ट्रे में सँभाले प्रकट हुई थीं। चाय की ट्रे लाकर एक जगह रख दी थी। सभी लड़कों ने चाय के कप उठा लिए थे। मैं अपने काम में लगा हुआ था कि वे अपने हाथ से कप लेकर मेरे पास आई थीं, ‘चाय’।
‘अरे आप, मैं अपने आप ले लेता। आप बिना वजह परेशान।’ मैं सकपका रहा था। सभी लड़के गिद्ध की निगाहों से मुझे और सुधा जी को देख रहे थे।
‘अब पी भी लो।’ कहकर मेरे हाथ में चाय का कप देकर चली गई थीं सुधा जी। उनके जाते ही सभी मेरे पास आ गए थे। मैं उम्र में सबसे बड़ा था सो सभी मुझे भइया ही कहते थे। उनमें कुछ ऐसे भी थे जो मेरे भतीजे लगते थे लेकिन वे भी मुझे भइया ही कहते थे। ‘भइया’
‘हूँ।’
‘पट गई।’
‘कौन?’
‘जैनिया की लौंड़िया।’
‘पागल हो तुम। ऐसे बोलते हैं। मालिक हैं वो हमारी।’ मैंने उन्हें सभ्यता से बोलने को कहा था।
‘अच्छा अब बात आई समझ में।’ कलुआ बोला था।
‘क्या समझ में आई तेरे।’
‘यही कि भइया भी।’
‘क्या भइया भी।’
‘यही कि भैया भी उसे चाहते हैं।’ अब दूसरे वाला बोला था जबकि ये सब मुझसे बहुत डरते थे लेकिन जाने क्या हो गया था सबको। ‘चाहत और पेट दोनों अलग-अलग होते हैं दीपक। तू अभी नहीं जानता। गरीब को कोई अधिकार नहीं है प्यार करने का। एक बात सुन ध्यान लगाकर अगर इस तरह की बात इस घर में किसी को पता चल गई तो सबके सब यहाँ से भगाए जाओगे। और इतना ही नहीं कस्बे में कोई काम भी नहीं देगा। चारों तरफ यही बात फैल जाएगी कि ये लोग काम के बहाने रइसों की लड़कियों को फुसलाने के लिए आते हैं। जानते हो अगर यही आदतें रखोगे तो कहीं काम भी नहीं मिलेगा। चाहता तो मैं भी हूँ। लेकिन यही सब जिंदगी थोड़े ही होती है। जिंदगी तो…।’ मैं कहाँ इसके आगे बोल पाया था। आँखों में कुछ किरकिराने लगा था सब मुझे घेरकर बैठ गए थे। ‘सारी भइया, गलती हो गई।’ बेचारे सॉरी नहीं कह पाते थे लेकिन भैया को दु:ख न पहुँचे इसलिए जो भी जानते थे बोल गए थे। मैंने भी सभी को प्यार किया था। और ‘कोई बात नहीं’ कहते हुए सभी काम पर लग गए थे।
और हमारा यही वार्तालाप न जाने कैसे सुधा जी ने सुन लिया था।
अगले ही दिन आईं थी वह। वही चाय लेकर। सभी ने अपनी-अपनी चाय उठा ली थी। मैं भी चाय का अपना कप उठाने चला था कि वे स्वयं ही उठा लायी थीं, ‘मैं देती हूँ आपको।’
‘नहीं मैं ले लूँगा।’
‘क्यों, काँटे हैं मेरे हाथों में।’
‘अरे नहीं, नहीं लाइए आप दे दीजिए।’
‘लाइए आप दे दीजिए हुअं।’ कहते हुए उन्होंने चाय का कप मुझे थमा दिया था। मैं चाय पीने लगा तो ध्यान आया, ‘अरे सुधा जी आपकी चाय…आप नहीं पिएँगी।’
‘सुधा जी…सुधा जी चाय पी चुकी हैं।’ उन्होंने जी पर पूरी ताकत लगा दी थी। मैं समझ गया था उन्होंने जी पर इतनी ताकत क्यों लगाई थी।
‘एक बात पूछनी थी।’ वे बोली थीं।
‘किससे।’
‘दीवारों से।’
‘भइया, आपसे पूछना चाहती है दीदी।’ पपुआ बोला था।
‘अच्छा, पूछिए।’
‘आपसे तो पप्पू जी समझदार हैं।’ उन्होंने पपुआ की ओर देखकर कहा था। और पपुआ का सीना छत्तीस इंच का हो गया था।
‘तो पप्पू जी से पूछ लो।’ मैं बोला था।
‘देख रहे हो।’ उन्होंने पपुआ की ओर देखकर कहा था, ‘इनके नखरे।’
‘भइया बता दो न दीदी क्या पूछ रही है।’ पपुआ बोला था।
‘अच्छा बताओ दीदी, क्या पूछ रही थीं।’ मैंने यों ही मजाक में बोला था। मुझे लगा था शायद वह नाराज हो गई हैं। मेरे ऐसा कहने से खुश हो जाएँगी। बस गजब हो गया था। डिस्टेंपर की तीन बाल्टियाँ मेरे ऊपर डाल दी थी। मैं सिर से पाँव तक भींग गया था। लड़के खूब खुश थे। ‘दीदी। मैं दीदी हूँ तुम्हारी।’ कहती हुई किचिन में चली गई थी।
अब कुछ भी शेष नहीं रहा था। सब लड़के जान गए थे कि आखिर माजरा क्या है। जान मैं भी गया था लेकिन जानबूझकर मूर्ख बना हुआ था। घर में पता चला तो सभी ने सुधा जी को डाँटा था, ‘सीधा लड़का है। चार पैसे कमा लेता है। जिस दिन भगवान उसकी सुन लेगा। क्यों करेगा ये सब काम…लड़की बिल्कुल पागल हो गई है। बताओ उसके ऊपर पूरा डिस्टेंपर ही डाल दिया।… वह तो बेचारा किसी का कुछ लेता भी नहीं। अपने काम में लगा रहता है। सुधा की माँ उसे डाँटना…।’ कहते हुए सुशील जैन साहब मेरे पास भी आए थे। ‘बेटा वह ऐसी ही है जिद्दी।’
‘कोई बात नहीं जैन साहब। मैं नहा लूँगा। सब ठीक हो जाएगा। आप…आप…चिंता…।’ मैंने कहा था तो वे चले गए थे।
मैंने उस दिन काम नहीं किया था। वैसा ही लिपा-पुता घर चल आया था। पूछा भी था अम्मा ने, ‘अरे ये क्या हाल बना लाया।’
‘कुछ नहीं अम्मा बाल्टी ऊपर रखी थी। मैं चढ़ रहा था सो गिर गई मेरे ऊपर। अभी नहा लेता हूँ। सब ठीक हो जाएगा।’ कहते हुए मैं नहाने बैठ गया था। काफी रगड़ने के बाद भी रंग नहीं उतरा था। किसी का उतरा है जो मेरा उतरता।
अगले दिन हम सभी काम कर रहे थे। निश्चित समय पर चाय लेकर प्रकट हुई थीं सुधा जी। सभी ने अपनी-अपनी चाय उठा ली थी। मैं असमंजस में था। तभी उन्होंने ही चाय का कप उठाकर दिया और बोली थी, ‘एक्ट्रीमली सॉरी।’ ‘कोई बात नहीं।’ कहकर मैं चाय पीने लगा तो मैंने देखा था कि वहाँ एक कप और रखा था जिसमें चाय थी। मैं समझ गया था। मैंने उठकर चाय का कप उन्हें बड़े सलीके से देते हुए कहा था, ‘लीजिए आप भी पीजिए।’ उन्होंने पलकें नीचे की थी। लगा था मोती को किसी ने सीप में बंद कर लिया हो।
सभी ने चाय पी थी और चाय पीने के पश्चात अपने-अपने काम पर लग गए थे। लगभग छह महीने तक काम चलता रहा। घर के कोने-कोने में पुताई, वार्निश और न जाने क्या-क्या होता रहा था।
उन्हें मैंने उस दिन के बाद कभी दीदी नहीं कहा। मैं जब भी काम करता होता वे आकर मेरे पास वहीं बैठ जातीं। वे बातें करती रहतीं। मैं काम करता रहता। एक-एक बात दस-दस बार पूछतीं। मैं भी उतना नहीं डरता था। मैं जान गया था सच। साथ के लड़के खूब मजा लेते थे, ‘दीदी, भैया खूब अच्छे हैं न।’ वे हँस देतीं। बहुत नालायक थे सभी और प्यारे भी लेकिन वह कलुआ, वह तो सबसे बड़ा कुत्ता था, ‘भैया गजब की सुंदर हैं। पट गई समझो।’ फिर मेरे बहुत पास आकर कहता, ‘भैया, भाभी कहना शुरू कर दें।’ मैंने एक मारा था उसके कान के नीचे तो गुस्सा नहीं हुआ था, ‘अच्छा भैया, लगी तो भाभी ही ना।’
‘हाँ।’ न जाने कब बोल गया था मैं।
तभी एक दिन मैं अकेला काम कर रहा था कि वे पीछे से आई थीं और मेरी आँखें बंद कर ली थीं। मैं जान गया था। ‘बताओ कौन?’
‘सुधा।’
‘करेक्ट।’
‘एक बात पूछूँ आपसे।’
‘पूछो।’
फिर वे मेरे बिल्कुल सामने आकर बोली थीं, ‘नरेन, आई लव यू।’
‘सुधा तुम जानती भी हो कि तुम क्या कह रही हो। कहाँ आप प्रिंसेस और कहाँ मैं जमीन पर सही तरह से पैर भी नहीं हैं मेरे।… सुधा कभी जमीन और आसमान नहीं मिलते…तुम जानती हो ना।’ मैंने बिल्कुल अपने सामने करते हुए उनकी आँखों में आँखें डालकर कहा था।
‘मैं मिला दूँगी जमीन और आसमान, नरेन।… मैं सब ठीक कर दूँगी…सिर्फ तुम मान जाओ।’ जिद पर अड़ गई थी सुधा।
‘सुधा, बचपना मत करो।’ मैंने समझाया था।
‘अगर तुम मुझे न मिले तो मैं फाँसी लगाकर मर जाऊँगी।’ रईस घर की बेटी जिद पर उतर आई थी।
‘यही प्यार करती हो…जो प्यार करते हैं उनमें साहस भी होता है…तुम तो बिल्कुल कायर निकलीं। और फिर ऐसी जिद क्यों करती हो जो पूरी न हो सके।’ मैं थोड़ा सा गुस्सा हुआ था।
‘अच्छा गुस्सा हो रहे हो।’
‘नहीं गुस्सा नहीं हो रहा। तुम्हें समझा रहा हूँ। मैं बहुत गरीब घर का बेटा हूँ। सिर्फ इज्जत बची हुई। तुम्हारे पास धन है। दौलत है। कस्बे में तुम्हारे पापा का नाम है। तुम्हारे एक इशारे पर मेरे जैसे सैंकड़ों नरेन तुम्हारे पैरों में नाक रगड़ते घूमेंगे।’ मैंने अपना और सुधा का यथार्थ उनके सामने रख दिया था।
‘लेकिन उनमें मेरा नरेन नहीं होगा।’ और इतना कहकर वे मुझसे लिपट गई थीं। मैं डर रहा था। फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो, बोली, ‘नरेन आओ तुम्हें एक चीज दिखाती हूँ।’
‘दिखाओ।’
‘यहाँ थोड़े ही है।’
‘कहाँ है।’
‘मेरे साथ आओ।’ और वे मुझे कमरे के भीतर कमरा और फिर कमरे के भीतर कमरा अर्थात पाँच कमरों के भीतर दीवाल में लगी हुई तिजोरी के पास ले गई थी। उन्होंने तीन-चार चाभियों से तिजोरी खोली थी। न जाने कहाँ छिपाकर रखी थी उन्होंने चाभियाँ।
मेरी आँखें फटी की फटी रग गई थीं। मैंने तो फिल्मों में भी इतने गहने नहीं देखे थे। मुझे लगा था कि मुझे चक्कर आ जाएगा।
माँ एक अँगूठी बनवाने के लिए पिता से एक युग से कह रही थी। पिता असहाय से माँ के सामने देखते रहते थे। कई बार मैंने देखा था माँ पिता की आँखें अपनी हथेलियों से पोंछ लेती थी।
‘सुनो।’ वे बोली थीं। अचानक मेरी चेतना वापिस आई थी।
‘ये सारे गहने लेकर मैं कल तुम्हारे साथ भाग चलूँगी। जिंदगी भर तुम कुछ भी नहीं करना। भूखों नहीं मरेंगे हम।’
‘और जैन साहब का क्या होगा।’
‘यह सब तुम मुझ पर छोड़ो। मैं बच्ची नहीं हूँ। बालिग हूँ मैं। मैं जिधर बोलूँगी। वही होगा।’ वह निडर बनी हुई थी।
‘और अगर ऐसा न हो पाया तो।’
‘तो कल मेरी लाश पर बहुत लोग शोक मनाने आएँगे। तुम भी आ जाना।’ वह बोली थी।
‘पागल हो तुम।’
‘पूरी तरह…तुम नहीं मिले तो मैं कुछ भी कर जाऊँगी। समझे नरेन बाबू।’ उसकी बातें सुनकर मुझे डर लगने लगा था।
‘अच्छा चलो, यहाँ से।’ और मैं उन्हें बाहर की तरफ लाने लगा था। उन्होंने अलमारी बंद कर दी थी। हम दोनों बाहर चले आए थे।
‘अच्छा कल का पक्का रहा।’ सुधा जी बोली थीं ‘मैं वहीं मिलूँगी।’
‘ठीक है।’ कहकर मैं काम में लग गया था।
काम कहाँ कर पा रहा था। जैसे-तैसे शाम हुई थी। मैं घर आया था।
रातभर सोचता रहा था। मेरे सुधा को भगा ले जाने के बाद मेरे पिता, मेरे भाई, मेरे परिवार का क्या होगा। मेरे पिता को पुलिस पकड़ ले जाएगी। मेरे भाई का मान-सम्मान…। और मैंने निर्णय ले लिया था। ‘नहीं…नहीं…मैं सुधा को भगाकर नहीं ले जाऊँगा।
अगले दिन मैं सुबह ही रोज से जल्दी काम पर पहुँच गया था। कहा भी था पपुआ ने, ‘आज बड़ी जल्दी आ गए भैया।’ मैंने हाँ में सिर हिला दिया था।
सुधा ने मुझे काम पर देखा तो उसके तन बदन में आग लग गई थी।
‘सुनो!’
‘जी, कहिए।’
‘जरा उधर चलो तुमसे कुछ बात करनी है।’ सभी लड़कों के सामने मुझे खींचते हुए अकेले में ले गई थी।
‘क्या समझते हो अपने को।
‘कुछ भी नहीं।’
‘आज तो तुम्हें वहाँ मिलना था।’
वैसा मैं नहीं कर पाऊँगा।’
‘क्यों।’
‘मेरे पास आपके क्यों का कोई जवाब नहीं है।’
‘मेरे पास है।’
‘क्या।’
‘यही कि तुम बहुत ही घटिया और गिरे हुए हो। नीच हो तुम नीच ही रहोगे। तुमने मेरा दिल दुखाया है। भगवान करे, तुम्हें कभी सुख न मिले।’ इतना कहने के बाद उन्होंने दो थप्पड़ मेरे गाल पर जड़ दिए। फिर बोली थी, ‘क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा। अरे नीच, मैंने तो तुम्हारे कदमों में कितनी दौलत रख दी फिर भी तुम मेरे नहीं हुए।’ फिर मुझे धक्का दिया था। मैं लड़खड़ाकर गिर पड़ा था।
‘सुधा जी…दौलत ही सब कुछ नहीं होती और रही बात तुम्हारे होने की…तो मैं तुम्हारा हमेशा रहूँगा। मैं ज्यादा कुछ तो नहीं जानता लेकिन हाँ इतना जरूर कहूँगा कि मैं धोखेबाज नहीं हूँ और अगर प्यार की बात करती हो तो प्यार मरता नहीं है सुधा जी।’
उन्होंने मुझे कितना सुना, कितना नहीं मैं नहीं जानता। उनके अंतिम शब्द आज भी मुझे याद हैं, ‘अगर थोड़ी भी शर्म हो तो कभी मेरे सामने मत आना। नहीं तो मैं क्या कर जाऊँगी, मुझे भी पता नहीं।’
मैं उनके पास से चला आया था। बाद में पपुआ ने पूछा भी था, ‘भइया काम क्यों बंद कर दिया। काम बन गया क्या।’
‘पप्पू मेरे भाई, काम बना नहीं है। काम बिगड़ गया है।’ पपुआ कुछ नहीं समझ पाया था। मैंने जमीन आसमान एक कर दिए थे। खूब मेहनत की। रात-दिन में कोई फर्क नहीं था मेरे लिए। मेरे पिता, मेरी माँ और भइया सभी खुश थे। खूब एग्जाम देता। लगभग एक्जाम में पास हो जाता था। और एक दिन आया जब मेरा सेलेक्शन हो गया। पोस्टिंग हुई दिल्ली में। मन में आया कि एक दिन जाऊँ सुधा जी के पास लेकिन न जाने किसने रोक लिया था।
ऐसा कोई दिन नहीं रहा जब उनकी याद न आई हों। माँ-पिता और भाई ने मेरी नौकरी लगने पर खूब खुशियाँ मनाई थीं, ‘मैं जानता था मेरा बेटा अफसर ही बनेगा।’ माँ न जाने कैसे जानती थी। शायद माँ के पास दो आँखों के अलावा माँ वाली एक आँख और होती है जो किसी के पास नहीं होती। उसी से देख लेती है अपने बच्चों का भविष्य। मोहल्ले में लोग अपने बच्चों को मेरा उदाहरण देते, ‘देखो नरेन की तरह बनो, पढ़ता भी था और मेहनत मजदूरी भी करता था। आज देखो कितना बड़ा अफसर बना।’
खैर उनकी बातें वे ही जानें।
मेरे अपनों ने जमीन आसमान एक कर दिए मेरी शादी करने के लिए, मैं नहीं माना। शादी नहीं की मैंने। एक बात बताना भूल गया आपको, जब सुधा जी मेरे प्यार में दीवानी थी तभी उन्होंने चोरी से एक पासपोर्ट साइज का फोटो दिया था मुझे। मैंने उसी को बड़ा करके अपने कमरे में लगा लिया।
भैया एक दिन आए थे मेरे पास दिल्ली। उन्होंने फोटो देखा तो कहने लगे, ‘नरेन, अगर यह लड़की अच्छी लगती है तो इसी से कर ले शादी…मैं कुछ नहीं कहूँगा।’
‘भैया परियाँ जमीन पर थोड़े ही आती हैं।’ भइया परेशान हो गए थे, ‘क्यों बेटा क्या भगवान के पास चली गई ये लड़की।’
‘नहीं। भइया और बात करो ना।’ भइया ने आगे कुछ नहीं कहा था।
समय पंख लगाकर उड़ा तो उड़ता ही गया। भइया ने नौकरी से वी.आर.एस ले ली। पॉलिटिक्स में आ गए थे। माँ-पिता मेरी शादी की बात लिए-लिए ही दूसरी दुनिया में चले गए। बहुत ढूँढ़ा मिले ही नहीं।
भइया की पॉलिटिक्स आसमान छूने लगी। भैया का प्रदेश की पॉलिटिक्स में जलजला था। तभी एक दिन मैं उनके पास गया था।
घर में बहुत भीड़ थी। क्योंकि मेरा घर कस्बे में था इसलिए वहाँ चेयरमैन होता है और चेयरमैन का चुनाव होना था। टिकट भैया की पार्टी से मिलनी थी। जिसे भैया की पार्टी से टिकट मिलती वही विजयी होता। भैया के साथ घर की बैठक में बैठे लोगों में से अधिकांश लोगों को मैं नहीं जानता था लेकिन एक आदमी को जो भैया के बहुत ज्यादा नजदीक बैठा था, उसे मैं जानने की कोशिश कर रहा था। भैया ने सभी लोगों से मेरा परिचय कराया था, ‘मेरा छोटा भाई है। दिल्ली में नौकरी करता है। बहुत ऊँचे पद पर है।’
मैंने सब को नमस्ते किया तो अनिकेत जैन मुझे याद करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहे थे कहने की। ‘मैं शायद आपको जान रहा हूँ।’ अनिकेत जैन बोले थे।
‘तो बताओ।’ मैं बोला था। वे हिचकिचा रहे थे। सोच रहे होंगे कि पुताई वाली बात यदि बता दी और अगर मेरे भइया नाराज हो गए तो उनका टिकट कट जाएगा। तभी मैंने कहा था, ‘मैं बताता हूँ अनिकेत जी, मैं वही हूँ जब आपकी बड़ी बहिन की शादी थी तो आपके घर में रंग-रोगन हुआ था और मैंने पुताई की थी। बहुत दिनों तक काम चला था।… याद आया।’
अनिकेत जैन सन्न रह गए थे और खीसें निपोर रहे थे। फिर भइया की ओर मुँह करके बोले थे, ‘सर कल मेरे घर में एक प्रोग्राम है। मेरी सबसे छोटी बहिन सुधा के पिछली साल बेटा हुआ था। कल पूरे एक साल का हो जाएगा। हम सभी ने यहीं पर एक पार्टी रखी है। सर को भी ले आएँगे तो खुशी होगी। मेरा मान बढ़ जाएगा।’
‘सर मान तो मेरा बढ़ेगा आप जैसे बड़े लोगों की पार्टी में आकर।’ मैं न जाने कब बोल गया था और आकर दूसरे कमरे में बैठ गया था। मस्तिष्क में सब कुछ गड्मड् होने लगा था। और मन बार-बार एक ही बात कह रहा था, ‘सुधा, मैं धोखेबाज नहीं हूँ। देखो मैंने तुम्हारी याद में पूरा जीवन और…तुम।’
अगले दिन, निश्चित समय पर, मैं भैया और उनकी पार्टी का लाव लश्कर अनिकेत जैन साहब के भांजे को आशीर्वाद देने पहुँच गए थे।
वैभव, शान-ओ-शौकत, रुतबा, जलजला देखते ही बन रहा था। चारों ओर चमक ही चमक थी। भैया और भैया के मित्र, चमचे और छुटभैये कुत्ते दुम हिला रहे थे और भैया के चारों ओर मँडरा रहे थे। भैया सीधे ही अनिकेत जैन के भांजे को आशीर्वाद देने पहुँच गए थे। मैं नहीं गया था। दूर से ही देख रहा था। लेकिन मैं जिस जगह से देख रहा था वहाँ से मुझे सुधा जी और उनका बेटा खूब अच्छी तरह दिखाई दे रहे थे। आज भी वही सुंदरता। छू लो तो मैली हो जाएँ। मैं एकचित्त हो देखता रहा था। अनिकेत जैन, भैया के तलवों के नीचे बिछे जा रहे थे। भैया ने बच्चे को अपने गोद में लेकर हलके से पुचकारा था और फिर सुधा जी को दे दिया था।
भैया और अनिकेत जैन में कुछ बातें भी हुई थीं। शायद मेरे बारे में पूछे रहे थे क्योंकि भैया ने खोजी निगाहों से मुझे देखा था।
सुधा जी के पास से लौटकर भैया और उनके साथी खाना खाने लगे थे। मुझे भी खोज लिया गया था। मैं सभी के साथ खाना खा रहा था और भैया मुझे पढ़े जा रहे थे। शायद मुझमें कुछ ढूँढ़ने की अथक कोशिश कर रहे थे।
हम सभी ने खाना खा लिया था। तभी अनिकेत जैन अपनी छोटी बहिन और उनके पति को लेकर हमारे पास आए थे। खाने में थोड़ा सा विलंब हो गया था। विलंब क्या, खाना खा तो लिया था मैंने अभी हाथ धोने बाकी थे। मैंने हाथ धोकर जैसे ही रुमाल हाथ से निकालना चाहा था…कि सुधा जी ने अपनी बेशकीमती साड़ी का पल्लू मेरी ओर बढ़ा दिया था। मैं सकपका रहा था। तभी तो अनिकेत जैन ने कहा था, ‘अरे भई, नरेन जी आपका मेजबान आपको इतना मान दे रहा है…इससे बड़े गौरव की बात और क्या होगी।’
मैंने देखा था बड़ी देर तक सुधा जी साड़ी का पल्लू मेरी ओर किए खड़ी रही थीं। उनके पति कभी मुझे तो कभी सुधा जी को देख रहे थे। अंत में हारकर मैंने उनकी साड़ी के पल्लू को अपने हाथों में लिया था। भइया पॉलिटिशियन तो हैं ही साथ ही अब मुँहफट भी हो गए हैं, ‘नरेन एक बात कहूँ।’
‘जी भइया।’
‘परियाँ जमीन पर भी आती हैं। समझे तुम।’ वहाँ खड़ा कोई व्यक्ति भइया की बात नहीं समझ पाया था।
मैं अब भी सुधा जी की बेशकीमती साड़ी से हाथ पोंछ रहा था और वे मुझे एकटक देखे चली जा रही थीं।
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