समकाल

समकाल

सब रुके हुए
अपनी अपनी
प्रतीक्षा छुपाए
बगल में
आकांक्षाओं का बंडल
कोई भीतर-ही-भीतर
नमक से नहा रहा
कोई रगों में नाव
खेता हुआ
समकाल है यह
सराय ख़ाली होती जा रही
तितलियाँ डोलना तो जानती हैं
यात्रा पर तो
सिर्फ़ पतिंगे नज़र आ रहे
देर रात सड़कों पर
इबारतें खुरचता सुनसान
मुझे थमा देता है मसक
सुबह तक
धो देने होते हैं
सपनों के सारे निशान
आसमान धब्बे पसंद नहीं करता
उजालों के वक्त।