नकद नारायण

नकद नारायण

ग़ाज़ियाबाद, पंजाब, से आए अपने मित्रों के मुँह से अक्सर जय सिंह सुनता था, ‘नकद में नारायण से अधिक शक्ति है भैया।’ सुनते-सुनते एक दिन गाँव का सीधा-सादा खेतिहर जय सिंह अपने दोस्त जयदेव के साथ ग़ाज़ियाबाद आ गया था। जसदेव ने जय सिंह को एक सिक्योरिटी एजेंसी में नौकरी दिला दिया। खेती वाली वेशभूषा, रूप-रंग और किसान की धोती-लूँगी से गार्ड की वर्दी तक का सफ़र जय सिंह ने सहज ही तय कर लिया। अपने नवीन परिवेश में इस नए वेशभूषा, तौर-तरीक़े, रूप-गुण में जय सिंह ख़ुश रहने लगा। लंबा छरहरा शरीर, चुस्त-दुरुस्त गौर वर्ण तीक्ष्ण नाक नक्श। चेहरे की लाली यदि छोड़ दी जाए तो बिल्कुल कश्मीरी ही दिखता था। गाँव में पूजा-पाठ से जो नैतिक बल अर्जित की थी उसने, वह उसमें अभी भी बरक़रार था। ईमानदारी से ड्यूटी करता। रात हो या दिन या फिर ओवरटाइम ही क्यों न हो। जिस सोसायटी में गार्ड के रूप में वह पदस्थापित था वहाँ के लोग उसे बहुत पसंद करते।

‘नमस्ते साहब जी!’ कहते हुए शरीर तानकर अभिनंदन करता, उत्साह से लोगों से मिलता और यही कारण है कि सोसायटी के लोगों से उसे अब बख्शीश भी मिलने लगी थी।

‘जय सिंह! देखो, मैं ऑफ़िस जा रहा हूँ। मेरा कुछ सामान आएगा। तुम ठीक से रखवा देना। देखना टूट नहीं हो।’

‘जी सर जी, मैं देख लूँगा। आप जाओ ना आराम से। मैं हूँ ना!’

ऐसे ही तत्परता और आदरपूर्ण बातचीत, अदब और जिम्मेवारी के कारण जय सिंह को रोज़ कुछ-न-कुछ बख्शीश मिल ही जाती थी। धीरे-धीरे नकद नारायण की माया उसे समझ में आने लगी। जब गाँव से आया था अपार्टमेंट निर्माण के साइट पर तो वहाँ बने टीन के बैरक में उसे जगह मिली थी। आज 20 वर्ष हो गए। अपार्टमेंट तैयार हुआ, लोग आकर रहने लगे। उधर साइट की कुछ ही दूरी पर ख़ाली पड़ी सरकारी ज़मीन पर बस गया एक झुग्गी-झोपड़ी वाली स्लम नुमा कॉलोनी। जय सिंह ने इलाक़े के मस्तान को पैसे देकर धीरे-धीरे अपना भी एक घर बनवा लिया। फिर गाँव से बीवी-बच्चों को भी ले आया। शुरू में तो जय सिंह की पत्नी इस नवीन परिवेश में बहुत सकुचाती थी, पर धीरे-धीरे उसकी पत्नी ने भी शहरी रंग-ढंग, भाषा-वाणी सब सीख ली। अब उसके उठने-बैठने के तौर-तरीक़े सब बदल गए। जीवन की शुरुआती दौर में लोग कितनी जल्दी परिवेश को अपना लेते हैं इसका उदाहरण यदि देखना हो तो वह जय सिंह का परिवार ही था। जिस महिला को गाँव में जय की मेहरारू के नाम से संबोधन मिलता था, जो ‘जय’ की मेहरारू के संबोधन के बीच अपना वास्तविक नाम भी भूल गई थी, यहाँ उस जय सिंह की घरवाली को अपना नाम मिला। पहली बार जब ग़ाज़ियाबाद में किसी ने उससे उसका नाम पूछा था तो उसने सकुचाते हुए कहा था–‘सोनिया’ न-न सोनी कुमारी।

सोनी यहाँ आकर सोसायटी में घर का कामकाज करने लगी। गाँव में घर-परिवार सँभालती थी। कामकाज में दक्ष तो थी ही। अतः यहाँ उसे काम की कमी नहीं थी। गाँव में जिस काम के लिए पति को ताने देती थी, खरी-खोटी सुनाती थी, सास से झगड़ती थी, यहाँ आकर वही काम उसने स्वेच्छा से अपना लिया।

सोनी कुमारी में यह परिवर्तन भी नकद नारायण की माया से ही आया था। जय सिंह का बेटा देखता कि जब ख़ाकी वर्दी का कोई सिपाही सोसायटी में आता तो जय सिंह उसे अदब से सलाम करता।

एक दिन जय सिंह का बेटा सुखदेव ने अपने बाप से पूछ लिया–‘बाबू तुम भी तो सिपाही ही हो न? वह जो आते हैं वह भी तो सिपाही ही हैं। लेकिन तुम उसको भी सलामी मारते हो। सो क्यों?’ जय सिंह ने कहा–‘अरे! सुखदेव अभी यह सब नहीं समझोगे। वह सरकारी सिपाही है बेटा। उसके पास बहुत पावर है। वह पुलिस है। समझे! उसके पास क़ानून की ताक़त है। वह चाहे तो एक मिनट में किसी को उठा ले।’

सुखदेव ने कहा–‘बापू फिर तुम वही सिपाही क्यों नहीं बन जाते।’

‘बेटा! वह बनना इतना आसान नहीं है। मौक़ा तो एक बार मुझे भी मिला था। पर मेरे पास इतना पैसा नहीं था। नहीं तो मैं भी सरकारी सिपाही बन जाता। दौड़ में तो अव्वल आया ही था। यह सब बात पुरानी हुई अब जाने दो। तुम अपनी पढ़ाई-लिखाई ठीक से करो। तुम बड़ा अफ़सर बनना। उसके पास और भी पावर होता है।’

सुखदेव ने कहा–‘जब नकद नारायण से ही सब बनते हैं तो सबसे अधिक पावर तो नकद नारायण में ही हुआ न?’ जय सिंह जैसे निरुत्तर हो गया था। उसे पहली बार लगा उसका बेटा शायद परिवेश के कारण बहक रहा है। पिता समझाने की कोशिश करते। किंतु सुखदेव स्कूल से लेकर मोहल्ले तक में नकद नारायण की ताक़त देख चुका था। रोज़ मस्तान से मिलता, उन गतिविधियों में रमता जा रहा था।

यार-दोस्तों की एक बड़ी फ़ौज सुखदेव ने तैयार कर ली थी। ऑफ़िसर तो नहीं बन सका पर मिज़ाज उससे कम न था। कहने को तो टेंपो चलाता था, पर साथ में वह, वह सब काम करता जिसमें पैसा हो, कमाई हो। फिर वह कमाई चाहे जैसे आए। सुखदेव कम उम्र में ही नकद नारायण की शक्ति से परिचित हो गया था।

अक्सर थाने जाता, पिटाई खाता, दो-चार दिन हाजत में जाकर रात बिताता। और इस तरह वह अब परिपक्व हो गया था। इन बातों को लेकर पिता से रोज़ बहस होती। लेकिन सुखदेव अब इसकी परवाह नहीं करता। पिता को लापरवाही से जवाब देता।

एक दिन जिस सोसायटी में जय सिंह गार्ड का काम करता था उस सोसायटी में पुलिस किसी तहक़ीक़ात के लिए आई। जय सिंह ने उसे अदब से सलामी दी। फिर एकाएक जय सिंह की दृष्टि सिपाही के साथ बगल में खड़े सुखदेव पर पड़ी। जय सिंह ने देखा सिपाही के साथ सुखदेव घुल-मिलकर बातें कर रहा था। कोई औपचारिकता नहीं। सुखदेव ने सिपाही के कंधे पर हाथ रखकर कहा–‘चाचा यहाँ क्या करने आए हो?’

‘यहाँ का एक मामला देखना है!’

सुखदेव ने बेतकल्लुफ़ी से कहा, ‘अरे चाचा यहाँ रहने दो। यहाँ जय सिंह जी है ना, सब सँभाल लेंगे। और बाक़ी सब मुझ पर छोड़ दो।’ कहते हुए एक भेद भरी मुस्कान से सुखदेव ने अपने पिता की ओर देखा। जैसे कह रहा हो–‘ईसी को न आप सलामी ठोंकते थे? देखो उसके कंधे पर मेरा हाथ है।’ धीरे-धीरे सुखदेव उस क्षेत्र के थाने का दलाल बन गया था। पैसे भी ख़ूब एँठता और अब सीधे थानेदार तक उसकी पहुँच बन गई थी। थानेदार को मुस्कुरा कर बेतकल्लुफ़ी से सलाम ठोकता। थानेदार समझ जाते। दोनों गाड़ी में बैठ जाते, और फिर मुस्कुराते हुए थानेदार निकलते। फिर ज़ोर-ज़ोर से कहते, ‘देखो सुखदेवा अब सुधर गया है। क्या सुखदेव अब इधर-उधर नहीं करते हो ना?’ सुखदेव बनी-बनाई शैली में जवाब देता–‘नहीं हुजूर! आपके रहते किसी की मजाल कि आपके इलाक़े में कोई इधर-उधर कर ले।’

अब सुखदेव के पिता को उसके करामाती की ख़बर इधर-उधर से मिलती। उन्होंने सुखदेव से कहा, ‘देख सुखदेव! यह सब ठीक नहीं कर रहे हो तुम। भगवान से डर।’ सुखदेव ने कहा, ‘बाबू अभी तक आपके भीतर से नारायण नहीं निकले हैं? अरे यह ज़माना नारायण का नहीं नकद नारायण का है। तुम जिस सिपाही को सलामी ठोंकते थे ना, वह आज मेरे पीछे-पीछे घूमता है।’ पिता पुत्र में बात बढ़ गई। जय सिंह का पुराना संस्कार जाग गया था। अब सुखदेव ने कहा, ‘यह रोज़-रोज़ की किचकिच मुझे पसंद नहीं बाबू! इससे अच्छा है, हम अलग-अलग ही रहें। या तो तुम मेरे हिसाब से चलो या एक घर में अब गुज़ारा संभव नहीं।’

जय सिंह सन्न रह गया। उन्होंने बस इतना कहा, ‘सुखदेव तुम्हारे लक्षण सही नहीं लग रहे हैं।’ सुखदेव ने कहा, ‘लक्षण ठीक नहीं, मतलब?’

जय सिंह–‘मतलब कि तुम सही राह पर नहीं चल रहे हो।’

सुखदेव ने अकड़ से कहा–‘आप सही राह किसे कहते हो बाबू? क्या है वह सही राह? जिसके कारण आप उस सिपाही को सलाम ठोकते थे? वह सही राह कि जिसके कारण मैं अच्छे स्कूल में पढ़ नहीं सका? क्या है वह सही राह? जिस पर चलते हुए मुझे महीनों हाजत में बिताना पड़ा? क्या है सही राह बाबू? आप किसे कहेंगे सही राह? यह बताइए कि मैं क्या ग़लत करता हूँ? कौन से लक्षण मेरे ख़राब हैं? मैं व्यापार करता हूँ। कुछ लोगों की समस्या में थाने वालों से मिलकर उनकी मदद करता हूँ। बदले में भी कुछ मुझे देते हैं, तो क्या बुरा है? बड़े-से-बड़े वकील भी तो यही करते हैं। आपको भी तो साहब लोग काम करने के लिए बख्शीश देते थे। तो उसमें क्या बुरा है? हाँ, अंतर बस इतना है कि हम अपना ‘कट’ लेते हैं, कमीशन लेते हैं। पर आप एहसान लेते थे। अंतर बस सोच का है बाबू। आपने देखा ना, अब वह सिपाही मेरे पीछे-पीछे घूमता है। वह सिपाही भी जिसे सलामी ठोकता है वह थानेदार अब मेरा दोस्त बन गया है।’

जय सिंह ने कहा–‘सुखदेव तुझे जो कहना हो कह ले, जिसे समझाना हो समझा ले, पर मैं तो यही कहूँगा कि तुम्हारे लक्षण मुझे ठीक नहीं लगते।’

सुखदेव आपे से बाहर हो गया। चीखते हुए बोला–‘लक्षण ठीक नहीं लगते का रट लगाए बैठे हैं। क्या मैं डकैती करता हूँ? क्या मैंने किसी की हत्या की है? क्या मैंने किसी का बलात्कार किया है? क्या किया है मैंने कि आपको मेरे लक्षण ठीक नहीं लगते? साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि आपको मुझसे जलन हो रही है। मेरी सफलता पर आपको जलन होती है।’

जय सिंह का शरीर जो अब कमज़ोर हो चला था, धीरे-धीरे काँपने लगा। उन्होंने सुखदेव की पीठ पर एक मुक्का जड़ दिया।

सुखदेव पलटकर पिता का हाथ इतने ज़ोर से पकड़ा कि जय सिंह कराह उठे।

सुखदेव की माँ सब सुन रही थी। चौका से निकलकर अपना कपार पीटने लगी। बहन सहम कर घर से बाहर चली गई। वह भी कुछ दिन से महसूस कर रही थी कि सुखदेव के भीतर संवेदनाएँ कम हो रही हैं। उसकी क्रूरता बढ़ गई है। बातों में कहीं रस नहीं दिखता है। बिल्कुल कृत्रिम मनुष्य बन गया था सुखदेव।

उस दिन किसी ने उसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटाई। सुखदेव तमतमा कर घर से बाहर चला गया। सभी मूक दर्शक की तरह उसे जाते देखते रहे।

कुछ देर बाद सुखदेव लौटकर आया। उसके साथ एक लड़की थी। उसने कहा–‘अम्मा, देख ले यही है उस सिपाही चाचा की बेटी, जिसे बाबू सलाम करते रहे ज़िंदगी भर, इससे मैं शादी कर रहा हूँ।’ फिर उस लड़की को इशारा करते हुए कहा–‘जा रे, जाकर पाँव छूओ, मेरी अम्मा है। हमारे बाबू के भी आशीर्वाद ले। यह हमेशा नकद नारायण की इच्छा रखते हैं, लेकिन पूजा नारायण की करते हैं। इनका आशीर्वाद चलेगा।’

लड़की आगे बढ़ी अम्मा के पाँव छुए। उसने आँसुओं से भरी आँख पोछकर लड़की को देखा। गाल छूकर आशीर्वाद दिया।

लड़की सुखदेव के पिता की ओर बढ़ी, पिता ने पाँव पीछे खींच लिया। कहा, ‘इसकी कोई ज़रूरत नहीं। ऐसे ही कहता हूँ ख़ुश रहो, सुखी रहो।’ सुखदेव ने लापरवाही से कहा–‘सुखी तो रहेगी ही। मैंने तो अब ठेकेदारी शुरू कर दी है। पैसे की कोई कमी नहीं है। थानेदार का पैसा है। सिपाही चाचा ने एक बेडरूम का फ्लैट भी दिया है मुझे। अब उसी में हमलोग रहेंगे। इसे कहते हैं नकद नारायण की लीला।’ कहते हुए सुखदेव उस लड़की का हाथ पकड़ कर घर से निकल गया।

इस घटना के अभी तीन सप्ताह ही बीते थे। जय सिंह ड्यूटी पर जाता। उदासीन सा बैठा रहता। साहब लोगों की बख्शीश की भी उसे अब कोई चिंता नहीं थी। काम से काम रखता। अब उसके काम में भी चूक होने लगी थी। कुछ ही दिन में जय सिंह बूढ़ा दिखने लगा। सुपरवाइजर ने कहा–‘जय सिंह तुम्हारी शिकायत आने लगी है। ऐसा करोगे तो फिर तुम्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा।’ जय सिंह सुपरवाइजर का पाँव पकड़ लिया। ‘अब इस उम्र में कहाँ जाऊँगा साहब। ज़िंदगी भर ईमानदारी से काम किया हूँ सर!’ सुपरवाइजर ने लापरवाही से कहा–‘ठीक है, ठीक है, तुम्हें एक महीने का समय देता हूँ। काम सुधार लो वरना…।’ जय सिंह रात-दिन इसी चिंता में रहता, सोचता, ‘एक कुँवारी बेटी है उसकी शादी कैसे होगी। पत्नी किसके भरोसे रहेगी। नौकरी चली गई तो सब ख़त्म।’ यही सोचते-सोचते वह भीतर-ही-भीतर कुढ़ता रहता था। ठंड की रात थी। उस दिन सूरज सिंह की रात की ड्यूटी थी। सोसायटी के लिफ्ट के सामने कॉरिडोर में टेबल पर रजिस्टर बिखरा था। कुर्सी पर सूरज सिंह बैठ ड्यूटी कर रहा था। 6:00 बजे सवेरे ड्यूटी बदलने का समय हुआ। नया गार्ड आया। उसने देखा जय सिंह वैसे ही बैठा सो रहा है। उसने पुकारा, ‘अरे जय सिंह। सो गए क्या? अरे भाई जा ड्यूटी ओवर हो गया। घर जाकर आराम कर।’

जय सिंह वैसे ही बैठा रहा। गार्ड ने उसे हिलाया। किंतु जय सिंह निढाल होकर गिर पड़ा। हंगामा मच गया। दौड़-धूप शुरू हुई। सुपरवाइजर दौड़कर आया, डॉक्टर के पास आनन-फानन में ले जाया गया। किंतु जय सिंह की ड्यूटी तो परमानेंटली ऑफ़ हो चुकी थी।

जय सिंह के गए कुछ ही दिन बीते थे। जय सिंह की पत्नी को अब काम करने का मन ही नहीं करता था। एक दिन उसकी बेटी भी एक लड़के के साथ आई।

‘माँ! पापा मेरी शादी की चिंता बहुत करते थे ना। तुम्हें भी चिंता होती थी। यह देखो, यह शेखू है। भैया का दोस्त है। मैं इसी से शादी करूँगी। लेकिन शेखू के पिता की एक शर्त है।’

माँ ने धीमी स्वर में पूछा, ‘क्या शर्त है बेटी?’

‘वह कहता है कि अपनी माँ को बोलो, यह खोली तुम्हारे नाम कर देगी।’

‘माँ, भैया का तो अब बड़ा सा फ्लैट है। तुम चाहो तो वहाँ भी रह सकती हो। यह खोली मेरे नाम रहेगा तब भी क्या फ़र्क़ पड़ता है। समझो तुम्हारा ही रहेगा। जिस तरह रहती आई हो, रहोगी।’ और फिर माँ का हाथ पकड़ कर बोली, ‘मान जाओ ना माँ, मेरा भी घर बस जाएगा।’

सोनी कुमारी उर्फ जय सिंह की पत्नी ने भावहीन चेहरे से कहा–‘ले आओ काग़ज़? जहाँ भी लिखवाना है, लिखवा लो।’ बेटी माँ के गले से लग गई। उसकी आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गए। लेकिन उसकी माँ में कहीं उत्साह नहीं था। उसका शरीर शिथिल था। तीन महीने चुपचाप बैठी रही। गाँव के दिनों को याद करती रही। इस बीच बेटी की शादी हो गई। दामाद घर आ गया।

सोनी सिंह आज सवेरे पुनः ‘जय सिंह की मेहरारू’ बन गाँव वापस जा रही है। ट्रेन में बैठी सोनी के मन में आज भी द्वंद्व है कि नकद नारायण अधिक शक्तिशाली हैं या फिर भगवान नारायण की माया।

कथा-धारा

अमलतास के बाद…

पंखुरी सिन्हा

मलतास और गुलमोहर दोनों के मौसम बीत चुके थे। बात सावन के झूलों की हो रही थी, जैसे हर कहीं हरियाली और ख़ुशहाली हो, अलबत्ता सावन के झूले कहीं दिखते नहीं थे। कभी-कभी, कहीं-कहीं अगर गुच्छों में पीला बंदनवार या लाल छतनार दिखता, तो मन पर ताज़गी और तरावट की परत बिछ जाती। ऐसे जायज़ों से वह अपनी तबीयत ख़ुश किया करती। वाक़ई, इस पार्क में केवल एक्सरसाइज वाली मशीनें थीं, अगले पार्क में केवल बच्चों के झूले। अलबत्ता उन पर कभी-कभी, बड़े भी बैठ जाते। झूलों और मशीनों दोनों को लेकर थोड़ी बहुत हाय-तौबा मची रहती, लेकिन उससे मानसिक शांति कम भंग होती थी। टहलने वाले लोगों की बक-बक भी कुछ सँभल गई लगती थी। वरना पहले, ‘यार, तुम्हें पता है, आज मैंने कौन सी स्टोरी की?’ या ‘तुम्हें पता है मैं टॉप करते-करते रह गया था’, लगता जैसे सब उसे जानते हैं! लेकिन, इन महीनों में माहौल कुछ सँभल गया था। शब्द संयत थे, अपरिचित, दूर। 

पार्क से ज़रा सी ताज़ी हवा बटोर कर वह लैपटॉप के आगे की कुर्सी में धँस गई थी। और उठा लिया था मोबाइल, कितनी जल्दी आदत लग गई थी उसकी। अब मोबाइल उठाना आदतन हो गया था। और आदतन ही उसने, वह पन्ना खोल लिया था ‘उसका पन्ना’। उसका पन्ना, यानी उफ़, किसका पन्ना? बुलेटिन से ड्राप हो गई एक ख़बर का सुंदर ब्योरा लगा रखा है, साथ में ग़ज़ब की एक क्लोज़-अप तस्वीर! सुंदर ब्यौरा, उसे क्या हो गया है? क्लोज़-अप तस्वीर! हाँ, बिल्कुल, जिसे वह एक बार चश्मा लगाकर, उतार कर, क़रीब लाकर, दूर ले जा कर देख चुकी है। एक साँस में पढ़ गई वह रिपोर्ट! कितना समय बर्बाद करती है, वह इस आदमी के पीछे रोज़! जबकि वह साफ़-साफ़ ठुकरा चुका है, उसका प्रेम, प्रेम नहीं प्रेम प्रस्ताव! कोई प्रेमी नहीं वह उसका, मित्र भी है या नहीं, ठिकाना नहीं, पता नहीं, पूछने के उपाय नहीं, और वह है कि उसके ब्लॉग की कोई पोस्ट बिना पढ़े नहीं रहने देती! ट्विटर हो या फेसबुक! तो क्या यह एक अंधा आकर्षण है? क्या वह कनेक्ट नहीं करता होता, उसकी दिनचर्या के हर मोड़ से? यही तो साबित करना मुश्किल है। मुश्किल तो बहुत कुछ साबित करना है। 

लेकिन आज वह समय से खाएगी, समय से सोएगी और कल समय से दफ्तर पहुँचेगी। वॉव! हफ्ते भर की नाईट ड्यूटी के बाद का एक दिन ऑफ! जेट लैग ठीक करने जैसा दिन। कल सुबह की न्यूज़ रूम मीटिंग! हो सकता है वह मिल जाए! क्या इस ख्याल से घबराहट हो रही? खाते हुए उस पर टेलीविज़न हावी रहता है। लेकिन बिस्तर के अँधेरे में वह वापस उसके ख्यालों में भटकती है। वह भटकती है या उसके ख्याल, उसकी हरकतें उसे लपेट लेती हैं!

वह उसे फैनटसाइज़ कर रही है। उसने उसके गालों को चूम लिया है। यह सब आज पहली बार हो रहा है, क्या यह सही हो रहा है? ओह! लेकिन कितना सुखद स्पर्श और अँधेरे में उसकी आँखें, नाक, ओंठ, कितना साफ़ देख सकती है वह उसका चेहरा! वह सोना चाहती है, और इसलिए उसके चेहरे को और क़रीब खींच लेती है।

दरवाज़ा बड़ी तेज़ी से खुलता है, धड़ाम से बंद होता है, किसी आँधी-तूफ़ान सा वह दाख़िल होता है, और ठीक उसकी बगल वाली कुर्सी में आकर बैठ जाता है। पहले जो सीनियर एडिटर बगल में बैठी थीं, वो उसके आने से मिनट भर पहले कहीं और जाकर बैठ गई थीं, ये उसने उसके आने के बाद महसूसा।

पलक झपकते वह पूरी मीटिंग पर छा चुका था। सब पर उसकी बातें हावी थीं। जबकि उसकी स्टोरी, उसकी बीट, उसकी कवरेज सब तय थे, वह मीटिंग में लगातार बना हुआ, सबको जैसे निर्देश देने की कोशिश में था। शायद वह एडिटोरियल और एग्जीक्यूटिव कुर्सी की ताक में था। उसकी बीट पहले दिन से देश की सबसे बड़ी, पुरानी पार्टी की बीट थी। और वह उस पार्टी का क्रिटिक नहीं, घोर समर्थक था, लगभग स्पोक्सपर्सन। ये सब बातें वह नए सिरे से देख-समझ रही थी और उसके प्रति अपना आकर्षण तौल रही थी। यह जानते कि संभवतः वह एक बेहद ख़तरनाक आदमी था, वह कैसे हो सकती थी इस तरह आकर्षित कि जैसे मोहपाश में बँधी हुई? क्या उसका सर्वेलेंस उसे कहीं-न-कहीं अपनी ओर खींच रहा था? लेकिन आकर्षित क्यों, विकर्षित क्यों नहीं कर रहा था उसका यह बताना कि ‘एवरी स्टेप यू टेक, एवेरी मूव यू मेक आई विल बी वाचिंग यू’…हिंदी में कहें तो, ‘मेरी जाँ तुझपे नज़र है’…उसे कितने ही ऐसे लम्हे याद थे, जब उसने सोचा था कि बस एक ठोस सबूत मिले तो वह पुलिस में जाएगी। लेकिन वह इतना शातिर था कि पार पाना मुश्किल। उस दिन वह सारे दिन उसे घूरता रहा था, कभी सीधा, कभी कनखियों से। साथ कैंटीन में खाने, चलने, प्रस्ताव एक कुटिल मुस्कान के साथ ख़ारिज किया था। उस दिन उसके ब्लॉग पर भी काफ़ी चुप्पी थी। दिनभर, पाँच-पाँच मिनट पर ख़बरों पर टिप्पणी से उबलने वाला उसका ब्लॉग, ख़ासा शांत था। रात होते-होते वह बेहिसाब थक गई थी। डिनर कर आदतन सबसे पहले उसी का ब्लॉग तलाशा था मोबाइल पर। कमरे में चलते टेलीविज़न की आवाज़ मद्धम पड़ गई थी जैसे ही उसने पोस्ट का समय देखा–लगभग तभी वह खाना खाने बैठी थी। पोस्ट का शीर्षक था, ‘क्या सच हो सकता है इमरान खान का पत्नी द्वारा ज़हर दिए जाने का शक’? उसे एकदम से मतली आई थी, या पेट में तेज़ मरोड़ का दमघोंटू एहसास, बताना मुश्किल लेकिन वह एकदम चौकन्नी सावधान क्यों नहीं हुई? मनोविज्ञान वाले ह्यूमन बिहैवियर के बारे में एक थ्योरी कहती है कि अक्सर अगवा हुए लोग, अपने अपहरणकर्ता के माया जाल में फँस जाते हैं।

प्रेम इन्स्टिंक्टिव है। हम सब चाहते हैं प्रेम के मोहपाश में बँधना, उसके सुख को जीना। कोई नहीं चाहता जीवन भर सावधान की मुद्रा में खड़े रहना, सतर्क बने रहना। विश्वास करना भी इन्स्टिंक्टिव है।

क्या सोच रही थी वह? 

कोई बोल रहा था, ‘सर त्रिपुरा में जीतने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की राजधानी में पहली बड़ी रैली है, बड़ी ख़बर’, कि वह बीच में ही खड़ी हो गई।

‘यस?’, डिप्टी एडिटर ने उसे गहरी सवालिया आँखों से देखा। वह उसे हमेशा ऐसी ही सशंकित और तरस खाती नज़रों से देखते थे कि कैसी खद्दरधारी, झोला टाइप पैदल पत्रकार है न्यूज़ रूम में, जो जब-न-तब एक-से-एक डॉक्यूमेंट्री टाइप न्यूज़ आईडिया लाकर उनका मूड कचरा कर देती थी। कभी नाला बनती यमुना, कभी ग़ायब होते पक्षी, कभी गाँव के सरकारी स्कूल, कभी दिल्ली के एक्सीडेंट, कभी बाढ़, कभी सूखा! इसमें ख़बर क्या है? अभी पिछले महीने उसने हद कर दी थी ये सुझा कर कि स्ट्रीट डॉग्स की बदहाली पर एक स्टोरी की जाए! लड़की के पास एक पॉलिटिशियन का नंबर नहीं था! इतनी क़ाबिलियत नहीं कि अपने लिए एक पॉलिटिकल गॉडफादर तो क्या, एक पॉलिटिकल बीट अर्जित कर ले! इससे पहले कि उसकी प्रतिध्वनि उन्हें सुनाई पड़ती, ‘मैं एक पॉलिटिकल पार्टी नहीं कवर करना चाहती’, उन्होंने अपनी भौंकती हुई निगाह उस पर इस तरह जमाई जैसे सवाल दाग रहे हों, ‘क्या है?’

‘सर, पिछले एक महीने में अनेक पुरानी रेजिडेंशियल इमारतें लगभग हर महानगर में गिरीं, और फिर अचानक से आग लगने की बहुत सी दुर्घटनाएँ शुरू हुईं।’

‘शुरू हुईं? आप कहना क्या चाहती हैं?’ वे इस तरह टपके जैसे ज़रा-सी हवा में फूस की छत गिर जाए! 

‘वही तो! ये हादसे लगातार बढ़ रहे हैं!’

‘आप अनुमानों और आशंकाओं की बात कर रही हैं। हम ख़बर निकालते हैं, ये न्यूज़ मीटिंग है!’ 

‘मैं केवल ये कह रही हूँ कि राजधानी में ही पिछले एक महीने में ऐसी आगजनी की तीन घटनाएँ हुईं।’

‘मैडम, उसी दिन हमने वो स्टोरीज कवर कर दी थीं।’

न्यूज़ रूम में हँसी का एक फव्वारा छूटते-छूटते रह गया। 

‘मैं उसकी फॉलो-अप स्टोरी की बात कर रही हूँ।’ 

उसकी आवाज़ थोड़ी ऊँची और तल्ख़ हो गई थी। ‘मैं म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के सेफ्टी ऑफ़िस में जाकर तहक़ीक़ात करना चाहती हूँ कि उन्होंने इन इमारतों का कब निरीक्षण किया और क्या निर्देश दिए?’ 

अमूमन तो वे उसके सारे सुझाव ख़ारिज कर देते थे, लेकिन इस बार डिप्टी एडिटर ने ध्यान से उसे सुना। वह बोलती गई, ‘सर, हमारी जो लुटयन की दिल्ली है…’

‘हमारी? हमारी कब हुई ये लुटयन की दिल्ली? हम और तुम कब गए, यहाँ की किसी तीन मंज़िली इमारत की बार में, जहाँ की खिड़की से नीचे दिल्ली की सरपट दौड़ती गाड़ियाँ आराम से बैठकर देख सकें? हमारे पास तो कभी इतना समय न हुआ कि प्रेस क्लब में बैठकर क़हक़हे लगा सकें! हमने तो जी भर कर समय पर बुलेटिन निकाला और किसी तरह लेट-लतीफ़ घर पहुँचे! हम यही तो करते आ रहे हैं सालों से! सुकून बस इस बात का है कि न कोई नेता हमारा है, न हम किसी नेता के!’ 

इस तरह से संशोधित होना, उसे अच्छा तो न लगा, लेकिन कुछ हद तक समझे जाने के संतोष ने, उसके आक्रोश को थाम लिया। ऊपर से, डिप्टी एडिटर की अपने दर्द की अफ़साना निगारी ने उसे नम किया, हर हाल में न बिकने की ख़ुद्दारी की बयान बाज़ी ने कमते दम-खम को बुलंद किया। 

‘जी मैं कह रही थी, कि उस दमकती-चमकती सफ़ेद संग मरमरी दिल्ली के पीछे, एक पुरानी कभी की जगमग, खंडहर होती बस्ती है!’

‘सुनो, शायरी न करो! अब तुम सीधा ग़ालिब के घर पहुँचोगी! या उसके इर्द-गिर्द के इलाक़ों, मुहल्लों में! यार, हर जयंती पर हर चैनल ये स्टोरी करता है! और तुम बिना जयंती के कर चुकी हो, अभी कुछ महीने पहले!’

‘सर, वो तो जब कटरा नील में’, वो लपकी ज़रूर बीच में लेकिन रोक दी गई तत्काल! 

‘बीच में मत बोलो, हम डॉक्यूमेंट्री नहीं बनाते! हम अपनी की गई स्टोरी की फॉलो-अप स्टोरी नहीं करते! अगर इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट बनानी है तो हज़ार अनसॉल्वड केसेज़ हैं, शहर दिल्ली में, लौटकर उन्हें भी देख लेना!’

‘लौटकर?’ उसका जी धक् से रह गया! ‘इतनी सी बात पर सस्पेंड किया जा रहा उसे! यों ख़ारिज?’

वह डर गई कि उसे जबरन छुट्टी पर बिठाने का फ़रमान जारी किया जा रहा! किंतु, एडिटर महोदय बिना रुके बोलते गए!

‘इमारतें एक दिल्ली में ही गिर रही हैं क्या? देश भर में नज़र दौड़ाओ, रोज़ कोई-न-कोई इमारत ढह रही है, लगभग! कितने मरे, कितने हताहत हुए इस पर निर्भर करता है कि ख़बर कितनी बड़ी बनी! अगर कोई नहीं, तो एक लाइन भर की ख़बर है, एक इमारत का गिर जाना! समझ आई बात! तुम ऐसा करो ज़रा कलकत्ता घूम आओ। ज़रा देख आओ, सांस्कृतिक राजधानी में अँग्रेज़ों के ज़माने की बिल्डिंगों के हाल! और एक रिपोर्ट भी बना लो! कितने दिन लगेंगे?’

और वह ऐसे चुप कि जवाब ही न सूझे! शक्ल रुआँसी हो गई। 

‘तुम कभी कलकत्ता नहीं गई? तो परेशान क्यों हो रही हो? हमारी पूरी टीम है वहाँ! मिहिर तुम्हारी पूरी मदद करेगा। वह कलकत्ता ब्यूरो का रिपोर्टर है। मैं तुम्हारे लिए पहले दिन का होटल बुक करवा दूँगा, आगे के लिए कोई अच्छा होमस्टे वग़ैरह देख कर बुक कर लो! मिहिर से बात कर के!’

और मिहिर का नंबर भी उन्होंने पकड़ा दिया।

अपनी कुर्सी पर वह आई तो तालियाँ बजाकर उसका स्वागत किया गया।

‘यार, तुम्हारा तो प्रोमोशन हो गया।’ सहकर्मियों ने चिकोटी काटी। 

‘सच, आउट स्टेशन रिपोर्टिंग जैसा मौक़ा मिलना, कोई छोटी बात नहीं!’

‘और वह भी इतने थोड़े से समय के बाद!’

अभी उसे बधाइयाँ मिल ही रही थीं कि उस दिलफेंक से रिपोर्टर के साथ अन्य कई पत्रकार दनदनाते हुए से कक्ष में दाख़िल हुए, जो सभी देश की नामचीन राजनैतिक पार्टियों की बीट देखा करते थे।

तमाम कैमरे उन्हें अलौट हुए और किसी स्कूली मार्च पास्ट की तरह वे न्यूज़ रूम से रुख़सत हो गए। 

ट्रेन  ने सुबह चार बजे हावड़ा जंक्शन पहुँचा दिया। टैक्सी अजनबी शहर के अँधेरे को चीरती चली।

होती हुई सुबह की हल्की उजास में, सोते हुए शहर से मिलना एक अनूठा अनुभव! ज़िंदगी की पहली ऐसी भोर! दिल गले में ऐसे धड़क रहा था जैसे मेंढक के बारिश में बजते गाल! तिस पर टैक्सी वाले को रास्ता न मालूम! न कॉलेज स्ट्रीट, न लालबाज़ार, न बोऊ बाज़ार! न उसे ठीक से गूगल मैप्स पढ़ना आए, न टैक्सी वाले को! 

ऊपर से वह बातें करने का शौक़ीन! बोलती हुई गूगल मशीन को चुप करा कर बोलता जाए!

‘पिछले बीस साल से टैक्सी चला रहे हैं यहाँ, अब भी कितने रास्ते हैं जो याद न हुए! लोग ही बताते हैं हमें! हम बिहार से हैं, आप कहाँ से हैं?’

‘दिल्ली’, जवाब लगभग सुने बिना, वह बोलता गया। ‘एक बार की बात है कि दरभंगा नरेश यहाँ आए। दरभंगा जानती हैं, बिहार की बड़ी रियासत! धोती-कुर्ते में सबसे बड़े होटल पहुँचे। अँग्रेज़ों का ज़माना, होटल वाले ने कहा इस ड्रेस में एंट्री नहीं है। दरभंगा नरेश ने कहा, ‘कितने में है तुम्हारा होटल?’ और एक चेक लिख कर के, दरभंगा नरेश पूरा होटल ख़रीद लिए। हा-हा!’

‘कौन-सा होटल? कहाँ?’, एक कहानी यहाँ से भी शुरू होती मालूम होती थी। लेकिन, जितनी वह सुना गया था, उससे ज्यादा उसे कुछ मालूम न थी बात। कहानी तो एक फिर भी थी। जिन बातों का प्रमाण नहीं मिलता, वे किम्वदंतियाँ होती हैं। उन्हें कभी भी कुरेद कर जाना जा सकता है, आसपास दबी चीज़ों के बारे में! 

लगभग! वह ज़रा सा मुस्कुरायी! एक खुलती हुई काली बाड़ी के पास, उसने खचाक से टैक्सी रोकी और लगा पुजारी से पूछने! 

‘देखिए, हम तो आपको हॉस्पीटल के पास छोड़ देंगे। ये कह रहा है बंकिम बाबू का घर भी वहीं है।’

‘बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय?’, वह सीट में बैठे-बैठे उछल गई। 

‘कौन चट्टोपाध्याय ये हम नहीं जानते! हम चटर्जी बता सकते हैं। हा-हा! देखे नहीं, एक लाइन बोला, मंदिर में घुस गया पुजारी! पूजा करेंगे, झमेला करेंगे! बिहारी न खटे, तो बंगाली का एक दिन काम न चले! साढ़े चार से ज्यादा हो गया, सड़क पर एक आदमी नहीं।’

सफ़ेद संगमरमरी खम्भों वाली इमारत की बगल से दायें-बायें घूमती टैक्सी खचाक से एक बड़ी लाल इमारत के लगभग सामने रुकी जिसके आगे के बोर्ड पर लिखा था, ‘आपातकाल’। तब तक सड़क पार की एक छोटी गुमटी में बैठे चाय वाले की अँगीठी जल चुकी थी और उस पर चढ़ी एक बहुत बड़ी देगची में उबाल आ रहा था। 

उस समय की ख़ाली सड़क को देखकर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि दिन में इस पर किस किस्म की भीड़ और अफ़रा-तफ़री छाई रहती है। होटल का दरवाज़ा बिना ज्यादा खोजबीन किए मिल गया और बिना ज्यादा लिखा-पढ़ी, चुन-चान के वह ऊपरी मंज़िल पर भी पहुँच गई। सबसे पहले उसने देखा उस खिड़की को जो तस्वीरों में अपने सौंदर्य से उसे कब से परेशान कर रही थी, यहाँ खुली खड़ी थी, एकदम तरो-ताज़ा, मानो अभी बनी, अभी रंगी गई हो! तरो-ताज़ा धूप अंदर आने को बेताब थी। 

उसने बाल्कोनी का दरवाज़ा खोला ही था कि एक संदेश ने अपने आने की घोषणा की। उसका पहला संदेश था, वह भी ऑटोग्राफ़ के साथ! ‘क्या धाँसू स्टोरी मिली है यार! कुछ कमाल करना! गुड लक!’–अमित!

हुँह! बंदा ब्लॉग पोस्ट से सीधा मैसेज पर आ गया! वो भी प्रतियोगी होकर दोस्ताने अंदाज़ में! तो बाहर आने का इंतज़ार था, एक संदेश भेजने के लिए! ये न कि कुछ क्लू बताए! सामने आए अमित नामधारी उस चेहरे को, उसने दोनों हाथों से परे धकेला और आँखों के आगे के दृश्य का मुआयना करने लगी। जागना तो पल भर में होता है, पल भर में बिजली की गति से, शहर जाग कर, चलायमान हो गया था! वैसे आपातकाल के तो सोने का भी वक्त न होता होगा, लेकिन फिर भी! 

दाहिनी ओर, वह झक्क सफ़ेद चमकती इमारत भी दिख रही थी और हॉस्पिटल के प्रांगण के भीतर एक उसी ढाँचे की, कुछ मटमैली हो आई एक दूसरी इमारत! क्या वह मेडिकल कॉलेज है? उसके ज़रा पीछे, लाल इमारत, सरकारी रंग में रंगी, (इतना शोध वह करके आई है), ज़रूर चिकित्सालय है। हॉस्पिटल के भीतर जाने वालों का वैसा ताँता नहीं, जैसा सामने से गुज़रने वालों का है। एक मरीज़ पर सौ दिखाने वाले होंगे! और जाने किन-किन लोगों की भीड़ हो!

बायीं ओर, म्युनिसिपल बोर्ड लगे हैं। कूड़ा घर है। बदबू वहीं से आ रही थी। 

सुबह सवेरे, कचरा गाड़ी आकर सारा उच्छिष्ट लाद रही थी। जाने अस्पताल का कौन-सा विंग है, किस किस्म का कचरा हो? लेकिन सीरिंज, पाइप ग्लव्स की ऐसी बदबू? खाते-पीते भी होंगे, मरीज़ों के तीमारदार, दवाओं की भी बोतलें होंगी, लेकिन ये सब इस स्टोरी का हिस्सा नहीं। उसने कसकर ख़ुद को समेटा! अगली स्टोरी म्युनिसिपल इलेक्शन पर करेगी। दिल्ली में! बत्ती, कूड़ा दोनों!

कदम्ब का पेड़ अपनी पूरी बहार पर था। दाहिनी ओर, गली से ठीक पहले वाले नीले रंग के मकाननुमा ढाँचे पर, जिसकी सीमेंट झरी-झरी सी लगती थी, काले रंग से एक नारा लिखा था और मार्क्सवादी हँसुए का चिह्न बना था।

उसने पलभर को, बिस्तर पर बैठ कर बाहर देखा। नीले आसमान में, बादलों के सफ़ेद टुकड़े थे, और कदम्ब की सबसे ऊँची शाख़ से एक पूरा पका कदम्ब लटका था। 

एक मुस्कुराहट के साथ वह नीचे उतर आई। लूची डाल के ठेले के पीछे सर्जिकल ऐपेरैटस की दुकानें थीं और फुटपाथ पर पाँव धरने की जगह नहीं। 

सारी दुनिया ऑपरेशन करवाने जा रही थी क्या? इनमें से कितने होंगे जो दुर्घटना ग्रस्त हुए होंगे! कुछ सड़क की उस तेज़ रफ्तार से जो अब रुकने को तैयार न थी, कुछ तो ज़रूर इमारतों के गिरने से मरे होंगे एक उबकाई सी आई उसे लेकिन क्या डॉक्टर ही कर सकते हैं शल्य चिकित्सा?

अनेक किस्मों के लोग थे, कुछ व्हील चेयर, कुछ मूविंग टॉयलेट ख़रीदते हुए। कुछ दूर आगे बढ़ने पर किताबों की दुकानें थीं एकदम सटी-सटी! फिर उसने ग़ौर किया कि वह सफ़ेद संगमरमर-सी इमारत दरअसल कलकत्ते की विश्वविख्यात यूनिवर्सिटी का हिस्सा थी–प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज और वह सड़क पार कर गई।

और उसने देखा जहाँ वह पहले खड़ी थी उन दुकानों के ऊपर एकदम वैसी ही इमारतें थीं, वैसी ही खिड़कियाँ किसी दूसरे ज़माने में खुलती हुई!

क्या किसी का घर था या फिर किसी पुराने दफ्तर का हिस्सा? ये मकान थे शायद और सरकारी नहीं थे। लेकिन, कोई तो होगा इनके रख-रखाव का ज़िम्मेदार! क्योंकि अगर इन्हें ऐसे ही छोड़ दिया जाए तो ये मकान, सारे बाज़ार के सर पर गिर पड़ेंगे! सरकारी प्रावधान होंगे! 

वह थोड़ी दूर तक चलती गई और उसने देखा कि एक मकान बहुत बढ़िया रख-रखाव में और दूसरा बिल्कुल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में! पूछने पर लोगों ने बताया कुछ पुराने जमींदारों के घर हैं, बँटवारे के बाद कुछ ने ध्यान रखा, कुछ ने नहीं ध्यान रखा। कुछ केवल हक़दारी की लड़ाई में चले गए। और मामला इतना आसान कैसे हो सकता है, इनमें से कुछ विवादित ढाँचे हैं जिनको लेकर मुक़दमा चल रहा है और कमाल की बात इनकी देखरेख कोई नहीं करना चाहता, सब केवल अपने हक़ के काग़ज़ चाहते हैं। 

तो क्या यही कहानी है शहर भर में बिखरे ऐसे मकानों की? इस तरह, अनेक युगों में खुलने वाली खिड़कियों के इतने ख़ूबसूरत मकान ऐसे जर्जर कैसे हो सकते हैं? बाक़ायदा नियम हैं, हेरिटेज इमारतों के संरक्षण को लेकर! जस-का-तस रहना चाहिए उनका बाहरी हिस्सा! ख़र्च है और उससे बचने का बहुत आसान तरीक़ा, अगर ख़र्च किया ही न जाए, यों ही छोड़ दिया जाए तो शायद एक दिन ख़तरा बन गई हैं इमारतें का टेंडर पास हो जाएगा और कोई लोगों की रिहाइश बनाने वाला बिल्डर इन्हें गिरा देने की अनुमति पा जाएगा। किसकी इच्छा है, इन्हें बचाने की? ये उस समय के फ़ैशन में, भारतीय लगान से भारतीय कारीगरों द्वारा बनाई गई भारतीय ज़मींदारों की इमारतें भी हों, इन्हें कोई नहीं बचाना चाहता। किसी राजनैतिक प्रोपोगैंडा और साज़िश की तरह, ये सब-की-सब केवल एक बीते हुए साम्राज्यवादी युग की बोझ स्मारिकाएँ बताई जा रही हैं शायद, जिन्हें ढहा कर लोगों की रोटी के नाम पर लोगों के होटल-मकान बनाए जाएँगे और अपनी आला उम्दा गाड़ियों में नेता इनका उद्घाटन करने आएँगे! क्या दिल्ली, क्या मुम्बई, क्या कोलकाता! हम क्यों नहीं बचाना चाहते, अपनी कोई धरोहर, संग्रहालयों के बाहर, सड़क पर? हम इतनी पुरानी सभ्यता हैं, हमें ज़रा फ़ख्ऱ क्यों नहीं? हम क्यों डर जाते हैं ज़रा सी अलग ढंग की इमारतें तक बचाने में?

मीठे के शहर में, मैदे की लूची के तैलीय स्वाद के साथ-साथ, एक अजीब सी कड़वाहट उसके मुँह में भर गई। एकबारगी, वह फिर से सड़क पार करने को हुई कि डगमगाता हुआ एक साइकिल वाला, रिक्शे वाले को हटाता लगभग उससे टकराने को आमादा हो गया! 

होटल की गली में लौटी, तो उसने देखा पहले क़दम पर ठीक ऊपर एक नन्हे से बोर्ड पर हिंदी में लिखा था, बंकिम चन्द्र पुस्तकालय! एक पल को वह वहीं, खड़ी रही, कितनी गर्मी थी। गली के पार, फुटपाथ की सीध में पान वाले की दुकान थी। उसने गुलकंद डलवा कर, अपने लिए एक बड़ा सा बीड़ा बनवाया, और गली के भीतर मुड़ गई। होटल के बाद, एक सरकारी अँग्रेज़ी इमारत थी, वही हरी खिड़की वाली घुमावदार बे-विंडो, इतनी ख़ूबसूरत कि दाख़िल होने का जी करता था। लेकिन, वहाँ पल भर खड़े होकर तहक़ीक़ात करना संभव नहीं था। कचरे के ढेर में मुँह दिए स्ट्रे डॉग्स थे, उसे अपनी गली के कुत्ते की याद आई जिसे वह सुबह-शाम बिस्किट खिलाया करती थी। क्या उसका शोध शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो रहा था? या कि उसके असल अर्थों में शुरू होने की कोई संभावना ही नहीं थी? 

वह यूरोप भी कभी नहीं गई, लेकिन तस्वीरें उसने देखी थीं। निजी संपत्ति से भी ज्यादा सँभाल कर रखी गई थीं, हेरिटेज बिल्डिंग्स!

बंकिम चन्द्र के घर कम लाइब्रेरी का गेट बंद था। भीतर एक प्रतिमा थी, जिस पर डली गेंदे के फूल की माला बासी होकर सूख रही थी। उससे ज्यादा ताज़ी मालाएँ सामने मंदिर की प्रतिमा पर थीं। घर भारतीय शैली का था। खिड़कियों वाला बड़ा दो मंज़िला मकान! उसकी इच्छा हुई भीतर जाकर, लाइब्रेरी की ख़ाक छाने। कोई पुरानी डायरी मिल गई तो उसके जीवन भर का शोध पूरा हो जाए!

लेकिन, द्वार बंद और समय कम! वह ज़रा देर ठिठकी-सी खड़ी रही कि मिहिर का फ़ोन आया और वह उसे उन इलाक़ों के बारे में बताने लगा जहाँ इस पुरानी स्थापत्य कला की, क्लासिक इमारतें थीं। पुरानी इंश्योरेंस इत्यादि के दफ्तर थे। राइटर्स बिल्डिंग, उसने इंटर नेट पर भी ढूँढ़ निकाला था। मिहिर ने बताया, वो आज के ज़माने का सेक्रेटेरिएट था। उसके लिए यह सब कुछ देखना ज़रूरी था, उसने कहा। मिहिर उसे, उस पूरे इलाक़े का टूर देने को तैयार था। 

लेकिन, तय यह हुआ, कि उस दिन वह ख़ुद से शहर घूमेगी! ऐसी ही उसकी मंशा थी। ‘शहर से कभी अकेले में भी बातें करनी चाहिए, वह कुछ राज़ की बातें बताता है।’ हँसते हुए एक जुमला भी उछाल दिया उसने।

उसने बाटिक प्रिंट की चीज़ें ख़रीदने के लिए सबसे रिज़नेबल मार्केट्स के बारे में पूछा, और दिन का कार्यक्रम, कुछ इस तरह बना कि काम के घंटों के बाद, वह हाथी बागान और श्याम बाज़ार जाएगी। ‘उस रास्ते में भी कई विंटेज इमारतें आपको मिलेंगी।’ मिहिर हँसा, और बोलता गया, ‘तो आज आपका काम रहा, कलकत्ता भ्रमण! चार बजे से पहले, नेशनल लाइब्रेरी पहुँचेंगी तो पब्लिक पास बन जाएगा।’ एक लहरदार हँसी के साथ, फ़ोन उसने रख दिया।

‘और रास्ते में इस तरह की इमारतों का जायज़ा-मुआयना करती चले’, मिहिर की ओर से, कुछ हिदायतें उसने गढ़ कर उचार दीं, फ़ोन को भीतर रखने के साथ-साथ! 

लेकिन, रास्ते की इमारतें ऐसी थीं कि उन्हें बिना असाइनमेंट भी मिस नहीं किया जा सकता था। वही लंबी ख़ूबसूरत खिड़कियाँ, जिनके पल्लों की जालीदार, तिरछी, झुकी लकड़ियाँ, रौशनी और धूप के संपूर्ण आनंद के लिए बनी थीं, वही आकर्षक रंग जो बनावट के साथ-साथ स्टैंड आउट करता था, इस गहरे बंद हाल में, कि सच अफ़सोस हो रहा था। 

क्या यह इन्हें एक दिन ढहा देने की साजिश नहीं? इसी तरह कितनी ऐसी इमारतें गिरा दी गईं जो पहले दफ्तर थीं या पहले सरकारी भी थीं और अब नहीं हैं। ऐसे मकान थे, जो कभी गुलज़ार थे, जिनके आगे इक्के-घोड़े, फ़िटन बंधे थे, मुमकिन है अँग्रेज़ों का आना-जाना हो, उसने सारा दृश्य अपनी कल्पना की आँखों से देख लिया था। आज ये घर कचहरी के मुक़दमे में ऐसे उलझे थे कि ईंट-ईंट झरने को तैयार थी। कई मालिक मकान होने का दावा करने वालों से मिहिर ने हमारी होनहार रिपोर्टर को मिलवा भी दिया! रख-रखाव के सरकारी प्रावधानों को लेकर, जब इस रिपोर्टर ने सवाल पूछे, तो लगभग यही जवाब हर जगह मिला, ‘परमिट ऑफ़िस में दो-चार हज़ार खिलाने से ओके का सर्टिफिकेट मिल जाता है।’ 

उसने सारे नोट्स इकट्ठे कर लिए थे। लेकिन, कितना कुछ होता है जो एक पत्रकारी नोटबुक में दाख़िल नहीं होता। ‘एक्सक्यूज़ मी योर ऑनर, स्पेक्युलेशन!’ अदालत में आपत्ति उठाता है विपक्षी वकील! ओवर रूलल्ड या सस्टेन्ड, ये जज पर भी निर्भर करता है, क़ानून के सफों पर भी! पत्रकारिता में भी थोड़ी बहुत आशंकाएँ, थोड़े बहुत अनुमान हमेशा शामिल होते हैं। आख़िर, मौसम भी संभावनाओं में ही शुरू करता है ख़ुद को बताना! लेकिन एक पूरी कल्प कथा, अनुमानित गल्प ख़बरों में नहीं चलाया जा सकता! डॉक्यूमेंट्री में, उम्म्म, ज़रा सा!

वैसे तो इतिहास की भी सबसे अच्छी किताबों में शुमार है, ‘फिक्शन इन द आर्काइव्स’! ‘सबसे ऊपर है, मनुष्य का सत्य, कहा था कवि गुरु ने!’ लेकिन, कितने घरों की कथा वारिसों को भी नहीं मालूम! आह! कैसे फ़ाइल होगी रिपोर्ट? वह हँस पड़ी! 

दो दिनों के भीतर, मिहिर उसे डलहौजी और हेस्टिंग्स समेत पुराने कलकत्ते की पूरी सैर करवा चुका था। ऑफ़ कोर्स, फोर्ट विलियम अपने आप में एक ट्रीट रहा! किसे नहीं पसंद, टाइम ट्रैवेल! वह भी आर्मी की निगरानी में! ‘श्याम बाज़ार के पीछे फूल बागान भी है। हम वहाँ भी झाँक लें!’ मिहिर ने कहा था, ‘और सत्तावन से पहले तो ये लोग, लोगों के साथ, यानी आम हिन्दुस्तानियों के साथ, मिले-जुले, इनकी बस्तियों में ही रहा करते थे।’

‘लेकिन, व्यापार की शर्तें और दाम, वे ही तय किया करते थे–अँगरेज़ ही!’ हमारी रिपोर्टर बीच में टपकी! 

‘हाँ, तो हम गरिया हाट और ज़रा न्यू मार्केट के पीछे वाली बस्ती भी छान लें!’ मिहिर पूरी रौ में था। स्टोरी में उसे भी बाई लाइन मिलने वाली थी। ‘और तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है’, वह ऐसा चिंहुका कि हमारी रिपोर्टर, चिकोटी काटे बिना रह न सकी, ‘आपका भी अच्छा कलकत्ता भ्रमण हो रहा है! हा-हा!’ किंतु, जैसे ही मिहिर ने एक दोस्तानी मिश्रित घुड़की भरी नज़र से उसे देखा, वह ‘मतलब धन्यवाद्’ में सिकुड़ गई। आज कल की पत्रकारिता में कोई आनंद तक नहीं साझा करता। काम तो कर ही रहे हैं, ज़रा सा काम का आह्लाद भी ज़ाहिर करने में क्या बुराई? लेकिन, समय का तकाज़ा है कि कुछ भी पाना हो तो लगातार काम का रोना रोओ! ‘मैं दो दिन से नहीं सोया!’ तकिया कलाम था, दिल्ली दफ्तर के सबसे हिट रिपोर्टर का! बाद में पता चलता था, नेताओं की पार्टी में रातभर नाचा! ‘साला, पक गया हूँ मैं। तुम्हें पता है, कितना थकाऊ, उबाऊ काम है। लेकिन, ऐसे ही मिलती है असल पहचान! ऐसे ही मिलते हैं स्टोरी के सोर्स! करना पड़ता है!’ 

तू तू, मैं मैं के बाद, बत्तीसी निकाल कर कहता। ठीक उसी अंदाज़ में, मिहिर कह रहा था, ‘मैं तो कलकत्ते में भटक-भटक कर थक गया हूँ। हाँ, कोई ऑउटस्टेशन रिपोर्टिंग मिले तो बात अलग है।’ वह ज़रा सा मुस्कुराया। और सर हिला दिया हमारी रिपोर्टर ने! 

‘तो ये है बो बैरक्स! पहले विश्व युद्ध के समय यहाँ सैनिक रहते थे।’

हरी खिड़कियों वाली, वही लाल  इमारतें, जो अपनी ख़ास वास्तु शैली से, दूर से पहचान लीं जाएँ, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की तरह पास बुला रही थीं। 

‘इनकी भी हालत, हो सकती थी बेहतर!’ हमारी रिपोर्टर के कहने पर, सर हिलाकर अनुमोदन किया मिहिर ने। स्टोरी उसे धाँसू चाहिए थी। फिर रिपन स्ट्रीट, एलियट रोड और पार्क स्ट्रीट होते हुए उस शाम वह अकेली लौट रही थी जब अचानक बाज़ार में एक विदेशी से भेंट हुई। जॉन दरअसल इंग्लैंड का था, लेकिन आस्ट्रेलिया में बसा हुआ। थोड़ी सी हाय हेलो, थोड़ी सी बातचीत के क्रम में उसने बताया, वह अपनी माँ का घर ढूँढ़ रहा है! उसकी माँ का जन्म हुआ था कलकत्ते में, पता नहीं वह घर है भी या नहीं! और भी बतायी कहानी उसने, बेहद दिलचस्प! उसके नाना के यहाँ आकर बसने, एक कंपनी के लिए काम करने की कथा, जो एक लंबी रिहाइश की कथा थी।

हमारी रिपोर्टर को लग रहा था जैसे उसकी लॉटरी लग गई हो! अपने लिए रखा एक दिन उसने नवागंतुक के नाम किया, लेकिन, अगले पूरे दिन उसके साथ भटकने पर भी, उसके पुराने घर का कोई सुराग न मिला। एक उदास सी शाम, नारंगी बैंगनी होकर रात में तब्दील होने को थी, कि पूछते-पूछते कि इसी कोलकाता की बैलीगंज सर्कुलर रोड, चक्रा बेरिया, बैलीगंज में एक ऊँचा, बहुत ऊँचा अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स दिख गया, फ्रेंच भाषा में अपना वैसा ही ख़ूबसूरत सा नाम बताता हुआ, जैसे नाम का वह घर ढूँढ़ रहा था! हम दोनों, इतिहास के एक लम्हे के सामने खड़े थे!

कहानी वही थी, लेकिन बात उस किरदार की थी। अँग्रेज़ी में उस इमारत का नाम होता था, ‘द पाल्मेरिया’, ऐसा कुछ! उस बंगले का ठीक-ठीक क्या नक्शा था, जिसे तोड़कर यह आदमकद अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स तैयार किया गया था, ख़ुद जॉन को भी मालूम नहीं था।  

लेकिन, जैसे वह दिवंगत माँ और कभी न मिले पुरखों से मिल रहा था! बहुत पूछने पर तो भगवान् भी मिल जाते हैं, वह क़हक़हा लगा रहा था! जैसे इतने से ही लगभग ख़ुश हो गया हो! तालतला में, चर्च भी उसने खोज निकाला था, जो उसके ग्रैंड फादर ने बनवाया था। और उछल गया था लगभग! ‘ये तो पूरा सलामत’! सब अपेक्षाओं का खेल है उसने उससे कहा था, और पूरी आस्था के साथ जाकर चर्च में उसने प्रार्थना की थी! उसके साथ-साथ हमारी रिपोर्टर ने भी! हमारी रिपोर्टर के लिए चर्च में जाने का यह पहला मौक़ा था, और पहली बार उसने वह एक अनोखी शांति महसूस की, जिसे शायद काम्यू के शब्दों में आउटसाइडर होकर महसूस किया जा सकता है। किसी ऐसी जगह की शांति, जो हमारी अपनी नहीं है, हमेशा बहुत सुकूनदायक होती है। 

एक चक्कर उन्होंने शहर के एंग्लो इंडियन इलाक़ों के भीतर भी लगाया, और बहुत मुमकिन है कि यहाँ बिखरी पड़ी हों कहानियाँ, इनके वंशज काम करते रहे हों कंपनी के वृहत से भी वृहत ढाँचे में, हिस्सा रहे हों साम्राज्य की विस्तृत संरचना का, लेकिन अंधियाती, गहराती, लगभग घिर आई रात के जल्दी में पकड़े कुछ मिनटों में ऐसी कहानियाँ नहीं कही, सुनी जातीं। वैसे भी, डेढ़ मिनट की एक स्टोरी के लिए इतनी तहक़ीक़ात क्या?

फिर भी, क्या वे घर, चौ-खम्भे पोर्टिको, लंबे दरवाज़ों, विशाल आहातों, बागानों, बरामदों वाले, जो इतने शौक़ी से बनाए गए, और जहाँ ठीक से देखे भाले गए वहाँ आज भी मिनिस्टरों के बंगले हैं, और जहाँ नहीं देखे गए, वहाँ आए दिन गिर कर जानलेवा हो रहे हैं, क्या वे सब कंपनी के घर थे? और बाद में, क्राउन के हो गए? यानी सरकारी? कंपनी भी क्या एक ही थी?

क्या वे लोगों के अपने निजी मकान थे? निजी संपत्ति, ख़रीदी हुई? पर किससे? दंगों के बाद भी, लूटी हुई संपत्ति ख़रीदी और बेची जाती है! फिर, युद्ध में अर्जित धन, ज़मीन, गद्दी का कहना ही क्या? 

क्या वे बेची भी गई होंगी जाने से पहले?  कैसे हुआ बँटवारे का हिसाब, अँग्रेज़ी सरकार और उनके फर्माबरदारों के बीच? आख़िर, कुछ तो ज़रूर सरकार ने आयोजित- प्रायोजित किया होगा, बल्कि कहें कि सरकारों ने! लेकिन इस व्यक्ति से पूछने पर अथवा उन इलाक़ों में, उन सड़कों पर किसी से पूछने, घंटों जिरह करने पर भी, इसमें से कुछ पता करना मुश्किल था, और पूरा पता करना असंभव था। 

आर्काइव्स में जाकर ख़रीद-बिक्री के काग़ज़ देखने जैसे, किसी उपक्रम के लिए बहुत देर हो रही थी। यों भी, टेलीविज़न की ख़बर के लिए, आरकाईवल रिसर्च पागलपंथी नहीं तो क्या है? वह मुस्कुरा दी! उस पर भी कोई स्टोरी सनक की तरह ही सवार होती है। जॉन रुक रहा है, पूरे एक महीने के लिए कलकत्ते में! डॉरमेट्रीज़, होम स्टे, फाइव स्टार, सब के स्वाद आज़माता हुआ! यहीं से सुंदरबन, शांति निकेतन करेगा! यानी वह हर जगह घूमने से ज्यादा कुछ करता है! मुमकिन है, उस रात किसी एंग्लो-इंडियन परिवार के घर टिक जाए, उनसे गप्पें लड़ाता! सुनता उनकी परिवार गाथा! जाने वह किताब भी लिखेगा या नहीं! यह इंडिया ट्रिप उसके लिए एक हेरिटेज-कम-तीर्थ यात्रा है, या और भी कुछ? क्या हर शोध, केवल लिखने के लिए होता है? क्या सौंदर्य की तरह, ज्ञान भी रिझाता नहीं? 

स्टोरी में इस तरह उलझी रही कि कोई व्यक्तिगत बात पूछना भूल गई हमारी रिपोर्टर! पता तक न लिया! यानी आज का पता, ईमेल! आगे ही पूछ लेती! क्या-क्या मिला? क्या न मिला? 

एक नए उत्साह से लदी-फंदी हमारी रिपोर्टर स्टोरी लिखने अपने ठिकाने पहुँचीं। पिछले कुछ समय में कलकत्ते में ध्वस्त इमारतें ही नहीं, पुल-पुलियाओं के भी आँकड़े उसने इकट्ठे कर लिए थे। साथ ही, इमारतों की बदहाली के कारण लगने वाली आग के हादसों की भी ख़बरें पास थीं। 

उसने लिखना शुरू किया, ‘एक ज़माना दिखता है आँखों के आगे कहीं ओझल न हो जाए’ ब्रैकेट में लिखा, इसके साथ कुछ पुरानी इमारतों की फुटेज दिखाई जाएगी जो मिहिर के साथ कैमरा मैन ने शूट की! फिर न जाने क्या सोचकर, कुछ म्यूजिक कुछ फ़िज़ ऐड करने के लिए उसने कमरे में लगा टेलीविजन ऑन किया और अपना चैनल लगाया, तो सामने आग की लपटों का तांडव था।

दिल्ली में नेशनल म्यूजियम ऑफ़ नेचुरल हिस्ट्री में भयानक आग लगी हुई थी और वह यानी अमित, यानी दिल्ली का वह चमचा, शोहदा रिपोर्टर, उसके सामने खड़ा पी टू सी कर रहा था। फूलों के कितने एक्सटिंक्ट, आदिम प्रकार आग में झुलस कर ख़ाक हो रहे थे, न जाने और कितनी स्पीशीज़ के स्पेसिमेन! तमाम छोटे-बड़े न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर कैमरे समेत इकट्ठा थे। घटनास्थल पर जितने दमकल वाले थे, लगभग उतने ख़बर दिखाने वाले! तमाम रिपोर्टर्स एक दूसरे को ठेलते, आगे पीछे कर रहे थे। उस भीड़ में लगातार अपनी जगह बनाता, आग के यथा संभव क़रीब जाता, माइक थामे, अपने हाथ ऊपर उठा-उठाकर, वह इस भयंकर दुर्घटना से होने वाली भीषण क्षति का दर्द बता रहा था। 

उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। धार-धार आँसू! 

उसका वह वाक्य हवा में टँगा रह गया, ‘कलकत्ते के कई इलाक़ों में, न्यायालय की छुटि्टयों के दिन, कितने विवादित ढाँचों पर मकान बनाने वाले नए बिल्डर्स बुलडोजर चला रहे हैं।’


कलानाथ मिश्र द्वारा भी