ढाई आखर प्रेम का…
- 1 August, 2024
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ढाई आखर प्रेम का…
कबीर अपने एक दोहे में कहते हैं ‘पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’। अर्थात प्रेम का पाठ नहीं पढ़ा तो सब पढ़ना बेकार। कबीर के अनुसार प्रेम जीवन का सार है, मूल तत्व है। कविता में कहा गया है
‘मत बाँधो
चंद रिश्तों का नाम नहीं है
हर बंधन में कसमसाता
छटपटाता
मुक्ति की तमन्ना लिए
बेखौफ आजादी की नव-नव तरंग
जीवन का सार
प्यार…प्यार…प्यार…’।
यह ढाई अक्षर शब्द मात्र नहीं है।
प्रेम को लेकर महायुद्ध हुए तो महाकाव्यों की रचना हुई। विभिन्न विचार प्रकट किए गए। नसीहतें दी गईं। कहा गया कि वे मूर्ख हैं जो प्रेम के पचड़े में पड़ते हैं। एक कहावत बड़ा प्रसिद्ध है कि जो प्रेम करे वह पछताए और जो न करे, वह भी पछताए। एक कवि ने तो यहाँ तक कहा कि मोहब्बत न करने से बेहतर है मोहब्बत करना और नाकाम रहना। गालिब को इश्क में ऐसी चोट लगी कि वे कह उठे
‘इश्क ने गालिब निक्कमा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के’।
बहुत से शायरों ने प्रेम की दीवानगी में इस हद पर पहुँचे कि अपनी जान तक दे दी। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है जिनमें युगल प्रेमियों को भीषण यंत्रणाएँ दी गईं। उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। वे बिरादरी से बाहर कर दिए गए। इस प्रेम ने कइयों को पागल बना दिया, फकीर बना दिया, शराबी बना दिया। इसे लेकर खूनी जंगें हुईं। तबाही के मंजर भी देखने को मिले।
हम इक्कीसवीं सदी में हैं पर प्रेम का वह ताप आज भी कम नहीं है। प्रेमी युगल को प्रताड़ित करने, उन्हें जिंदा जला दिए जाने की घटनाएँ रोज ही सुनने और पढ़ने को मिलती है। पार्कों में प्रेमी युगल पर डंडे बरसाती पुलिस मिल जाती है। वेलेंटाइन डे मनाने वालों पर हमले किए जाते हैं। देश के संविधान की धज्जियाँ उड़ाती खाप पंचायतें आज भी प्रेमियों के विरुद्ध फैसले सुनाती हैं। अर्थात प्रेम करना किसी विद्रोह से कम नहीं है। कल भी प्रेम करना धारा के विरुद्ध तैरना था और आज भी। इसीलिए प्रेम और क्रांति को सिक्के के दो पहलू की तरह देखा जाता है। फिर भी तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हमारे समाज में प्रेम की अविकल धारा बहती रही है। मानव मन में वह हिलोड़े लेता रहा है। हमारे साहित्य में प्रेम अभिव्यक्त होता रहा है, उसके अजस्र भंडार को समृद्ध करता है।
कहा जाता है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। अर्थात वह मानव मन और उसके भावों के सबसे समीप होती है। कविता में जीवन सर्वाधिक पारदर्शी होता है। छल और छद्म की गुंजाइश नहीं होती। प्रेम मानव मन के इसी कोमल हिस्से में सृजित होता है और साहित्य की दुनिया का विस्तार करता है। वह मानव जीवन की मुख्य वृति है। उसका असर नशा और जादू की तरह होता है, बल्कि उससे भी अधिक। नशा हो या जादू वह बहुत जल्दी समाप्त हो जाता है लेकिन प्रेमपरक रचनाओं का भाव स्थाई होता है, उसका नशा और जादू खत्म नहीं होता। यह मानव मन को तरल, कोमल और जीवनधर्मी बनाए रखता है। यही कारण है कि दुनिया के साहित्य का विपुल भंडार प्रेमपरक रचनाओं से भरा पड़ा है। इनमें प्रेम कविताएँ सबसे अधिक हैं। दुनिया के मशहूर स्पैनिश कवि पाब्लो नेरूदा कहते हैं कि प्रेम कविताओं में भाव का आवेग अपने चरम पर होता है। आज हम अनादर, उपेक्षा, असहिष्णुता, द्वेष-ईर्ष्या और अंधी प्रतिस्पर्धा से घिरे हैं ऐसे समय में प्रेम मरहम की तरह है। ऐसे गीतों और कविताओं को सुनते हुए जो मनोवैज्ञानिक सुकून मिलता है, वह प्रेम की शक्ति है।
आदि काल से लेकर आधुनिक काल के कवियों का यह मुख्य विषय रहा है। छायावाद के कवियों ने प्रेम और प्रकृति दोनों पर असंख्य कविताएँ लिखी हैं। निराला ने ‘बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु! पूछेगा सारा गाँव बंधु!’ कविता लिखी तो सुमित्रानन्दन पंत ‘मुस्करा दी थीं क्या तुम प्राण! मुस्कुरा दी थीं आज विहान!’ जयशंकर प्रसाद ने लिखा–
‘मादक थी मोहमयी थी
मन बहलाने की क्रीड़ा
अब हृदय हिला देती है
मधुर प्रेम की पीड़ा।’
प्रेमी मिलन की चाह को महादेवी वर्मा ने इस तरह व्यक्त किया :
‘कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पद पखार
जो तुम आ जाते एक बार।
हँस उठते पल में आद्र नयन
धुल जाता ओठों से विषाद
छा जाता जीवन में वसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार।’
छायावादी कवियों की तुलना में बाद के कवियों की प्रेम कविताओं में हमारा लौकिक संसार ज्यादा मुखर होकर सामने आया है। हरिवंश राय बच्चन की कविताओं में यह लौकिकता साफ तौर पर दिखती है जहाँ वे रहस्य के चादर को परे करते नजर आते हैं। कहा भी जाता है कि बच्चन ने प्रेम काव्य के नए द्वार खोले। उन्होंने लिखा–
‘इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!’
रामधारी सिंह दिनकर ‘उर्वशी’ में प्रेम का मुक्त निवेदन करते नजर आते हैं :
‘मैं तुम्हारे वाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर धर सीस मरना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।’
प्रेम कविता का संसार आगे भाववादी होने की जगह यथार्थवादी होता नजर आता है। यही कारण है कि प्रेम कविताएँ अधिक ऐन्द्रिक हुई। शमशेर ने ऐसी ऐन्द्रिक कविताएँ लिखीं जो बेजोड़ हैं। अज्ञेय, गिरजा कुमार माथुर, नरेश मेहता आदि कवियों ने भी प्रेम से पूर्ण भावप्रवण कविताएँ लिखीं। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर की उन कविताओं की ज्यादा चर्चा होती है जो सामाजिक व राजनीतिक कविताएँ हैं जबकि इन कवियों ने बेहतरीन प्रेम कविताओं की रचना की। नागार्जुन कहते हैं–
‘कालिदास, सच-सच बतलाना!
इन्दुमति के मृत्यु शोक से
अज रोये या तुम रोये थे
कालिदास, सच-सच बतलाना!’
कवियों ने समय में आए बदलाव और प्रेम संबंधों में आई जटिलता को भी व्यक्त किया। सर्वेश्वर की कविता ‘तुमसे’ गौरतलब है :
‘लौट आया मैं बिना कुछ कहे
शब्द पड़ने लगे छोटे
दर्द बढ़ने लगा
कहे भी थे जो कभी सब हो गए अनकहे।
रास्ता बढ़ता रहा
घर दूर होता रहा
साथ चलकर भी कहीं हम अजनबी से रहे।
फैलता गया मैं जितना
तुम सिमटते गए उतना
दर्द तुमने कहीं ज्यादा हाय, मुझसे सहे।
लौट आया मैं बिन कुछ कहे।’
इस तरह हमारी आधुनिक काव्य धारा के विविध रंग हैं। उनमें प्रेम कविताओं का रंग काफी चटक है। कहा भी जाता है कि इश्क की कोई उम्र नहीं होती। वह कब हो जाय, किससे हो जाय कहा नहीं जा सकता। कई बार तो ऐसा होता है कि युवा अवस्था का प्रेम खो जाता है और वह तब लौटता है जब
‘वक्त ने बालों में चाँदी भर दी
इघर-उधर जाने की आदत कम कर दी
कभी अँधेरा, कभी सवेरा है जीवन
आज और कल के बीच का फेरा है जीवन।’
कवियों ने ऐसे सारे भावों को अपना विषय बनाया है। मतलब जो भोगा है, वह अच्छा भी है और बुरा भी, मिलन की चाह भी है विरह की वेदना भी, ऐसे भावों को हम प्रेम कविताओं में पाते हैं। यह प्रेम वासना व स्वार्थ से मुक्त ऐसी चाहत है जिसमें हम जिसे प्यार करते हैं, उससे पाने की लालसा नहीं अपितु उसके प्रति त्याग व समर्पण का भाव प्रमुख है। उसकी यात्रा बाह्य से अंतर्य के सौंदर्य की है। गुलजार अपनी कविता में कहते हैं :
‘ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम!
बहुत जी चाहता है फिर से बो दूँ अपनी आँखें
तुम्हारे ढेर सारे चेहरे उगाऊँ, और बुलाऊँ बारिशों को
बहुत जी है कि फुर्सत हो, तसव्वुर हो
तसव्वुर में जरा-सी बागबानी हो
मगर जानाँ…इक ऐसी उम्र में आकर मिली हो तुम
किसी के हिस्से की मिट्टी नहीं हिलती
किसी की धूप का हिस्सा नहीं छनता…
ये कैसी उम्र में आकर मिली हो तुम!’
हम जिस व्यवस्था में हैं वह लोकतांत्रिक है। इसके जीवन मूल्य हैं–समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व। परंतु हमारी राजनीति का चरित्र ऐसा संकीर्ण और विभाजनकारी है कि उसने इन मूल्यों का क्षरण किया है। मानव मानव के बीच क्षेत्र, धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा आदि की दीवार खड़ी की गई है। प्रेम करने वालों ने इन दीवारों को नहीं माना है। उन पर प्रहार किया है। कबीर से लेकर समकालीन कवियों तक प्रेम कविताओं ने यही काम किया है, घृणा की जगह प्रेम फैलाने का, तोड़ने की जगह जोड़ने का। इससे हमारे लोकतांत्रिक मूल्य सुदृढ़ हुए हैं, जैसा कि निदा फ़ाजली अपनी एक नज्म में कहते हैं :
‘नीम तले दो जिस्म अजाने
चमचम बहता नदिया जल
उड़ी-उड़ी चेहरों की रंगत
खुले-खुले जुल्फों के बल
दबी-दबी कुछ गीली साँसें
झुके-झुके से नैन कमल
नाम उसका…दो नीली आँखें
जात उसकी…रस्ते की रात
मजहब उसका…भीगा मौसम
पता…बहारों की बरसात।’
Image: a chameleon 1612
Image Source : WikiArt
Artist : Ustad Mansur
Image in Public Domain