जिम्मेदार कौन
- 1 April, 2025
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- 1 April, 2025
जिम्मेदार कौन
सुदर्शन सहरावत सड़क के किनारे ठेली पर सब्जी बेच रहे थे। उसने सिर पर साफ़ा लपेट आँखों पर चश्मा चढ़ा लिया था। काफ़ी हद तक अपनी पहचान छिपा ली थी। साफ़ा और चश्मा उन्हें पहचान छिपाने में ही नहीं बल्कि तेज़ धूप से बचाने में भी मदद कर रहे थे। अचानक एक आदमी ने ठेली के पास स्कूटर रोका और सब्जी का भाव पूछा। सहरावत ने सब्जियों के भाव बता दिए। उस आदमी की नज़र सहरावत के चेहरे पर जा जमी। वह उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था। उसने सहरावत के चेहरे पर नज़रें जमाये हुए ही दोबारा एक दूसरी सब्जी का भाव पूछा तो सहरावत ने उसका भाव भी बता दिया। उस आदमी ने दूसरी सब्जी का भाव उनकी आवाज़ पहचानने के मकसद से पूछा था, और उसमें वह कामयाब भी रहा। अबकी बार सहरावत ने जैसे ही सब्जी के दाम बताए तो सहरावत की आवाज़ सुनकर वह आदमी बोल उठा–‘सहरावत जी आप! आप सब्जी बेच रहे हैं! इतने बडे़ कहानीकार और सब्जी बेच रहे हैं!’ वह आश्चर्य से सहरावत जी को देख रहा था और कहता जा रहा था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है?
वह बोलता जा रहा था, ‘आपकी कहानियों की चर्चा कहाँ नहीं होती। मैंने तो सुदामा कॉलेज में कहानियों पर आपका आख्यान सुना था। तभी से मैं आपको और आपकी आवाज़ को ख़ूब पहचानता हूँ, आपको पहचानने में मुझसे कोई ग़लती तो नहीं हो रही है, निश्चित होने के लिए ही मैंने दोबारा आपसे सब्जी का भाव पूछा था। नहीं-नहीं ये नहीं हो सकता।’ सहरावत ने उस आदमी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया और सपाट स्वर में पूछा–‘गोभी, लौकी, टमाटर क्या दूँ?’
‘नहीं-नहीं सब्जी मैं बाद में लूँगा, पहले आप ये बताइए सब्जी क्यों बेच रहे हैं? आपने यह नहीं सोचा कोई देखेगा तो क्या कहेगा, आपको शर्मिंदगी नहीं महसूस हो रही है क्या?’ इस बीच उस आदमी ने जेब से एक महँगी-सी सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी और बात करते हुए हवा में धुएँ के छल्ले उड़ाने लगा था।
इस बार सहरावत जी को उसकी बात का जवाब देना पड़ा। जवाब क्या देना पड़ा, उन्होंने जवाब देने की बजाय उल्टे उस आदमी से ही पूछ लिया, ‘क्या आपने मेरी कहानियाँ भी पढ़ी हैं?’ उस आदमी ने हवा में धुएँ का नया छल्ला छोड़ते हुए कहा, ‘हाँ-हाँ, पढ़ी क्यों नहीं, कई कहानियाँ पढ़ी है।’
सहरावत जी ने पूछा, ‘आपको सचमुच मेरी कहानियाँ अच्छी लगती हैं?’
‘जी-जी बहुत अच्छी, बल्कि मैं तो आपकी कहानियों का दीवाना हूँ’।
‘तब तो आपके पास मेरी कहानियों के कई संकलन होंगे?’
सहरावत जी का यह सवाल सुनकर अभी तक बहुत चहककर बोल रहे उस आदमी ने धीमी आवाज़ में उत्तर दिया–‘नहीं संकलन तो नहीं…।’ उस आदमी की बात बीच में काटते हुए सहरावत ने दूसरा सवाल दाग दिया–‘फिर कहाँ पढ़ी हैं, किसी अख़बार में या किसी पत्रिका में?’ सहरावत ने उसके सवाल का इंतज़ार किए बिना कहना शुरू किया, ‘आपको मेरी कहानियाँ बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन आपने कभी किसी बुक स्टॉल से मेरी कहानियों की एक भी किताब नहीं ख़रीदी। बल्कि कभी पूछी भी नहीं होगी। यही विडंबना है साहित्य और साहित्यकार की। आप महँगी सिगरेट पीकर उसे हवा में उड़ा सकते हैं, लेकिन मन पसंद साहित्य या साहित्यकार की किताब नहीं ख़रीद सकते। अपने बच्चे की जिद पूरी करने के लिए सौ-दो सौ रुपये की चॉकलेट और चार-पाँच सौ रुपये का पिज्जा ख़रीद सकते हैं लेकिन समाज को दिशा देने और दशा सुधारने के लिए जो साहित्य लिखा जा रहा है, उस पर सौ-पचास ख़र्च नहीं कर सकते। आख्यान पर ‘वाह-वाह और तालियों से पेट नहीं भरता, भूख के लिए रोटी की ज़रूरत होती है’।’ सहरावत जी की बात सुनकर उस आदमी का सिर झुक गया था और सिगरेट हाथ से छूटकर उसके सिर की ही तरह नीचे गिर चुकी थी।
पर सहारावत रुके नहीं, वह बोलते चले गए, न जाने कब से उनके भीतर दबा दर्द उमड़ आया था। वह कह रहे थे, ‘महोदय, जब लोगों को अपनी सोच पर शर्मिंदगी नहीं है तो मुझे शर्मिंदगी क्यों होनी चाहिए। मैं हिम्मत करके सड़क पर आ गया हूँ, सब्जी बेचकर अपने सम्मान और स्वाभिमान को बचाने का प्रयास कर रहा हूँ, लेकिन मुझ जैसे न जाने कितने ही ऐसे साहित्यकार हैं, नामचीन खिलाड़ी हैं जो अभावों में दिन काटते हुए बिना इलाज, बिना दवा दम तोड़ चुके हैं और कुछ आज भी लड़ रहे हैं, उनके साथ उनका परिवार भी भूख से जंग लड़ रहा है। ऐसे अनेक लोगों के नाम गिना सकता हूँ, पर उनका नाम लेकर उनकी आत्मा को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता। सरकार भी सिर्फ़ घोषणाएँ करती हैं, लेकिन कोरी घोषणाएँ! जाओ अपने समाज से पूछो अपने ज़मीर से पूछो कि अगर आज तपती धूप में सड़क पर सहरावत सब्जी बेच रहा है तो उसका जिम्मेदार कौन है?’