माहेश्वर तिवारी शब्द की बाँसुरी से रचे मंत्र

माहेश्वर तिवारी शब्द की बाँसुरी से रचे मंत्र

माहेश्वर तिवारी के गीतों की बुनावट में स्मृति, भय, उदासी, जिजीविषा का विशेष योगदान है। उनके प्रसिद्ध गीत ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव’ में घर की याद है, जो एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। हर आपदा में मनुष्य को घर याद आता है। घर की स्मृति का अर्थ है तमाम रक्त-संबंधों और रागात्मक संबंधों से जुड़ाव। इस गीत में पिता और माता का स्मरण अकारण नहीं है–

‘द्वार का आधा झुका
बरगद : पिता
माँ : बँधा आँगन।’

एक अन्य गीत ‘घर ले जाए’ में आसपास की भयावहता से आतंकित गीतकार का मन ‘घर’ ले जाए जाने की आकांक्षा करता है–

‘कोई मुझे उठा कर
मेरे घर ले जाए।’

ले जाने वाला खाली हाथ नहीं लौटेगा–

‘मीठे-मीठे पल
बातों के किस्सागोई के
हँसी ठहाके झरनों जैसे
धुएँ रसोई के
अपनी खाली जेबों में
वह भर ले जाए।’

‘यादों के बहाने’ गीत में भी स्मृति की भूमिका आह्लादकारी और सकारात्मक है–

‘याद तकिये सी
लगा कर सो गए हम
एक पल में ही
कहीं आकाश जैसे
हो गए हम।’

माहेश्वर के गीतों में स्मृति न तो यथार्थ से पलायन है, न ‘नास्टेल्जिया’ है। गीतकार जहाँ-तहाँ वर्तमान अवमूल्यन के संदर्भ में संबंधाभाव और मूल्यक्षय को लेकर क्षुब्ध होता है, आक्रोश जताता है। कहीं

‘रिश्तों वाली
पारदर्शिता लगे
कबंधों सी’
है तो कहीं
‘जेबों के सिरहाने
रख दिए
रिश्तों वाले सिक्के
खोटे’

की विडंबना है। एक गीत में अनचाहे संबंध जीने की विवशता है–

‘नदी के
इस छोर से
उस छोर तक
हम तुम अकेले
जी रहे हैं
अनमने संबंध।’

ऐसे गीतों को लक्ष्य करके डॉ. विजयबहादुर सिंह ने उचित ही लिखा है–‘एक ओर यह जीवन की वास्तविकता है और दूसरी ओर स्मृतियों के कल्पनालोक में डूबा हुआ हमारा कवि मन है’ (हिंदी नवगीत : संदर्भ और सार्थकता, सं.–वेदप्रकाश अमिताभ, डॉ. रंजना शर्मा; पृ.-218)। स्मृतियों में अच्छी चीजों के लुप्त होने का क्षोभ भर नहीं है, कुछ प्रीतिकर अपेक्षाएँ भी हैं। स्मृति का एक छोर है–

‘बैठ के गुलमुहर की नर्म घनी छाँवों में
धूप में नींद के झुलसे हुए पल याद आए।’

यह अपेक्षा भी स्मृति-प्रेरित है–

‘सिर से पाँवों तक नहला दे
मूर्च्छित विश्वासों वाले पठार ढँक जाएँ
हाथों से आकर सहला दे
शोर-शराबों वाली भीड़ में
हर सिंगार कोई तो हो।’

यह आकस्मिक नहीं कि माहेश्वर तिवारी के, ‘हरसिंगार कोई तो हो’, ‘नदी का अकेलापन’, ‘फूल आए हैं कनेरों में’ आदि में दहशत केंद्रस्थ है। अवमूल्यन और अमानवीयकरण से कवि-मन आक्रांत और आतंकित है। ‘काशी’ के माध्यम से देश में हीनतर दिशा में हो रहे संक्रमण को देख गीतकार इस निष्कर्ष पर पहुँचता है–‘पहले जैसा अब काशी का नहीं समाज रहा।’ स्वतंत्रता-परवर्ती परिवेश की भयावहता को उकेरने में गीतविधा कम सक्षम नहीं रही हैं, माहेश्वर तिवारी के गीत यह जताने में समर्थ हैं। यह अवश्य है कि यह उकेरना गीत की शर्तों पर ही हुआ है, कोरी बयानबाजी वहाँ नहीं है। एक गीत में मोहभंग की स्थिति में देखा गया परिदृश्य इस प्रकार है–

‘चीलों ने डैनों से
आसमान घेरा
दुबका है गौरये सा
नया सवेरा
गोली की हद में
सुर्खाबों का क्या करें?’

‘सन्नाटा चीर गया पाँव’ गीत में ‘कोहरीले धुएँ’, ‘तितली के कटे हुए पंख’, ‘बंजर धरती’ आदि पद भी डराने वाले हैं। ‘बिल्लियाँ काली-काली’ शीर्षक गीत में ‘गीतों से भरा हुआ मन’ अगर बिल्कुल खाली है तो इसका प्रमुख कारण दहशत की दस्तक है–

‘दहशत से कोनों में
दुबके खरगोशों को
लगे किसी ने जाकर काटा
कहाँ से उतर आती हैं
सहसा आँगन में
बेहद खूँखार बिल्लियाँ काली-काली।’

ये ‘बिल्लियाँ’ अवांछनीय तत्व हैं, अमानवीय कृत्य हैं और घातक अवमूल्य हैं, जिनसे मनुष्यता आहत हो रही है। ‘शाम के धुँधलके’ गीत में रोशनी कुछ देर जलके बुझ गई है और माहौल दहशत से भर गया है–

‘दूर से आवाज कोई
चींख की आती हुई
एक दहशत हर गली
हर मोड़ पर छाती हुई।’

‘अँधी सुरंग पर लेटा हुआ शहर’ में भी यही स्थिति है–

‘दहशत नींद जेब में भरकर
चली गई बहार
सदियों की अंधी सुरंग पर
लेटा हुआ शहर’।

‘कटी हुई हाथ की उँगलियाँ’ गीत का शीर्षक ही अमानवीयता का व्यंजक है। समूचा परिदृश्य नकारात्मक और विक्षुब्ध करने वाला है–

‘चुप क्यों हैं घास की पुतलियाँ
नदियों से ऐसा कुछ लगता है
रेत हो गईं सभी मछलियाँ
— —
दूर थरथराती हैं पड़ी-पड़ी
कटी हुई हाथ की उँगलियाँ।’

गीतकार ने स्वीकारा है–‘दहशत भरे घने जंगल यात्राओं में हैं।’ यह केवल उसका जिया हुआ यथार्थ नहीं है स्वतंत्रता परवर्ती परिवेश की भयावह सच्चाई है कि जन साधारण दहशत में जीने को अभिशप्त हैं। ‘डरे हुए लोग’ शीर्षक से स्पष्ट है कि ‘भय’ सबका स्थायी भाव है–

‘संवेदनशून्य कई खाली आकृतियाँ
आसपास घूम रहीं काली आकृतियाँ
बैठे हैं चिड़ियों से डरे हुए लोग।’

इस सार्वजनिक भय के लिए वह व्यवस्था बहुत कुछ जिम्मेदार है, भय-मुक्त परिवेश बनाना जिसकी जिम्मेदारी है। इस व्यवस्था में जनसाधारण का प्राप्य कुछ गिने-चुने लोगों द्वारा हड़प लिया जाता है–

‘हैं हवाएँ पूछती फिरतीं सभी से आजकल
तितलियों के नाम से खुशबू चुराता कौन है।’

यह असंगति देख संवेदनशील मन कभी भयाक्रांत होता है तो कभी उदास हो जाता है और कभी प्रतिवाद की मुद्रा दिखाई देती है। अनेक गीतों में उदासी और अवसाद की मनःस्थितियाँ हैं। डॉ. विजयबहादुर सिंह ने इस संदर्भ में प्रसाद और माहेश्वर की तुलना करते हुए लिखा है। ‘प्रसाद यथार्थ की धरती से प्रस्थान करके कल्पना के हो जाते हैं। माहेश्वर तिवारी बार-बार अनुभवों की यथार्थ धरती की ओर लौटते हैं–इसीलिए उनकी कविताएँ गहरे अवसाद में समाप्त होती हैं। उनके अवसाद का कारण जितना व्यक्तिगत हैं, उससे कहीं अधिक ऐतिहासिक हैं’ (हिंदी नवगीत : संदर्भ और सार्थकता, पृ.-216)। एक गीत में गीतकार का अनुभव है–

‘उदासी की
पर्त सी
जमने लगी
रेंगती सी भीड़
फिर थमने लगी।’

लेकिन वह उदासी की गुंजलक में लिपट कर रहने के पक्ष में नहीं है। उसका आह्वान है–

‘हर तरफ घिरी-घिरी उदासी
आओ हम मिल-जुल कर छाँटें।’

इसी तरह का सकारात्मक संकेत ‘मैना’ को संबोधित गीत में भी है–

‘मैना री!
पिंजरे की भाषा मत बोल
मैना री!
अपने को भीतर से खोल।’

गीत की अंतर्वस्तु के सहज संप्रेषण के लिए उपयुक्त और सक्षम भाषा माहेश्वर तिवारी के पास है। उनके बिंबों में भी अनुभवों और विचारों को वहन करने की शक्ति भरपूर है। ‘ठोकरों से लड़खड़ा कर/सँभलते विश्वास जैसे’, ‘मुख्य द्वार के/भीतर के बूढ़े दरवाजे’, ‘सर्द पठारों जैसी खामोशी’, ‘कबंधों सी/शामें’, ‘धरती है/लाल तवे जैसी’, ‘अकेली/भुजा जैसा चीड़’, ‘दाँतों में दबे चावल सा’ जैसे बिंब अर्थग्रहण की दृष्टि से भी सार्थक हैं। लोक जीवन से उठाया गया एक आकर्षक बिंब नयापन और ताजगी लिए हुए है–

‘हल्दी के रंग भरे कटोरे
किरन फिर इधर-उधर उलट गई।’

यह अस्वाभाविक नहीं है कि माहेश्वर तिवारी ने अपने गीतों को ‘शब्द की बाँसुरी से रचे हुए मंत्र’ कहा है। गीत विधा के प्रति उनका समर्पण आश्वस्त करने वाला है। उनके इस कथन पर विश्वास किया जा सकता है–

‘यह समय
चुप रहे
आदमी चुप रहे
गीत पर
बोलते ही
रहेंगे सदा।’

अपने एक गीत संबंधी वक्तव्य में माहेश्वर तिवारी ने गीत विधा को लेकर दो टूक बातें की हैं। यह भी गीत के प्रति उनके समर्पण और समझ का प्रमाण है। ‘नई सदी के नवगीत’ (सं.–डॉ. ओमप्रकाश सिंह) में ‘बात निकलेगी तो फिर’ शीर्षक वक्तव्य में वे गीत को कवि की आदिम विधा मानते हुए इसका मूलतत्व ‘संवेदना’ निश्चित करते हैं लेकिन उन्हें सन् 2000 ई. के बाद किसी हद तक गीतों में संवेदना का क्षरण चिंतित करता है। वे यह भी पाते हैं कि वस्तुचेतना के विस्तार के बावजूद गीतों में संप्रेषणीयता कुछ-कुछ बाधित हुई है। उन्हें शिकायत है कि इधर के नवगीतों में संगीतात्मक अनुगूँज छीजती गई हैं। स्वयं श्री तिवारी के गीतों में ये अंतर्विरोध नहीं मिलते हैं। गाँव-घर से उनकी रागात्मकता बनी हुई है। जब वे लिखते हैं–

‘बहुत दिनों के बाद
लौट कर घर आना
लगता किसी पेड़ का
फूलों, पत्तों, चिड़ियों से भर जाना।’

अथवा वे दुखपूर्वक देखते हैं–

‘किंतु अब भी है
खड़ा टूटी पतीली लिए
अपना ऊँघता सा गाँव’

तो यह पाठक को संवेदनात्मक छुअन सा महसूस होता है। संवेदना के साथ विचार भी सहचर रहा है, अतः गीतकार से विसंगतियों को पहचानने में कोई चूक नहीं हुई है। वह ‘समय के लय-ताल तथा निजी एवं सामाजिक स्थितियों के साथ संतुलन’ बनाकर शब्द की बाँसुरी से मंत्र रचता रहा है।


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