निशानी
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https://nayidhara.in/kavya-dhara/hindi-poem-about-nishani-by-shankaranand/
- 1 April, 2025
निशानी
आज पिता मेरे पास नहीं हैं तो
उनकी बहुत सी चीज़ें
ठोस रूप में हमारे साथ साँस लेती हैं
मुझे चीज़ों में मन नहीं लगता
चीज़ों के बीच पिता को खोजने लगता हूँ मैं
उनकी आवाज़ सुनने का मन होता है
वह कहीं सुरक्षित नहीं है कि
बजा दिया जाए
जब मन करे
जैसे पुकार लिया करते थे
वे कई बार मेरा नाम
उनकी हँसी पहले ख़ूब गूँजती थी
अब लेकिन कम हो गई है उसकी छाप
उनके स्पर्श की गंध भी धीरे-धीरे उड़ गई
जैसे कोई फूल सुबह खिल कर नया रहता है
चार दिन बाद वही इतना सूख जाता है कि
मानने का मन नहीं होता ये वही फूल था
किसी का होना ही उसकी छाप है
जब तक वह रहता है
उसकी छाप चमकती है
उसके जाने के बाद उड़ने
लगती है उसकी रंगत
जैसे धूप में लगातार सूखने के बाद
नई कमीज़ भी जर्जर हो जाती है।