पिंजरे का पंछी
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- 1 April, 1950
पिंजरे का पंछी
हमारे ‘द्विज’ बिहार में कविता की नई धारा के अग्रदूतों में रहे हैं। किंतु, उनकी रचनाओं से इधर हिंदी-संसार सर्वथा वंचित रहा है। क्यों? ‘पिंजरे का पंछी’ में उन्होंने इस ‘क्यों’ का उत्तर ही नहीं दिया है, अपनी मर्मव्यथा भी प्रकट की है! क्या ‘नील गगन के’ उनके ‘साथी संगी’ आशा कर सकते हैं कि वह एक बार फिर इस ‘पिंजरे के संसार’ से बाहर निकल कर अपनी ‘चहक’ से साहित्याकाश को मुखरित करेंगे?
मगन चिरैय्या था वन का मैं,
कुछ दानों पर जा टूटा!
सोने के पिंजड़े ने मेरे
तन-मन का सरबस लूटा!
अब तो रटना ही है केवल,
खुलकर गाना भूल चुका!
बँधा हुआ दारुण सच से हूँ,
सब सपनों का सँग छूटा!
नील गगन से साथी-संगी,
रो-रो मुझे पुकार रहे!
बाहर निकल चहकने को
कह, हाय मुझे वे मार रहे!
किंतु, न मुझमें, या कि उन्हीं में
देख रहा मैं दम इतना–
जिससे मेरे लिए न आगे,
पिंजरे का संसार रहे!
यह छोटा संसार मोह का,
मायामय सम्मानों का–
दिल का नहीं, गीत जो मुझसे,
सदा गवाता दानों का!
अँगा गया मुझको, पर मेरा,
मन भी है क्या मगन यहाँ?
प्राण पिघल जाते जिससे,
वह गान बना है कानों का!