कैदी की खेती
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- 1 April, 1953
कैदी की खेती
हरिप्रसन्न कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था या नहीं, इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया जा सकता। पर वह ऐसी बातें तो जरूर ही किया करता था, जो तिलमिला देने वाली थीं। फिर जब बिना किसी प्रमाण और बिना किसी मुकदमे के उसे जेल में रख दिया गया तब भी किसी को इस बात का आश्चर्य नहीं हुआ। न इसके लिए सरकार की सराहना की गई और न निंदा ही हुई। यह कुछ वैसा ही हुआ जैसा रोज हो जाया करता है। इस बात के लिए अपना परेशान दिमाग लगाने को कोई तैयार नहीं था। जो हुआ, जैसे एकदम स्वाभाविक था; जिस तरह की निरुद्देश्य कविताएँ हुआ करती हैं, या कला केवल कला के लिए रहती है!
लोगों की बात और है, पर जब हरिप्रसन्न से मिलने के लिए उसकी स्त्री जेल में गई, तो उसके आँसू किसी प्रकार रुकते नहीं थे। उसके होठ थरथरा रहे थे और आँखों से लगातार आँसू की धारा बह रही थी। वह कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन घुमड़ती हुई रुलाई के कारण उसके मुँह से बोल ही नहीं फूटते थे।
फिर भी सरला के आँसू जो बोल रहे थे उसे हरिप्रसन्न की आँखें सुन रही थीं। उसने उसके सिर पर हाथ फेरा और प्यार भरे शब्दों में कहा–“तुम फिक्र क्यों करती हो? दिहात चली जाओ। वहाँ अपनी जमीन है। उस दस एकड़ जमीन में अगर जमकर खेती की जाए, तो पाँच आदमी को खिलाकर भी तुम खा सकती हो। इसके लिए चिंता क्यों?”
सरला ने बड़ी बड़ी आँखों से हरिप्रसन्न की ओर देखा। उसकी पलकों में आँसू लिपटे हुए थे। उन आँखों में कुछ समाधान भी था और कुछ प्रश्न भी था। पर जहाँ तक बोलने का सवाल है, वह फिर भी कुछ बोल न सकी।
“तो तुम दिहात में जा रही हो न? अपने घर?”
धीरे से सरला ने सिर हिलाया, पर बोल नहीं पाई।
हरिप्रसन्न उससे कुछ खेती की बातें करता रहा, जिस खेती के बारे में वह स्वयं भी जानकारी नहीं रखता था। उस समय ऐसा भी नहीं लगता था कि सरला उसकी बातें सुन रही है। उसकी आँखों से आँसू निकलते और चिकने गाल पर फिसल जाते। जेल का गर्म फर्श जैसे उसे टप-टप पी जाता।
कुछ देर के बाद, जब समय हो गया, सरला वहाँ से चली गई। जाते समय तक वह रो रही थी। उसकी आँखों में आँसू भरे थे और गले में हिचकियाँ।
जाते समय तक सरला एक शब्द भी नहीं बोल सकी। सरला के उस मौन के कुहरे में हरिप्रसन्न का मन घिरा रहा। वह कुछ कर ही क्या सकता था? केवल सोच सकता था। यद्यपि मार्क्सवाद में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है, पर वह उन्मन बना रहा, सोचता ही रहा।
उसके कई दिनों के पश्चात् हरिप्रसन्न को सरला का एक पत्र मिला। उस पत्र में सरला ने लिखा था कि गाँव में तो आ गई हूँ, पर अपनी धरती ने पच्चीस साल से हल का मुँह भी नहीं देखा है। सारी जमीन वास्तविकता के समान कठोर हो गई है और पत्थर के समान निर्मम। इस जमीन में किस तरह खेती करने को कहते हो? जुताई कराने के लिए पैसे भी तो नहीं!…
उस पत्र के उत्तर में हरिप्रसन्न ने लिखा था कि तुम्हें उन खेतों को जुतवाने की जरूरत नहीं। उसके अंदर ही तो सब कुछ है। हल कदापि न जुतवाना।
हरिप्रसन्न का पत्र लंबा था, पर उस पत्र का आशय यही था।
इस पत्र के उत्तर में सरला ने लिखा था–अब तो यहाँ भी पुलिस से छुटकारा नहीं। एक सप्ताह हो गए, पुलिस ने हमारे खेत में घेरा डाल दिया है। करीब तीन, साढ़े तीन फुट तक गहरी मिट्टी खोद दी गई है। तमाम मिट्टी इधर से उधर कर दी गई। आज सवेरे मालूम हुआ कि पुलिस वाले घेरा उठा रहे हैं। शायद वे चले जाएँगे। क्या तुमने उस जमीन में कुछ छिपा लिया था?
हरिप्रसन्न ने इसके उत्तर में लिखा कि जमीन में छिपाने के लायक मेरे पास रखा ही क्या है? पुलिस वालों ने खेत तैयार कर दिया। अब उसमें बीज डाल दो। बरसात आ रही है।