प्यार के भाव
- 1 October, 1951
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- 1 October, 1951
प्यार के भाव
“…जब बंबई जाऊँगा तो कोलाबा में प्यार के भाव पूछ और अपनी जेब देख प्यार खरीदूँगा।”
यहाँ से छप्पन मील दूल एक कस्बा है और उस कस्बे की एक गंदी बस्ती में एक लड़की रहती है, सुंदर, बहुत सुंदर। और मुझे उससे प्यार हो गया है। दो स्थानों के इन छप्पन मीलों की दूरी से कहीं अधिक सामीप्य का अभाव रहता है, इन दो प्रेमियों (एक के विषय में मैं निश्चित नहीं) की सूनी रातों में, जिनके बीच इतने सारे मील के पत्थर जैसे बिछड़न की सिसकारियों से भरी प्यार की चाँदनी रातों का सूनापन नापते हों। और मेरा चंचल मन इस बोझिल शरीर को मजबूर करता है कि रोज-रोज इन मीलों के बेजान पत्थरों की चुनौती स्वीकार की जाए। मतलब इस तरह समझिए कि मैं हर रोज नहीं तो दूसरे-तीसरे उस कस्बे में गड़े छप्पनवें मील के पत्थर से कहता हूँ, “देख, मैं यहाँ आ गया।”
एक दिन की बात है कि मैं वहाँ गया, कुछ इसलिए कि एक दिन पहले सुना था, कि लड़की के मुहल्ले वाले मेरा आना-जाना बंद करने वाले हैं, तो मैंने सोचा कि देखा जाए।
आना-जाना बंद करने वाले तो कोई नहीं दिखे; किंतु आना-जाना मेरा अवश्य बंद हो गया, मैं उस लड़की को ही यहाँ ले आया।
यहाँ एक रात जब उसके पास रहते हुए भी बेकरारी बहुत बढ़ गई, तो मैंने उससे कहा, “लाओ तुम्हारा हाथ चूमूँ, यहाँ आओ, तो तुम्हारी गोद में सिर रखकर सो जाऊँ और जब उठूँ तो सुबह की अलसाई किरणों में तुम्हारे बालों की नागिनी लटों से खेलूँ, मुझे वे बहुत भली लगती हैं।”
मैं खूब रोया, जब उसने कहा, ‘अभी नहीं।’
और वह कहती ही गई, अभी नहीं।…अभी नहीं…अभी नहीं।
[अभी नहीं। उसे याद आ गई ‘सरल’ की। हाँ, उसे आज भी नहीं मालूम कि सरल उसके बारे में क्या सोचती थी और आज यह तय है कि वह भी ‘सरल’ के विषय में वैसे नहीं सोचता, जैसे तब सोचता था कि जब वह उसके साथ पढ़ती थी और उसका उससे प्यार हो गया था।
“अभी नहीं…अभी नहीं।” अरे जिंदगी में कब नहीं उसकी उदार भावनाओं ने उसे अपमानित कराया है। कभी एक लड़की उसे भाई कहती थी और एक दिन जब उससे कहा, ‘दीदी, आज चलते-चलते तुम जरा मेरा माथा तो चूम लेना’ तो वह उससे, कहने को बहन, कह उठी थी अभी नहीं।]
“अभी नहीं, अभी नहीं, अभी नहीं!” अभी उस दिन की बात है मैं बंबई में दिन भर की थकान मिटाने, कोलाबा में विक्टोरिया में चला जा रहा था कि सोलह-सत्रह के एक लड़के ने इशारे से मेरी विक्टोरिया रुकवाकर पूछा, “साहब कुछ चाहिए…”
मैंने कहा, “कुछ, क्या लड़के”
“साहब पंजाबी है, गुजराती है और एंग्लो इंडियन भी। यदि स्कूल कॉलेजों में पढ़ती कम उमर की लड़कियाँ आपको चाहिए तो ज्यादा लगेगा।”
मैंने कहा, “भाई भलाँ शहर की गर्ल्स स्कूल में एक लड़की पढ़ती है, मेरा उससे प्यार हो गया है। उसको ला दो, जो माँगोगे दूँगा।”
वह रूखे स्वर में बोला, “साहब, आप तो मजाक करते हैं।”
विक्टोरिया ड्राइवर से गाड़ी आगे बढ़ाने कि लिए कहकर, मैंने उससे चलते-चलते कहा…“तुम भी तो मजाक कर रहे थे।”
अब मैंने सोचा है, जब बंबई जाऊँगा तो कोलाबा में प्यार के भाव पूछ और अपनी जेब देख प्यार खरीदूँगा। और मैं ऐसा सोच ही रहा था कि मेरी प्रेमिका जो पास में बजते लाउड स्पीकर में बजते एक ‘पापुलर’ रिकार्ड (रिकार्ड भी न बतला दूँ, क्या था? “ख्यालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते, किसी को बेवफा आ आ के तड़पाया नहीं करते”–हाँ यही था वह) को शब्दबद्ध कर रही थी, लिखना बंद कर बोल पड़ी, “निर्मल, तुमने कभी मुझे एक खत लिखा था, जिसमें बस एक शेर के अलावा कुछ नहीं था। वह शेर था–
“न कोई वादा, न कोई यकीन, न कोई उम्मीद,
मगर हमें तो, तेरा इंतजार करना था।”
तो, जनाब जरा यह तो समझाइए कि जब कोई वादा नहीं, और यकीन, उम्मीद भी नहीं, तो ये कैसा कमअक्ल प्रेमी जो इंतजार करता है?
Image Source: Wikimedia Commons