गठरी
- 1 June, 2016
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 June, 2016
गठरी
शहर के संभ्रांत इलाके की मुख्य चौड़ी सड़क की बगल में ही है, भव्य ‘अन्नपूर्णा निवास’। भोर होते ही इस बड़े से भवन में अम्मा जी की तेज आवाज गूँज उठती है, अम्मा जी यानी अन्नपूर्णा देवी। तीन-तीन अफसर बेटों की माँ…! अम्मा जी इतने विशाल भवन में अकेली ही रहती है। हाँ, बाहर आउट हाउस में छोटी-छोटी दो कोठरियों में माली, गार्ड वगैरह रहते हैं। पर भवन में वो एकाकी ही हैं। अम्मा की तेज आवाज के साथ ही धीमी-सी भुनभुनाहट भरी एक और ध्वनि इस घर में गूँजती है…जानकी की। अम्मा और जानकी का वैसे तो कोई रिश्ता नहीं पर गौर से देखा-परखा जाए तो एक अटूट रिश्ता है भी…मालकिन और नौकरानी का। आज के युग में यही रिश्ता कई रिश्तों पर भारी पड़ जाता है। एक दिन नौकरानी नहीं आए तो पूरे घर की व्यवस्था ही चरमरा जाती है…फिर भी जानकी और अम्मा के बीच एक महीन तंतुओं से बुना मजबूत-सा संबंध है जो पिछले आठ वर्षों से कायम है। कई बार जानकी ने सोचा था कि आज काम छोड़कर ही रहेगी और बीसियों बार अम्मा जी उसे घर से बाहर निकाल फेंकने की धमकी दे चुकी हैं…फिर भी न वो जा सकी है…न अम्मा ही उसे घर से निकाल पाई हैं।
अम्मा जी को पूरी दुनिया से शिकायत रहती है, और जानकी को सिर्फ…अम्मा से। एकाकी अम्मा को भरी-पूरी तेज रफ्तार दुनिया नहीं सुहाती, तो दुनियादारी में आपादमस्तक डूबी जानकी को अम्मा का बड़बोलापन बेतरह चुभता है…दिन-रात जो बातें जो सुननी पड़ती हैं। यहाँ अपनी ही मुसीबतें कम हैं क्या, जो दुनिया की तकलीफें, मुसीबतें सुनते रहो…अम्मा एक मिनट जो चैन से मेरी बात भी सुन लें, थोड़ा मेरा दुःख-दर्द भी जान समझ लें…पर नहीं बस अपना ही राग अलापेंगी…जानकी सोचती। ‘इस हड़बड़ी की महारानी को मेरी बात सुनने की फुर्सत कहाँ…अकेली बैठकर चाय पीएगी तो घंटे भर बैठ ही जाएगी, मैं कुछ कहूँगी तो काम में देरी का बहाना बनाकर भाग जाएगी’ अम्मा सोचती।
शानदार व्यक्तित्व की मालकिन हैं अम्मा जी यानी अन्नपूर्णा देवी। कलफ लगी कड़क सूती या मूँगा कोटा जरी किनारी से बँधा श्वेत केशों का जूड़ा–बोली में रुआब और चाल में तेजी। तीनों बेटे बड़े ओहदे पर हैं। एक मुंबई में, एक दिल्ली में तो एक लंदन में। साल छह महीने में कोई न कोई एक-दो दिन के लिए आ जाता है…बहुओं का मन हुआ तो ठीक, नहीं तो अकेले ही…सबके बच्चे बाहर बड़े-बड़े स्कूल-कॉलेजों में पढ़ रहे हैं। छुट्टियों में जब कभी एक आध सप्ताह के लिए घर आते हैं तो घर कोलाहल से भर जाता है और तब…अम्मा के मन का कोलाहल शांत हो जाता है। जानकी भी राहत की साँस लेती है, चलो, काम ही न ज्यादा करना पड़ता है, इनकी दिन-रात की बकबक से तो मुक्ति मिल जाती है। वैसे अम्मा भी क्या करें? बोलें बतियाएँ नहीं तो क्या अवसाद में डूब जाएँ…एक दिन अकेली रह जाती हैं तो आत्मा काँप उठती है। तरह-तरह के बुरे खयाल मन में आने लगते हैं…तब उनका एकमात्र सहारा होती है जानकी।
‘जानती हैं, आज के पेपर में खबर है कि वृद्धा को घर पर अकेली पाकर चोरों ने उसका कत्ल कर दिया और सारा सामान उठा ले गए…सौ बार तुझे कहती हूँ छत का गेट दिन में ही लगा दे, पर तू तो तब सुनेगी न, जब कोई मुझे मार जाएगा।’ वो चिढ़ जातीं।
‘अब से लगा दिया करूँगी अम्मा!’
‘और सुन!’…
‘जी!’
‘कल सुबह जरा जल्दी आना…आलमारी से कपड़े निकालकर धूप दिखलाना है। एक महीना हो गया है…लाख फिनाइल की गोली धर दो…एक अजीब-सी गंध आलमारी में भर जाती है…समय पर आना समझ गई?’ उनका स्वर न चाहते हुए भी तीखा हो उठा था।
‘समय पर आ जाऊँगी…आप निश्चिंत रहें।’ वो धीरे से बोली और बाहर निकल गई। ‘सब दिमागी फितूर है…आलमारियाँ खोलो…कपड़े साड़ियाँ…चादरें धूप में सुखाओ…दस बार छत पर पलटने जाओ…तहाकर फिर आलमारी में रखो…इतने कपड़े हैं, पर क्या मजाल जो एक नई साड़ी हम जैसे लोगों को दें…ऊपर जाएँगी तो गठरी साथ ही ले जाएँगी…।’ जानकी रास्ते भर बड़बड़ाती रही थी।
‘हे ईश्वर! क्या करूँ इतनी साड़ियों का? जब पहनने की उम्र थी तब सादा धोती लाल-पीले रंग में रंगवाकर पहननी पड़ती थी। कितना ललचती थी मैं जरी बार्डर, सिल्क कामदार और बनारसी साड़ियों के लिए…मन मसोसकर रह जाना ही नियति थी तब…क्या करूँ आज इस गठरी का।’ अन्नपूर्णा देवी खिन्न हो उठी थीं। उन्हें याद आया परसों जानकी एक कढ़ाई वाली साड़ी देखकर बोली थी, ‘अम्मा! अगर ऐसी एक भी साड़ी मेरे पास होती न…तो भतीजे के ब्याह में मेरी धूम मच जाती।’…‘कब है तेरे भतीजे का ब्याह?’
‘अगले महीने ही तो है अम्मा।’
‘यानी तू फिर छुट्टी लेगी?’
‘वो तो लेनी ही पड़ेगी न…दो दिन माली काम सँभाल देगा।’ जानकी बेतरह चिढ़ उठी थी। बात साड़ी से उठकर छुट्टी पर जो अटक गई थी।
‘अच्छा चल, एक कप चाय बनाकर ला।’ अन्नपूर्णा देवी ने कहा तो साड़ी पाने का अंतिम छोर भी हाथ से जाता रहा। उधर जानकी चिढ़ रही थी, इधर अन्नपूर्णा सोच में डूबी थीं, ‘इतनी तो साड़ियाँ हैं और मेरे पास…दे ही देती हूँ, कितनी सेवा करती है मेरी…पर, पिछले महीने ही तो एक सूती साड़ी दी है…वैसे भी ये साड़ी मँझले ने अपने बेटे के अन्नप्राशन पर दी थी…कैसे दे दूँ?’ उन्होंने वापस साड़ी आलमारी में रख दी पर न जाने क्यों मन बेचैन हो उठा था। समय…परिस्थिति…नियति…भाग्य जैसी चीजें नहीं होती ये सोचने वाले ही मूर्ख हैं। समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को नहीं मिलता। सोलह वर्ष की उम्र में ही पिता ने अपने से उम्र में काफी बड़े कॉलेज शिक्षक प्रो. कृष्णानंद पाठक के साथ विवाह बंधन में बाँध दिया। विवाह में मिले टीन के बक्से में मिली थीं, तीन पीले रंग में रंगी और तीन लाल रंग में रंगी साड़ियाँ…फैंसी साड़ियों की बात उस समय उच्च मध्यमवर्ग की महिलाएँ भी कहाँ सोच पाती थीं। समय गुजरता रहा, उन्हें आज भी याद है शायद 1958 के अप्रैल महीने की…हाँ! चैत्र शुक्लपक्ष की पाँचवीं तिथि को बड़े बेटे की छठी के दिन पति ने उन्हें पहली जरी किनारी वाली जार्जेट साड़ी दी थी…उनके आह्लाद की सीमा नहीं थी…फिर परिवार, सास-ननद, देवर-जेठ उनके बच्चे, अपने बच्चे सबकी तीमारदारी में जुटी अन्नपूर्णा को पता ही नहीं चला कब उसने वृद्धावस्था में पाँव रख दिया। पहली अनुभूति उस क्षण हुई जब पति ने अंतिम साँस ली, और वो नितांत एकाकी रह गईं। लोग उनकी किस्मत पर रश्क करते…वाह! तीनों बेटे उच्च पदस्थ अधिकारी हैं…क्या महल जैसा घर है…किस्मत हो तो अन्नपूर्णा जैसी…बुढ़ापे में महारानी बनी बैठी हैं। पर ये तो ऊपरी मुलम्मा था…आंतरिक वेदना की अनुभूति तो केवल अन्नपूर्णा देवी को होती थी…तीनों बेटों के लाख कहने पर भी वो उनके पास जाकर रहने को तैयार नहीं हुईं। किसी भी प्रकार की बंदिश में रहना उन्हें भाता ही नहीं था। विवाह के बाद से ही पति ने उन्हें घर की मालकिन बना दिया था और उन्होंने इतनी सुघड़ता से घर सँभाला कि किसी को कोई शिकायत ही नहीं रही। पर उन्हें हमेशा एक शिकायत रही…अच्छी साड़ियाँ नहीं होने की। जब भी परिवार में कोई शादी-ब्याह या अन्य उत्सव होते उनके सामने सुरसा के मुख की तरह ये समस्या मुँह फाड़कर खड़ी हो जाती…पहनूँ क्या? पति की सीमित आमदनी में घर चलाना कितना कठिन है…उन्हें पता था इसलिए चाहकर भी अच्छी…कीमती साड़ी कभी खरीद ही नहीं पाती थीं। जवानी इस मामले में कुढ़ते ही बीती थी…पति कहते सारा पैसा तो तुम्हारे हाथ में ही है न, जो चाहो पहनो…खाओ। पर वो कभी ऐसा नहीं कर पाई। ऐसा नहीं था कि उन्होंने घर खर्च से पैसे नहीं बचाए थे…पर हर बार बच्चों की आवश्यकता एक अच्छी साड़ी की खरीद पर भारी पड़ जाती। समय गुजरता रहा…बच्चे कुशाग्रबुद्धि निकले…तीनों की शिक्षा में सारी जमापूँजी निकल गई पर फल ये हुआ कि तीनों बेटे उच्च पदों पर पहुँच गए। आज उनकी कीमती आलमारियों में सैकड़ों कीमती साड़ियाँ हैं…सिल्क…खादी सिल्क…मूँगा कोटा बनारसी…पाटनी…बाँधनी और न जाने कौन-कौन सी साड़ियाँ…पर अब न उम्र रही और न उत्साह। कई बार वो सोचतीं, अगर छोटे देवर के विवाह के समय ऐसी सिल्क-बनारसी साड़ियाँ होतीं तो कितना रुतबा बढ़ जाता…कैसी सकुचाती-शर्माती घूम रही थी वो साधारण सी जरी किनारे वाली साड़ी पहने…और आज…! पिछले हफ्ते जब बड़े बेटे की ससुराल गई थीं किसी समारोह में, तो भारी बनारसी साड़ी पहन ली थी…लोग भी ऐसे, टोक ही दे रहे थे, ‘अरे! अम्मा बड़ी बढ़िया साड़ी है…पर रंग थोड़े चटक नहीं हैं?’
‘मैं तो हल्के रंग ही पहनना पसंद करती हूँ…पच्चीस की थोड़े ही हूँ…सत्तर वर्ष की हो चली हूँ…।’ उनकी समधन ने व्यंग्य से मुस्कुरा कर कहा था तो वो भीतर तक आहत हो गई थीं। सच! कब सत्तर वर्ष की उम्र हो गई पता ही नहीं चला…पर उम्र बढ़ने के साथ-साथ भावनाएँ तो नहीं मर जाती हैं ना…आज भी मन करता है सुंदर साड़ियाँ पहनकर घूमने जाएँ…खूब चटक रंगों की कीमती-शानदार साड़ियाँ…पर दर्पण में चाँदी से चमकते बालों से भरा झुर्रीदार चेहरा देखकर सारी भावनाएँ मृतप्राय हो जाती थीं। सुबह जानकी काम पर आई तो उन्होंने तीनों आलमारियाँ खोलकर सभी कीमती साड़ियाँ निकाली और छत पर धूप में डलवा दी…छत पर आते-जाते जानकी क्या बड़बड़ा रही थी उन्हें पता था…पर न जाने क्यों वो एक भी साड़ी उसे देने में लाख बार सोचती थीं।’ मरने पर साड़ियों की गठरी साथ ही ले जाएँगी क्या…? जानकी चिढ़ रही थी।
‘अम्मा! धूप दिखाकर आलमारी में ठूँसने से क्या लाभ? न तो पहनती हो, न पहनने देती हो…कितना कहा था एक साड़ी देने, पर नहीं…बस जानकी केवल काम के लिए है…सेवा करने के लिए…मुझसे स्नेह थोड़े ही है आपको…।’ आज जानकी बेतरह खिन्न हो गई थी।
‘अच्छा! अच्छा! दे दूँगी एक साड़ी…अभी चाय तो पिला पहले।’ अम्मा ने फिर से बात टाल दी थी। ऐसा नहीं था कि केवल जानकी की नजर ही उनकी साड़ियों पर थी कई बार माली और ड्राइवर की पत्नियों ने भी इशारों में अपनी चाह दिखा दी थी। और ऊपर से गाँव से आने वाले रिश्तेदारों की तो बात ही निराली थी। सबको अच्छी तरह पता था, अम्मा जी को हर महीने बेटों से हजारों रुपये मिलते हैं…ऐसे में सब रिश्तेदारों की हर छोटी-बड़ी जरूरतों की पूर्ति का केंद्र अम्मा ही होतीं। वो रुपये-पैसों से यथासंभव सबकी मदद तो कर देती थीं, पर अंतर्मन तीखी व्यथा से भर उठता था। बालपन से लेकर युवावस्था तक जो व्यक्ति आत्मीयजनों से घिरा हो, जीवन के अंतिम पड़ाव में मिला एकाकीपन उसे कई खंडों में तोड़कर रख देता है। इसी टूटन से जूझती अम्मा जी के लिए जानकी बहुत बड़ा सहारा थी। मन में जब लावा खौलने लगता तो मन में दबी असंख्य बातें अधरों से सहस्रधाराओं में फूट पड़ती…सुनने वाला जानकी के सिवा और कौन था…!
‘अम्मा जी! क्यों अपना जी जलाती हो। रिश्तेदार किसी के अपने हुए हैं, जो आपके होंगे!’ जानकी ने कई बार समझाया था पर ये अब प्रतिदिन की बात हो गई थी। ‘जानती है जानकी, ननद का ब्याह किया…उसके बच्चे पाले, पढ़ाया-लिखाया और आज किसी को मेरे सुख-दु:ख से मतलब नहीं। एक हफ्ते कमर दर्द से तड़पती रही पर कोई हाल पूछने नहीं आया…बस पैसा माँगते समय सबका प्यार उमड़ने लगता है।’ एक दिन अम्मा जी बहुत दुःखी होकर बोलीं तो जानकी का दिल भर आया।
‘अम्मा! मैं हूँ न, तुमसे बोलने-बतीयाने वाली…तुम लाख डाँट लो…माँगने पर भी साड़ी न दो…फिर भी मैं तुम्हारी सेवा करती हूँ ना…।’
‘हाँ! पर ये साड़ी वाली बात नहीं भूलती, है न?’
‘दे दो! भूल जाऊँगी।’
‘दे दूँगी…अभी जा, जरा दुकान से फल ला दे…।’ उन्होंने पैसे देते हुए कहा तो जानकी का मन बुझ-सा गया…साड़ी की बात आते ही अम्मा का कलेजा काँप जाता है…। न जाने क्या करेंगी इतनी साड़ियाँ…! बेटी भी तो नहीं है जो उसे दे देंगी…गठरी साथ ही ले जाएँगी क्या? अम्मा जी सोच रही थी, इस बार एक-दो साड़ियाँ जानकी को जरूर दे देंगी…होली-दिवाली के अलावा…। वैसे पुरानी तो कई दे ही देती हैं। पिछले सप्ताह गिनने बैठीं तो तीन सौ शानदार साड़ियाँ तीन बड़ी आलमारियों में सहेजी हुई थीं सभी रंगों की…खूबसूरत साड़ियाँ।
‘अम्मा! फल ले आई हूँ, चाय बना दूँ?’ जानकी ने पूछा तो वो वर्तमान में लौटीं। ‘हाँ, बना ला…जानकी तू रात में भी यहीं रुक जाया कर…अकेले नींद ही नहीं आती, घर काटने को दौड़ता है…।’
‘नहीं अम्मा जी! छोटी बेटी को बच्चा हुआ है…यहीं घर पर है…फिर मेरा छोटा बेटा भी तो है न, उसकी भी देखभाल करनी होती है, नहीं तो रुक ही जाती।’ जानकी ने चाय का पानी चढ़ाते हुए कहा था।
‘अम्मा जी! चाय लीजिये…! आप कुछ दिनों के लिए भैया लोग के पास क्यों नहीं चली जातीं? मन बहल जाएगा…।’ जानकी ने कहा तो अम्मा जी ठंडी साँस लेकर बोलीं, ‘नहीं रे! सबकी अपनी-अपनी दुनिया है। मेरे जाने से उन सबके काम में बाधा आती है…किसी को मेरे लिए फुर्सत ही कहाँ है! एक दिन की भी छुट्टी कोई नहीं लेता मेरे लिए…वहाँ तो और अकेली हो जाती हूँ उन बहुमंजिला इमारतों में बंद…यहाँ अपने इतने बड़े खुले-खुले घर में चैन की साँस तो लेती हूँ…खैर जाने दे! कल सुबह जरा जल्दी आ जाना।’
‘क्यों फिर से साड़ियों में धूप लगानी है क्या?’ जानकी हँसी थी।
‘तू भी ना…पागल है एकदम! कल बाबूजी की बरसी है भूल गई?’ वो भी मुस्करा पड़ी थीं।
हर बार की तरह इस वर्ष भी बेटे-बहुओं के पास समय न होने के कई बहाने थे सो कोई नहीं आया, बस आसपास के कुछ रिश्तेदारों के आने से घर में चहल-पहल हो गई थी।
‘चलो सब अच्छे से संपन्न हो गया…मालिक की पाँचवीं बरसी थी…अगले वर्ष अगर रही तो होगी…नहीं रही तो…।’ अम्मा जी ने ठंडे स्वर में कहा तो जानकी बोली, ‘क्यों नहीं रहोगी अम्मा! जरूर रहोगी।’
रात के निविड़ अंधकार में विशाल बंगले के एक कमरे में लेटी अन्नपूर्णा देवी को अब नींद आती ही कहाँ है! जानकी गलत थोड़े ही कहती है…साड़ियों से भरी…गहनों के ढेरों डब्बों से भरी…आलमारियाँ…भौतिक सुख-सुविधाओं की सभी वस्तुएँ…पोर्टिकों में खड़ी कार…ये विशाल घर…उनके अवचेतन को विह्वल बनाते हैं अब। पहले जिन चीजों को पाने की लालसा सोने नहीं देती थी…आज उन्हीं चीजों के कारण नींद उड़ गई है। ऐसा नहीं है कि उन्हें ‘गीता ज्ञान’ पता नहीं है…प्रतिदिन प्रवचन सुनती हैं…क्या लेकर आए थे…क्या साथ ले जाओगे…! फिर भी मोह छूटता ही नहीं। कई बार सोचा…कपड़े दान कर दूँ…रिश्तेदारों और प्रियजनों को गहनों की भेंट दे दूँ…पर हाय रे मन! मोह छूटता ही नहीं। जब से वो अपने बड़े भाई की तेरहवी से लौटी हैं मन और अशांत हो गया है…किस तरह उनकी चीजें राई-छिद्दी कर दी गईं…बेमोल समझकर जिसे-तिसे दे दी गईं…फेंक दी गईं…जीवन भर जिन डायरियों में जीवन का मर्म सहेजते रहे…नई पीढ़ी ने उसे बेदर्दी से रद्दी में बेच दी! नहीं! मैं अपने साथ ऐसा नहीं होने दे सकती, अचानक बिस्तर से उठकर वो टहलने लगीं। मन में सोच की उत्ताल तरंगें थीं। उन्हें पति की बहुत याद आ रही थी…सच! उनके जाने के बाद उनकी सारी चीजें मैंने सहेजी थीं…पर मेरे जाने के बाद तो हम दोनों का अस्तित्व ही! हम जब तक हैं तभी तक हमारी वस्तुओं का मूल्य है…हमारे जाने के बाद वो कौड़ियों के मोल बिक जाती हैं…मेरी बी.ए. की डिग्री…जो अब तक बक्से में मढ़वाकर रखी हुई है…मेरे बाद कूड़े के ढेर में जा गिरेगी! हे ईश्वर! अगली सुबह जानकी आई तो उन्होंने कहा…‘कल सुबह 6 बजे आ जाना जानकी!’
‘क्यों अम्मा! कोई आ रहा है क्या?’
‘नहीं रे! आलमारियों से सारे कपड़े…।’…
‘लो परसों ही तो…!’ वो हैरान थी।
‘सुन तो ले पहले…आज रात, मैं कुछ साड़ियाँ अपने लिए रखकर बाकी बाहर निकाल दूँगी…कुछ तू ले लेना…बाकी वृद्धाश्रम और निराश्रित स्त्रियों के आश्रम में दान करना है…कल मेरे साथ दोनों आश्रम चलेगी न जानकी?’ उन्होंने मुस्कुरा कर पूछा तो हतप्रभ जानकी ने कहा, ‘हाँ! अम्मा जी! पर…!’
‘पर-वर कुछ नहीं…समझ गई तो…जा, जल्दी से दो कप इलायची वाली चाय बना ला, दोनों साथ ही पीएँगे।’
जानकी खुशी से उछलती हुई…नई साड़ियों के सपने में डूबी चाय बनाने चली गई। उस रात वर्षों के बाद अन्नपूर्णा देवी को चैन की नींद आई…सर से ‘गठरी’ जो उतार फेंकी थी।
Image : Two Women Making the Bed
Image Source : WikiArt
Artist : Henri de Toulouse Lautrec
Image in Public Domain