पंछी को दाना-पानी दे

पंछी को दाना-पानी दे

पंछी को दाना-पानी दे
सेवा करते रहे पिता
आगे बढ़कर अपनापे की
झोली भरते रहे पिता

स्वयं आचरण को ढाला था
जग-हित उपमा योग्य बने
उपभोगी
कब रहे स्वयं वे
सबके-हित उपभोग्य बने
फिर किस कारण आसपास को
रह-रह खलते रहे पिता

निर्धनता का मंजर देखा
सब दिन झेली लाचारी
बेचा कभी नहीं अपने को
बने पिता कब व्यापारी
किंतु सुयश के सघन वृक्ष पर
ऊँचे चढ़ते रहे पिता

अंतिम क्षण में चाह रही यह
मिलजुलकर सब साथ रहें
एक-दूसरे हित सबके ही
उठते-बढ़ते हाथ रहें
सोचा नहीं कभी अपने हित
सब-हित तनते रहे पिता।


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Image Source : WikiArt
Artist : Gustave Courbet
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