हमें यह कहना है!

हमें यह कहना है!

राजर्षि श्री पुरुषोत्तम दास जी टंडन कांग्रेस के नासिक अधिवेशन के अध्यक्ष चुन लिए गए। यह समाचार हिंदी-संसार में बड़ी प्रसन्नता से सुना जाएगा। टंडन जी का जीवन हिंदीमय रहा है। देश-प्रेम की भावना उनमें हिंदी-प्रेम के रूप में प्रस्फुटित हुई! हिंदी-साहित्य-सम्मेलन उनका वह मानसिक और आध्यात्मिक शिशु है जिसका पालन-पोषण, वृद्धि और विकास उनके जीवन की साँस बन गया है। रोलेट-एक्ट के युग में देश की पुकार आई और हमने उन्हें आगे की पंक्तियों में लड़ते और जूझते पाया। 1921 में वह गिरफ्तार किए गए और जब एक लंबी सज़ा भुगत कर लौटे, हमने उन्हें बिल्कुल नए रूप में पाया। एक रोबीले, वाकपटु वकील की जगह अब हमारे सामने एक ऋषितुल्य महापुरुष खड़ा था! टंडन जी की धुन और अड़ प्रसिद्ध है। जिसे वह सत्य समझेंगे, उसे कहने में जरा भी भय नहीं, झिझक नहीं। जहाँ तक जीवन में गाँधीवाद को उतारने का प्रश्न है, शायद ही वह किसी से पीछे हों; कोई नेता उनसे आगे है, यह कहना तो गलत ही होगा। किंतु जहाँ गाँधीजी से विचारों में मतभेद हुआ, वह निधड़क कहने से कभी नहीं चूके। और यह हमारे देश में अपराध है–नहीं तो हम टंडन जी को कब के इस पद पर आसीन देख लिए होते। लेकिन, उनकी सेवा, उनके त्याग, उनके तपोमय जीवन को एक न एक दिन सारे देश की स्वीकृति मिलनी ही थी। वह मिलकर रही। शायद हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन कराने के बाद ही उन्हें राष्ट्रपति का यह पद प्राप्त होना था। इस निर्वाचन से हम फूले नहीं समा रहे और उन्हें शब्दों में कितनी बधाई दें, यह समझ नहीं आ रहा! हम आशा करते हैं, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने में अब भी समय की जो अड़चन रह गई है, वह टंडनजी के इस पद पर पहुँचने से बहुत कुछ दूर हो जाएगी! अपने सबसे बड़े बेटे को इस पद पर अधिष्ठित देख सचमुच आज माता-हिंदी फूली नहीं समा रही होगी!

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अब तक साहित्य के कंधे पर राजनीति रही, लेकिन मालूम होता है, अब साहित्य के दिन आ गए और उसे राजनीति अपने कंधे पर बिठलाने को व्यग्र है! अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष टंडन जी चुने गए; यहाँ बिहार में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति श्री लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी को, उनके बार-बार अस्वीकार किए जाने पर भी, प्रांतीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। साहित्य में जो सहृदयता और सरसता होती है, शायद वही मुख्य कारण है। जिससे सुधांशुजी को प्रांतीय कांग्रेस के दोनों सूत्र-संचालकों का समान प्रेम प्राप्त है। सचमुच यह स्थिति किसी के लिए स्पृहनीय हो सकती है! यों ही मध्यप्रदेश में आज चार वर्षों से सेठ गोविंद दास जी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाते रहे हैं और इस वर्ष भी सर्वसम्मति से चुन लिए गए हैं। राजनीति पर साहित्य की यह विजय हम साहित्यकों के लिए गौरव की वस्तु है। सेठ जी और सुधांशु जी को हम इसके लिए हृदय से बधाई देते हैं।

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यह अच्छी बात हुई कि बहुत दिनों से सम्मेलन और सरकार के बीच रेडियो की भाषा-नीति को लेकर जो संघर्ष चल रहा था, उसका अंत हो गया। रेडियो की भाषा-नीति बुखारी-युग की छाया थी; वह छाया अब दूर हो रही है, सम्मेलन की रेडियो समिति ने इसे स्वीकार किया है। अहिंदी प्रांतों में रेडियो द्वारा हिंदी की शिक्षा का जो प्रयत्न किया जा रहा है और देश के प्राय: सभी रेडियो-स्टेशनों से हिंदी समाचारों के प्रसार के जो प्रबंध किए गए हैं, वह भी सराहनीय है। कुछ ऐसे नवीन सांस्कृतिक कार्यक्रम रेडियो ने प्रारंभ किए हैं, जो उसके द्वारा उचित दिशा में कदम उठाए जाने की सूचना देते हैं। हिंदी-कार्यक्रम की देखरेख के लिए हिंदी भाषी प्रांतों के हर रेडियो-स्टेशन पर एक-एक ख्यातिप्राप्त हिंदी विद्वान को रखने की योजना भी बड़ी अच्छी है। श्री सुमित्रानंदन पंत इस योजना के प्रमुख हैं और सुना जाता है, श्री भगवतीचरण वर्मा की नियुक्ति भी इस कार्यक्रम के अनुसार हो चुकी है। हाँ, जहाँ तक स्टेशन-डायरेक्टरों में हिंदी-भाषियों की नियुक्ति का प्रश्न है, उसे यह कह कर टाल दिया गया है कि चूँकि यह अखिल भारतीय पद है, और उससे शासन का कार्य ही संबद्ध है, अत: यहाँ भाषा का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए। यों सिद्धांतत: यह बात मान भी ली जाए, तो भी क्या यह देख कर आश्चर्य नहीं होता कि देश के डेढ़ दर्जन से ज्यादा रेडियो-स्टेशनों के डायरेक्टरों में एक भी हिंदी भाषी डायरेक्टर नहीं! क्या हिंदी-भाषियों में ऐसा एक भी व्यक्ति योग्य नहीं, जिसे यह पद प्रदान किया जाता? रेडियो-विभाग की सदिच्छाओं पर बिना संदेह किए हुए भी, यह बात तो बार-बार खटकती ही है और तब तक खटकती रहेगी, जब तक इसका परिमार्जन नहीं किया जाता!

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हिंदी साहित्य सम्मेलन को नया रूप देने के लिए, पटना अधिवेशन में, जो उपसमिति गठित की गई, उसकी दो दिनों की बैठक हो चुकी है और फिर तीन दिनों की बैठक होने जा रही है। हमें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अब तक जो निर्णय हो चुके हैं वह सर्वसम्मति से ही। हिंदी साहित्य सम्मेलन के साथ ‘अखिल भारतीय’ शब्द जोड़ देने में भी सभी एकमत हैं, बशर्ते कि कोई कानूनी अड़चन नहीं आने पावे, क्योंकि सम्मेलन एक रजिस्टर्ड संस्था है और इस पुराने नाम से सम्मेलन की बहुत बड़ी संपत्ति है! यों ही सम्मेलन अपने नए रूप में सारे देश का सही प्रतिनिधित्व कर सके और सभी क्षेत्रों की हिंदी-संस्थाओं में एकात्मता लाई जा सके, इसके लिए समान सदस्यता और अनुपातिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत भी मान लिया गया है। इन दोनों मौलिक बातों में एकमत हो जाने से ही सिद्ध हो जाता है कि आगे की ब्योरे की बातों में भी सभी सदस्यों की सहमति प्राप्त हो सकेगी। जिन ग्यारह व्यक्तियों पर सम्मेलन को नया रूप देने का भार दिया गया है, उनका उत्तरदायित्व महान है! सम्मेलन का आगे का इतिहास उन्हीं की दूरदर्शिता पर निर्भर करता है। इसमें संदेह नहीं कि सभी सदस्य हिंदी के अन्यन्य प्रेमी और भक्त हैं। यदि कहीं मतभेद भी हो, तो वह उनके उस प्रेम और भक्ति पर आधारित होगा–किसी की दृष्टि में अमुक पद्धति सम्मेलन और हिंदी के विकास के लिए आवश्यक है, किसी की दृष्टि में अमुक पद्धति। जब हिंदी की सेवा और सम्मेलन का विकास ही सबका अंतिम ध्येय है, तो फिर परस्पर की सद्भावना से एक निर्णय पर पहुँच जाना असंभव नहीं। यह अच्छी बात हो कि सम्मेलन के अगले अधिवेशन के पहले ही नियमावली के संबंध में सब कुछ कर लिया जाए, जिसमें हम उस अधिवेशन में नए उत्साह और उमंग के साथ सम्मिलित हों और वहाँ मिलजुल कर एक ऐसा कार्यक्रम बना सकें, जिसे काम में लाकर हम हिंदी-भाषा, नागरी लिपि, हिंदी साहित्य और सम्मेलन का विकसित रूप–इन चारों को देश भर में व्याप्त कर दें।

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हिंदी के लेखकों को किस प्रकार सहायता पहुँचाई जाए, इसके लिए हिंदी-संसार में सबसे अधिक व्यग्र श्रीमती महादेवी वर्मा जी रहा करती हैं। हिंदी के अनाथ साहित्यिकों के लिए ऐसी दया-ममता तो मातृजाति से ही प्राप्त हो सकती थी! महादेवी जी ने इस संबंध में बहुत कुछ किया है और उन्हें सफलता भी मिली है। उनका ‘साहित्य-संसद’ इस दिशा में की गई उनकी चेष्टाओं का उज्ज्वल प्रतीक है। किंतु, सभी साहित्यिक प्रयाग पहुँचकर साहित्य-संसद के स्वागत-सत्कार से लाभ नहीं उठा सकते, अभी तक इस नवजात संस्था को ऐसे साधन भी तो प्राप्त नहीं कि वह उन्हें आमंत्रित किया करे। अत: महादेवी जी अपनी चेष्टाओं को यहीं तक परिमित नहीं रखतीं–उनकी ममतामयी दृष्टि सारे हिंदी-संसार पर दौड़ती रहती है और जहाँ आवश्यकता दीख पड़ती है, वहाँ यथासाध्य कुछ-न-कुछ किया करती हैं। हिंदी-संसार को यह समाचार मिला ही होगा कि ‘सरस्वती’ के भूतपूर्व संपादक, द्विवेदी जी की परंपरा को पत्रकारिता में निभाने में सर्वथा समर्थ, श्री पदुम लाल पुन्नालाल बख्शी कैंसर जैसे भयानक रोग से पीड़ित हैं। उनके लिए श्रीमती जी ने युक्तप्रांत की सरकार से कुछ सहायता दिलवाई है, लेकिन यह जान कर दुख हुआ कि श्रीमती जी द्वारा बार-बार इस ओर ध्यान दिलाए जाने पर भी मध्यप्रदेश की सरकार ने इस दिशा में अब तक कुछ नहीं किया, जहाँ के सपूत श्री बख्शी जी हैं। मध्यप्रदेश की सरकार का हिंदी-प्रेम प्रसिद्ध है। माननीय पं. रविशंकर शुक्ल जहाँ के प्रधान मंत्री हों और माननीय श्री द्वारका प्रसाद मिश्र ऐसे उच्चकोटि के साहित्यिक जिस सरकार के सूत्रसंचालक, वहाँ बख्शी जी जैसे साहित्यिक की इस गाढ़े अवसर पर ऐसी उपेक्षा की जाए, यह बात समझ में नहीं आती। सरकारी कामों में जो विलंब होता है, इसका दोष हम उसी को देते हैं और आशा करते हैं कि मध्यप्रदेश की सरकार–विशेषत: श्री शुक्लजी एवं मिश्रजी–देखेंगे कि मध्यप्रदेश के इस साहित्य-महारथी को इस दुरवस्था में आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़े।

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महाराजा नवलकिशोर सिंह पुरस्कार की बात बार-बार याद आती है। लगभग दस वर्ष हुए, इसकी चर्चा हुई और बीच में यह तय-सा हो गया कि बिहार सरकार का राजस्व विभाग इसके लिए सत्तर हजार रुपए बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन को देगा जिसके सूद से दो हजार का पुरस्कार बिहार की सर्वोत्तम हिंदी पुस्तक पर प्रतिवर्ष दिया जाएगा। महाराजा नवलकिशोर सिंह बेतिया के राज्य के अधिपति थे–साहित्य और संगीत के अत्यंत प्रेमी। उनकी स्मृति की रक्षा का इससे बढ़कर कोई दूसरा आयोजन नहीं हो सकता था! लेकिन, कैसी सोचनीय स्थिति कि जिस बेतिया राज्य की संपत्ति से कितने लोग लखपति हो गए, उसी के अधिपति की कीर्तिरक्षा के लिए यह छोटी-सी रकम भी अब तक नहीं दी जा सकी! बेतिया राज्य सत्कार के राजस्व-विभाग के अधीन है। अत: हम एक बार फिर इस विषय की ओर बिहार सरकार के मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह और राजस्व-मंत्री माननीय श्रीकृष्णवल्लभ सहाय जी का ध्यान आकृष्ट करते हैं।


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Artist: Ustad Mansur
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