आदिवासी

आदिवासी

(1)

सुनते हैं अपने ही हैं
जल, जंगल और ज़मीन
आते रहे, रहे जाते दिन
हम कौड़ी के तीन!

वे थे, ये हैं
फर्क कहाँ कुछ
अब भी वही नकेल शकुनी के
हाथों में पाँसा
सब चौसर का खेल
पानी में रहकर भी
पड़ी पियासी मीन!

पर्वत पिता, नदी है माता
जंगल ही घर बार
सुख-दु:ख के संगी-साथी
ये झाड़ और झंखाड़
गुजर-बशर ऐसे ही
करते आए, करो यकीन!

भद्रजनों के भद्रलोक में
हम जंगल की चीख
दया भाव से
दे देते कुछ
जैसे देवे भीख
हम जस के तस वे अपनी
सुख-सुविधा में तल्लीन!

(2)
बंधु,
हम हैं आदिवासी!

सृष्टि के होंठों रचा जो
वही आदिम राग हैं हम
पत्थरों की कोख से जन्मी
धधकती आग हैं हम
यह सदानीरा नदी बहती रही
फिर भी पियासी!

हम वही
वन प्रांतरों को
जो हरापन बाँटते हैं
रास्ते आते निकल
जब पर्वतों को काटते हैं
राजमहलों के नहीं, हम
जंगलों के हैं निवासी!

हाँ, अपढ़ हैं, भुच्च हैं हम
बेहतर काले-कलूटे
जंगलों के आवरण पर
हम सुनकर बेलबूटे
तन भले अपना अमावस
किंतु, मन पूर्णमासी!

पूछिए मत
युग-युग से
चल रहे ये सिलसिले हैं
भद्रजन जब भी मिले हैं
फासले रखकर मिले हैं
आज के इस तंत्र में तो
मोहरे हम हैं सियासी!

(3)
हम जंगल के फूल
नहीं हम गेंदा और गुलाब!

नहीं किसी ने रोपा हमको
और न डाली खाद
गुलदस्तों में कैद नहीं हम
हम स्वच्छंद, आजाद
आए, पढ़ ले, जो भी चाहे
हम हैं खुली किताब!

हम पर्वत की बेटी
नदियाँ अपनी सखी-सहेली
हम हैं मुट्ठी तनी, नहीं हम
पसरी हुई हथेली
माथे पर श्रम की बूँदें ये
मोती हैं खुली किताब!

फूलों के परिधान पहन
जब-जब सरहुल आता है
माँदर, ढोल, नगाड़े बजते
जंगल भी गाता है
पाँवों में थिरकन, तन में सिहरन
आँखों में ख्बाब!

घोर अभावों में रहकर भी
सीखा हमने जीना
और नाचना गान खुलकर
घूँट भूख की पीना
क्या समझाएँ, नहीं
समझ पाएँगे आप जनाब।

आप सभ्य, संभ्रात लोग हैं
तनिक देखिए आकर
हमें बराबर का दर्जा है
घर में हों या बाहर
स्त्री विमर्श के सौ सवाल का
हम हैं खुला जबाब!


Image name: Forest lake
Image Source: WikiArt
Artist: Isaac Levitan
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