तुलसी और भक्ति
- 1 April, 1953
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- 1 April, 1953
तुलसी और भक्ति
तुलसीदास भारतीयता के प्रतीक हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन, धर्म और साहित्य की जो प्रतिष्ठा अपनी रचनाओं में की है, वह किसी साहित्यकार द्वारा संभव नहीं हो सकी। उन्होंने दर्शन की अनुभूति धर्म को प्रदान की और धर्म की चेतना साहित्य को दी जो वास्तविक मानवता के स्पंदन से चिरस्थाई हो गया। इस प्रकार तुलसीदास ने दर्शन, धर्म और साहित्य को समाज की श्रेष्ठतम प्रेरणाओं का प्रतीक बना दिया है।
तुलसीदास ने दर्शन और धर्म के संधि में भक्ति का रूप संवारने की चरम प्रतिभा प्रदर्शित की है। भक्ति के सहारे एक ओर उन्होंने विशिष्टाद्वैत के पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामिन् और अर्चावतार की मान्यताओं को बल दिया और दूसरी ओर उन्होंने शांडिल्य भक्ति-सूत्र और नारद भक्ति-सूत्र की आसक्तियों में हृदय की प्रवृत्तियों को इंद्रियों के विष से मुक्त किया। इस भाँति उन्होंने दर्शन की गंभीरता और नीरसता को धर्म के विश्वासों से जोड़ कर जीवन का अंग बना दिया। और इस कार्य के लिए भक्ति को ही उन्होंने सबसे अधिक महत्त्व प्रदान किया।
तुलसीदास की भक्ति एक विशिष्ट कोटि की है। उन्होंने भक्ति का रूप स्थिर करने में बड़ी सतर्कता से काम लिया है। उनके पूर्व संत कबीर दास ने भक्ति की व्याख्या में मानसिक प्रेम की प्रधानता देते हुए समस्त आचारों और कर्मकांडों का खंडन किया था और वेद-पुराणों की निंदा की थी। तुलसीदास ने इस ओर संकेत भी किया है :–
साखी सबदी दोहरा कहि किहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निन्दहिं वेद-पुरान॥
संत संप्रदाय में भक्ति के लिए मूर्ति और अवतार सहायक नहीं, बाधक थे। इस संप्रदाय ने इन्हें माया जनित ही कहा है। उसमें केवल ‘राम’ को ही ब्रह्म मान गया है, राम के अवतार को नहीं। इस वातावरण में…जनता के इस अवतार विरुद्ध ब्रह्म विवेक में तुलसीदास को वैष्णव भक्ति के साथ ब्रह्म के साथ अवतार को भी श्रद्धा का केंद्र बनाना था। तत्कालीन वातावरण में अवतार के प्रति उठाए गए संदेहों को ही तुलसीदास ने संवादों के प्राथमिक तर्कों के रूप में उपस्थित किया है एवं तत्कालीन संशयों को दूर करने का प्रयत्न किया है। वे लिखते हैं :–
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरज करै सुनि सोई।
कथा आलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं उस जानी।
राम कथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन मांही।
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।
कलप भेद हरि चरित सोहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाये।
करिअ संसय अस उर आनी। सुनिय कथा सादर रति मानी।
राम अनंत अनंत गुन, अमित कथा विस्तार।
सुनि आचरजु न माहिहहिं, जिनके विमल विचार॥
संशयों को दूर करने के अनंतर उन्होंने संत संप्रदाय के स्वर में ही भरद्वाज से याज्ञवल्क्य के प्रति प्रश्न कराया है :–
राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा।
संतत जपत संभु अविनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी।
रामु कवन प्रभु पूछीं तोहीं। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही।
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्हकर चरित विदित संसारा।
नारि विरह दुख लहेउ अपारा। भयेउ रोषु रन रावन मारा।
प्रभु सोई राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्य धाम सर्वज्ञ तुम्ह, कहहु विवेकु विचारि॥
इसी प्रकार सती ने भी शंकर से प्रश्न किया :–
ब्रह्म जो व्यापक विरज अज्ज, अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर, जोहि न जानत वेद॥
यही संदेह गरुड़ को भी हुआ :–
मोहि भयेउ अति मोह, प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।
चिदानंद सन्दोह, रामु विकल कारन कवन॥
किंतु तुलसीदास ने इन संदेहों का निराकरण करते हुए ब्रह्म राम के अवतार लेने के अनेक मर्यादा संपन्न एवं श्रुति सम्मत कारण दिखलाए और राम-जन्म होने पर उन्होंने उत्साह और आनंद से कह दिया : …
विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार,
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गोपार॥
इस इच्छा शरीर का कारण भी उन्होंने दे दिया है : …
व्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुन विगत विनोद,
सो अज प्रेम भगति बस, कौसल्या के गोद।
इस भाँति अपने युग के समस्त संशयों और तर्कों को दूर करने एवं दर्शन और धर्म को जीवन में उतारने का एक मात्र अवलंब तुलसी दास ने भक्ति को ही माना है, इसी भक्ति से उन्होंने ब्रह्म और अवतार में एकरूपता की है।
तुलसीदास ने भक्ति के संबंध में अपने दृष्टिकोण को अत्यंत व्यापक और व्यावहारिक बनाया है। उन्होंने शताब्दियों की विचारधारा को गतिशील बनाते हुए भी उसमें नवीन प्रेरणाओं की तरंगें उठाई हैं। इस भाँति वे प्राचीन मान्यताओं और युग संभूत व्यावहारिक प्रयोगों के बीच सुदृढ़ सेतु के समान हैं। युग की प्रवृत्तियों के भीतर उनकी दृष्टि इतनी गहरी थी कि तुलसीदास की प्रयोग पटुता आज भी मानवता के मनोविज्ञान से मेल खाती है, और तुलसीदास लगभग चार सौ वर्ष बाद भी हमारे सामने एक अग्रगामी सामाजिक और धार्मिक नियामक के रूप में दृष्टि आते हैं।
रामचरित मानस में जिस भक्ति का प्रतिपादन किया गया है वह एक ओर तो शास्त्रीय नवधा भक्ति है। जिसमें साधना की समष्टि है, और दूसरी ओर शबरी के प्रति कही गई सहज भक्ति है जो सुगम साध्य आचरण कुशलता के फलस्वरूप है।
तुलसीदास ने शास्त्रीय भक्ति : जिसे नवधा भक्ति कहा गया है : भगवान श्री राम के मुख से लक्ष्मण के प्रति अरण्य कांड में कहलाई है। श्री राम ने कहा : …
जाते वेगि द्रवों में भाई, सो मम भगति भगत सुखदाई,
तो सुतंत्र अवलंब न आना, तेहि आधीन ग्यान विग्याना,
श्रवनादिक नव भगति दृढ़ाही, मम लीला रति अति मन माँहीं,
यह भगति उन लोगों के लिए सुगम है जिनके संबंध में भगवान श्री राम ने कहा है कि…
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा, सब मोहिं कह जानैं दृढ़ सेवा,
मम गुन गावत पुलक सरीरा, गदगद गिरा नयन बह नीरा,
काम आदि मद दंभ न जाके, तात निरंतर बस में ताके।
बचन कर्म मन मोहिं गति, भजनु करहिं नि: काम,
तिन्ह के हृदय कमल महुँ, करों सदा विश्राम॥
संसार की परिस्थियों में काम, मद, दंभ आदि का त्याग करना अत्यंत कठिन है, यह तो उन्हीं संतों के द्वारा संभव है, जिन्होंने अपने जीवन को सदैव सत्संग में व्यतीत किया है, और अभ्यास पूर्वक पवित्र जीवन की साधना की है, तुलसीदास इस सत्य से और मनुष्य स्वभाव से परिचित थे। अत: उन्होंने इस नवधा भक्ति से अलग ऐसी सहज भक्ति की भी चर्चा की है, जो साधारण व्यक्तियों द्वारा भी साध्य हो सकती है, यह भक्ति उन्होंने भगवान श्री राम के मुख से शबरी के साथ वार्तालाप करते हुए कहलाई है। और इस भाँति उन्होंने एक नवीन नवधा भक्ति का प्रतिपादन किया है :–
यह अवतरण कुछ बड़ा है :–
नवधा भक्ति कहीं तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।
प्रथम भगति संतन कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करै कपट ताजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजनु सो वेद प्रकासा।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।
सातवं सम मोहिं मय जग देखा। मोते संत अधिक कर लेखा।
आठवं जथा लाभ संतोषा। सपनेहु नहिं देखे पर दोषा।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।
संतों का संग, प्रभु के कथा प्रसंग में प्रेम, गुरु पद सेवा, प्रभु-गुणगान, मंत्रजाप, सज्जन-धर्म आचरण, संतों को प्रभु के समान समझना, यथा लाभ संतोष, छलहीन जीवन जिसमें भगवान पर विश्वास हो, यही नवधा भक्ति है जो सरलता से साधारण व्यक्ति द्वारा भी अपनाई जा सकती है। शबरी के प्रति यह भक्ति कही गई थी, इससे यह संकेत भी मिलता है कि समाज के निम्न और साधारण स्तर के व्यक्तियों द्वारा भी यह भक्ति प्रयत्न सुलभ है। तुलसीदास की भक्ति के प्रति यह दृष्टि उन आचार्यों को संकीर्णता से मुक्त करती है जो भक्ति को वर्ग की संपत्ति समझते रहे। तुलसी ने जन मनोविज्ञान की अमर संपत्ति अपने ग्रंथ मानस द्वारा भेंट की है।
ज्ञान-मार्ग, कर्म-मार्ग और भक्ति-मार्ग में उन्होंने भक्ति को ही श्रेष्ठता प्रदान की है। मानस के उत्तर कांड में उन्होंने यद्यपि ज्ञान और भक्ति दोनों को ही भव-संभव-खेद को हरण करने में सक्षम समझा है तथापि ज्ञान से अधिक महत्त्व उन्होंने भक्ति को ही दिया है। ज्ञान-मार्ग को उन्होंने कृपाण की धार के समान तीक्ष्ण और संकीर्ण मान कर उस पर चलने की कठिनाई की ओर लक्ष्य किया है। भक्ति-मार्ग तो राजमार्ग है जिस पर चलने में किसी प्रकार भी कठिनाई नहीं होती। राम को भी ज्ञानी पुत्र से अधिक भक्त पुत्र प्रिय है। इसी कारण तुलसीदास ने अपने समस्त ग्रंथों में अपनी साधना का रूप भक्ति के अंतर्गत ही रखा है। विनय पत्रिका में उन्होंने लिखा है :–
भरोसो जाहि दूसरो सो करो।
मोको तो राम को नाम कलप तरु कलि कल्यान करो।
करम उपासन ग्यान वेद मत सो सब भाँति खरो।
मोहिं तो सावन के अंधहिं ज्यों सूझत रंग हरो॥
तुलसीदास की भक्ति प्रतिपादन शैली में एक बात और है। अन्य संत भक्तों ने तो भक्ति को उपदेश और चेतावनी के रूप में प्रतिपादित किया है। तुलसीदास ने अपने जीवन के महान सिद्धांत भक्ति को अपने प्रिय ग्रंथ रामचरित मानस के पात्रों के जीवन में प्रतिफलित किया है। यह तो स्पष्ट है कि उन्होंने रामचरित मानस की रचना लोक शिक्षा का उद्देश्य लेकर ही की थी। अत: रामचरित मानस में प्रतिपादित भक्ति भी लोकशिक्षा से अनुप्राणित होती हुई ज्ञात होती है। उनकी रचनाओं में प्राचीन शास्त्रों के प्रति बड़ी आस्था थी। उनका रामचरित मानस ही नाना पुराण निगमागम सम्मत है। अत: उन्होंने वैष्णव धर्म को नवधा भक्ति का ही लोक शिक्षा के अंतर्गत लाने का प्रयत्न किया है। यह नवधा भक्ति अपनी संपूर्ण विशेषताओं में रामचरित मानस के पात्रों की अभिव्यक्ति बन गई है। रामचरित मानस में वर्णित अनेक पात्र नवधा भक्ति के विविध अंगों के प्रतीक बन कर चित्रित हुए हैं। विस्तारभय से मैं मानस के तत्तसंबंधी प्रसंगों के उद्धरण न देकर केवल भक्ति के विविध अंगों से उनकी संगति का निर्देश करूँगा। नवधा भक्ति के अंग हैं : श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन। भक्ति के अंग के अंतर्गत अनेक पात्र भी आ जाते हैं किंतु मैं विशिष्ट पात्रों का ही उल्लेख करूँगा। श्रवण के प्रतीक हैं जनक, कीर्तन के प्रतीक हैं सुतीक्ष्ण, स्मरण के प्रतीक हैं शिव, पाद-सेवन के प्रतीक हैं भरत, अर्चन के प्रतीक हैं लक्ष्मण, वंदन के प्रतीक हैं निषाद, दास्य के प्रतीक हैं हनुमान, सख्य के प्रतीक हैं विभीषण और आत्म-निवेदन के प्रतीक स्वरूप में हैं सीता। इन विविध पात्रों की भक्ति राम के चरणों में समान रूप से है किंतु उनकी दृष्टि में भेद है। यही भेद महाकवि तुलसी ने विविध पात्रों की मनोगत रूप-रेखा में रख कर हमारे समक्ष नवधा भक्ति के प्रतीकों का रूप उपस्थित किया है।
तुलसीदास की भक्ति की व्याख्या में एक नवीन मानस की रचना संभव है तथापि मैं इस समय इतना ही कहूँगा कि तुलसीदास ने भक्ति को जीवन के मानसिक रोंगों की अमोघ औषधि मानकर उसका व्यावहारिक एवं सुगम रूप उपस्थित किया है। मानस के पात्रों में भक्ति को सहज साध्य मान कर जहाँ उन्होंने लोक शिक्षा का निर्वाह किया है वहाँ उन्होंने अपने युग की संशयग्रस्त जनता को धर्म के सुदृढ़ पथ पर आरूढ़ करा दिया है। परंपरा और प्रयोग का इतना सुंदर समन्वय किसी भी कवि और संत में नहीं है। प्राचीन, वर्तमान और भविष्य में मानव के विकार की, उसके कल्याणमय जीवन की…इतनी सुंदर स्वस्थ संवेदना भक्ति काल की चिरंतन प्रेरणा है।
Image Courtesy: Omar Khan, Paperjewels.org
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