बारिश में भींगता एक शायर
- 1 April, 2019
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- 1 April, 2019
बारिश में भींगता एक शायर
अनिरुद्ध सिन्हा के साहित्य संसार में प्रवेश करने से पहले हमें उन दस्तकों की आहट सुननी होगी, जो उन्हें लेखन के लिए निरंतर प्रेरित करती रही है। यह मैं मानती हूँ कि इनका लेखकीय संस्कार संभावनाओं और कल्पनाओं से भरा हुआ है। पर, कल्पनाओं की तह-दर-तह उलटने के बाद ऐसा महसूस होता है कि शायर ने जीवन की कड़वाहटों को काफी शिद्दत के साथ देखा, भोगा और महसूस किया है। इनकी पूर्वकालीन ग़ज़लों में सबूत के तौर पर इसे देखा जा सकता है। यह तो ज़ाहिर है कि कोई भी लेखक अपने लेखन का विस्तार यथार्थ की डोर के सहारे कल्पना की पतंग बाँधता है और पूरे जीवन क्षितिज भ्रमण कर लेता है। उसकी उसी यात्रा में काफी कुछ देखने और महसूस करने का नजरिया तैयार होता है, जिन्हें वह कल्पना की रंगों से तस्वीर के रूप में परिणत करता है। उस कल्पना की तस्वीर में कई तरह की भावनाएँ व संवेदनाएँ रहते हैं, उन्हें ही हम भावनाओं व संवेदनाओं का कोलाज कहते हैं।
मानवीय संवेदना, परिस्थितियाँ तथा सामाजिक परिदृश्य का चिंतन आज की हिंदी ग़ज़ल का स्वभाव बन गया है। शायर की सफलता भाषा की सहजता और बोधगम्यता में है। कहना न होगा कि शायर अनिरुद्ध सिन्हा की भाषा बेहद सहज, सरल और बोधगम्य है। इनके पास पाठकों का विशाल समूह है, जो उनकी ग़ज़लों का शिद्दत से इंतज़ार करता है। दिन-रात ग़ज़लों को जीने वाला यह शायर कभी आम जीवन की तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं व दुश्वारियाँ को अपनी ग़ज़लों का विषय बनाता है, तो कभी प्रेम के विभिन्न रंगों को शेरों में पिरोता है। आज के समय की कोई भी समस्या उनकी नजरों से ओझल नहीं है। भ्रष्टाचार, मानवीय मूल्यों का पतन, संबंधहीनता, पैसों की अंधी दौड़, ग्राम चेतना, धर्म-अध्यात्म तथा पर्यावरण तक की ग़ज़लें इन्होंने खूब कही हैं। इनकी ग़ज़लों से गुजरते हुए पाठक अपने जीवन के हर रंग को महसूस करता कभी चकित होता है, तो कभी मुस्कुराता है। बिहार उर्दू अकादमी, राजभाषा, विद्यावाचस्पति, नई धारा का रचना सम्मान, आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र सम्मान इत्यादि दर्जानाधिक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके ग़ज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा ने कई पत्रिकाओं का संपादन भी किया है जिनमें साहित्य पत्रिका ‘समय सुरभि’ और ‘जनपद’ का ग़ज़ल विशेषांक, किसी-किसी पे ग़ज़ल मेहरबान होती है तथा बिहार के प्रतिनिधि ग़ज़लकार प्रमुख हैं।
अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लें जीवन के भोगे हुए यथार्थ की निर्मम अभिव्यक्ति है। वे अभावों व वंचनाओं के बीच इच्छाओं और सपनों को बचाए रखना चाहते हैं। वे व्यक्ति की आकांक्षा और वस्तुस्थिति को भली-भाँति समझते हैं और उन्हें अपने शेरों में ढालते चलते हैं। आज की राजनीति का चेहरा बहुत क्रूर है। जो केवट है, वही नौका डूबोने पर उतारू है। स्वाभाविक है, आम जनता खुद को ठगा-सा महसूस करती है। जनता सियासत की चाल को समझ ही नहीं पाती। हिंदू-मुस्लिम जो एक ही मोहल्ले में भाई-भाई की तरह रहते हैं, कब जान की दुश्मन बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। ऐसी बेरहम सियासत पर उनके कई शेर हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं; जरा शेर देखें–
‘आज हैं इस तरफ और कल उस तरफ
किस तरफ है हवा सोच कर बोलिए’
या
‘मेरे नाजुक से ख्वाबों को हँसी में टालने वाला
न हिंदू है न मुस्लिम है मुहल्ले की सियासत है’
या
‘सियासी लोग ही तो है वतन के साहबे-औलाद
गली कूचे मोहल्ले में यही पैगाम लिख देते’
या
‘कद अँधेरों का इतना बढ़ा
रोशनी भी छुपा ली गई।’
आज गाँव के किसानों की हालत बद से बदतर हो गई है। किसान महँगाई की मार से मर रहा है। गरीब किसान की खेती बारिश पर निर्भर होती है। वे अपने खेतों की पटवन करवाने में असमर्थ हैं। इसका कारण कुदरत का तोहफा बारिश का प्रदूषण की भेंट चढ़ जाना है। जो भी फसल होती है वह दलालों के गिरफ्त में रहती है। आखिर क्या करे किसान, कहाँ जाए, किससे फरियाद करे। एक तरफ कर्ज तो दूसरी तरफ पेट भरने की कवायद। जब किसानों को कुछ समझ में नहीं आता तो वे आत्महत्या करने को उतारू हो जाते हैं। इसे हम सिर्फ नियति कह कर टाल नहीं सकते। किसानों को इस हाल से उबारने की जिम्मेवारी सरकार के साथ हमारी भी है।
‘कर्ज पीकर फसल न घर आई
अब दलालों का भाव क्या देखूँ।’
यह समय बेहद अवसाद भरा है, जहाँ लोगों के हिस्से टूटन, घुटन व परेशानी है। चारों तरफ असुरक्षा का माहौल है। हर आदमी डरा-सा है। पारिवारिक व सामाजिक कारण इसके जिम्मेवार हैं। व्यक्ति के अंदर भविष्य सँवारने के बीज अंकुरित होने की बजाय टूटने की हताशा है। शायर ने व्यक्ति के मर्म को बखूबी समझा है। शेर देखें–
‘टूटकर इक दिन, बिखर जाऊँगा मैं
मेरे अंदर खौफ ये पलता रहा’
या
‘फिर से चौंका दिल कहा ये क्या हुआ
फिर से जो चाहा नहीं वैसा हुआ।’
ऐसा नहीं है कि शायर सिर्फ सामाजिक विद्रूपताओं को ही शेरों में ढाल कर समाज के सामने लाने में यकीन करता है बल्कि प्रेम भी उतनी ही शिद्दत से महसूस करता है। प्रेम मनुष्य का मूल स्वभाव है। वह बिना प्रेम के ज़िंदा ही नहीं रह सकता। प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए आवश्यक है। कहते हैं,
‘वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
उमड़ कर आँखों से चुपचाप
बही कविता होगी अनजान।’
शायर को प्रेम की पीड़ा की गहन अनुभूति है। उनके प्रेम में माँसलता का नामो-निशान नहीं मिलती। वे रूहानी प्रेम में यकीन करने वाले शायर हैं। उनका प्रेम अनेक भावनाओं एवं कल्पनाओं का मिश्रण है, जो पारस्परिक स्नेह से लेकर खुशी तक विस्तारित है। दरअसल प्रेम हमारे अंदर प्रस्फुटित वह भावना है, जिसका कोमल एहसास हमें हमेशा नई ऊर्जा से परिपूर्ण रखता है तथा जीने का नया नजरिया देता है। बाइबिल कहती है, जो प्रेम में वास करता है वह परमात्मा में वास करता है। शायर जब प्रेम में डूबता है तो उसकी लेखनी भावुक हो उठती है। शेर देखें–
‘तमाम रात जो तुम बेखुदी में रहते हो
तुम्हारे दिल पे है शायद अभी असर मेरा’
या
‘अधूरे खत हमारे नाम के तकिये के नीचे है
न आए नींद तो इनको सलीके से जला देना’
या
‘तुम्हारा नाम रातों में जो हम लिखते हैं कागज पर
अँधेरों में चमकती है कलम की रोशनाई तक’
या
‘देखने लायक हमारी थी वहाँ दीवानगी
अपनी आँखें बंद कर हम गुफ्तगू करते रहे।’
ऐसा नहीं है कि शायर जब प्रेम की बातें करते हैं तब परिवार व समाज उनकी नजरों से ओझल रहता है। शायर अनिरुद्ध सिन्हा जी पूरी सजगता से अपने समय की तमाम बुराइयों व अच्छाइयों पर पैनी नजर रखते हैं और उसे अभिव्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। आज हमारे समाज में बुजुर्गों की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई है। बच्चे अपने कैरियर और उससे मिलने वाले बड़े पैकेज की लालच में अपने माँ-बाप को अकेले छोड़ देते हैं, जबकि ये वही माँ-बाप हैं, जिनके दम पर वह सफलता के सफर पर निकले हैं। बदलते समय में माता-पिता का अपमान अधिकतर घरों की कहानी बनती जा रही है। बुजुर्गों की यह दुर्दशा शायर को देखी नहीं जाती। शेर देखें–
‘बुढ़ापे में हमें यूँ कैद कर रखा है बच्चों ने
हमारे घर की चौखट से हमारी चारपाई तक’
या
‘जरा तो मान रखो अपने पूर्वज की शराफत का
कि इक बेईमान दुनिया में तो कुछ ईमान रहने दो’
या
‘सिलसिले बढ़ने लगे थे इस नए माहौल में
घर के अंदर रोज कितने घर नये बनने लगे’
शायर जो अनुभव करते हैं, वही उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। महानगर की चकाचौंध में गाँव की सरलता, सादगी, अपनत्व, संस्कार और मर्यादा कहीं खो से गए हैं। शहर की रंगीनियाँ भले ही कुछ देर के लिए लुभा ले, लेकिन गाँव का अपनापन कहीं और नहीं मिलता। माटी की महक में जो अपनत्व है, वह दूसरी जगह कहाँ। गाँव सुख व शांति से जीने का सलीका देता है, जबकि शहरी परिवेश में व्यक्ति कुछ और की चाह में अपना अस्तित्व ही खोता चला जाता है। शेर देखें–
‘जिस्म के इस शहर की रंगीनियों के सामने
गाँव ही मुझको बहुत अच्छा लगा यह भी हुआ’
या
‘वो खिलौना भी अब नहीं बिकता
घर की मिट्टी से जो बनाया है।’
इंडिया इन इक्वालिटी रिपोर्ट 2018 में कहा गया है कि भारत दुनिया का सबसे असमान देशों में से एक है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 73 प्रतिशत संपत्ति सिर्फ 1 प्रतिशत अमीरों के पास है। स्वाभाविक है, अमीर और गरीब के बीच की दूरी काफी गहरी है, जिसे पाटना आसान नहीं। अमीर अपने पैसों के मद में सब कुछ भूल गया है। उसके लिए मानवता सिर्फ एक शब्द भर है, जिसका इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए किया जा सकता है, जबकि गरीबों के लिए मानवता दौलत से भी बड़ी है। वह मुफलिसी में भी इनसानियत की भावना से भरा-पूरा रहता है। शेर देखें–
‘अमीर लोग किसी पर तरस नहीं खाते
गरीब आँखों में थोड़ा-सा प्यार रहता है’
या
‘हर किसी बयान में मिठास प्यार की मिली
बस्तियों में आज भी, इधर-उधर, यहाँ-वहाँ’
या
‘न होंठों पे आई न पलकों पर उतरी
गरीबी की अपनी ये खुद्दारियाँ हैं।’
जीवन में भले तमाम दुश्वारियाँ हों और चारों तरफ अँधेरा हो पर शायर आशा का दामन नहीं छोड़ता। उसके पाँव के छाले तकलीफ जरूर देते हैं, पर साथ में आशा का दामन नहीं छोड़ने की ताकत भी देते हैं। जिन्होंने पाँव में छाले होने का कष्ट सहे हैं, वे सफलता को जज्ब करना भी जानते हैं। ऐसे व्यक्ति को कभी इस बात का घमंड नहीं होता कि वह औरों से विशेष है। शेर देखें–
‘पड़े हैं पाँव में जिसके भी छाले
सफर की वो हकीकत जानता है’
या
‘यह जो कदमों के हैं निशाँ यारो
मंजिलों का यही पता देंगे।’
साहित्य रचनाकार में एक अद्भुत जज्बा पैदा करता है जिसकी बिना पर वह समाज में व्याप्त झूठ-मक्कारी के खिलाफ सीना ताने खड़ा होने में अपने जीवन की सार्थकता समझता है। एक सच्चा शायर वह है जो सच के लिए न केवल आवाज उठाएँ बल्कि उसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहे। साहित्य समाज का दर्पण व मार्गदर्शक भी होता है। शेर देखें–
‘सब झूठ लिखा है तो कोई सच भी मिलेगा
अखबार से भागो नहीं अखबार को समझो।’
दहेज हमारे समाज के चेहरे पर बदनुमा दाग की तरह है। ‘दुल्हन ही दहेज है के नारे’ महज जुमले साबित हो रहे हैं। आज भी यह हमारे सामाजिक परिवेश में महज खानापूर्ति भर है। अब भी औरतें जलाई जा रही हैं पर, सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर मुँह खोलने को तैयार नहीं। बेटी विदा होकर एक बार ससुराल जाती है तो फिर वापस नहीं लौटती। यही घुट्टी बेटियों को इस कदर पिलाई जाती है कि वह प्रतिकार नहीं कर पाती। बाप किसी तरह धन एकत्रित कर अपनी बेटी का ब्याह तो करता है, पर उसकी पगड़ी जीवन भर झुकी होती है वहीं बेटे के बाप इठलाते हुए सब कुछ डकार लेने को व्याकुल होते हैं। शेर देखें–
‘एक चीज थी बची हुई वह भी उतार दी
मजबूरियों ने बाप की पगड़ी उतार दी।’
कहना न होगा कि अनिरुद्ध सिन्हा एक ऐसे शायर हैं जिनकी शायरी में जीवन के तमाम रंग एक साथ देखने को मिलते हैं। जो उन्हें अपने समकालीनों में महत्त्वपूर्ण बना देते हैं। शेर देखें–
‘हर किसी सवाल का उसमें ही जवाब है
मैं जुबाँ से क्या कहूँ सामने किताब है।’
शायद वह कुछ भी बोलना उचित नहीं समझते। वे पूरा निर्णय पाठकों के विवेक पर छोड़ देना चाहते हैं और यही होना भी चाहिए।
Image name: Portrait of the Poet Peter Hille
Image Source: WikiArt
Artist: Lovis Corinth
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