महात्मा गाँधी का बनारस भाषण

महात्मा गाँधी का बनारस भाषण

1915 में गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे। उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने सुझाव दिया कि भारत आकर शीघ्रता में कोई काम शुरू न करें। एक साल तक अपनी आँख और कान तो खुला रखें, लेकिन मुँह बंद। गोखले जी चाहते थे कि गाँधी भारत-भ्रमण करें। देश की परिस्थितियों का अध्ययन करें। चुपचाप देश की वास्तविकता समझें। मुल्क के लोगों की मनोभूमि पढ़ें। उसके बाद सार्वजनिक सवालों पर, खासकर राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के बारे में, अपनी राय बनाएँ और अपने आगामी कार्यकलापों की रणनीति भी। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह और उसमें गाँधी जी की भूमिका से गोखले भली-भाँति अवगत थे। वे गाँधी जी की प्रतिबद्धता से भी वाकिफ़ थे। फिर ऐसा सुझाव क्यों दिया गोपालकृष्ण गोखले ने? क्या गोखले को यह लगता था कि उनके शिष्य के मन में भारत-दुर्दशा की जो धारणा है, वह वास्तविकता से दूर है? अथवा यह कि गाँधी की राह भारत के लिए उपयुक्त नहीं? अथवा यह कि भारत के लोग गाँधी-मार्ग पर चलने के लिए तैयार नहीं? अथवा यह कि गाँधी के रास्ते भारत की मुक्ति मुमकिन नहीं? या इन सभी कयासों के रसायन से बना था गोखले का सुझाव।

भारत को लेकर गाँधी जी ने जो धारणा ‘हिंद स्वराज’ में ज़ाहिर की थी, तत्कालीन ज्यादातर बुद्धिधर्मियों की मानिंद गोखले जी भी उससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते थे। तत्कालीन सभ्यता की समीक्षा कर गाँधी जी जो यूटोपिया दिखा रहे थे, उसने गोखले को सुझाव के लिए प्रेरित किया था। गोखले जी का अनुमान था कि साल भर भ्रमण और लोगों से मिलजुल कर, हक़ीक़त जानने के बाद, गाँधी अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करेंगे। अपनी धारणा बदलेंगे। ज़ाहिर है यूटोपिया बदलेगा, ‘हिंद स्वराज’ में निहित विचार भी।

इस दौरान गाँधी जी देश के विभिन्न हिस्सों में गए। कई जगह उनके सम्मान में आयोजन हुए। भिन्न-भिन्न तरह के कार्यक्रमों में शरीक हुए। लोगों से संवाद किया। कुछेक भाषण भी किए। इसी क्रम में महात्मा मुंशीराम, जो स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से लोकप्रिय हैं और कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी मिले। 31 मार्च 1915 को गाँधी जी कोलकाता स्थित कॉलेज स्कवेयर के विद्यार्थी भवन में, पी.सी. लायन्स की सदारत में आयोजित एक बड़ी सभा में भाषण के दौरान, अपने गुरु के ‘आदेश’ का स्मरण करते हुए कहा कि मैं इस सभा में भाषण देने का लोभ संवरण नहीं कर सका।

2 फरवरी 1916 को महामना मदनमोहन मालवीय के निमंत्रण पर गाँधी जी बनारस पहुँचे। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के बाइसवें वार्षिकोत्सव में भी शामिल हुए। कश्मीर के महाराजाधिराज के सभापतित्व में संपन्न इस समारोह में गाँधी जी ने भारतीय भाषाओं की असीम उन्नति की जरूरत पर बल दिया। युवकों से हिंदी में पत्र-व्यवहार करने का आग्रह किया। अँग्रेजी जानने वालों से आग्रह किया कि ‘अँग्रेजी के उच्च विचार और नए खयाल सब लोगों के सामने रखें।’

अगले दिन 4 फरवरी 1916 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का उद्घाटन हुआ। कार्यक्रम में वायसराय भी शामिल हुए थे। दरभंगा के राजा सर रामेश्वर सिंह की अध्यक्षता में संपन्न समारोह में मालवीय जी के ‘विशेष आग्रह’ पर गाँधी जी ने भाषण दिया। इस ऐतिहासिक भाषण से गाँधी जी का महामौन टूटा।

साल भर के देश-भ्रमण के दरम्यान गाँधी जी ने जो मौन रखा था वह ऋषियों की समाधिस्थ मौन नहीं था, जिसमें एक जगह बैठकर अंतप्रज्ञा का अभिज्ञान किया जाता है। गाँधी ने इस कालखंड में खूब यात्राएँ कीं। हर क्षेत्र के लोगों से मिले। साहित्य, राजनीति, धर्म, अध्यात्म, समाज सुधार जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रहे सचेत लोगों के साथ चर्चाएँ कीं। उनके विचारों को जाना, सुना और गुना। योगी की समाधि से गाँधी की यह यात्राकालीन/भ्रमण/चल समाधि इस रूप में भिन्न है। कारण कि इसमें लोगों से लगातार संवाद किया गया था। पर साथ ही उनके भीतर अंत:सलिला की तरह विचार-चेतना प्रवाहित हो रही थी। कुछ छूट रहा था तो कुछ जुट रहा था। घटाव और जोड़ चल रहा था। योगी की समाधि में भी यही होता है। भीतर के उथल-पुथल के बगैर समाधि संभव नहीं। ऊपर शांत-प्रशांत और अंतर्जगत में अंत:सलिला जब चरम पर पहुँचता है, समाधिस्थ को अंदर भी प्रशांत कर जाता है।

यह भाषण इस मायने में भी ऐतिहासिक महत्त्व का था कि इसमें गाँधी जी ने अपनी धारणा मजबूती के साथ ज़ाहिर की। मंच पर मौजूद एनी बेसेंट को गाँधी जी की बातें आपत्तिजनक महसूस हुई। उन्होंने गाँधी जी को भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा। गाँधी जी ने अध्यक्ष से पूछा कि अगर ‘आपकी समझ में मेरी इन बातों से देश और साम्राज्य को हानि पहुँच रही है तो मुझे अवश्य चुप हो जाना चाहिए।’ अध्यक्ष ने गाँधी जी को अपने कथन का आशय स्पष्ट करने के लिए कहा। गाँधी जी अपनी बात साफगोई से कह रहे थे परंतु एनी बेसेंट मंच से उठकर चली गईं। साथ में कई गणमान्य भी चले गए। नतीजतन गाँधी जी का भाषण अधूरा रह गया।

एक साल भारत-भ्रमण और लोगों से संवाद के पश्चात, राष्ट्र और राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में, गाँधी जी ने युवाओं की मौजूदगी में अपने विचार साझा किए तो एनी बेसेंट सरीखे तत्कालीन नेतृत्व को पसंद नहीं आया। आखिरकार क्या था इस भाषण में? जिसके बारे में गाँधी जी ने कहा था कि, ‘आज मैं भाषण नहीं देना चाहता, श्रव्य रूप में सोचना चाहता हूँ। यदि आज आपको ऐसा लगे कि मैं असंयत होकर बोल रहा हूँ तो कृपया मानिए कि कोई आदमी जोर-जोर से बोलता हुआ सोच रहा है और वही आप सुन पा रहे हैं। और यदि आपको ऐसा जान पड़े कि मैं शिष्टाचार की सीमा का उल्लंघन कर रहा हूँ तो कृपया उस स्वच्छंदता के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे।’

गाँधी जी ने कहा कि इस पवित्र नगर में, महान विद्यापीठ के प्रांगण में, अपने देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना शर्म की बात है। विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में जिन लोगों ने गाँधी जी से पूर्व अँग्रेजी में अपना भाषण पेश किया था, उन लोगों को शायद ही यह अनुमान था कि विदेशी भाषा में बोलना शर्म-सरीखा है। कहना तो यह होगा कि ज्यादातर लोग अँग्रेजी में बोलना गौरव मानते रहे हैं। इसे गुमान समझते हैं। गाँधी जी इस गुमान को शर्म बता रहे थे। इन्होंने आशा प्रगट की कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता तो बकौल गाँधी जी ‘हमारी भाषा पर हमारा ही प्रतिबंध है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते, तब तो हमारा संसार से उठ जाना अच्छा है।’ यह भाषण एक सदी पहले दिया गया था। आज भी ऐसा सोचने-माननेवाले मिलते हैं जो अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भारतीय भाषाओं को तंग बताते हैं। गाँधी के लिए ऐसी सोच अपनी भाषाओं पर प्रतिबंध सरीखा है।

गाँधी जी ने वहाँ मौजूद लोगों से सवाल किया कि क्या कोई स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अँग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? श्रोताओं ने ‘नहीं, नहीं’ कहकर जवाब दिया। यह उत्तर सुनकर गाँधी जी ने पूछा कि ‘फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए?’

उन्होंने कहा कि ‘भारत के अँग्रेजीदाँ ही देश की अगुवाई कर रहे हैं और वे ही राष्ट्र के लिए सब-कुछ कर रहे हैं। …मान लीजिए हमने पिछले पचास वर्षों में अपनी-अपनी भाषाओं के जरिये शिक्षा पाई होती, तो हम आज किस हालत में होते?’ इस प्रश्न का स्वयं जो उत्तर दिया, वह काबिलेगौर है, कि आज भारत स्वतंत्र होता, हमारे पढ़े-लिखे लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह अजनबी न होते बल्कि देश के हृदय को छूनेवाली वाणी बोलते; वे गरीब-से-गरीब लोगों के बीच काम करते और पचास वर्षों की उनकी उपलब्धि पूरे देश की विरासत होती।

गाँधी जी ने यहाँ तक कहा कि आज तो हमारी अर्धांगिनियाँ भी हमारे श्रेष्ठ विचारों की भागीदार नहीं हैं। अँग्रेजी शिक्षा ने पति-पत्नी के विचारों के बीच बड़ी खाई पैदा की थी। उस दौर में देश की अगुवाई करने वाले पुरुष तो अँग्रेजी शिक्षा में दीक्षित थे, परंतु स्त्रियाँ इससे वंचित थीं। वनस्पतिशास्त्री सर जगदीशचंद्र बोस और रसायनशास्त्री पी.सी. रॉय तथा उनके शानदार आविष्कारों का हवाला देकर गाँधी जी ने पूछा कि क्या यह लज्जा की बात नहीं है कि जनता का उनसे कुछ लेना-देना नहीं?

गाँधी जी ने भारत की ख्याति का कारण आध्यात्मिकता को बताया। इस क्षेत्र में भारत की कोई सानी नहीं है, ऐसा कहा। पर साथ में यह भी कहा कि बातें बघार कर आध्यात्मिकता का संदेश नहीं दिया जा सकता। ऐसा संदेश महज तकरीरों के जरिये नहीं दिया जा सकता। हालाँकि गाँधी जी ने यह माना कि हम भाषण देने की कला के लगभग शिखर पर जा पहुँचे हैं; पर यह पर्याप्त नहीं। बकौल गाँधी जी ‘अब हमारे मनों में स्फुरण होना चाहिए और हाथ-पाँव हिलने चाहिए।’ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इस समारोह में कहा गया था, जिसकी याद गाँधी जी ने भी दिलाई कि ‘भारतीय जीवन की सादगी कायम रखनी है तो हमें अपने हाथ-पाँव और मन की गति में सामंजस्य लाना आवश्यक है।’ यह मूल सवाल है। विचार की दिशा में हाथ-पाँव का हिलना। सोच की दिशा में कदम बढ़ाना। कर्म को शब्द के निकट ले जाना और इनमें सामंजस्य स्थापित करना। तभी, विचार श्रोताओं के हृदय को छूने में सफल हो सकते हैं।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में जो भाषण हुए, उसके बारे में गाँधी जी ने क्यों कहा कि इन व्याख्यानों ने श्रोताओं के हृदय नहीं छुए। यह भी कहा कि यहाँ जो भाषण हुए उसके बारे में, लोगों की परीक्षा ली जाए और मैं निरीक्षक होऊँ तो निश्चित है कि ज्यादातर वक्ता फेल हो जाएँ। अलबत्ता गाँधी जी यह मानते थे कि वक्ता भाषण देने की कला में लगभग शिखर पर पहुँच गए हैं। वक्ता भाषण देने की कला में शिखर पर हैं, फिर भी फेल कैसे? गाँधी जी ने बताया कि 28 दिसंबर 1915 को राष्ट्रीय महासभा काँग्रेस के बम्बई (अब मुम्बई) में संपन्न तीसवें अधिवेशन में तमाम श्रोता केवल उन भाषणों से प्रभावित हुए, जो हिंदी में दिए गए थे। ध्यान दिलाया कि यह मुम्बई की बात है, बनारस की नहीं; जहाँ सभी लोग हिंदी बोलते हैं। प्रसंगवश, याद रखना होगा कि बनारस के सभी लोग हिंदी नहीं, भोजपुरी बोलते रहे हैं। हाँ, हिंदी समझ लेते होंगे।

अपने भाषण के आरंभ में ही गाँधी जी ने यह कहा था कि ‘अभी-अभी जो महिला भाषण देकर बैठी हैं, उनकी अद्भुत वाकशक्ति के प्रभाव में आकर आपलोग कृपया इस बात पर विश्वास न कर लें कि जो विश्वविद्यालय अभी तक पूरा बना और उठा भी नहीं है, वह कोई परिपूर्ण संस्था है और अभी जो विद्यार्थी यहाँ आए ही नहीं हैं, वे शिक्षा-संपादन करके यहाँ से एक महान साम्राज्य के नागरिक होकर निकल चुके हैं।’ इस वक्तव्य में दो बातें काबिलेगौर हैं। एक, वक्ता की वाक्शक्ति के असर में बातों पर विश्वास नहीं करने के लिए कहना। दो, अँग्रेजी हुकूमत को ‘महान साम्राज्य’ बताना।

अब प्रश्न उठता है कि वक्ताओं ने हिंदी में अपने विचार व्यक्त किए होते तो क्या श्रोताओं का हृदय छूने में पूर्णतया सफल होते? गाँधी जी के अनुसार क्या यह ‘पर्याप्त’ होता? कहना होगा कि श्रोताओं के हृदय छूने के लिए भाषा पहली सीढ़ी है, एकमात्र नहीं।

गाँधी जी के भाषण का एक हिस्सा भाषा के मुद्दा पर केंद्रित था, दूसरा काँग्रेस द्वारा पास स्वराज के प्रस्ताव पर। गाँधी जी को विश्वास था कि अखिल भारतीय काँग्रेस और मुस्लिम लीग अपना कर्तव्य पूरा करेंगी और कुछ-न-कुछ ठोस सुझावों के साथ सामने आएँगी। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि काँग्रेस और मुस्लिम लीग क्या-कुछ कर पाती हैं, इसमें मेरी उतनी दिलचस्पी नहीं है, जितनी इस बात में कि विद्यार्थी-जगत क्या करता है या जनता क्या करती है। काँग्रेस और मुस्लिम लीग की वनिस्पत विद्यार्थियों और किसानों को तवज्जो देना महत्त्वपूर्ण है। यहाँ गाँधी जी की आगामी नीति–स्वाधीनता संग्राम की अगुवाई के दौरान जिसे हक़ीक़त बननी थी, की झलक मिलती है। काँग्रेस की कमान गाँधी जी ने सँभाली, उससे पहले काँग्रेस बैरिस्टर, जमींदार सरीखे उच्च वर्ग के लोगों तक महदूद थी। गाँधी जी ने इसे किसानों-मजदूरों से जोड़ा। इन्होंने पूरी साफगोई से कहा कि ‘कोई भी कागजी कार्रवाई हमें स्वराज नहीं दे सकती।’ काँग्रेस का प्रस्ताव पास करना, कागजी कार्रवाई ही तो था। इसके मद्देनजर ‘ठोस सुझाव’ सामने लाना था, और अपना ‘कर्तव्य’ भी पूरा करना था। गाँधी जी का मतलब साफ था कि काँग्रेस कागजी कार्रवाई से आगे बढ़े। इन्होंने काँग्रेस अध्यक्ष से सहमति ज़ाहिर की कि स्वराज की बात सोचने के पहले हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।

किस दिशा में मशक्कत? किस मार्ग पर? क्या करना होगा काँग्रेस को, स्वराज की खातिर? गाँधी जी ने संकेत दिया था, विद्यार्थी और किसान क्या करते हैं, इसे महत्त्व देकर। इनके प्रति दिलचस्पी प्रगट कर। यह भी कहा कि ‘धुआँधार भाषण हमें स्वराज के योग्य नहीं बना सकते। वह तो हमारा आचरण है जो हमें उसके योग्य बनाएगा।’ कैसा होना चाहिए हमारा आचरण, कि हम स्वराज के काबिल बन सकें? गाँधी-चिंतन में आचरण पर सबसे ज्यादा जोर है। विचार और आचरण का समन्वय। विचार और कर्म की एकता।

स्वराज पाने के लिए आचरण को कसौटी बनाना, नितांत मौलिक बात थी। यह गाँधी जी का पक्ष था। एक मजबूत पक्ष।

स्वराज के सवाल के साथ गाँधी जी ने स्वच्छता का प्रश्न जोड़ा। इसके माध्यम से व्यक्तिगत आचरण और सामाजिक आचरण का सवाल भी उठाया। इन्होंने कहा कि ‘कल मैं विश्वनाथ के दर्शन के लिए गया था। उन गलियों में चलते हुए, मेरे मन में ख्याल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपर से इस मंदिर पर उतर पड़े और यदि उसे हम हिंदुओं के बारे में विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारे में कोई छोटी राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा? क्या यह एक महान मंदिर हमारे अपने आचरण की ओर उँगली नहीं उठाता? मैं यह बात एक हिंदू की तरह बड़े दर्द के साथ कह रहा हूँ। क्या यह कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मंदिर के आसपास की गलियाँ इतनी गंदी हों? उसके आसपास जो घर बने हुए हैं, वे बे-सिलसिले और चाहे जैसे हों। गलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और सँकरी हों। अगर हमारे मंदिर भी सादगी और सफाई के नमूने न हों तो हमारा स्वराज कैसा होगा?’

स्वराज का प्रश्न उठानेवाले लोगों की निगाहों से ऐसे मुद्दे बहुत दूर थे। पर गाँधी जी के हिसाब से ये तमाम मुद्दे स्वराज के प्राथमिक सवाल थे। गाँधी जी ने पूछा कि ‘चाहे खुशी से, चाहे लाचारी से अँग्रेजों का बोरिया-बिस्तर बँधते ही क्या हमारे मंदिर पवित्रता, स्वच्छता और शांति के धाम बन जाएँगे?’ वे मंदिर की सफाई तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने रेलगाड़ी के डिब्बे की गंदगी की तरफ भी ध्यान दिलाया। बकौल गाँधी जी ‘यह जानते हुए भी कि डिब्बे का फर्श अकसर सोने के काम में बरता जाता है, हम उस पर जहाँ-तहाँ थूकते रहते हैं। हम जरा भी नहीं सोचते कि हमें वहाँ क्या फेंकना चाहिए, क्या नहीं और नतीजा यह होता है कि सारा डिब्बा गंदगी का अवर्णनीय नमूना बन जाता है।’ नागरिक-कर्तव्य के इस सवाल के साथ गाँधी जी ने वर्गीय मनोवृत्ति के बारे में बताया कि ‘जिन्हें कुछ ऊँचे दर्जे का माना जाता है, वे अपने से कम भाग्यशाली अपने भाइयों के साथ डाँट-डपट का व्यवहार करते हैं।’ इतना ही नहीं, यह भी बताया कि विद्यार्थी भी ऐसा करते हैं। ‘वे अँग्रेजी बोल सकते हैं और नारफॉक जैकेटें पहने होते हैं और इसलिए अधिकार जता कर डिब्बे में घुस जाते हैं और बैठने की जगह ले लेते हैं।’ अँग्रेजी बोली और जैकेट विद्यार्थियों को अपने देश के सामान्य लोगों से कुछ दर्जा ऊपर होने का बोध कराता था! अँग्रेजी साम्राज्य की मुखालफत करने वाले विद्यार्थी का मानस स्वीकार कर चुका था–अँग्रेजी भाषा और उनकी पोशाक की श्रेष्ठता। इसी श्रेष्ठता के सहारे वे लोग सामान्य लोगों पर रौब गालिब करते थे।

दरभंगा के राजा सर रामेश्वर सिंह ने उद्घाटन समारोह के एक सत्र की सदारत की थी। अपने संबोधन में भारत की गरीबी पर प्रकाश डाला था। अन्य वक्ताओं ने भी गरीबी के सवाल पर जोर दिया था। इस पर गाँधी जी ने कहा कि जिस शामियाने में वायसराय द्वारा शिलान्यास-समारोह हो रहा था, वहाँ काफ़ी प्रदर्शन किया गया था। जड़ाऊ गहनों की ऐसी प्रदर्शनी थी, जिसे देखकर पेरिस के जौहरी की आँखें भी चौंधिया जातीं। जब मैं गहनों से लदे हुए उन उमरावों और भारत के लाखों गरीब आदमियों से मिलता हूँ तो मुझे लगता है, मैं इन अमीरों से कहूँ ‘जब तक आप अपने ये जेवरात नहीं उतार देते और उन्हें गरीबों की धरोहर मानकर नहीं चलते, तब तक भारत का कल्याण नहीं होगा।’ देशी राजवाड़ों के इस अश्लील प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए गाँधी जी ने कहा कि ‘मुझे यकीन है कि सम्राट अथवा लार्ड हार्डिंग, सम्राट के प्रति वास्तविक राजभक्ति दिखाने के लिए किसी का गहनों के संदूक उलटकर सिर से पाँव तक सजकर, आना जरूरी नहीं समझते।’ इन्होंने भारत के राजवाड़े, नवाब और जमींदारों द्वारा बनायी जा रही बड़ी इमारतों को लेकर दुःख ज़ाहिर किया, क्योंकि ‘ये किसानों से वसूले गए पैसों से बनता है’। जमींदारों, राजाओं और नवाबों की समृद्धि किसानों की कमाई पर टिकी होती है। तब देश में पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक लोग किसानी करते थे। गाँधी जी ने कहा कि ‘यदि हम इनके परिश्रम की सारी कमाई दूसरों को उठाकर ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज की कोई भी भावना हमारे मन में है।’

स्वराज का प्रस्ताव पास करने वालों और सभा-संगोष्ठियों में स्वराज का सवाल उठाने वालों से यह पूछना गौरतलब है। किसानों के परिश्रम की कमाई उठाकर कौन ले जाता था? साम्राज्यवादी शोषण-व्यवस्था और इसके अंदर काम कर रही सामंती संरचना। समारोह में मौजूद राजे-महाराजे और अमीर-उमराव इस संरचना के विशेष अंग थे। यह एक मूलभूत सवाल था, जिसे गाँधी जी ने उठाया। यह कहकर गाँधी जी स्वराज के प्रश्न से किसानों का सवाल संबद्ध कर रहे थे। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘हमें आजादी किसान के बिना नहीं मिल सकती। आजादी वकील और डॉक्टर या संपन्न जमींदारों के वश की बात नहीं है।’ आजादी के लिए किसानों को सबसे आवश्यक तबका बताना, भारतीय स्वाधीनता-आंदोलन के संदर्भ में, प्रस्थापना-परिवर्तन करने वाली बात थी। गाँधी जी ने किसानों से वकील, डॉक्टर या संपन्न जमींदारों में भेद किया। गाँधी के कथन में जमींदार के पहले ‘संपन्न’ शब्द का प्रयोग हुआ है। समाज वैज्ञानिकों ने सातवें-आठवें दशक में यह तथ्य पहचाना कि तमाम जमींदार एक कोटि में नहीं समाते। जमींदारों में भी स्तर भेद रहा है। इस भेद का प्रतिफल भी कई क्षेत्रों में दिखता है। वकील, डॉक्टर या संपन्न जमींदारों के वश में देश की आजादी नहीं है, यह कहकर गाँधी जी ने स्वाधीनता-आंदोलन की तत्कालीन संरचना पर सवाल खड़ा किया। इतिहास के उस दौर में यही तबके स्वतंत्रता-आंदोलन की अगुआई कर रहे थे। इन्हें आजादी के लिए अपर्याप्त कहकर गाँधी जी आंदोलन की प्रकृति में बदलाव लाने का सुझाव दे रहे थे। वे किसानों का जिक्र कर बहुसंख्यक आबादी को स्वाधीनता-आंदोलन से जोड़ने पर बल दे रहे थे। मुट्ठी भर वकील, डॉक्टर या संपन्न जमींदार–जो कई मायनों में साम्राज्यवादी व्यवस्था के मजबूत अंग भी थे। स्वाधीनता आंदोलन को कितने दूर तक ले जा सकते थे? देश की बहुसंख्यक जनता से कटकर देशहित का कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता, देश की आजादी का आंदोलन तो बिल्कुल नहीं। ब्रिटिश हुकूमत की सर्वाधिक मार इस बहुसंख्यक आम अवाम को झेलनी पड़ती थी। बगैर इनके शामिल हुए आंदोलन के सफल होने का सवाल ही नहीं था।

स्वाधीनता-आंदोलन के तत्कालीन नेतृत्व को आजादी के लिए अपर्याप्त कहने वाले गाँधी जी उस दौर तक अँग्रेजी सत्ता को देश के लिए घातक नहीं मानते थे। जो लोग उस हुकूमत को भगाना चाहते थे, वे देश की जनता को आंदोलन से जोड़ने की जरूरत नहीं समझ पाए थे। लिहाज़ा यह बात और भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। गाँधी जी ने पूरी साफ़गोई से कहा था कि ‘यदि मुझे इस बात का विश्वास हो जाए कि अँग्रेजों के रहते हुए इस देश का कदापि उद्धार न होगा, उन्हें यहाँ से निकाल ही देना चाहिए, तो उनसे अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहाँ से चलते होने की प्रार्थना करने में, मैं कभी आगा-पीछा न करूँगा और मुझे विश्वास है कि अपनी दृढ़ धारणा के समर्थन में मरने को भी तैयार रहूँगा, ऐसा मरण ही मेरी सम्मति में प्रतिष्ठा का मरण है।’

प्रसंगवश, गाँधी जी के अनन्य अनुयायी आचार्य जे.बी. कृपलानी ने अपने संस्मरण ‘गुलामी बापू की’ में लिखा है कि अकसर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप हिंसा में भरोसा रखने वाले हैं और गाँधी ठहरे परम अहिंसावादी! गाँधी जी ब्रिटिश राज्य में श्रद्धा रखने वाले हैं और आप उसका उच्छेद करने वाले। तो आपने उनका नेतृत्व किस प्रकार स्वीकार किया? जवाब में कृपलानी जी कहते हैं : मैंने इस आदमी में एक शक्ति देखी है। वह है या तो काम को अंत तक पहुँचाना या अपना अंत कर देना। इसलिए मैंने इनको अपना नेता स्वीकार किया है। दूसरे, उनमें सच्चाई है। आज वे अहिंसा का समर्थन करते हैं, परंतु जिस क्षण उनको यह समझ में आ जाएगा कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है, उसी समय वे हिंसा के रास्ते पर चल कर ऐसी उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं लड़ेगा। इस एक ही चीज ने मुझे उनके प्रति आकृष्ट किया है। इसीलिए मैं उनके साथ हूँ। हिंसा के विषय में तो मेरा विश्वास हो गया है कि बापू को हिंसा से डिगा देना, विचलित करना, एकदम असंभव है। उनको जिस क्षण यह लगा कि ब्रिटिश राज्य देश के कल्याण के लिए नहीं है, उसी समय उन्होंने उसके लिए ऐसे कठोर विशेषण प्रयुक्त किए हैं, जैसे लोकमान्य तिलक भी नहीं कर पाए थे। ब्रिटिश शासन को उन्होंने शैतानी राज्य कहा और वह भी इतने जोर से कि फिर तो पूरा देश उसको शैतान कहने लगा।

सवाल पैदा होता है कि अगर गाँधी जी को समझ में आता कि अहिंसा से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है और वे हिंसा की राह अपनाते तो क्या इसे पलायन कहा जाता? जवाब होगा नहीं। कारण कि यह न तो किसी सुविधा के लिए होता और न ही किसी वैचारिक ढुलमुनपन अथवा दुविधा के कारण। आचार्य कृपलानी ने इस काल्पनिक स्थिति के लिए भी कहा है कि ऐसी परिस्थिति में गाँधी जी जिस उग्रता से लड़ेंगे, वैसा दूसरा नहीं। यहाँ भी वे स्वयं के उत्सर्ग के लिए तैयार रहते। यहाँ नोट करने लायक है गाँधी-भावना। गाँधी अगर अहिंसा से हिंसा की राह पर जाते तो यह भी सत्य के प्रयोग का एक पड़ाव ही बनता। उनका समूचा जीवन सत्य तक पहुँचने का प्रयोग था। बहरहाल ऐसी कल्पना करने वाले आचार्य कृपलानी ने पूरी साफ़गोई से कहा है कि बापू को हिंसा से डिगा देना, विचलित करना, एकदम असंभव है। गाँधी का समूचा जीवन अहिंसा के प्रयोगों का पर्याय था। ये तमाम प्रयोग देश व दुनिया के कल्याण के लिए थे। इसमें पूरी मानवता की चिंता थी। एक नई सभ्यता गढ़ने की अकुलाहट का परिणाम थे ये सारे प्रयोग। इसमें किसी के शोषण के लिए गुंजाइश नहीं थी। यही वजह है, जैसा आचार्य कृपलानी ने भी बताया है कि, जिस क्षण गाँधी ने समझा ब्रिटिश राज देश के कल्याण के लिए नहीं है, उसी समय उन्होंने उसके लिए ऐसे कठोर विशेषण प्रयुक्त किए हैं, जैसे लोकमान्य तिलक भी नहीं कर पाए थे। गाँधी जी ने ब्रिटिश शासन को ‘शैतानी राज्य’ कहा और वह भी इतने जोर से कि फिर तो पूरा देश उसको शैतान कहने लगा। ब्रिटिश शासन के प्रति श्रद्धा रखनेवाले गाँधी उसे शैतान कहने लगे। इतनी मजबूती से कहने लगे कि देशभर ने इस पर भरोसा किया, रंचमात्र भी संदेह न कर, ब्रिटिश हुकूमत को शैतान कहा।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के भाषण में गाँधी जी ने स्पष्ट किया था कि अगर उन्हें यह समझ में आ जाए कि अँग्रेजों के रहते देश का उद्धार कतई नहीं होगा तो उनसे भारत से चले जाने हेतु प्रार्थना करने में बिल्कुल आगा-पीछा नहीं करूँगा। ऐसा ही किया भी। इसे समझते ही पूरी प्रतिबद्धता के साथ अँग्रेजी सत्ता को यह अहसास कराने में जुट गए कि उन्हें भारत से सात समुद्र पार चले जाना चाहिए। अपनी इस दृढ़ धारणा के समर्थन में मरने को तत्पर रहने की बात उन्होंने की थी। इस तरह के मरण को श्रेष्ठ भी बताया था। इस पर भी वे बिल्कुल सच्चे साबित हुए। उनके जीवन ने इस धारणा को पुष्ट किया। इसी ने आचार्य कृपलानी सरीखे अनेक लोगों के अंत:करण में गाँधी की अगुवाई स्वीकारने का भाव जगाया।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के दौरान जो माहौल बना था, उससे गाँधी जी का मन उद्विग्न था। इसका कारण था, स्थान-स्थान पर लगाई गई ख़ुफ़िया पुलिस। आयोजन में वायसराय शामिल हुए थे। उनकी सुरक्षा के मद्देनजर यह तैनाती हुई थी। गाँधी के मुताबिक इसका कारण था अविश्वास। भारतीय लोगों के प्रति शासकों में अविश्वास। अगर शासक और शासितों में विश्वास होता तो सुरक्षा के इन्तज़ाम नहीं होते। जगह-जगह ख़ुफ़िया पुलिस नहीं लगाई जाती। गाँधी इस अविश्वास का कारण पूछते हैं। इसकी वजहों पर विचार करते हैं। एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और परिणामस्वरूप सुरक्षा के लिए ख़ुफ़िया पुलिस की तैनाती गाँधी के हिसाब से मरणांतक दुःख है। वे कहते हैं कि ‘इस प्रकार मरणांतक दुःख भोगते हुए जीने की अपेक्षा क्या लार्ड हार्डिंग के लिए सचमुच ही मर जाना अधिक श्रेयस्कर नहीं है। परंतु एक बलशाली सम्राट के प्रतिनिधि इस प्रकार मर भी नहीं सकते। मृतक की भाँति जीना ही वे शायद जरूरी समझते हों।’ विद्यार्थियों की सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए गाँधी यह कह रहे थे। वे ही ऐसा कह सकते थे; सबकी मौजूदगी में। कारण कि उनका मन साफ था–पारे की तरह। सुरक्षा के ऐसे पुख्ता इन्तज़ाम के साथ जीना मृतक की तरह जीना है। फिर ऐसे जीवन का क्या मतलब? इस जीवन से श्रेयस्कर है सचमुच मर जाना। वायसराय लार्ड हार्डिंग के लिए सहजतापूर्वक गाँधी जी ने जो कहा, उसे सुनने के लिए मंच पर आसीन लोग तैयार थे? थोड़ी देर बाद भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा गया, उसका राब्ता इससे जुड़ता प्रतीत होता है।

गाँधी जी यह भी पूछते हैं कि ख़ुफ़िया पुलिस का जुआ हमारे सिर पर लादने का क्या कारण है? जवाब में इसके लिए अराजक दल को जिम्मेदार मानते हैं। गाँधी खुद को अराजक ही कहते हैं, ‘मैं खुद भी अराजक ही हूँ, पर दूसरे वर्ग का।’ इन दोनों अराजक वर्ग की विभाजक रेखा है हिंसा। गाँधी अराजक थे, अहिंसक अराजक। वे हिंसक अराजक दल की उत्पति का कारण मानते हैं, उतावलेपन का नशा। वे इस समूह को स्पष्टतया कहते हैं, ‘यदि भारत को अपने विजेताओं पर विजय प्राप्त करनी हो तो आपकी अराजकता के लिए यहाँ जगह नहीं है।’ कारण कि हिंसा कायरता का लक्षण है। हिंसा की पैदाइश की बड़ी वजह कायरता है। ईश्वर के प्रति अटूट आस्था वाले गाँधी हिंसा में भरोसा रखने वाले लोगों को कहते हैं, ‘यदि आपका ईश्वर पर विश्वास हो और यदि आप उसका भय मानते हों तो फिर आपको किसी से डरने का कोई कारण नहीं है; फिर चाहे वे राजा-महाराजा हो, वायसराय हों, ख़ुफ़िया पुलिस हों अथवा स्वयं सम्राट हों।’ गाँधी के मन में हिंसक अराजकतावादियों के स्वदेश-प्रेम के प्रति आदर-भाव था। गहरा सम्मान। उन्होंने कहा है कि ‘अराजकों के स्वदेश-प्रेम का मैं बड़ा आदर करता हूँ। वे जो स्वदेश के लिए आनन्दपूर्वक मरने के लिए प्रस्तुत रहते हैं, उनकी मैं इज्जत करता हूँ।’ गाँधी हिंसक अराजकतावादियों के स्वदेश-प्रेम का सम्मान करते थे। वतन के लिए खुशी-खुशी मरने वाले जज्बे की भी इज्जत करते थे। फिर भी उनके मार्ग से घोर असहमति रखते थे।

गाँधी जी ने भाषण में उन लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या मृत्युदंड प्राप्त होता है उसे किसी भी प्रकार गौरवपूर्ण माना जा सकता है?’ वे स्वयं जवाब भी देते हैं–‘नहीं।’ वजह बताते हैं कि ‘कोई धर्मग्रंथ ऐसे उपाय का अवलंबन करने की अनुमति नहीं देता।’ सवाल उठता है कि कोई धर्मग्रंथ इसकी इजाज़त देता तो क्या स्वीकार करते? गाँधी की मनोभूमि से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इसका सहज जवाब दे सकता है; वे तब भी इसे हरगिज़ पसंद नहीं करते। वे हिंसा कतई स्वीकार नहीं कर सकते थे। गाँधी जो सभ्यता निर्मित करना चाहते थे, उसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं थी।

गाँधी के सपनों की दुनिया में हिंसा के लिए स्थान नहीं था। भले ही वह हिंसा किसी के भी प्रति हो। किसी पर, किसी तरह की, हिंसा गाँधी को स्वीकार नहीं। दुश्मन के प्रति भी हिंसा मंजूर नहीं। यह हिंसा की संस्कृति को ख़ारिज कर मनुष्यता पर आधारित संस्कृति गढ़ने की आकांक्षा का परिणाम है।

गाँधी जी ने इस भाषण में हिंसा की राह पर चलनेवालों को कायर बताया। पूरी साफ़गोई से कहा कि ‘बम फेंकने वाला गुप्त रूप से षड्यंत्र करता है। वह बाहर निकलने से डरता रहता है और पकड़े जाने पर अयोग्य और अतिरिक्त उत्साह का प्रायश्चित भोगता है।’ अपने विचार के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता और उसके लिए मरने को प्रतिष्ठा का मरण कहने वाले गाँधी हिंसक अराजक वर्ग की राह पसंद क्यों नहीं करते थे? जबकि ‘हिंसक अराजक वर्ग’ के लोग भी अपने विचार के समर्थन में मरने के लिए तत्पर रहते थे। आखिरकार उनका मरण ‘प्रतिष्ठा का मरण’ क्यों नहीं? पूछा जा सकता है कि बम फेंकनेवाले अगर गुप्त रूप से षड्यंत्र नहीं करें और बाहर निकलने से डरे भी नहीं, तो क्या गाँधी जी इसे स्वीकार करते? हरगिज़ नहीं; क्योंकि बम से होनेवाली हिंसा बीच की दीवार है। गाँधी जी अहिंसा की राह हरगिज़ नहीं छोड़ते। अहिंसा गाँधी के लिए साधन मात्र नहीं है। अहिंसा साध्य है और कसौटी भी। अहिंसा के प्रतिमान पर गाँधी घटनाओं को परखते हैं और स्वयं को भी।

हिंसा की राह पर चलने वालों को कायर बताना काबिलेगौर है। यह कहकर गाँधी जी ने आम समझ का विलोम प्रस्तावित किया है। हमारी सभ्यता-संस्कृति का विकास जिस दिशा में हुआ है, उससे यह मिथ्या धारणा पुष्ट हुई है कि हिंसा ताकत का पर्याय है; कि हिंसा का मार्ग मजबूती का मिसाल है; कि हिंसा करने वाले पराक्रमी होते हैं। गाँधी जी की चिंता और चिंतन के केंद्र में, हिंसा को शौर्य माननेवाला, यह झूठा-सच रहा है। वे आजीवन अपने शब्द और कर्म के जरिये इसका प्रतिलोम रचते रहे हैं। यह समझाते रहे हैं कि अहिंसा वीरों का मार्ग है; कि अहिंसा मजबूरी में अपनाया जानेवाला साधन नहीं है; कि अहिंसा की राह पर पराक्रमी और निडर लोग ही चल सकते हैं। अहिंसक संस्कृति की रचना ही मनुष्यता का लक्ष्य होनी चाहिए। गाँधी जैसी शख्सियत के लिए यह बेहद चिंताजनक बात थी कि मनुष्य ऐसी संस्कृति निर्मित हिंसा को तवज्जो देने वाली, करने की दिशा में अग्रसर हैं। मनुष्य मात्र की भलाई अहिंसक संस्कृति में है, न कि हिंसक। गाँधी हिंसा के उत्स की असली वजह कायरता को भी समाप्त करना चाहते थे। भय के कारण ही हिंसा पनपती और पल्लवित-पुष्पित होती है। निहायत भिन्न परिस्थितियों में भी हिंसा के उत्स का कारण एक ही होता है भय। भले ही वह भिन्न-भिन्न तरह का भय हो। गाँधी अभय-संस्कृति रचना चाहते थे; जिसमें कोई किसी से भयभीत न हो। जो क्रांतिकारी (गाँधी जिन्हें ‘हिंसक अराजक वर्ग’ संबोधित करते हैं) हिंसा की राह से आजादी पाना चाहते थे, गाँधी के मुताबिक वे पवित्र साध्य के लिए अपवित्र साधन अपना रहे थे। गाँधी जैसे व्यक्तित्व के लिए सोचने की बात यह भी थी कि हिंसा के जरिये हासिल स्वराज में हिंसा के लिए जगह रह जाएगी। जो आजादी हिंसा से मिलेगी, उससे हिंसा पूर्णतः समाप्त नहीं होगी। हिंसा से हासिल स्वराज से अहिंसक संस्कृति के पनपने के लिए आवश्यक खाद-पानी मुमकिन नहीं है। गाँधी अहिंसक संस्कृति विकसित होना देखना चाहते थे। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह में भी इससे लेशमात्र विलग नहीं हुए थे; ज़ाहिर है, यहाँ भी विचलन संभव नहीं था।

गाँधी जी अपने भाषण में, बंग-भंग में, हिंसक आंदोलनकारियों के दावे की चर्चा कर रहे थे। ऐन तभी मंच पर बैठी एनी बेसेंट ने हस्तक्षेप करते हुए भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहा। यह चिंतनपूर्ण भाषण जिस दिशा में बढ़ रहा था, वह श्रीमती बेसेंट को नागवार गुजरा। क्या उन्हें हिंसक आंदोलनकारियों की चर्चा उचित नहीं जान पड़ी? एनी बेसेंट की तरह गाँधी भी अहिंसा के प्रतिबद्ध समर्थक थे। गाँधी की जो छवि बनी थी, उसे दक्षिण अफ्रीका में उनकी भूमिका ने गढ़ा था। बेसेंट इससे वाकिफ़ न हों, यह मानने की बात नहीं। ज़ाहिर है वे हिंसा का समर्थन नहीं करेंगे, इस तथ्य को भी एनी बेसेंट समझती होंगी। फिर किस बात ने प्रेरित किया कि वे गाँधी का भाषण शीघ्र समाप्त करने के लिए कहें।

निश्चय ही वह बात थी, हिंसक आंदोलनकारियों की चर्चा के पूर्व की बात; जिसमें वे देश का उद्धार न होने की समझ आने पर, अँग्रेजों से बोरिया-बिस्तर समेटकर जाने के लिए कहने और इसके लिए मरने को भी तत्पर रहने को कह रहे थे। साथ ही हिंसक आंदोलनकारियों के स्वदेश प्रेम और इसके लिए मृत्यु को गले लगाने के प्रति सम्मान की चर्चा। युवजनों के बीच सार्वजनिक सभा में ऐसी बातें कहने-सुनने से वाकिफ़ नहीं था तत्कालीन नेतृत्वकारी तबका। वह भी ऐसे आयोजन में जिसमें ब्रिटिश-सत्ता के प्रतिनिधि शिरकत कर रहे हों! यहाँ तक पहुँचकर गाँधी के भाषण की दिशा साफ हो चुकी थी। बेसेंट सरीखी प्रबुद्ध शख्सियत इसे समझने में चूक नहीं सकतीं!

बंग-भंग के संबंध में हिंसक आंदोलनकारियों के दावे की चर्चा गाँधी जी पहली दफे कर रहे हों, ऐसा नहीं है। उन्होंने बताया कि ये बातें मिस्टर लॉयन्स की अध्यक्षता में भी कह चुका हूँ। श्रीमती बेसेंट ने गाँधी जी को जो सुझाव दिया, उसका कारण गाँधी जी ने क्या समझा? उन्होंने समझा कि श्रीमती बेसेंट भारत से बहुत अधिक प्रेम करती हैं और वे समझती हैं कि युवकों के सामने इस प्रकार की स्पष्ट बातें कहकर मैं अनुचित काम कर रहा हूँ।

गाँधी जी बेसेंट की इस धारणा से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते थे। वे इसकी वजह मानते थे, परस्पर अविश्वास। ब्रिटिश सत्ता और भारतवासी एक-दूसरे के प्रति विश्वास के जोड़ से नहीं बँधे थे। गाँधी जी अपना कर्तव्य मानते थे, दोनों के भीतर परस्पर प्रीति और विश्वास पैदा करना। बहुतेरे लोग घर की बैठक में ऐसी बातें भले ही करते हों, लेकिन सार्वजनिक तौर पर इससे परहेज करते थे। गाँधी जी इसे दायित्वहीन मानते थे। वे खुले तौर पर, पूरी स्पष्टता से, ऐसी बातों की चर्चा श्रेयस्कर मानते थे। वे मानते थे कि सत्ता चलाने वालों से जो भी परेशानी हो, उसे साफ-साफ शब्दों में कहना चाहिए और इसके नतीजा स्वरूप जो कष्ट मिले, उसे भोगने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। लेकिन उन्हें गाली नहीं देनी चाहिए।

अँग्रेजी साम्राज्य ने अपनी हुकूमत चलाने के लिए जिस संरचना का निर्माण किया था, उसके मजबूत आधार-स्तंभ थे, सिविल-सर्वेंट। भारतीय जनता पर होने वाले अत्याचार और शोषण के एक अहम उपकरण भी थे सिविल सर्वेंट। एक बार गाँधी जी से एक सिविल सर्वेंट की मुलाकात हुई। उसने पूछा कि, ‘क्या आपका भी ऐसा ही ख्याल है कि हम सभी सिविल-सर्विस वाले बुरे होते हैं और जिन पर शासन करने के लिए हम यहाँ आते हैं, उन पर हम केवल अत्याचार ही करना चाहते हैं?’ गाँधी जी ने नाइत्तेफाकी ज़ाहिर की। इनकी असहमति जानने के बाद उस सिविल-सर्वेंट ने आग्रह किया कि जब कभी ‘मौका मिले, आप हम अभागे सिविल-सर्वेंटों के पक्ष में लोगों के सामने दो शब्द कहने की कृपा करें।’ गाँधी ने इस भाषण में उसके आग्रह पर अमल किया। उन्होंने कहा कि ‘इंडियन सिविल के बहुत से लोग निःसंदेह उद्धृत, अत्याचार प्रिय और अविवेकी होते हैं। इसी तरह के और कितने ही विशेषण उन्हें दिए जा सकते हैं।’ परंतु इसके बाद जो विश्लेषण इन्होंने किया, मौजूद जनता ने उससे असहमति ज़ाहिर की।

गाँधी जी का मानना था कि ‘कुछ वर्षों तक हमारे देश में रहकर वे और भी ओछी मनोवृत्ति के बन जाते हैं।’ इसका विवेचन करते हुए, इन्होंने इसरार किया कि हमारे देश में आने के पहले यदि वे सभ्य और सत्पुरुष थे, यहाँ आकर यदि वे नीति-भ्रष्ट हो गए तो क्या इसका हमारे ही चरित्र का प्रतिबिंब मानना चाहिए।

श्रोता इससे सहमत नहीं थे। गाँधी जी ने फिर दोहराया कि ‘आपलोग खुद ही विचार करें कि एक मनुष्य, जो कल तक भला आदमी था, मेरे साथ रहने पर खराब हो जाए तो उसके इस अधःपतन के लिए कौन उत्तरदायी होगा? वह या मैं?’ सभी सिविल सर्वेंटों को गलत मानना अनुचित है; साथ ही इनके अधःपतन के लिए भारतवासियों को दोषी ठहराना भी उचित नहीं। जिस सिविल-सर्वेंट ने गाँधी जी से, पक्ष में दो शब्द बोलने के लिए, निवेदन किया था; मुमकिन है, वह व्यक्तिगत तौर पर भला व्यक्ति हो। लेकिन जिस साम्राज्य की हुकूमत और हिफ़ाज़त के लिए इस पद का सृजन किया गया था, उसमें भारतवासियों के प्रति अन्याय होना लाज़िमी था। सिविल-सर्वेंट ब्रिटिश सत्ता के नुमाइंदे थे, भारतीय जनता के नहीं। वे अँग्रेजी साम्राज्य के हितों की रक्षा के लिए थे, न कि भारतवासियों की भलाई के लिए। ‘अभागे’ तो वे कतई नहीं थे। सिविल-सर्वेंट जिस मशीन के पूर्जा के तौर पर काम कर रहे थे, पूरी मशीनरी भारतवासियों का दोहन-शोषण कर ‘अभागा’ बनाने का काम कर रही थी।

भाषण समापन के पहले गाँधी जी ने स्वराज-प्राप्ति के संबंध में जो बातें कहीं, वह काबिलेगौर है। उन्होंने कहा कि ‘यदि किसी दिन हमें स्वराज मिलेगा तो वह अपने ही पुरुषार्थ से मिलेगा। वह दान के रूप में कदापि नहीं मिलने का।’ स्वराज-आंदोलन के संदर्भ में यह प्रस्थापना-परिवर्तन करने वाली बात थी। इससे साफ ज़ाहिर होता था कि स्वराज के लिए ब्रिटिश हुकूमत पर निर्भर रहना उचित नहीं।

अगर भारतवासी अपना पुरुषार्थ-प्रदर्शन नहीं करेंगे तो स्वराज दूर की कौड़ी साबित होगी। गाँधी जी ने ब्रिटिश-साम्राज्य के इतिहास की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि ‘ब्रिटिश-साम्राज्य चाहे जितना स्वातंत्रय प्रेमी हो, फिर भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए, स्वयं उद्योग न करने वालों के, वह कभी स्वतंत्रता देने वाला नहीं है।’ गाँधी जी बोअर-युद्ध का हवाला देकर अपनी बात पुष्ट कर रहे थे, कि श्रीमती बेसेंट के साथ कई बड़े लोग चले गए और भाषण बाधित हो गया।


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