हवा का रुख
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- 11 April, 2025
हवा का रुख
‘…हिंदू धर्म ढोंग है, ढकोसला है। ऊँच-नीच के धरातल पर रखी इमारत है, जिसमें सर्वोच्च ब्राह्मण है तो निकृष्ट शूद्र। जहाँ इस तरह की व्यवस्था हो वहाँ न तो प्यार जन्म ले सकता है और न ही सौहार्द्र…हिंदू यूँ तो चौथे वर्ण अर्थात दलितों को अपना कहते हैं, लेकिन सिर्फ अपना काम निकालने के लिए ही और जब उनके काम सिद्ध हो जाते हैं तो उन्हें दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह निकाल कर दूर फेंक देते हैं अर्थात यूज एंड थ्रो…और वर्तमान में तो यह बात शत-प्रतिशत सही होती प्रतीत दिखती है…आज सत्ता का काम समाज में जहर घोलना, धार्मिक आतंक फैलाना और ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज बने रहना ही रह गया है…जहाँ मुसलमान हैं वहाँ उनसे और जहाँ मुसलमान नहीं हैं वहाँ दलितों और हाशिये पर फेंके गए लोगों पर अत्याचार करना ही वर्तमान सत्ता पक्ष के उद्देश्य हैं…दलितों का यह दुर्भाग्य है कि वे हिंदू हैं। उन्हें चाहिए कि वे इस धर्म को त्याग कर सहिष्णुता और शालीनता का कोई प्यारा सा रास्ता चुनें…।’ इतना कुछ पुस्तक से पढ़ने के बाद लक्ष्मीशंकर शुक्ल जी गुर्राये थे–‘ये सब आपकी इस पुस्तक में लिखा है, मि. चौधरी। क्या आप इसको नकारते हैं?’
लक्ष्मीशंकर शुक्ल भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। गंगाशरण चौधरी उन्हीं के अधीन अनुभाग अधिकारी हैं। चौधरी साहब ने अँग्रेजी में पी.एचडी. कर रखी थी। एस.एस.सी. से सहायक की परीक्षा पास की थी और अपनी सेवा के अठारह साल पूरा करने के उपरांत पिछले पाँच साल से अनुभाग अधिकारी हैं। बहुत ही योग्य हैं। स्थापना अनुभाग में कार्य करते हैं। कोड, मैनुअल रटे पड़े हैं। सभी के साथ अच्छे संबंध हैं उनके। स्टाफ से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों तक मित्रवत हैं। चाहा तो ये था कि पी.एचडी. करके किसी कॉलेज में लेक्चरर बन जाएँगे, लेकिन वह हो न सका। फिर सोचा चलो जो मिल जाए उसे ले लो फिर आगे चलकर लेक्चररशिप के लिए प्रयत्न करेंगे। प्रयत्न, प्रयत्न ही रहा। कुछ दिनों बाद शादी हो गई। बच्चे हो गए। एक बहिन और एक भाई के उत्तरदायित्व के साथ-साथ बेटा और बेटी की जिम्मेदारी में ऐसे उलझे कि अब लेक्चररशिप सपना लगने लगा और फिर सहायक से अनुभाग अधिकारी बन गए थे चौधरी साहब।
जब लगा कि अब आगे कुछ संभव नहीं है तो लिखने का शौक चर्राया। मिल्टन, शैली, हार्डी, शेक्सपीयर से लेकर एमिली डिकिन्सन, फ्रांसिस बेकन और रॉबर्ट फ्रॉस्ट तक दिमाग पर छाने लगे। इन्हीं सबको पढ़ा था लेकिन सरकारी सेवा में ऑफिसियल अँग्रेजी ने लिटरेचर की ऐसी की तैसी मार दी। फिर भी नशा तो बरकरार था। आखिर हिंदी में लिखना शुरू कर दिया। प्रसाद, पंत, निराला, प्रेमचंद और फिर कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और मैत्रेयी को ज्यादा तो नहीं पढ़ा था फिर भी लिखने की ठान ही ली। लिखा भी लेकिन मजा नहीं आया। और अंत में वही लिखने लगे जो झेला था अर्थात…सामाजिक, जातिगत तिरस्कार, अपमान, घृणा, विद्रोह, लड़ाई और जिंदगी से जूझना और हारना और हारते-हारते जीतना। यही झेला था, देखा था–सो इसमें कलम सही से चलने लगी। देखते-ही-देखते चर्चा में आ गए थे चौधरी साहब। समाज में फैली वैमनस्यता पर लिखते-लिखते राजनैतिक क्षरण पर भी कलम चलाने लगे। कहानियाँ, कविताओं को लिखते-लिखते निबंध भी लिखने लगे। कलम में धार थी सो चर्चा सहज होने लगी।
उनके स्टाफ में ही, लव शर्मा भी हैं। असिस्टेंट हैं। चिढ़ते हैं चौधरी साहब से। काम-वाम तो करते नहीं। पूरे दिन गाल में गुटखा दबाए पिच्च-पिच्च करते रहते हैं। इधर-की-उधर करने में डी.लिट हैं। बड़े अधिकारियों से जोड़-गाँठ में रहते हैं। स्थापना अनुभाग में हैं सो सभी जानते हैं। उन्होंने ही चौधरी साहब की निबंध की किताब संयुक्त सचिव, लक्ष्मीशंकर चौबे को दी थी और कुछ पंक्तियों को हाईलाइटर से चमकाकर उन्हें पढ़वाई भी थी। उन्हें ही दिखा रहे थे संयुक्त सचिव शुक्ल जी, चौधरी साहब को। ‘सर, जब मेरी पुस्तक में लिखा है तो नकारने का तो सवाल ही नहीं। मैंने लिखा है।’ बोले थे चौधरी साहब।
‘आप जानते हैं इसका क्या मतलब है?’ शुक्ल जी गुर्राए थे।
‘सर, समाज का सच है। हिंदू धर्म का यथार्थ भी तो यही है। वही लिखने की थोड़ी कोशिश है।’ चौधरी साहब लेखक तो हैं ही, सो लेखक की तरह बोले थे।
‘ये थोड़ी सी कोशिश है।’ बोले थे शुक्ल जी, ‘…अगर ये थोड़ी सी कोशिश है तो ज्यादा कितनी होगी।’ अब वे गुस्से में थे। उनकी आँखें अँगारे बरसा रही थीं, वे घूर रहे थे चौधरी साहब को।
‘सर!’
‘व्हाट सर। लिखने की परमीशन ले ली थी ऑफिस से?’ शुक्ल जी अब पूरी तरह से ब्यूरोक्रेट थे।
‘जी!’
‘इसी तरह के लेखन की।’
‘जी, नहीं!’
‘फिर!’
‘सर!’
‘आपने तो हद ही कर दी। धर्म, सत्ता, यहाँ तक शासन को भी नहीं बख्शा। पढ़ी है मैंने पूरी किताब…आपके दिमाग में गोबर है क्या? तुम जानते हो इन सब का क्या मतलब होता है? …अच्छा बताओ…तुम्हारी उम्र पचपन की हो गई है…।’ शुक्ल जी ने आगे पूछा।
‘जी साब, पिछली अगस्त को पचपन का हो गया हूँ।’ चौधरी साहब का लेखक धराशायी था।
‘आप तो इस्टेबिलिसमेंट में हैं। अक्षमता के आधार पर…।’ शुक्ल जी बोले थे।
‘जी सर’
‘फिर? अगर देशद्रोह या राजद्रोह लग जाए तो कैसा लगेगा।’
‘साब’
‘बच्चे सेटल हो गए।’
‘सर अभी नहीं।’
‘देखो चौधरी, आप बहुत योग्य हैं। अच्छे इनसान हैं। आपको मैं अपने अनुजतुल्य मानता हूँ।’ थोड़े से विनम्र होकर समझाया था शुक्ल जी ने चौधरी साहब को, ‘आपके काम से मैं बहुत खुश हूँ। फाइलों में अँगुली रखने की जगह नहीं छोड़ते हैं आप।’ फिर अपने बहुत पास बुलाकर बोले थे, ‘…लिखो, मैं मना नहीं करता…लेकिन हवा का रुख देखकर लिखो, आप समझ रहे हैं…और अगर मेरी बात नहीं मानेंगे तो सिवाय कष्ट और दु:ख के कुछ नहीं मिलने वाला।’ फिर और प्यार से बोले थे, ‘जिस समाज के लिए मरे जाते हो…दु:ख मुसीबत आने पर अकेला छोड़ देगा। जो लोग आज आपकी प्रशंसा करते हैं वही आपकी निंदा करेंगे। सही बताएँ…अगर मेरी मानो, और मेरा तो अनुभव भी यही कहता है…मैं तो ब्राह्मण हूँ न…मुझे तो सब तरीके आते हैं, उन्हीं में से एक बताता हूँ तुम्हें…कुछ दिनों के लिए लिखना बंद कर दो…और जिधर की हवा चल रही है उधर की तरफ ही पंख फैला दो। और अगर मन नहीं मानता है, मैं जानता हूँ लेखकों का कीड़ा…तो एक काम करो…जो ‘वे’ चाहते हैं वैसा लिखो। फिर देखो…आसमान तुम्हारी मुट्ठी में होगा। नहीं, तो दूसरा रास्ता तुम्हारी तरफ मुँह बाए खड़ा है। चुन लो…जो अच्छा लगे।’ कहकर जाने का इशारा कर दिया था शुक्ल जी ने, चौधरी साहब से।
चौधरी साहब अपने अनुभाग में आ गए थे। लव शर्मा मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे मानो कोई अपनी विजय पर खुश हो रहा हो। जैसे-तैसे ड्यूटी पूरी की थी। घर आ गए थे। चेहरा उतरा हुआ था। पत्नी ने देखा तो भाँप गई थी कि कहीं कुछ गड़बड़ हैं। आखिरकार इक्कीस साल का साथ था। चाय की पूछी थी। मना कर दिया था चौधरी साहब ने।
रात को खाना भी ऐसे ही बेमन से खाया था। लेट गए थे बिस्तर पर सोने के लिए। सोने के सारे प्रयास व्यर्थ थे। सोच रहे थे, ‘…क्या अपने मन की बात भी नहीं लिख पाएँगे अब। अपने साथ हुए अत्याचार, शोषण को गले में ही रोक लेंगे। शिव बन जाएँगे क्या, नीलकंठ…’ होंठ फड़फड़ा रहे थे। कभी इस करवट तो कभी उस करवट। बिलबिला रहे थे। नींद हजारों मील दूर थी उनसे कि एकटक अँधेरे में कुछ खोजने लगे थे…।
…पिता कपड़े सिलते थे। घर में ही रखी थी, सिलाई मशीन। माँ कपड़ों की तुरपाई करती, उन पर प्रेस करती। फिर समय निकालकर घर के काम करती थीं। रात-दिन खपते थे माँ, पिता। जब होश सँभाला तब पिता को जीवन से जूझते हुए ही देखा था और माँ को पिता के साथ एक सच्चे जीवनसाथी की तरह साथ देते देखा। वे थे, उनसे छोटी बहन और फिर सबसे छोटा भाई। तीन ही थे माँ-पिता के। तीनों में ही सुख निहारते थे माँ-पिता। तीनों को ही अफसर बनाना चाहते थे। लोगों के लिए कपड़े सिलने वाले पिता के पास कभी, उनके पूरे कपड़े नहीं रहे। माँ बचे हुए कपड़ों से अपना पेटीकोट, ब्लाउज बना लेती थी। …लेकिन पिता ने उन्हें पढ़ाने में जी-जान लगा दिया था। वे पढ़ भी गए थे लेकिन नौकरी मिलना कठिन हो रहा था। छुटिया तब सात साल की थी और राजेश चार का। तभी एक दिन…पिता ने ठाकुर चक्रवीर सिंह के कपड़े सिले थे। ठाकुर साहब गाँव में ही रहते थे। जलजला था उनका। पिता ने कपड़े पूरे जतन से सिले थे, लेकिन न जाने ठाकुर साहब को क्यों अच्छे नहीं लगे। ‘…सोवन्ना क्या बात है अच्छी तरह कपड़े नहीं सिले तूने।’ बोले थे ठाकुर साहब। तब चौधरी साहब में थोड़ी समझ आ गई थी सो अपने पिता के साथ वे भी थे।
‘…मालिक कोशिश तो पूरी की है, लेकिन कहीं कुछ रह गया होगा…दे दो–ठीक कर देंगे।’ पिता जी, हाथ जोड़े खड़े थे।
‘अरे इसका क्या मतलब…अब ठीक करेगा। दो घंटे बाद मुझे जाना है।’ ठाकुर साहब गुर्राए थे।
‘तो कैसे करें साहब।’ पिता ठाकुर साहब के आगे घुटनों के बल झुके हुए थे।
‘…तो ऐसे कर’, कहते हुए ठाकुर साहब ने अपने जूते की नोक से चौधरी साहब के पिता के सिर पर जोर से लात मारी थी। बस फिर क्या था वे तो मारते ही रहे थे। पिता अपने दोनों हाथों से सिर्फ अपना बचाव कर रहे थे। चौधरी साहब ने ठाकुर साहब को रोकने की कोशिश भी की थी तो उन्होंने, इन्हें भी मारा था। जब मन भर गया, तब रुके थे ठाकुर साहब।
…पिता चले आए थे घर। पीछे-पीछे चौधरी साहब थे। बस वह दिन था और उसके बाद, पिता कभी सिलाई नहीं कर पाए। चारपाई पकड़ ली थी। और…फिर…एक दिन ऐसा भी आया जब, जब…पिता पूरे परिवार को हमेशा-हमेशा के लिए रोते-बिलखते छोड़कर चले गए थे। …पिता की मृत्यु के पश्चात, परिवार में खाने के लाले पड़ने लगे। चौधरी साहब ने मेहनत से पढ़ाई की। वे पढ़ाई करते और छुट्टी के दिनों में मेहनत-मजदूरी करते थे। घर की गुजर चलने लगी थी। माँ भी थोड़ी बहुत सिलाई जानती थी सो काम चल ही रहा था। अब पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की थी। भाई-बहिन के लिए वे भाई भी थे और पिता भी।
…कितनी बार ऐसी स्थिति आई कि माँ और वे भूखे ही सो गए लेकिन छुटिया और राजेश को पेट भरकर खिलाया। …पढ़ते-पढ़ते एम.ए. कर ली। तब आज जैसी महँगी नहीं थी। खूब अच्छे नंबर लाए थे सो पी.एचडी. करने लगे थे। हुआ क्या था कि उनके अँग्रेजी के सर बहुत अच्छे थे। उन्होंने ही उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया था। चौधरी साहब ने कहा भी था, ‘…सर अभी परिवार की जिम्मेदारी ज्यादा है, कहीं उल्टी-सीधी नौकरी लग जाए तब देखेंगे।’
‘…अरे भई, तुम्हारी पी.एचडी. का सारा खर्च हम देखेंगे। तुम बस मेहनत करो।’ गुरु थे या भगवान उनके सर, कौन जाने।
…इस दौरान नौकरी के लिए प्रयत्नरत भी रहे चौधरी साहब और एक दिन ऐसा भी आया जब पी.एचडी. पूरी हो गई। फिर भी नौकरी का कोई अता-पता नहीं था। फिर एस.एस.सी. से असिस्टेंट का आवेदन किया। समय पर परीक्षा हुई और उनका चयन हो गया। नौकरी लगी तो धीरे-धीरे घर की स्थिति ठीक होने लगी और जब स्थिति ठीक होने लगी…तभी पहाड़-सा दु:ख झेलेनवाली माँ ने चलाचली की ठान ली। माँ चली गई थी।
…छुटिया बड़ी हो गई थी। राजेश भी समझदार हो गया था।
…तीन ही प्राणी थे घर में। आर्थिक स्थिति ठीक हुई तो चौधरी साहब के मामा ने अच्छे घर की लड़की देखकर शादी भी करवा दी थी। पत्नी रईस घर की थी, लेकिन सहृदय और नेक होने के साथ-साथ चौधरी साहब के कंधे से कंधा मिलाकर चलती। …शादी के आठ साल तक बच्चे नहीं हुए तो अपने देवर और नन्द को ही बेटा-बेटी माना था उन्होंने।
आज एक बेटा है चौधरी साहब के और एक बेटी भी। दोनों पढ़ रहे थे।
छुटिया बड़ी हो गई है अब और एम.ए. करके बी.एड कर लिया है। एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही है। चौधरी साहब उसकी शादी के लिए लड़का देख रहे हैं। छुटिया बहुत प्यार करती है उन्हें।
राजेश तो बहुत ही समझदार निकला। खूब मेहनती है। एम.टेक कर रहा है। आखिरी वर्ष में है। लेकिन आज भी पूरा परिवार चलता उन्हीं के बल पर है। सही अर्थ में कमाने वाले अकेले वे ही हैं। घर परिवार सँवारने में अपना घर नहीं खरीद पाए। सरकारी आवास में ही रहते हैं…।
सोच रहे थे चौधरी साहब कि अचानक संयुक्त सचिव शुक्ल जी की बातें आपस में टकराने लगी, ‘…पढ़ी है मैंने पूरी किताब…आपके दिमाग में गोबर भरा है…अच्छा बताओ पचपन तो हो गई…हवा का रुख देखो…मेरी बात नहीं मानोगे तो…सिवाय कष्ट और दु:खों के…मैं ब्राह्मण हूँ…एक काम करो जैसा ‘वे’ चाहते हैं वैसा लिखा…दूसरा रास्ता तुम्हारी तरफ मुँह बाए…उधर तारीफ है…पंख फैला दो…’ हड़बड़ाकर सिर पकड़कर बैठ गए थे। रात घनी थी। बाहर निकलकर देखा तो पत्नी सो रही थी उसके एक तरफ बेटा था दूसरी तरफ बेटी फिर छुटिया के कमरे में चले गए थे। शांत निश्छल, मानो सपनों में खोई हो। मन नहीं माना तो राजेश के कमरे में चले गए। राजेश पढ़ते-पढ़ते ही सो गया था। किताबें बिखरी पड़ी थीं।
लौट आए थे अपने कमरे में। फिर सोने की कोशिश की थी कि शब्द फिर से टकराने लगे थे आपस में। संयुक्त सचिव शुक्ल जी के कि बोल पड़े थे वे, ‘नहीं मानूँगा मैं आपकी बात, सर…चाहे कुछ हो जाए…नहीं मानूँगा…।’
तब न जाने कहाँ से आवाज कानों में गूँजी थी, ‘अच्छा, नहीं मानोगे…वेरी गुड…अच्छा बताओ अगर देशद्रोह लग जाए तो…बच्चे सेटल हो गए…अच्छा बताओ नौकरी छूट जाए तब…ये घर जिसमें रह रहे हो, छिन जाए तब…देशद्रोह में तो जेल भी हो सकती है तब…बच्चों की पढ़ाई छूट जाए तब…बहिन की शादी न हो पाई तब…राजेश की एम.टेक अधूरी रह जाए तब…तब क्या करोगे चौधरी साहब…।’
‘नहीं, नहीं…ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं ऐसा कुछ नहीं होने दूँगा। मैं…मैं…’ बिस्तर से उठकर खड़े हो गए थे। बाहर आए। रात अपने अंतिम छोर पर थी या मानो सुबह होने को कुलबुला रही थी।
सुबह साढ़े पाँच बजे पानी आता है, सो नल चलने लगा था। मोटर चलाया, पानी भरने लगे थे। पानी भर गया था। तब तक घर के सभी लोग जाग गए थे।
चौधरी साहब ने नहाया-धोया।
अम्मा जब बूढ़ी हो गई थी तब लाठी लेकर चलने लगी थी। उसी लाठी को ढूँढ़ा। नेकर तो था नहीं। खाकी रंग का पैंट था, उसी को पहना और सफेद शर्ट पहनकर चल दिए थे।
पास में ही पार्क है, पटेल पार्क। वहीं शाखा लगती। नमस्ते सदा वत्सले…। वहीं गए। सभी कच्छाधारियों के पीछे खड़े हो गए।
अब वे केसरिया झंडे को सिर झुकाकर प्रणाम कर रहे थे।
Image name: Portrait of an Old (Johann Harms)
Image Source: WikiArt
Artist: Egon Schiele
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