आना फिर…!

आना फिर…!

एक हल्की छुवन भर से
काँप कर रह जाए
जैसे ताल का जल थिर
जब कि चलती बेर
तुमने कहा मुड़कर
सुनो, आना फिर!

सच
कहीं कुछ भी नहीं था
बस हवा के पाँव
पत्थर हो गए थे
तड़पकर रह गए थे शब्द
मन के हाशिये पर
काँपते लब पर
छुटता-सा जा रहा था
एक भींगा नाम
झुक गई थी
सीपिया आँखें कि सहसा
एक मोती हथेली पर
थरथरा कर चू पड़ा आखिर!

जानता हूँ
धुँध के आकाश में
भटका करेगा मोह पाखी मन
लिए कुछ दंश
फूलों से रचे क्षण का
वक्त की सच्चाइयों के बीच
सच है कुछ नहीं होता
किसी की भावनाओं
के समर्पण का
किंतु, फिर भी
धड़कनों के द्वारा रह जाते खड़े
ताउम्र हम कुछ आहटों के मुंतज़िर!


Image name: The Undergrowth in the Forest of Saint-Germain
Image Source: WikiArt
Artist: Claude Monet
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