संताप
- 1 April, 2025
शेयर करे close
शेयर करे close

शेयर करे close
- 1 April, 2025
संताप
संताप का एक महीन रेशा
कुलबुलाता है मेरी साँसों में
कुछ ठक् से आकर लगता है
छाती पर
उस ठक् का आघात छाती से अधिक
हृदय पर महसूस करती हूँ
बोल टूट-टूट जाते हैं
और बजती है एक सरगम
अचीन्ही-सी
बावरी दृष्टि ढूँढ़ती है उस आवाज़ को
पर कौन जाने मेरी कस्तूरी में
गंध से अधिक बिखरी हो
आवाज़ की टूटन
कुम्हला जाता है हृदय इन अघातों से
मैं शक्तिहीना दु:ख की रोटियाँ सेंकते
जला लेती हूँ उँगलियाँ
फिर भी रह जाते हैं
मेरे शब्द वंचित
उस दहक से
जिसने मेरे पोर झुलसा दिए
आँखों में अटके हैं सहस्रों शब्द
रुँधता है कंठ
माथे की नसों में महसूस करती हूँ
एक अतृप्त फड़क
फिर भी
प्रिय मेरे
तुम्हें देखकर मैं अपना विलाप
कर देती हूँ स्थगित
अनंत काल के लिए
घाव गहरे बहुत हैं
जब तब रिसते हैं
आँखों की कोर से
ज़ेहन में बसी वो पीली तितली
जिसकी देह अचल पड़ी है
मेरी हथेली पर
भटकती रही कई वर्षों तक
व्याध ढूँढ़े नहीं मिलता
शंकाएँ सिर उठाती हैं
दृष्टि गिरती है
अपने नखों की ओर
एक कौंध चेहरे को घेर रही
कृशकाय ओंठ फड़फड़ाते हैं
अस्फुट किसी प्रार्थना में!
शोक की एक गहरी तान
कर्णफूल में आकर हिलग गई है
ढूँढ़ने को अब बचा नहीं व्याध कोई!
ओ प्रिय मेरे,
हमें ध्यान से देखना चाहिए आईना
ध्यान से देखो तो पाओगे ये गूढ़ रहस्य
कि स्वयं को मृत्यु के हाथों सौंप देना
आत्महत्या का सबसे आसान तरीक़ा है।